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विषयानुक्रमणिका । विषय १ ) भ्रूमिका ( पं० कृष्णविद्दरी मिश्र-लिखित ) २ ) ग्रंथकार का वक्तव्य कि ( ३ ) अलंकारों की अलुक्रम सूची ( ४ ) मंगलाचरण ... ४ ( ५ ) अलंकार की सामान्य परिभाषा ( ६ ) शब्दालंकार की सामान्य परिभाषा ( ७ ) भनुप्रासादि शब्दालंकार निरूपण ( ८ ) अथोलकार की सामान्य परिभाषा
५
( & ) उपमादि अथोलंकार निरूपण . . .
(१० ) उस्यालूंकार की सामान्य परिभाषा (११ ) संसूष्टि
. ८१२) संकर'
५
(१३ ) अलंकारों के पिषय / १४) प्रंथ-निमोण-समय -
: १५) अलंकारों की मिन्नता-सुऔक सूचनाओं की सूची १६) अन्य कवियों और म्रंथों के उदाह्मत प्यों की सुची ३८८
: १७) सद्दायक म्रंथों की सूची (१८) सम्मतियाँ
तक
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भूमिका अलंकार-शास्त्र
आज से एक सहस्र वर्ष पूछे क्षेमेद्र नाम के उक्धट विद्वान ने 'कवि-कंठाभरण” नाम का एक पंथ लिखा। इसमें कवित्व- शिक्षा प्राप्त करने के उपाय बताए गए हैं। महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ भा ने हाल ही में 'कवि-रहस्य” नाम की एक युस्तक लिखी है | इस पुस्तक में आपने केबल हिंदी जाननेवालों के लिये क्षेमेंद्रजी के विचारों का स्पष्टीकरण कर दिया है। उक्त पुस्तक के पृष्ठ ६० पर भा महोद्य लिखते हैं--
“कवि-कंठासरण के अनुसार शिक्षा की पाँच कक्ताएँ होती हैं-
. (१) “अकवे: कवित्वाप्तिः कवित्व-शक्ति का यरत्किचित्
खंपादन | (२) 'शिक्षाप्राप्त गिर: कवे:? पद-रचना-शक्ति संपादन करने के बाद उसकी पुश्टि करना ।
(३ ) “चमत्कृतिश्च शिक्षाप्ती! कविता-चमत्कार ।
(४ ) 'गुणदोषोद्वति:” काव्य के गुण-दोष का परिशान ।
(४ ) 'परिचयप्राप्ति! शास्त्रों का परिचय |”
इसके आगे भा महोदय ने कवित्व-शिक्षा की इन पाँचों कक्षाओं का विस्तार-पू्वंक उदाहरण-समेत वर्णन किया है। जैसरी कत्ता अर्थात् 'कविता-चत्मकार”! के विषय में आपका
कथन है-- “इस तरह जो कवि शिक्षित हो चुका उसके काव्य में चअमत्कार या रमणीयता परम आवश्यक है । विना रमणीयता के
(२)
काव्य में काव्यत्व नहीं आता | पंडितराज जगन्नाथ ने इसीलिये काव्य का लक्षण ही ऐसा किया हैे--“रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यम! यद्द रमणीयता इस प्रकार होती है--
(१ ) अविचारित रमणीय (७) शब्दार्थोभयगत रमणी-
(२) विचारयमाण रमणीय यता
(३ ) समस्तसूक्तव्यापी (८ ) अलंकारगत ग्मणीयता (७ ) सूक्तेकदेशदश्य (& ) रसगत रमणीयता (४ ) शब्दगत रमणीयता (१०) रसालंकारोभयगत रम- (६) अर्थगत रमणीयता णीयता”?
डपर्यक्त उद्धरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि क्षेमेंद्र जी की कवित्व-शिक्षा की तीसरी कक्ता अथ्थांत् 'कबिता-चमत्कार! में 'अलंकार-रमणीयता? का आदरणीय स्थान है| यह अलंकार- रमणीयता अलछंकार-शास्त्र के ग्रंथों का परिशीलन करने से प्राप्त दो सकती है। ऐसी दशा में यह स्पए्ट हो जाता है कि कवित्व- शिक्षा के लिये अलंकार-शारत्र का अध्ययन आवश्यक है। संस्क्रत के घिद्दान् आचार्यो ने काव्य-शास्त्र का बहुत गंभीर विवेचन किया हे । इस विवेचन में अलंकार-शास्त्र का अत्यंत सूक्षम और पांडित्यपूर्ण परिचय दिया गया है। काव्य-शास्त्र एवं तदंतगंत अलंकार-शास्त्र पर संस्क्रत के जिन आचार्यो ने प्रकाश डाला है उनमें भरत, व्यास, भोज, आनंदवरद्धनाचारय, घामन, रुद्रट, दूंडी, वाग्मट, जयदेव, भानुदत्त, मम्मट, शोभाकार, राजानक रुय्यक, अप्पयदीक्षित, विश्वनाथ, गोविंद, हेमाचार्य, पिद्यानाथ, विश्वेश्वर, यशस्क, विश्वनाथदेव, केशव और जगन्नाथजी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । 'साहित्य-दर्पण” में विश्व- नाथजी ने अलंकार का जो छच्षण दिया है घद्द विद्धत्समाज में
( ३)
अधिक छोक-प्रिय है और मुझे भी अत्यंत उपयुक्त जान पड़ता है। बह लक्षण इस प्रकार है-- “शब्दाथेयोरस्थिरा ये धमौ: शोभातिशायिन: । रसादीनुपकुवन्तो5लझ्लारास्तेड्ठदादिवत्ू. ॥?
शब्दार्थ के ये शोभातिशायी धर्म-अलंकार-कृत्रिम नहीं हैं। कवि की उक्तियों में इनकी आवृत्ति सहज में ही हो जाया करती है । मामूली बोलचाल में भी अलंकारों का प्रयोग आप से आप होता रहता है। प्राचीन आचार्यो ने इन शोभातिशायी धर्मो का विश्लेषण कर डाला है, फिर उनको »४ंखलाबद्ध करके उनका वैज्ञानिक विभाजन संपादित करके प्रत्येक विशेष घर्म का नाम कल्पित कर लिया है| इन नामों के अलग-अलग लक्षण निर्धारित किए गए हैं.। इन लक्तणों के बनाने में अत्यंत सूचम बुद्धि का परिचय दिया गया है। रूच्षणों के अलुसार उदाहरणों का खंकलन किया गया है जिनमें लत्षण-लच्ष्य का खंद्र समन्वय है। अनेक अलंकार स्थूल वुद्धि से देखने पर एक से जान पड़ते हैं; पर जब सूचम दृष्टि से उनपर विचार क्रिया जाता है तो उनका पार्थक्य स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। आचार्या ने इन भिन्नता की बारीकियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। अलंकार- शास्त्र में इन्हीं सब बातों की चर्चा है। इस शास्त्र के बन जाने के बाद बहुत से नीचे दर्ज के कवियों ने सचमुच अपने काव्यों में ज़बदस्ती छा-छा कर अलंकार ढूँखे हैं | ऐसे काव्य कज्रिम और भद्दे जान पड़ते हैं। पर जिन सत्कवियों ने अलंकारों को अपने काव्य में स्वाभाविक रोति से आने दिया है उनका काव्य उज्वछ मणि की तरह जगमगाता है। भारतीय काव्य में अलं- कारों का जो प्रमुख स्थान है वह पाश्चात्य काव्य में नहीं है। हमारे यहाँ के सर्व-श्रेष्ठ कबि कालिदास की जब प्रशंसा की जाती है
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तब सबसे पहले उनकी उपमालंकार के प्रयोग की सफलता का डह्लैख होता है-उपमा कालिदासस्य-पाश्चात्य खमालोचकों को इस प्रकार की प्रशंसा कुछ अखरती है; परंतु अलंकारों की महत्ता मानने को वे विवश हैं । देखिए ऐसे प्रसंग के संबंध में प्रसिद्ध अँगरेज़ समालोचक “'कीथ! क्या कहता हे--
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हिंदी में आजकल जो दल अलंकारों का विरोधी है बह भी यदि देखेगा तो उसे जान पड़ेगा कि आधुनिक रहस्यवादी झ्थवा छायावादी कवियों की रचनाओं में भी आप से आप अलछंकारों की छाप बैठती रहती है । सर्वथा अलंकार-दीन कविता बना सकना कठिन काम है | कविचर फ्ेशधदास ने 'कविप्रिया! में एक छुंद् दिया है जिसकी बाबत उनका कथन हे कि इसमें अलंकार नहीं है; परंतु ध्यान से देखने पर उसमें फई अलंकार साफ दिखलाई पड़ते हैं । केशवदासजी ने अलंकार न छाने का उद्योग किया; पर सफल न द्वो सके। प्राचीन शआचार्या ने अर्ू- छकार-शास्त्र की रचना फरने में बड़ा परिश्रम किया है। इस परिश्रम का श्रनुभव वही छोग कर सकते हैं जो अध्यवसाय के साथ इस शास्त्र का अध्ययन करंगे। जो लोग पहले से ही इसकी अलुपयोगिता मानकर इसकी ओर निगाह भी उठाना नहीं चाहते, मुझे खेद है कि वे इस शास्त्र की द्यापकता और महत्ता का अनुमान नहीं कर सकते हैं | प्राचीन श्राचायों ने जिन अलछं- कारों के नाम कल्पित किए हैं उनके अतिरिक्त भी नये अलकारों की स्टृष्टि को जा सकती है। समय-समय पर होनेघाले परघर्त्ता
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आचारयों ने ऐसा किया भी हे । उन्होंने अपने पूर्व वर्त्ती आचार्यो के माने अलंकार-भेदों और उनके लक्तणों का खंडन ही नहों किया है; वरन् कसी-क्भी नये अलंकारों की कल्पना भी की हे । आज भी यदि कोई सूच्मदर्शी विद्वान ऐसा करे तो उसका यह धप्रयल्ल उपहास्य नहीं माना जा सकता है | यद्यपि ऐसा करने थे. लिये अत्यंत गंभीर अध्ययन और व्यापक विद्वच्चा की आवश्यकता है | निदान कवित्व-शिक्षा के लिये अलंकार-रमणीयता का शान आवश्यक है । यह ज्ञान अलंकार-शास्त्र के पश्रंथों के अध्ययन से भली भाँति समझ में आता है। इसलिये अलंकार-शास्त्र कवि के लिये उपयोगी विद्या है। 'कवि-रहस्य! में का महोदय ने पृष्ठ ५२ पर शायद “काव्य-मीमासा”' के आधार पर लिखा है--
“काव्य करने के पहले कवि का कत्तेव्य है, उपयोगी विद्या तथा डपविद्याओं का पढ़ना और अनुशीलन करना । नाम-पारा- यण, घातु-पा रायण, कोश,छुंद्: शाख्र, अलंकार-शास्त्र--ये काव्य की उपयोगी विद्याएँ हैँ | गीत-चाद्य इत्यादि ६७४ कलाएँ “उपविद्या? हैं । इसके अतिरिक्त सुजनों से सत्कृत कवि की सन्निधि ( पास बैठना ) देशवार्ता का ज्ञान, विदग्धवाद ( चतुर लोगों के साथ बातचीत ), छोक-्थवहार का ज्ञान, विद्वानों की गोष्टी और आचीन काव्य-निबंध--ये काव्य की “माताएँ? हैं।”
मेरी तुच्छ सम्मति में फेचल कवि के ही लिये नहीं; वरन् जो कोई भी काव्य का मर्म समझना चाहता दो उसके लिये भी अलंकार-शास्त्र का ज्ञान आवश्यक प्रतीत होता है।
संस्कृत में अलंकार-शार्त्र का विशद् विवेचन देखकर देशी भाषाओं में भी इस शास्त्र की चर्चा फैली और समय-समय पर मिन्ष-भिन्न भाषाओं में अलंकार-शासत्र सममानेवाले प्रंथ लिखे गए। इनके मूछाघार प्राय: संस्क्रत-प्रंथ ही रहे और इनके द्वारा
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अलंकार-शाख्र के शान की वृद्धि यद्यपि संस्कृत न जाननेबाली जनता में हुई फिर भी देशी भाषाओं में इस शास्त्र के लिखने- घालों में कोई ऐसा विद्वान् नहीं हुआ जो संस्कृत के अलंकार- शार्शों की विचेचना की अपेच्ता कोई विशेष बात लिख सके; इसलिये अलंकार-शास्त्र का गंभीर अध्ययन संस्क्रत के पंडितों के दी आधिपत्य में रद्दा । 'रख-गंगाधर! के रचायिता पंडितराज जगन्नाथ ने काव्य-शासत्र की जैसी गहन विवेचना की बैसी उनके बाद संस्कृत के अन्य किसी पंडित से भी नहीं बन पड़ी। कहते हैं हिंदी कविता के प्रसिद्ध आचार्य और “रख-रहस्य! भ्रंथ के रचयिता कविषर कुलपति मिश्रजी पंडितराज जगन्नाथ के शिष्य थे । ऐसे उद्धट विद्वान के शिष्य दोकर भी कुलूपतिजी ने हिंदी में अलंकार-शाख्र पर कोई परम गंभीर विवेचनापूर्ण अ्रंथ नहीं लिखा | यह द्िदी-साहित्य का दुर्भाग्य ही था। फिर भी उनका “रस-रहस्य? ग्रंथ दिदी के अन्य बहुत से काव्य-शास्त्रीय भ्रंथों से अच्छा हे।
हिंदी में अलंकार-शास्त्र के ग्रंथ
हिंदी के पुराने कवियों ने अलंकार-शास्त्र से संबंध रखने- घाले भ्रंथों की रचना प्रचुर परिमाण में की है। इनमें से कुछ अंथ तो प्रकाशित हो गए हैं; पर अधिकांश अब तक अप्रकाशित हैं। यदि अलंकार-शास्त्र संबंधी सभी ग्रंथ एकत्रित किए जायें तो उनकी संख्या सैकड़ों तक पहुँचेगी। हिदी-साहित्य के इति- हास में ऐसे ग्रंथों का पक विशेष स्थान है। जो लोग हिंदी के पुराने काव्य साहित्य के संरक्तण के पक्तपाती हैं उनका यह पवित्र कर्च॑व्य दे कि इन ग्रंथों के नष्ट हो जाने अथवा विस्म्ात के गर्भ में विलीन द्वोने के पूबे ही कम से कम एक सूची बनालऊे और
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श्राप्त अ्रंथों की हस्तलिखित प्रतियों को एक स्थान पर एकज्रित फरले एवं महत्वपूर्ण ग्रंथों के प्रकाशन का कार्य आरंभ कर दें। अनुमान तो यह किया जाता है कि इस समय जितने ग्रंथों का पता है उसके दुगुने अ्रंथ उपेत्षा और अलावधानी के कारण नए हो चुके हैं । इस समय के कुछ काव्य-शास्त्र के विद्वानों का कहना है कि इन ञ्रंथों के एऋत्वित करने में जो परिश्रम और व्यय होगा उससे हिदी-साहित्य का उपेक्ताकृत उपकार कम होगा क्योंकि एक तो इन ग्रंथों में मौलिकता बहुत कम है दूसरे विषय के प्रतिपादन में कवियों ने सामाजिक सदाचार को उन्नति की ओर अपग्नसर न करके उसकी निरदंयता-पूवेक हत्या की हे। यह आत्तेप अलंकारों के उदाहरणों को प्रकट करनेवाले छुंदों के प्रति है। छक्षणों के संबंध में भी इन विद्वानों का कहना हे कि लक्षण निर्धारित करने म॑ सच्मदर्शिता का परिचय बहुत कम दिया गया है और अधिकतर लक्षण अपूर्ण, भ्रामक और अशुद्ध है, यह भी कहा गया है कि यदि इन प्रंथों के सहारे कोई अलं- कारों का शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना चाहे तो उसे सर्वेथा निराश होना पड़ेगा। यदि ये सभी आत्तेप ठीक हों--यद्यपि इनके ठीक माने जाने में बहुत कुछ संदेह हे--तो भी काज्य के इतिहास में हमारे आचायों का मानसिक विकास कैसा था, इसका पता तो ये प्रंथ दंगे ही । ऐसी दशा में इनका खंरच्तण अज॒प्युक्त नहीं कहा जासकता है। हिंदी कबिता के पुराने आचाये विद्वान थे अथवा मूखे इसका निश्चय तभी हो सकता दे जब उनके पंथ उपलब्ध हों । इतिहास का काम तो तथ्य का समय के अनुसार वर्णन करना है, फिर चाहे वह हमारे आजकल के विचारों के अनुकूल हो अथवा प्रतिकूछ। हिंदी के जो पुराने अलंकार-संबंधी प्रंथ मेरे देखने में आए है उनके पाठ से तो मेरा
( ८ )
यह घिचार है कि आचार्य के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करनेवाले हिंदी के अधिकांश पुराने विद्धान् प्रधान रूप से कवि थे और गौण रूप से आचार्य | तत्कालीन साहित्य-समाज अथवा अपने आश्रयदाता राजा के सम्मुख उनका प्रधान लक्ष्य अपनी कवित्व- शक्ति दिखलाने का था। उनको यशस्वी कवि होने में जो आनंद आता था वह अत्यंत सूच्मदर्शी आचाये होने में नहीं । उन्होंने यह मान सा लिया था कि आचाय॑त के ग्रंथ तो संस्कृत में है ही उनसे अधिक अब और क्या विवेचन किया जाय । उनके लक्षणों में उन्हीं संस्कृत-लक्षणों की घुँधली छाया पड़कर रह जाती थी, इन रक्षणों की विचेचना करने की प्रवृत्ति उनमें न थी। यही कारण है कि उनके लक्षणों में बह चमत्कार नहीं है जो डनके उदाहरणों में । कद आचायों के लक्षणों को देखने से तो ऐसा जान पड़ता है कि वे उनकी रचना हृदय की सच्ची लगन के साथ नहीं कर रहे हैं, चरन् पक बेगार सी भुगत रहे हैं । उनका हृवय छत््य में अपनी कवित्व-प्रतिभा प्रदर्शित करने को छुटपटा रहा है; पर लक्षण पहले देना आवश्यक है; इसलिये किसी प्रकार डससे अपना पिंड छुड़ाकर वे आगे बढ़ते हैं। पर यह बात सभी आखार्यो के विषय में नहीं फद्दी जा सकती। कुछ भी हो इस बात से तो कदाचित् कोई भी असहमत न होगा कि जैसे भी हो पुराने हिंदी-कवि-खंसार को जैसे आचार्य प्राप्त हुए थे यदि बैसे भी न होते तो दिदी-साद्ित्य अलंकार-शास्त्र की चर्चा से विछकुल कोरा रद्द जाता। शायद् अलंकार-शास्त्र की अपूर्ण बिवेचना की अपेक्ता तादशी कर स्वथा अभाव किसी को भी पसंद न पड़े । ऐसी दशा में हिंदी के जिन पुराने आचायों ने अलंकार- खंबंधी श्रंथों की रचना की है उनके प्रति कृतज्ञता के भाव प्रकट करने के सिवाय हम और कर ह्वी क्या सकते हैं। एक बात और
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है । हिदी-काव्य-शास््र का विकास जिस समय प्रारंभ हुआ उस समय शास्त्रीय विवेचना का काम संस्कृत के प्रकांड पंडितों के हाथ में था। क्या दर्शन, क्या वेदांत, क्या साहित्य, सभी शास्त्रों का विवेचन संस्कृत के पंडित छोग करते थे | हिंदी भाषा में लिखना विद्वान कहला सकने का साधन न था | फिर उसी हिंद्दी में शास्त्रीय विवेचना तो असंगत बात स्री मानी जाती थी । हिंदी के आचार्य संस्कृत के पंडितों के वातावरण में ही पनपे थे । चह वातावरण उनको हिंदी में अलंकार-शास्त्र की विवेचना करने के लिये प्रोत्साहन नहीं प्रदान कर रहा था | उनकी साहस न होता था कि संस्कृत के विशाल राज-मार्ग को छोड़कर अलंकार- शास्त्र की विचेचना की गाड़ी हिंदी के किसी निर्जेन गलियारो में चलाई जाय | संस्कृत के पंडितों के इस आतंक के फारण भी हिंदी में काव्य-शासत्र की आलोचना संकुचित दशा में रही। यह ठीक है कि वाद में यह आतंक बहुत कुछ कम हो गया; परंतु फिर तो जो बात चल पड़ी वही बनी रद्दी । उसमे फेर-फार नहीं हुआ । ; हिंदी में जिन विद्वानों ने अलंकार-शास्त्र-लंबंधी लक्तण-लक्ष्य- समन्वित अंथ बनाए हैं, उनका कुछ परिचय यहाँ पर दिया जाता है। इस परिचय में उन्हीं विद्वानों के ग्रंथ का उल्लेख किया जायगा जिनका उक्त शास्त्र के अध्ययन करनेवालों में विशेष प्रचार रहा है। इन विद्वानों में कुछ तो ऐसे हैं, जिन्होंने संपूर्ण काव्य- शास्त्र पर ग्रंथ लिखे हैं और उन्हीं में अलंकार-शास्त्र भी आ गया है। कुछ ऐसे हैं, जिन्होंने केचछ अलंकार-शास्त्र का निरूपण किया है तथा कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने संपूर्ण काव्य-शाखत्र पर भी लक्ष्य- लक्षण अ्ंथ लिखे हैं और अकेले अलंकार-शास्त्र पर भी । कद्दा जाता है कि पुष्प या पुष्य नाम फे एक कवि ने पहले-पहल विक्रम संवत्
ृ
( १० )
७०० के लगभग अलंकार-घिषयक एक ग्रंथ की रचना की । खेद है कि यह अंथ श्रव उपलब्ध नहीं हे। मालूम नहीं इस ग्रंथ में केवलछ अलंकार-शारत्र ही था अथवा काव्य-शासत्र के रस, ध्वनि आदि अन्य अंग भी ।
महाकवि केशवदास, चितामणि, कुलपति, भिखारीदास; सोमनाथ, देव, नाथ, एवं गुरदीनजी ने संपूर्ण काव्य-शास्त्र का विवेचन अपने पंथ में किया है । अलंकार-शार्त्र का निरूपण इन्हीं ग्रंथों के अंतर्गत हो गया है। केशवदास की “कविप्रिया? में अरललं- कारों का विशद् विवेचन है। चितामणिजी ने अपने 'कवि-कुल- क्रल्पतरु! में अलंकारों पर अच्छा प्रकाश डाला है। 'रस-रहस्य! में कुलपतिज्ञी ने अपने आश्रयदाता महाराजा रामसिह की प्रशंसा में बहुत से छंद दिए हैं जिनमें अलंकारों का छत्तण-लक्ष्य-सम- न्वित खुंदर स्पष्टीकरण हे। दासजी के 'कास्य-निर्णय' प्रंथ में अलंकारों का विस्तार-पूवेक »टंखलापूर्ण घर्णन है। सोमनाथजी के 'रख-पीयूष-निधि' में भी अछंकारों का बहुत सरल और सहज बोधगस्य निरूपण है । महाकवि देवजी ने काव्य-शास्त्र पर व्यापक रूप से जो ग्रंथ लिखे हैं, उनमें अलंकारों का भी वर्णन है। देव- जी ने 'शब्द-रसायन' में अलंकारों का बहुत प्रोढ़ वर्णन किया है । हिंदी के पुराने आचार्यों में से देवजी ने उपमा का जैसा विस्तृत खर्णन इस प्रंथ में किया हे वैसा शायद हिंदी के अन्य किसी आचार्य ने नहीं किया है। 'भाव-विलास” में भी अलंकारों का चर्णन है; पर वह उतना विशद् नहीं। देवजी अलंकारों में “उपमा? और '“स्वभाघोक्ति! को ही मुख्य मानते हैं । श्रीपति तथा देवकीनंदन एवं आर कई आचार्यों ने अलंकार-शास्त्र पर अ्रलूम भी अंथ लिखे हैं और कविता फे सभी अंगों पर लिखे अपने अंथों में भी अलंकार-शासत्र फा सुंदर विवेचन किया है। 'काच्य-
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सरोज” अथवा 'श्रीपति-सरोज' में अलंकारों का अलग 'दल' है ठथैव “अलंकार-गंगा” में केवल अलंकारों का ही निरूपण हे | महाराज जसवंतसिह, मतिरम, भूषण, रखिकसुमति, राजा गुरदत्तसिह, दलूपतिराय, बंसीधर, रघुनाथ, दूलह, शंसुनाथ, ऋषिनाथ, बैरीसाल, दत्त, नाथ,चंद्न, रामखिह, भान, बेनी, बेनीप्रबीन, पद्माकर, ग्वाल, प्रतापसाहि, रामसहाय, शिंब, कलानिधि, गोकुलनाथ, सूरति, हारिराम निरंजनी, लेख- राज तथा उत्तम्चंद् भंडारी आदि अनेक आचार्यो ने अलग-अलग अंथ बनाकर उनमें केवल अलंकारों ही का वर्णन किया है। इनमें मैंने जिन प्रंथों को देखा है उनमें भाषा-भूषण, ललित-ऊलाम, अलंकार-चंद्रोद्य, अलूुंकार-रज्ञाकर, काव्याभरण, टिकेतराय- प्रकाश, भाषाभरण, पद्मासरण, गंगाभरण तथा कंठामरण सुख्य हैं। रघुनाथ कवि का 'रखिक-मोहन' पंथ बड़ा खुंद्र है। “अलं- कार-रल्ाकर” भाषा-भूषण की एक प्रकार की टीका है। दूलह का 'कंठाभरण” सचमुच कंठ करने योग्य ग्रंथ है। “गंगाभरण' अ्ंथ मेरे पितामह लेखराजजी का बनाया हुआ है । इसमें सभी उदा- हरण गंगाजी पर घटाए गए हैं। गोकुलदास कायस्थ-कृत “द्ग्विजय-भूषण बड़ा अंथ है। इसमें पुराने आचारयों के उदाह- रण भी संकलित किए गए हैं और वज-भाषा-गद्य में उनपर कुछ पविवेचना भी की गई है| 'जसघंत-जसोभूषण' के रचयिता कवि- राजा मुरारिदानजी हैं। यह बहुत बड़ा ग्रंथ है। मुरारिदानजी ने अलंकारों के नामों को दही उनका लक्षण माना है। यही इस पंथ की विशेषता है। नाम में ही लक्षण की कल्पना करने से खींचा- तानी का बहुत कुछ आश्रय लेना पड़ा है और ऐसे उद्योग में सर्वत्र सफलता भी नहीं हुई है। 'जसवबंत-जसोभूषण” अलंकार- शास्त्र का आधुनिक प्रंथ हे औरए इसके रचयिता की इसके द्वारा
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ख्याति भी हुई है और द्वव्य-छाभ भी। सेठ कन्हैयालालजी पोद्ार का “अलंकार-प्रकाश! ग्रंथ विद्वत्तापूर्ण है। हिंदी में संस्क्ृत- आचायों की विवेचना को भलीभाँति समभाने का सबसे पहले सेठजी ने ही प्रयत्न किया है। हाल में सेठजी ने 'काव्य-कल्पदुम' नाम का एक अंथ लिखा है और “अलंकार-प्रकाश” को उसी का अंग बना दिया है। जगज्नाथप्रसाद भानु ने अपने 'काव्य-प्रभा- कर! ग्रंथ में अ्रलुंकारों के समभाने का अच्छा उद्योग किया हे यद्यपि इनका अलंकार-विवेचना का ढंग “अलंकार-प्रकाश” से बहुत कुछ मिलता है । श्रीयुत लाछा भगवानदीन-राचित “अलं- कार-मंजूषा! भी अच्छा अंथ है । पं० रामशंकरजी शुक्ल “रखाल' ने अलंकार-पीयूष” नामक पक अ्ंथ गत वर्ष प्रकाशित किया है | अलंकार-शासत्र पर अँगरेज़ी ढंग से जैसी समालोच- नाएँ लिखी जाती हैं 'अछंकार-पीयूष” उसी का एक नमूना है । हिंदी में अपने ढंग की यह अनूठी पुस्तक है। कुछ विद्वानों ने 5 इसमें प्रकट की गई बाता फा खंडन भी किया है; पर इसमें संदेह नहीं कि इस अंथ में जितने विस्तार के साथ अलंकार- शास्त्र के ऐेतिहालिक विकास पर बिच।र किया गया है, उतना हिंदी के अन्य किसी ग्रंथ में नहीं है ।
जहाँ हिंदी के पुराने आचार्यो का प्रधान लद्दय अलंकारों के उदाहरणों में अपनी कवित्व-शक्ति दिखछाने का था, वहाँ आज- कल अलंकारों के छत्तणों को विस्तार के साथ समभाने और उनकी बारीकियों को दिखलाने की ओर अधिक ध्यान दिया जाने छगा है। यह काम अधिकतर अलंकार-शास्त्र पर लिखे गए संस्कृत-प्रंथों के आधार पर हो रहा है। अलंकार-शास्त्र की ऐतिहासिक विचेचना का मूलाधार उक्त शास्त्र पर छिसी गई अँगरेज़ी की आलोचनाएँ हैं। हमको इस बात के मानने में कुछ
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भी संकोच नहीं है कि इस समय पहले की अपेक्षा हिदी में अलंकार-शाख का अध्ययन गंभीरता के साथ हो रहा हैं। संस्कृत के अलंकार-शाख्त्र के कई अ्रंथों के हिंदी अनुवाद भी हो गए हैं इससे केवल हिंदी जाननेवाले विद्यार्थियों को बड़ा खुभीता हो गया है। पं० शालत्रामजी शास्त्री ने 'साहित्य-द्पण! पर हिदी में 'बिमलए टीका लिखी है। 'द्पेण” में अश्रलंकार-शासत्र का अच्छा विधषेचन है। जयदेवजी के 'चंद्रालोक' का श्रीव्रजजीवन- दासजी ने अच्छा अलुवाद किया है। 'काव्य-कट्पद्दुम' में 'काव्य- प्रकाश” से बहुत कुछ सहायता ली गई है । हिंदी के पुराने कवि ऋषिनाथ ने 'काव्य-प्रकाश” का अनुवाद किया था। उनका बह ग्रंथ अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है। यदि मली भाँति संपादन कराके उसका प्रकाशन किया जाय तो उससे हिदी-लाहित्य का बड़ा उपकार हो ।
इस प्रकार जहाँ एक ओर हिंदी के काव्य-संसार में अलं- कार-शास््र के गंभीरता-पूचेक अध्ययन का प्रयत्न हो रहा है चहाँ दूसरी ओर हिंदी के कवि-समाज में एक दल अलंकार-शख्त् के सर्वेथा विरुद्ध उठ खड़ा हुआ है । वह काव्य में अलूंकार- शास्त्र के महत्त्व को मानने से इनकार करता है| अलंकार-प्रधान कविता को वह अत्यंत निम्न कोटि की कविता मानता है। यद्यपि प्रायीन समय में भी रखस-प्रधान और अलंकार-प्रधान कविता को खेकर वाद-विवाद होते थे; पर अलंकार-प्रधान कविता की सार-दीनता उस समय इतने जोरों के साथ नहों घोषित की जाती थी | पर आज तो कवियों का एक समुदाय अलंकारों के नाम से भी चिढ़ता है इस दल के कुछ कषि तो सचमुच विद्वान हैं और अलंकारों को हृदय-स्पशिनी कविता का घातक समभक्तर उनका विरोध करते हैं; पर कुछ कवि ऐसे हैं
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जो अ्रविद्वान् हैं और शास्त्र के अध्ययन में अपने को असमर्थ पाकर उक्त शास्त्र की महा ही अस्वीकार करते हैं ।
हिंदी के अलंकार-शास्त्र-संबंधी अंथों का ऊपर जो संक्षिप्त परिचय दिया गया है उससे यह बात प्रकट है कि हमारी हिंदी भाषा में हूस विषय के ग्रंथों की कमी नहीं है, फिए भी शास्त्रीय €ंग से अलंकारों के लक्षण देनेधाले एवं उन लक्षणों का उदा- डरणों में स्पष्ट समन्वय दिखलानेवाले अलंकार-ग्रंथ हिंदी में अब भी बहुत थोड़े हैं। पुराने अलंकार-प्रंथों में छक्तरा प्राय: पद्य में दिए गए हैं, जिससे उनमें स्पण्टता का अभाव है। जिन दो-एक आधुनिक प्रंथों में लक्षण गद्य में दिए गए हैं उनमें लक्तेणों के साथ उदाहरणों का समन्वय भली भाँति नहीं दिखाया गया। उदाहरणों में यह त्रुटि दृष्टगत होती है कि एक तो उनकी संख्या कम है। दूसरे वे प्राय: संस्क्त-पद्यों के अनुवाद हैं। अनुवाद होने के कारण ऐसे बहुत से पद्यों में मूल की सरसता न्यून मात्रा में दिखलाई पड़ती है। इसी कमी को पूरी करने के लिये भ्रीयुत सेठ अजुनदासजी फेडिया ने इस 'भारती- भूषण अंंथ की रचना की है। मेरे खयाल से फेडियाजी को इस श्रंथ के बनाने में अच्छी सफलता प्राप्त हुई है। मेरा विश्वास है दिदी-अलंकार-शास्त्र के जिज्ञासु इसग्रंथ से बहुत लछाभ उठाबंगे।
अंथकता का परिचय
यहाँ पर 'भारती-भूषण' के रचयिता भ्रीअजुनदासजी केडिया का भी संक्तिप्त परिचय दे देना आवश्यक प्रतीत द्वोता है।
राजपूताना की प्रसिद्ध रियासत जयपुर में 'पहनसर” नामक एक गाँव है। इसी गाँव में संघत् १६१४ में श्रीअ्रजुनदासजी
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केडिया का जन्म हुआ था। ये जाति के अग्नवाल बैश्य हैं । इनके पितामह सेठ नंद्रामजी का बड़ा नाम था। उन्होंने सं० १६१७ में बीकानेर राज़ के अन्तगत 'रतननगर' नाम का एक शहर बसाया। यह शहर बड़ा ही भव्य है और अब भी मौजूद है। सारे भार- तबष में और विशेष करके बीकानेर के राज-दरबार में एवं मार- घाड़ी-समाज में सेठ नंदरामजी की बड़ी प्रतिष्ठा थी। इन्होंने पंजाब में अँगरेज़् सरकार से फिरोज़पुर के पास दे गाँव खरीदे । यह भू-संपत्ति इनके वंश्जों के पास अब भी है। श्रीअजु नदालजी केडिया का बाल्यकाल 'रतननगर? में ही द्यतीत छहुआ। इनको अक्तर-ज्ञान श्रीसूयंमललजी जालान ने कराया। इनके काव्य- गुरू बारहठ जाति के प्रसिद्ध कवि स्वामी गणेशपुरीजी थे । फिर भी इन्होंने अधिकतर ज्ञानोपार्जन स्वयं पुस्तकों का अवले।कन करके प्राप्त किया । संस्क्रत, फारसी, गुजराती, गुरुमुखी, उदूं एवं हिंदी का इनकों अच्छा ज्ञान है। अँगरेज़ी में भी आपकी गति है। आप पुराने ढंग के आस्तिक हिंदू हैं। व्यापार आदि में अच्छी सफलता प्राप्त करने के बाद इस समय आप काशी- सेवन कर रहे हैं। यहाँ इनका सारा समय दिद्याव्यसन और भगवद्धजन में न््यतीत होता है। कविता पर आपका बड़ा अनुराग है। मारवाड़ी जाति में आपका आदर और ख्याति है। पं० रामनरेशजी त्रिपाठी ने मा्चे सन् १६३० की “सरस्वती! में फेडियाजी की विस्तृत जीवनी प्रकाशित की है ।
केडियाजी कवि भी हैं और काव्य-कला के पारखी भी। इसके अतिरिक्त संगीत आदि अन्य कई कलाओं पव॑ं ज्योतिष और चैद्यक आ्रादि विषयों का भी आपको ज्ञान है । इन्होंने अपनी कविताओं का संग्रह “काव्य-कऋलानिधि! नाम से तैयार किया है। यह तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग का नाम 'रखिक-
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संजन! है इसमें श्ंगार रस की कविताएँ हैं। दूसरे भाग का नाम “नीति-तवनीत” है इसमें नीति-संबंधी पद्य हैं। तीसरे भाग का नाम 'ैराग्य-बैभव! है इसमें भक्ति-वैराग्य-संबंधी ग्वना है| फेडियाजी सत्कृवि हैं, इनका यह ग्रंथ भी शीघ्र प्रकाशित होगा । प्रस्तुत 'भारती-भूषण” अ्रंथ में अलंकार- शास्त्र का विवेचन है । इसके देखने से केडियाजी की अलंकार- मर्मजझ्ता का परिचय मिलता हे। केडियाजी खुखी ग्ृहस्थ है। इनके दो पुत्र हैं । बड़े पुत्र का नाम शिवकुमारजी है। आप बड़े ही मिलनसार और कविता-प्रेमी हैं। आप भी कवि हैं । आप ही के आपय्रह और स्नेह से प्रेरित होकर मुझे 'भारती-भूषण”' की भूमिका लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
भारती-नूषण
भभारती-भूषण' ३८३ पृष्ठों का एक बड़ा अंथ है। जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूँ इसमें अलंकार-विषय का प्रतिपादन बड़े अच्छे ढंग से हुआ है । इसकी शैली प्राचीनता की परिपारी में बँघी हुई है। आजकल अंगरेज़ी ढंग से पुस्तकों को आकर्षक बनाने का जो उद्योग किया जाता है, वह इसमें बहुत कम है । अलं- कार-शार्त्र में बिचाद की बहुत बड़ी गुंजाइश हे । एक साधारण से लक्षण को लेकर अलंकार-शास्त्र के विद्वान गंभीर शास्त्रार्थ उपस्थित कर सकते हैं | उदाहरणों मे तो इस विवाद फा अब- खर पद-पद् पर है। जिस उदाहरण में एक शास्त्रश एक अलंकार बतछाता है उसी में दूसरे को दूसरे अलंकार की सत्ता प्रतीत हो सकती है। इस प्रकार का मतभेद् स्वाभाधिक है और ऐसे मतमभेदों को लेकर विवेचन-कार्य होने से ही अलंकार-शास्त्र औदढ़ता को प्राप्त हुआ है। केडियाजी के इस श्रंथ में ऐसे बीसों स्थल
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उपलब्ध हो सकते हैं, जहाँ पर शास्त्रार्थ का पूरा मौका है, यह मी असंभव नहीं है कि आलेचचक महोदयों को फहीं-कहीं पर फेडियाजी का मत भ्राँत स्थापित करने में सफलता भी प्राप्त हो। अलंकार-शास्त्र ही ऐसा है जिसमें उक्त शास्त्र के विशेषज्ञों को ऐसी सुविधाएँ बराबर मिल सकती हैं; पर इतनी बात में निस्संकोच कह सकता हूँ कि केडियाजी ने अलंकारों और डनके रक्तणों को सरल, स्पष्ट ओर अविवादास्पद बनाने में कोई बात नहीं उठा रखी है ।
प्रस्तुत पुस्तक “भारती भूषण” में इस बरिषय की अन्य पुस्तकों की अपेक्ता कौन-कौनसी विशेषताएँ हैं. यह जान लेना भी आवश्यक है। स्वयं लेखक महोदय ने इस संबंध में मुझे अपने बिच(र दिए हैं । पुस्तक को ध्यान-पूर्वक देखने से लेखक के निम्न छिखित विचार यथार्थ जान पड़ते हैं--
(१) जिन अलंकारों के कई भेद हैं उन अलंकारों में से बहुत कम ऐसे हैं. जिनके सूछ रच्तण अन्य प्ंथों में मिलते हों । चहाँ पर भेदों के ही मिन्न-भिन्न रत्तण छिखे हुए हैं; कितु इस अंथ में ऐसे सभी अलंकारों के मूल लच्तण इस ढंग से अलुस्यूत करके लिख दिए हैं कि उनके जितने भेद हैं उन सबमे॑ वे घटित हो जाये । नमूने के तौर पर निदर्शना, पर्यायोक्ति, बिभावना, विशेष, पर्याय उदात्त, देतु आदि देखे जा सकते हैं ।
(२) अधिकांश भाषा-अलंकार-म्ंथों के उदाहरण चंद्रालोक, कुबलयानंद आदि के संस्कृत-उदाहरणों के अजुवादित रुप ही पाए जाते हैं, किंतु प्रकृत पुस्तक के उदाहरणों में न तो अल्य कवियों द्वारा अजुवादित प्यों को स्थान दिया गया है और न स्वयं प्रंथकार ने किसी का अजुवाद किया है।
(३ ) इस समय के प्रचलित दो पंथ अलंकार-प्रकाश और
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अलंकार-मंजूषा ( चतुर्थावत्ति ) हैं जिचका कोई उदाहरण इसमें नहीं दिया गया है। उक्त श्रंथों से उदाहरण न लेने से खेखक को बहुत बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा क्योंकि हिदी-साहित्य में से चुनकर अच्छे-अच्छे उदाहरण उनमें पहले से दी दिए जा चुके हैं फिर भी “जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी चैठ” के अलुसार इसमें भी उत्तमोत्तम और नवीन उदाहरण पाठकों को मिलेगे।
(४) अन्य प्रंथों में प्रायः वक्रोक्ति, श्लेप, विद्गतोक्ति आदि कठिन अलंकारों के उदाहरण एक-एक ही मिलते हैं; वरन् सरल अलंकारों में भी कद्दी-कर्हीं एक से ही काम चलाया गया है; परंतु केवछ एक उदाहरण से विद्यार्थी को न तो संतोष ही होता है और न अलंकार ही भली भाँति हृदयंगम हो पाता है; इसलिये इसमे प्रत्येक भेदोपभेरों तक में कम से कम दो उदाह- रण तो ( अनिवाय नियम से ) अवश्य मिलेगे। अन्यथा प्राय: भेदों में तो तीन-चार तक दिए गए हैं। कुछ भेद ऐसे भी हैं जिनमें इससे भी अधिक हैं; कितु इतनी अधिक संख्या में भी उदाहरण नहीं दिए गए हैं जिससे गड़बड़ी होने की संभावना हो जाय।
(४५ ) अलंकार के छक्तण से उदाहरण का मिलान स्पष्ट कर देने से उदाहरण के ठीक-ठीक घटित होने का निश्चय हो जाता है और अलंकार की सूक्मता भी पाठकों की समझ में भली भाँति आ जाती हैं। इसीलिए संस्क्ृत-प्रंथों में समन्वय ( मिलान ) सबविस्तर देखे जाते हें। कितु भाषा-प्रंथों में से “अलंकार-प्रकाश” में तो इस बात पर कुछ ध्यान रखा गया है, अन्य प्रंथों में नहीं। “भारती-भूषण? में प्रत्येक उदाहरण की “रुपष्ट ज्याख्या की गई है। एक ही भेद के कई प्रकार के उदाहरण
( १& )
दोते हैं । यद् उनकी व्याख्या न की जाय तो उनमें किस प्रकार -बद अलंकार किस स्थल पर है, इस बात का पूरा पता नहीं रूग सकता; और यदि उस लक्षण से वदह् उदाहरण नहीं मिलता या कमर मिलता है तो उसका पता भी व्याक्ष्या करने से चल जाता है।
(६) अलंकारों के छक्तण, मिलान, सूचनाएँ आदि इस भ्रंथ में यथासाध्य सरल भाषा में लिखे गए हैं । रलच्छेदार शब्दाघचली बनाकर क्लिष्ठता नहीं आने दी गई है। भाषा में सीधापन है, कदाचित् इससे रोचकता कम मिले; कितु यद्द लक्षण-प्रंथ है, इसमें उपन्यासों की भाषा रखने से ग्रंथ का गौरव बढ़ने की अपेक्ता कम ही होता ।
(७) मिलते-ज्ञुछते अलंकारों क्री भिन्नता-बोधक सूचनाएँ अधिक संख्या में विस्तार-पूर्वंक लिखी गई हैं। इन सबकी सूची भी परिशिष्ट में दे दी गई है।
(८) आज-कल ग्रंथों के मुद्रण में प्राय: एक-एक अच्तर और पंक्ति का संकोच किया जाता दै। इसमें बेला नहीं किया गया। छपाई बहुत स्पष्ट और कई प्रकार के टाइपों में बड़े परिश्रम से कराई गई है।
( & ) इसमें पूरे ७४० उदाहरण दिए गए हैं; जिनमें ३७४ स्वयं लेखक के निर्माण किए हुए हैं. जो प्रत्येक भेदोपभेद में नियमित रूप से दिए गए हैं, शेष ३७४५ उदाहरण अन्य प्राचीन- अबवांचीन उत्तमोत्तम कवियों के हैं जो बहुत अधिक परिश्रम से खोज करके दिए गए हैं | इनमें छगभग १२५४५ कवियों की कविताएँ देखने को मिलेंगी। इनसे पाठकों को 'एका किया दयर्थकरी प्रसिद्धाः के न्यायानुसार संग्रह-प्ंथ का भी आनंद प्राप्त द्योता रदेगा।
( २० )
इन कविताओं की सूची पुस्तक के अंत में दी गई है। षर्तमान क्रषियों के नये उद्गदरण ढूँढ़कर दिए गए हैं। इन ७४० उदा- दरणों में प्राय: सभी विषयों की कविताएँ आ गई हैं। इसके अतिरिक्त छत्तण, मिछान, सूचनाओं और टिप्पणियों में भ्रमाण- स्वरूप दिए हुए और भी बहुत से पद्य हैं।
(१०) बहुत सी खो जपूर्ण नई बातें इस प्रंथ में बड़े परिश्रम से लिखी गई हैं और उनके संबंध में काशी के बड़े-बड़े घिद्वानों से भी परामर्श किया गया है। ये बातें बहुत उपयोगी हैं । ये आय: टिप्पणियों और सूचनाओं में लिखी गई हैं। इनका कुछ
ब्यौरा इस प्रकार है--
१ पृष्ठ रे टिप्पणी नंबर १
२७० १४ सूचना
३७” १४ पिशेष सूचना
४ ७” २१ खूचना
४ ७ 89 सूचना
६ ” १५७ टिप्पणी नं० १
७ ”? १३५ सूचना
रू ” १३७ सूचना
& ” १३७ घिशेष सूचना
१५० ” १४५ खूचना नं० २
११ ” १८६ विशेष सूचना + ।|॥ १२ ” २०२ खूचना नं० १ : * १३ ” २१२ टिप्पणी नं० २ ह ४ १७४ ” २६६ खूचना नं० १ * + , ६४ ” ४२२ खूचना नं० १ 5
(२१ ) १६ पृष्ठ ३८० सूचना १७ ” ३८२ अलंकारों के विषय #
अत में मुझे यही कहना है कि 'भारती-भूषण” अलंकार-शास्त्र का हिंदी में पक अनूठा ग्रंथ है। मेरा विश्वास है कि हिदी-जगत्
# 'भारती-भूषण” की जिन १० विशेषताओं का उल्लेख पंडितवर श्रीकृष्णविद्ारीजी मिश्र महोदय ने ऊपर किया है, उनमें जो जो नियम चतलाए गए हैं, वे सब यथार्थ हैं। उनके पालन की भोर हमने पूरा ध्यान रखा है । फिर भी विशेषता नंवर २ और दे (जो भूमिका के एष्ठ १७ में दो गई हैं ) के विषय में हम यद्द निवेदुव कर देना भावश्यक समझते हैं कि यदि उनमें छिस्ले हुए नियमों का पाऊन करने में कह्दी भूछ हो गई द्वो तो पाठर्ुगण हमें उसकी सूचना देकर उपकृत करेंगे और 'डसके लिये क्षमा करेंगे ।
“अलंकारों के घिषय” के संबंध में भी हम एक निवेदन कर देना चाहते हैं। एष्ट ३८२ ओर ३८३ में २७ भलंकारों के विषय लिखे गए हैं। इनमें से अधिकांश “अछंछार-आशय? नामक ग्रंथ के जाघार पर छिसखे गए हैं। हस ग्रंथ को ध्रीउत्तमचंद भंडारी नामक शत्कट विद्वान् ने बहुत डी परिश्रम-पूवंक लिखा है। इसमें देश का नाम मुरधर ( मरुस्थल )| राजा का नाम भीमपछ्तिंह और प्रंथ-निर्माण-समय विक्रमीय संवत् १८७७ विजयादशमी दिया हुआ है। इसमें ३२८ कलूंकारों का निरूपण है और - सुंदर-छुंदर उदाहरणों का संग्रद्द अत्यंत ध्य(न-पूर्वक किया गया है। “मिछते-जुरूते अलंकारों की भिन्नताएँ भी प्रचुर परिमाण में लिखी हुई हैं। इसकी एक हस्तलिखित प्रति इमारे पास है। हमारी यद्द धारणा है कि यदि यह प्रंथ सुचारु रूप से प्रकाशित किया ज्ञाय तो साहित्य-सं सार
के छिये बहुत छामदायक सिद्ध होगा। --मंथकतार ॥
€ २२ )
में इसका यथेष्ट आदर होगा । फेडियाजी की यह इच्छा थी कि. मैं इसकी एक बृदत् भूमिका लिखूँ। एक तो अलंकार-शास््र का में विशेषज्ञ नहीं हूँ; दूसरे मेरे पास समय का अभाव भी था; इस कारण फेडियाजी की इस इच्छा का पूर्ण रूप से पालन . करने में में असमर्थ रहा; इसका मुझे बड़ा खेद दै। यदि ईश्वर की छूपा से 'भारती-भूषण' का यह प्रथम संस्करण शीघ्र समाप्त हो गया, जिसकी मुझे दढ़ आशा दे, तो इसके दूसरे संस्करण में में अपने विचार अधिक बिस्तार के साथ लिखने को ज्े्टा करूँगा ।
लछक्षनक ] वैज्ञास कृष्णा सोमवती भमावस्पा. + कृष्णविहारी मिश्र । संबत् १९८७ | ८ ग ० ४ ०५.....० पं ग, ५६०५०/०५-८ | ४ स्ण्र् हि कह 2) | (242०५ ' > (/ [६४
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श्रीहरिः ग्रंथकार का वक्तव्य >चपटम्ए भी टिक बेद-वदनि विधि-बदन बसि, बिघन-बिनासन बान | वंदों बानि विनायकहु, बितरहु बुद्धि-बविधान ॥
काव्य और साहित्य
काव्य” और “साहित्य? इन दोनों शब्दों फा प्रयोग शास्त्रों में भी होता है और व्यवहार में भी। कुछ लोग इन दोनों शब्दों को पर्यायःबाचक समभते हैं; कितु शास्त्रकारों का यह मत नहीं है। पर्याय-चाचक शब्दों का वह मुख्य घमं एक ही डुआ करता है जिसे शास्त्रकारों ने 'शक्यताबच्छेदक धर्म' कहा है। जैसे 'घट” और “कलश? ये दोनों पर्याय-चाच्ी शब्द हैं, क्योंकि इनका मुख्य धर्म 'घटत्व” एक ही है। पर उक्त 'काव्यः और 'साहित्य” इन दोनों शब्दों के शक्यतावच्छेदक घ॒मम पृथक्-पृथक् हैं । 'काव्यः का शक्यतावच्छेदक धर्म “लोकोत्तर-बर्णना-निपुण कवि-कर्मेत्व” कहा गया है। इस धर्म में 'कवि-कर्म' के दो विशेषण दिए गए हैं--एक है. “निपुण” और दूसरा “लोकोत्तर-बर्णना!॥ “निपुण”ः विशेषण इसलिये रखा गया है कि कवि-क्म भोजनादि भी हो सकते हैं; किंतु उन्हें “काव्य” नहीं फहा जा सकता। परंतु यद्द “निषुण” विशेषण रखने पर भी कवि का पास्तबिक कर्म प्रकट नहीं होता, जो अमीष्ट है। उससे कवि के और-और कर्मो की ओर भी ध्यान ज्ञा सकता है; अतः “वर्णना? शब्द डसके
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रखा गया है। परंतु इतने पर भी वह आपत्ति ज्यों की बनी रद्दी जो पहले केघछ “निपुण! विशेषण रखने पर दो सकती थी। अ्रथांत् अ्रतिव्याप्ति बनी ही रही, जो इतिहासादि में भी द्वो जाती है । अत: उक्त घर्णना के साथ 'लोकोत्तर' विशेषण का संयोग किया गया है। यहाँ लोकोकत्तर धर्णना रूपी निपुण कवि-कर्म का संबंध विवत्तित है। “साहित्य” शब्द् का शक्यताव- घ्छेदक धर्म 'तारश-काव्य-परिप्कारकत्व” होता है। इस धरम में आए हुए 'तादश-काव्य” का विघरण तो ऊपर दिया जा चुका है, अब रहा उसका “परिप्कार कत्व! | यदि इसका तात्पय॑ केवल दोषों का दुरीकरण हो तो कब्ि-संप्रदाय से विरोध द्ोता है; यदि गुणों का दिग्दर्शन कराना? कहा जाय तो आलूकारिक सिद्धांत के पिरुद्ध होगा; और यदि “रस का प्रतिपादन करना? अभीष्ट हो तो यह भी नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकाररांतर से काव्य” में ही यह बात आ गई है। खुतरा यहाँ “उक्त काव्य के संपूर्ण लक्षणों का प्रतिपादन करना! अभिमप्रेत है। इस प्रकार काव्य” और धसाहित्य! के स्व॒रूपों का स्पर्टवकरण द्वो गया; और सिद्ध हो गया कि “काव्य? तथा “साहित्य! दोनों एक नद्दीं हो सकते।
काव्य का महत्व
काव्य चास्तव में मानव-जीवन, मानव-अनुभूतियों और मानघ-अंतबेक्तियों का विशद् चित्र हे। यही कारण है कि काव्य अजर ओर अमर दै। काव्य का प्रकाश मानव-जीवन के प्राय: साथ ही साथ इुआ है और वह तबतक देदीप्यमान रहेगा जब- तक इस विशाल ब्रह्मांड में मनुप्य का अस्तित्व है। केघल मानच- जीघन के साथ ही नहीं, बादिक समस्त सृष्टि के साथ कास्य का इतना घनिष्ट संबंध है कि उसका रूष्टा इश्वर तक 'कषि!? कहा
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गया है; श्रुतियों एवं शास्त्रों ने एक स्वर से ईश्वर को 'कवि'
की उपाधि से उद्धोषित एवं विभूषित किया है। यथा--
“कविमनीषी परिभूः स्वयंभूः”” --यजुससंद्विता ( अध्याय ४० )। “कविम्पुराणमनुशासिता रम्”” --श्रीमद्भगवद्गीता ( अध्याय 4) ॥ “बेदाड़ो वेदवित्कविः --मद्दाभारत ( अनुशासन पे )। जब स्वयं परत्रह्म परमात्मा के लिये 'कवि! शब्द का प्रयोग किया जाता है तो इससे स्पष्ट सिद्ध है कि 'कवि! एक असा- चारण तथा अत्युत्कष्ट उपाधि है, और इसी लिये उलकी कृति पाव्य! भी सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। जिस प्रकार देश्वर को 'कावि! कहा गया है, उसी प्रकार उसकी रची यद सण्ि भी 'काज्य! कही ज्ञा सकती है। यदि दम “काव्य” को उसके परम व्यापक अर्थ में ले तो कह सकते हैं कि मलुष्य को काव्य के दी द्वारा समस्त जड़ और चेतन पदार्थों का ज्ञान हुआ है, होता है और होगा। पृथ्वी आदि प्रत्यक्त दृश्य पदार्थों का परिज्ञान भी पहले-पहल इसी के द्वारा हुआ है । इसके अभाव में संसार के संपूर्ण पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय और गुण, कमे, स्वभावों का वास्त- बिक स्वरूप समझना असंभव ही था ।
काप्य का मुख्य विषय जीवन तथा रए्टि की व्याख्या करना है। फाप्य जैसा स्मणीय एवं अलौकिक आह्वादकारक है, बैसा दी जटिल एवं क्लिट भी है। यही फारण है कि प्राचीन से प्राचीन दिव्यदर्शी काव्याचायां ने भी अपने को इसका साँगोपाँग मर्मश तथा यथार्थवेत्ा नहीं माना। काव्य का रखसास्थादन भी अनिर्े-
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चनीय और अत्यंत डुलेस है। अन्यान्य शाओ्रों का सम्यक् एवं समुचित ज्ञान ध्राय: काव्य के ज्ञान पर ही निर्भर रहता है; अतः सभी शास्त्रों के परिशीलन करनेवालों को इसका अचरूंब अवश्य सेना पड़ता है; और जो लोग काव्य का ठीक-टीक उद्दे श्य तथा तथ्य नहीं समझते, उनका और सब प्रकार का श्ञान एकांगी तथा अधूरा होता है। जीवन का जो प्रधान सौंदर्य सरसता या सहृदयता है, घद्द केघल काव्य के द्वारा ही प्राप्त होता है ।
काव्य में अलंकारों का आदरणीय स्थान
काव्य के भेदों की संख्या के विषय मे आचायों में मतभेद है। रखस-गंगाधरकार पंडितराज जगन्नाथ जिशली ने काव्य के चार भेद--ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य, शब्द-चित्र ( शब्दालूंकार ) ओर श्रर्थ-चित्र ( अथांलंकार )--माने हैं। काव्य-प्रकाशकार श्रीमम्मटाचार्य आदि ने ध्वनि, गुणीभूत घ्यंग्य और चित्र ( अलंकार ) तीन भेद लिखे हैं। ध्वन्यालोककार भ्रीमदानंदघर्ध नाचारय आदि ने गुणीभूत व्यंग्य को घ्यंग्य में अंतभूत करके उ्यंग्य और घाज्य (अलंकार) दो ही भेद माने हैं। कितु इन तीनों मतों का तात्परय एक ही है।
यद्यपि मम्मटाचार्य ने काव्य के उक्त तीन भेद मानते हुए “पशब्द्चित्रं वाच्यचित्रमव्यइय॑ त्ववरं स्पृतम” घाक्य में अलं- कार को अघर ( नीची श्रेणी फा ) कह डाला है, तथापि राजा- नक रुस्यक ने अपने “अलंकार-सर्वस्व” में दंडी, रुद्रट और घामन आदि प्राचीन आचारयों के मत का सार यों छिखा हे--
“अल्डारा एवं काव्ये प्रधानमिति प्राच्यानां मतम्” चंद्राछोकफार फविवर जयदेव तो यहाँ तक लिखते हैं--
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“अड्जीकरोति यः काव्य शब्दाथावनलडःकृती । असौ न मन्यते कस्मादलुष्णमनलं कृती ॥” अर्थात् जो विद्वान अलंकार-रहित शब्द और अर्थ को काव्य मानता है, चह अप्नि को उष्णता-राहित क्यों नहीं मानता अश्निपुराण में भगवान् वेदव्यास ने भी आज्ञा की है-- “अलडू रणमर्थानामर्थोलड्रार इष्यते । त॑ विना शब्दसौन्दय मपि नास्ति मनोहरम् ।। अधोलडुगररहिता विधवेव सरस्वती ।” अर्थात् अर्थों में जो रमणीयताकारक (धर्म ) है, वही अर्थालंकार है। उसके विना शब्द का सौंदय भी मनोहर नहीं होता, और उससे हीन सरस्वती ( बाणी ) विधवा तुल्य है। इसी प्रकार महाकवि दंडी ने भी लिखा है-- “काव्यशोभाकरान्धर्मानलड्भाराम्मचक्षते ।” अर्थात् काव्य में सौंदर्यकारक घमम ही अलंकार कहे जाते हैं । अलंकार' शब्द का अर्थ 'आभूषण' है। अलंकारों का मुख्य कार्य भावों तथा कल्पनाओं को खुंदर और मनोहर रूप प्रदान करना है। अछंकारों के अभाव में सुंदर से सुंदर भावों और विचारों का सौंदर्य अपेक्ताकृत कम जँचता है; और अलंकारों के योग से साधारण भाव तथा विचार भी परम चित्ताकषक हो जाते है। जैसे कोई रमणी स्वत: सुंदरी होने पर भी जब भूषणों छार भूषित की जाती है, तब उसका वह सौंदर्य बहुत अधिक . बढ़ जाता है। बैले ही कविता व्याकरण, पिगल आदि से शुद्ध होने पर भी जब अलंकारों द्वारा खुसज्जित होती है, तभी
( रे८घ )
अत्यंत चमत्कारपूर्ण और मनोहर होती है। मदहाकपिं केशवदास ने 'कविप्रिया' में कद्दा है--
“जद॒पि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवुत्त ।
भूपन बिन न विराजई, कविता बनिता मित्त ! ॥”
भीउत्तमचंद भंडारी अपने 'अलंकार-आशय' नामक प्रंथ में छिखते हैं--
“कविता बनिता रस भरी, सुंदर होइ सुलाख ।
बिन भूषन नहिं भूषहीं, यहे जगत की साख ॥”
इन सब प्रमाणों से यद्दी निष्कर्ष निकलता है फि काव्य में चित्ताकष फ रमणीयता के उत्पादक अलंकार हैं। इतना दी नहीं, घरन् काव्य के समस्त अंगों में स्-ध्रष्ठता का सेहरा भी इनके सिर बॉधा जा सकता है। घस्तुत: कविता-कामिनी का सौभाग्य और सोंदर्य अलंकार दी हैं । इनके घिना उसके सब श्रेग यथावत् द्वोते हुए भी उतने छुंदर नदीं जान पड़ते, जितने खुंदर वे होने चारदिएँ।
अलंकारों की व्यापकता
पविचार-विनियम के लिये जब से बाणी का प्यवद्दार आरंभ शुआ है, प्रायः तभी से अलंकारों का प्रचलन है। केवल किसी: विशेष देश, जाति या समाज में ही अलंकारों का विशिष्ट रूप से भ्रचार नहीं है, प्रत्युत् प्रत्येक देश, जाति और समाज में इनका अखंड साम्राज्य दिखाई देता दै। बात यद है कि मनुष्य सौंदय का उपासक है। घह अपनी समस्त वस्तुओं को परम सुंदर रूप देकर छोगों के सामने प्रस्तुत करना चाहता है; और इसी इच्छा से घद अपनी उक्तियों तथा घिचारों को भी यथासाध्य खुंद्र रूप
( २६ )
देता है। यही कारण है कि संसार को समस्त भाषाओं के प्रत्येक प्रंथ में अलंकारों का सिक्का जमा हुआ है और वे साहित्य-चेऋ में बहुत ऊँचा स्थान ग्रहण किए हुए हैं। जिस प्रकार वेद अनादि हैं, उसी प्रकार हम कह सकते हैं कि अलंकार भी अनादि हैं; क्योंकि इनका अस्तित्व वेदों की रमणीय ऋतचाओं में भी प्रत्यक्त रूप से पाया जाता है | देखिए-- “यूदिमा व्वाजयन्नहमोषधीहस्त+< आदधे । आत्क्मा युत्मस्य नश्यति पुरा जीवग्रभो युथा ॥# --श्रीशुरूयजुवेद-संहिता ( अ० १२ मंत्र ८५ ) । यहाँ 'अत्यंतातिशयोक्ति' अलंकार है । “यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा व्वेशिखाउइव ॥ -श्रीशुरृूयजुवेंद-संद्विता ( भ० ३७ मंत्र ७८ ) । यहाँ 'पूर्णोपमा! और “बाणा:? तथा “विशिखा:” में 'पुनरुक्त- वदाभास? अलंकार है! “व्वतेन दीक्षामामोति दीक्षयाप्ोति दक्षिणाम् । दक्षिणा श्रद्धामाप्रोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥| -श्रीशकृयजवेंद-संद्विता ( क्र० १९ मंत्र ३० ) । # जिस समय मैं यद्द ओषधी पूजन करता हुआ (वा सत्कार-पूचेक) हाथ में घारण करता हूँ, उस समय “यद्ष्मा! रोग का स्वरूप (वा निदान) अक्षण से पहले ही उसी प्रकार नाश को प्राप्त होता है, जिस प्रकार बच के निमित्त ले जाया जानेवाला प्राणी बध से पहले ही इत हो जाता दै । ग जहाँ ( रणक्षेत्र में) शिखा-रह्ित (वां लछटदार बारॉवाले ) बालकों की तरह हृधर-ठघर चकछकर बाण गिरते हैं। + बत से दीक्षा! को प्राप्त होता है। दीक्षा से दक्षिया को प्राप्त
( ३० )
यहाँ 'प्रथम कारणमाला” और “आप्रोति? क्रिया की आवृत्ति * से 'पदार्थावृत्ति-दीपक' अलंकार है। इसी प्रकार अन्य संहिताओं और आहाणों में भी अलंकारों का प्रयोग बहुत अधिकता से देखने में आता है। यहाँ इतने दी उदाहरण पर्याप्त हैं। उपनिषदों में तो अलंकार और भी प्रच्चुर परिमाण में देखे जाते हैं । इनके अतिरिक्त स्म्ृतियों और इतिहास-प्रंथों में भी अलं- कारों की भरमार है। यथा-- “यथा खनन्खनिन्रेण नरो वायेघिगच्छति । तथा ग्रुगतां विद्यां शुश्रषुरधिगच्छति ॥*”
--मनुस्झति । यहाँ 'दृ्शात! अलंकार का प्रयोग है ।
“रसो5हमप्सु कौन्तेय प्र भाउस्मि शशिस्त्य योः । प्रणव: सर्ववेदेष शब्द: खे पौरुषं जृषु ॥””
--श्रीमद्भगवद्गीता (भर० ७ इछोक ८ ) । यहाँ 'द्वितीय उल्लेख” अलंकार है| # केवल संस्कृत के धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक ग्रंथों में ही नहीं, प्रत्युत् संसार के सभी प्रसिद्ध मतों की धार्मिक पुस्तकों आदि में भी अलंकारों की छुटा पर्याप्त मात्रा में देखी जाती है | बाइबिल और कुरान में भो कितने दी अलंकार स्पष्ट रूप में दश्टिगोचर होते हैं ।
होता है | दक्षिया द्वारा श्रद्धा को भौर भ्रद्धा द्वारा ससय ( परमात्मा ) को प्राप्त होता है ।
# इसके अतिरिक्त महाभारत का एक इलोक हमने पृष्ठ ७३ परे *म्रुच्चयोपमा! के उदाहरण में दिया है ।
( रेरे )
जो साधारण तुकबंदी करनेवाले लोग यह भी नहीं जानते कि अलंकार किसे कहते हैँ, उनकी रचनाओं को भी अलंकार स्वयमेव अलंकूत करते चले आते हैं। अलंकार-शासत्र से अन- भिश्, पर शिक्षित छोगों के चार्तालाप * और पत्र-व्यवह्ार में भी अलंकार अपना चमत्कार बहुधा आप से आप और अन- जान में द्खिला जाते हैं; और इसका कारण मलुष्य की वही खौंद््योपासनावाली घृत्ति है। साधारण से साधारण और अपकढ़ से अपढ़ व्यक्तियों की बोलचाल में भी अलंकार वरवश आ जाते हैं. । यथा--
“जल में रहे मगर से बेर” यहाँ 'लोकोक्ति' अलंकार तो है ही; “विशेष-निबंधना ( अप्र- स्तुत-प्रशंसा )' भी है। “उसकी बातों के जाल में मत फेस जाना” यहाँ 'बातों के जाल? में 'निरंग रूपक' है। कदने का तात्पय यही दै कि अलंकार खर्वच्यापी हैं। जो लोग अलंकारों के विरोधी हैं, उनकी बातों में, उनकी कृतियों
# एक बार की बात है । मैं फीरोजपुर में एक मजिस्ट्रेट मित्र से मिखने गया था; किंतु वे घर पर नहीं मिले, एक उच्च पदाधिकारी के यहाँ गए हुए थे। मैं भी वहीं चछा गया। बातों ही बातों में प्रसंग-वद उक्त पदाधिकारी महाशय ने ( जो दछती भ्रवस्था के थे ) मजिस्ट्रेट से कहा--“मेरी भाँख छग गई थी?”। इसपर उन्होंने तुरंत ही मुस्कराते हुए कद्दा-- क्या अब भी आपकी भाँख छगती है १” इस बातोलछाप में उन दोनों सज़ानों ने आनंद का जो कुछ अजुभव ढिया, वह तो किया ही; किंतु उसमें 'बक्रोक्ति! की चमसकृति देखकर मेरे हृदय में जो आनंद का उद्गेक हुला, ठसका भनुमान तो अलंकार के रसिक दी कर सकते हैं।
( हे२ )
में और उनके अलंकार-विरोधी लेखों तथा निबंधों तक में अलं- कार स्वयमेघ अपना अधिकार जमा लेते हैं; और जबतक उनमें आहलंकारिक शब्दावली नहीं होती यायों कहिए कि भाषा को अलंकार का सहारा नहीं मिलता, तबतक उनमें रोचकता तथा ओजस्थिता आ ही नहीं सकती ।
अंध-निर्माण-कारण
अलंकार-शास्त्र-संबंधी गंभीर गवेषणा-पूर्ण और मार्मिक पिवेचना-संयुक्त ग्रंथों से जिस प्रकार संस्कृत-साहित्य का भंडार भरा हुआ है, उस प्रकार के उच्च कोटि के प्रंथों का हिदी-साहित्य में प्राय: अभाव ही है। प्राचीन हिंदी में गद्य का एक प्रकार से विकास ही नहीं हुआ था; इसलिये “'कविप्रियाः आदि जितने रच्तण-प्रंथ बने, उनमें लक्षणों का निरूपण करने फे लिये भी पद्म का ही प्यचहार हुआ। लक्षणों का जैसा विश्लेषण और स्पष्टीकरण गद्य में हो सकता है, बैसा पद्म में नहीं हो सकता; क्योंकि पद्य लिखते समय खेखक को अपना घविचार-विहंगम पिगल के पिंजड़े में बंद करके रखना पड़ता है। इससे घद्द स्थच्छंद उड़ान खेने में असमर्थ होता है। उसका ठीक-ठीक अभिप्राय समझना छोगों के लिये बहुत कठिन होता है; और जिस उद्देश्य से उस पद्य की रचना की जाती है, वह उद्देश्य प्राय: अपूर्ण ही रह जाता है ।& यद्यपि “झलंकार-झआशय! # हिंदी दी में नहीं वरन् संस्कृत-साहित्य में भी जहाँ कहीं अछ- कारों के छक्षण संकुचित पद्य में लिखे गए हैं, वहाँ भपूर्णता रद गई है; मत्युत् कह्टी-झई्ीं तो दो लक्षण एक ही हो गए हैं। यथा--- “मीछित॑ यदि साह्श्याद्वे० एवं न छद्पते” “प्लाम्रान्यं यदि सादइद्याद्विशेषों नोपछट्ष्यले!? .
( ३३ )
जैसे किसी-किसी प्राचीन प्रंथ म॑ अलंकार-विषयक कुछ बातों के समभाने का उद्योग पद्य के साथ-लाथ गद्य में भी किया गया है; और कुछ प्रंथों की अन्य विद्वानों ने गद्य में टीका करके अलं- कारों के स्पष्ट फरने का भी प्रयत्न किया है, तथापि बह गद्य तत्कालीन प्रणाली के अनुसार होने के कारण पद्य से भी अधिक दुरूद दो गया है। हिंदी में गय्य का विकास दो जाने पर जितने अलंकार-प्रं थ बने, उनमे से फेवल सेठ कन्हैयालाल पोद्दार-प्रणीत अलंकार-प्रकाश” में ही अलंकारों के तत्वों और सिद्धांतों पर पिद्वता एवं मार्मिकत( के साथ परिष्कृत गद्य में प्रकाश डाला
“चंद्रालोइ” के इन उद्धरणों में पहछा “मीलित” का और दूसरा “सामान्य! का लक्षण है। इनसे पाठकों को दोनों भ्रककारों का वास्तविक स्वरूप लक्षित नहीं दो सकतां। (चंद्राछोक में पय को संकीर्णता के ही परिणाम-स्वरूप विवेचन के लिये पं० बप्पय दीक्षित को उश्पर 'कुच- लयानंद' की और पं० वेद्यनाथ को “भर्ंकार-चंद्रिरा टीका की रचना करनी पढ़ी । ) किंतु 'रस-गंगाधर' में, इन्हीं भरूंकारों के कक्षण गद्य में दोने के कारण, देखिए कितने स्पष्ट हुए हैं--
“स्फुटमुपलभ्यमानस्य कस्यचिद्वस्तुनो लिप्लेरतिसास्याद्तिन्नस्वेनागृद्य - राणानां वस्त्वन्तरलिद्वानां स्वकारणाननुमापकत्वं मीोलितम्”?
अर्थात्--जद्टाँ अपर वस्तुर्थों के द्वेतुओं ( ज्ञात करानेवाछे कारणों ) से अप्रत्यक्ष वस्तु का भेद ज्ञात न द्वोने पर भ्रप्नकटता होती है, वहाँ “मीछित? होता है ।
प्रत्यक्षविषयस्थादि वस्तुनो बलवत्सज्ञातीयग्रह्णकृतं तद्विन्नत्वेना- अदहदण सामान्य स्?
अर्थात्ू-जहाँ ( प्रत्यक्ष वस्तु के ) भ्रत्यंत तुल्य ( समानता रखने- वाल्ली ) वस्तु के ज्ञान से (उस ) प्रत्यक्ष वस्तु के भेद का भज्ञान रराया जाय ( & प्कों मेद ज्ञात न दो ), वहाँ सामान्य होता है ।
( डशऐेछ )
गया;है। अन्य म्रंथों में लक्षणों के लिये प्राचीन दविदी-प््यों का ध्यवद्दार किया गया है, जो प्रायः संस्क्रत के श्लोकों का उल्था मात्र हैं। हमारे विचार से जिज्ञासु पाठकों और विशेषतः नव- युवक विद्यार्थियों की ज्ञान-पिपासा तबतक नहीं बुक सकती जबतक हिंदी भाषा की प्रकृति का ध्यान रखते हुए लक्षणों का सरल और स्पष्ट गद्य में निरूपण न किया जाय । छक्षणों के संबंध में पक्त और बात बड़े मार्क की है। संस्कृत के प्रायः अ्रंथों में $& पं दिंदी के जितने अलंकार-प्रंथ दमारे देखने में आए, उन खबमे भेदोंवाले अलूंकारों में से कुछ प्रधान : अलंकारों के मूल लक्षण तो लिखे हैं; किंतु अधिकांश के मूल स्वरूप नहीं समभाए गए हैं, उनमें केवल भेदों के ही भिन्न-मिन्न छत्तण लिखे हैं। हमारे विचार से यह एक भारी त्रुटि रह गई है; क्योंकि ऐसा न दोने से इस बात का पता नहीं चलता कि
# संस्कृत के 'साहित्य-दप॑ण” में तो भेदोंवाले सब अल्ूकारों के मसूछ लक्षण बनाए गए हैं; किंतु अन्य कुछ प्रचछित छक्षण-प्रंथों के ढन अलंकारों का विवरण उद्धृत किया जाता है, जिनमें सूछ लक्षण भावदयकता होते हुए भी नहीं दिया गया है-- क्वाब्य-प्रकाह में“ निदर्शंना, समुच्चय, पर्याय, उत्तर, विशेष | “चंद्राछोक में--"-डब्छेख, अपहृुति, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, निद- शंना, पर्यायोक्ति, आक्षेप, विभावना, असं गति, विषम, सम, अधिक, विशेष, व्याघात, पर्याय, सम्मुझ्चय, प्रह- घंण, पूवंरूप, उत्तर, देतु ।
४रसन-्गंगाघर' समें-- विशेष, पर्याय, प्रतीप ।
[ 'छाम्य-प्रकाश”ः एवं “रख-गंगाघर' में अव्पसंख्यक अछ॑कारों के डी मेद दिए गए हैं; इसीसे वहाँ बहुत से अलंकारों के मूछ छक्षण की आवदयकता दी नहीं पढ़ी | ]
( रे४ )
उक्त अलंकार का मूछ स्वरूप क्या है और उसका कौनसा व्यापक ऊक्षण है, जो सभी भेदों में स्थूल रूप से घटित होता हो या माना ज्ञा सकता हो । यह गड़बड़ वास्तव में संस्कृत के लक्षण-प्रंथों से ही चली आ रही है, हिद्दीवालों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया है। इसके अतिरिक्त जब हम उदाहरणों की ओर देखते हैं, तो कठिन अलंकारों के एक से अधिक उदाहरण बहुत कम प्रंथों में मिलते हैं । सरल अलंकारों के उदाहरण यदि अधिक मिलते भी हैं तो वे प्रायः संस्क्रत-ग्रंथों के उदाहरणों के किए हुए अनुवाद फे रूप में ही हैं । हिंदी के प्राचीन अलंकार-प्रंथों में से अधिकांश ने “चंद्रालोक' एवं 'कुवलयानंद” का ही पिशेष रूप से सहारा लिया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि प्राय: प्रंथों के उदाहरण एक से दो गए हैं; अत: जिन लोगों ने हिंदी के अलंकार-प्रंथों से इनका संग्रह किया, उनके भी प्राय: उदाहरण एक से हो गए ।# # जमूने के तौर पर “तृतीय असंगति” अर कक बुत “कलर का संगति” अऊकार के उदाहरण कुछ कुवकयानंदू-- मोह जगत्वयभुवामपनेतु मेत- दादाय रूपमखिलेश्वर देहभाजाम् ॥ निःस्ीमकान्तिरसनीरधिनाझुनैय । मोह प्रवद्धयसि सुग्धविछासिनीनाम् # आवा-भूपय--- मोह मिठायौ नाई प्रभु, मोद लूगायौ आनि। फर्म प्र धा कट ) मोह मिटायौ नाई प्रभु, मोह छगायो और । असम ह कयोमृका<न मोद मिटावन आई प्रभु, मोह बढ़ायो और । अहंकार अंधे | मोह मिटावन द्वेत प्रभु !, छोन््हों तुम अवतार । डछटो मोहन रूप घरि, मोहों सब श्जन्नार ॥
हिंदी-भलंकार-प्रयोध
( रेदे )
अब यह कहने की आवश्यकता न होगी कि ऐसी स्थिति में विद्यार्थियों अथवा अलंकार का मनन करनेवालों की भलीमाँति मनस्तुष्टि नहीं हो सकती |
छदाहरणों को छोड़कर जब हम समन्वय ( मिलान ) और अलंकारों की भिन्नताओं पर विचार करते हैं, तो अच्छे श्रंथों में भी इनका सम्यक् प्रकार से किया हुआ प्रतिपादन नहीं मिलता । प्रत्येक अलंकार की परिभाषा से उसके उदादरणों फा यथाचत् 'मिलान” होना परमावश्यक है; क्योंकि ऐसा फरने से एक तो पाठक के अंतस्तर में चह अलंकार अच्छे प्रकार से स्थान कर लेता है, दूसरे मिलान की कसौटी पर उसकी पूरी- पूरी जॉँच हो जाती है | अलूंकारों के भेदोपभेर अधिक संख्या में हो जाने के कारण बहुत से ऐसे अलंकार भी हो गए हैं, जो आपल में बहुत कुछ मिलते-जुलूते हैं। ऐसे मिलते-जुलते अलं- कारों में परस्पर बहुत ही सूद्म भेद हुआ करता है; इसलिये यदि उसका स्पष्टीकरण भिन्नताएँ लिखकर न किया जाय तो पाठक अलंकारों फे पहचानने में धोखा खा जाते हैं। प्रायः ग्रंथों में तो भिन्नतादँ लिखी द्वी नहीं गई; ओर जिनमे हैं. भी, उनमें थोड़े दी अलंकारों की हैं श्रोर वे भी अपयांप्त शब्दों में लिखी गई हैं जिससे अस्पष्ट हो गई हैं। इसी अमाव के कारण कदी-कर्दी तो मिलते-ज़ुलते अलंकारों फे लक्षण और उदाहरण तक एक हो गए हैं ।
यद्द तो निर्विवाद ही है कि हिंदी में अलंकार-शासत्र की सभी बातें संस्कृत से द्वी आई हैँ । परंतु जैसा संस्क्ृत-लादित्य के विद्वान हिंदी के साहित्यकारों पर आतज्तेप करते हैँ--और ठीक आक्षेप करते हें--कि हिंदी के अधिकांश अलंकारः-प्रंथों के रचयिताओं ने संस्कृत के अलंकार-शाख््र के सूच्म भाष
( डे७ )
डीक-ठीक न समभक्तर कहां-कहीं कुछ का कुछ कर दिया है। जहाँ तक हमारी अठ्प वुद्धि में आया है हमने इस प्रकार की भूलों से बचने का यथा-साध्य प्रयल्ल किया है; पर एक वात और है घह यह कि व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से संस्कृत-भाषा की प्रकृति से हमारी हिंदी की प्रकृति वहुत कुछ भिन्न है; इसलिये हमे कुछ स्थलों पर विवश होकर संस्कृत का अनुकरण छोड़ना भी पड़ा है। उदाहरण के लिये 'ल्ाटानुप्रास! अलंकार को ही लीजिए। संस्क्वत में 'पद” और 'नाम' की आवृत्ति के विचार से इसके दो भेद किए गए हैं; परंतु जैसा कि हमने “छाटाजुप्रास! के अंत की सूचना में बत- छाया है, संस्क्ृत-व्याकरण में जिन्हें 'पद! ओर 'नाम' कहते है, उनका हमारे हिंदी-व्याकरण में कोई स्थान ही नहीं है। अतः हमारे लिये उसका ज्यों का त्वों अचुकरण करना असंभव है। हमारे यहाँ तो शब्द और वाक्य का ही भेद है; और इन्हीं दोनों के अनुसार हमने “छाटाजुप्रास! के दो भेद रखे हैं। इसी प्रकार “थधथासंख्य' अलंकार को लीजिए | संस्क्रत में इसके 'शाब्द! और “आर्थ! ये दो भेद करिए गए हैं। संस्कृत में ये भेद इसलिये उप- युक्त हैं कि उसमें समास और उसके परिणाम-स्वरूप अन्चय आदि फी विस्तृत और जटिल परिपाटी है; पर हमारी हिदी में घह प्राय: नहीं के समान है। हमारे यहाँ समासों का अपेक्ता- कृत बहुत कम व्यवहार होता है और शब्दों का परस्पर चह दुरान्धय नहीं होता जो संस्कृत में होता है । इसीलिये हमने “यथासंख्य” अलूकार का कोई भेद नहीं माना है। जिन लोगों ने संस्कृत के अनुकरण पर ऐसे स्थलों पर अलंकारों के भेद माने
हैं, वे अपने उदाहरणों में ऐसे भेदों का पर्याप्त स्पष्टीकरण नहीं कर सके है ।
( रे८6 )
आधुनिक काल में जब कि हिंदी-लादित्य की उच्तरोत्तर उन्नति हो रही है, हम बहुत दिनों से इस बात को भतीक्षा कर रहे थे कि कोई न कोई उक्ूट एवं अचुभवी विद्वान इस विषय पर अपनी खेखनी उठायंगे; और उपयुक्त तरुटियों से रहित कोई अलंकार-प्रंथ प्रस्तुत करके अलंकार-शास्त्र के श्रध्येताओं एवं रसिकों की मनस्तुष्टि करेंगे। कितु ऐसा द्ोता न देखकर हमने बुद्धावस्था में भी अपनी दुबेलताओं की उपेक्षा करते हुए केवल उत्साह के बल पर कमर कसकर इस साहित्यिक अखाड़े में उतरने का दुस्साहस किया है; और ऊपर बतलछाए हुए अभावों की पूर्ति करने का यथा-शक्ति प्रयत्न किया दे।
ऊपर हमें अपने पूर्वचतती लेखक मह्दाजुभावों के प्रंथों में दिखाई पड़नेवाल्ले कतिपय अभायों का उल्खेख करना पड़ा हे, जिसके छिये दम क्ञामा-प्रार्थी हैं; और दम निस्संकोच भाव से यद्द कहते हैं कि यदि उन प्रंथों की महती सद्दायता न मिलती तो €म अपना यह ग्रंथ प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं दो सकते थे । इसमें जो कुछ हे, यह उन्हीं के खजानों से लिया गया है। हमने तो केघल उसका परिष्कार करके अर्थांत् उसमें अपनी अल्प- बुद्धि के अचुसार थोड़ा बहुत परिघतंन तथा परिवरद्धन करके डसे खादित्य-संसार के समरद्त रख दिया है। अलंकार-शार् में नवीन अन्घेषण होने पर आगे चलकर हमारी इस पुस्तक में भी भावी रचयिताओं को अनेक चुटियाँ टग्गोचर होंगी; क्योंकि यद परंपरा दी है ।
हमने “नभःपतन्त्यात्मसमं पतत्रिण:” के अच्जुसार भ्रस्तुत पुस्तक को परिपूर्ण पं उपादेय बनाने का यथा-साध्य पूरा अयक्ष किया दै और इसमें बहुत सी विशेषताएँ या नवीनताएँ
( हे& )
रखी हैं जिनमें से मुख्य दस विशेषताओं का उल्लेख पंडित- अवर भ्रीकृष्णविहारीजी मिश्र बी० ए०, एलू-पए्लू० बी० महोदय ने 'भूमिक/ में (पृष्ठ १७ से २१ तक) किया है । शेष गौण विशेष- तठाओं का निर्देश करके व्यर्थ का घिसस््तार इसलिये नहीं किया गया कि विज्ञ पाठक तथा पारखी लोग उन्हे स्वयं ही समझ लेगे। हमारा कतंव्य तो इतना दी था। अब इस पुस्तक की
उपादेयता का निर्णय करना साहित्य-मर्मश्ष सत्समालोचकों पर निर्भर हे।
अलंकारों की संख्या
अलंकारों की संख्या के विषय में क्या संस्कृत के और क्या हिंदी के सभी आचायों में बहुत बड़ा मतभेद है। किसी ने बहुत थोड़े अलंकार माने हैं और किसी ने बहुत अधिक । फिसी अलंकार को यदि एक आचार्य मुख्य मानता है, तो दूसरा उसको किसी दूसरे अलंकार का भेद मानता है; और तीसरा डसका अस्तित्व ही स्वीकृत नहीं करता। यही अवस्था भेदों और प्रभेदों की भी है । की
हमने संस्कृत और हिंदी के बहुत से प्रसिद्ध तथा प्रामाणिक अंथों का अवलोकन किया; # और हमें अपनी तुच्छ बुद्धि के अलचुसार जिसका मत यथार्थ और समीचीन जान पड़ा, उसी को भ्रहण करके अलंकारों और उनके भेद-प्रभेदों फी संख्या का निर्णय किया है। पुस्तक में यथा-स्थान उल्लेखनीय निर्णयों का विषरण दे दिया गया है। प्रस्तुत पुस्तक में सूछ अलंकारों और उनके अवांतर भेदों की संख्या इस प्रकार है--
+ हन ग्रंथों के नाम पुस्तक के परिशिष्ट भाग में सहायछ प्रंथों की सूची में दिए हुए हैं।
( ४० )
(१ ) शब्दालंकार ८
(२) अर्थांलंकार १०० #
(३ ) उभयालंकार २
इन ११० प्रधान अलंकारों के अतिरिक्त सूचनाओं में गौरा रूप से निम्नोक्त चार अलंकार और लिखे गए है---
(१ ) बैण-सगाई ( अनुप्रास में )।
(२ ) देहरी-दीपक ( आवृत्ति-दीपक में )।
(३ ) उदाहरण ( दृष्टांत मं )।
(४ ) जाति ( स्घभावोक्ति में ) ।
इन सब अछंकारों के भेद्-प्रभेद आदि के योग से समस्त संख्या २७५ हो गई हे। *
यहाँ प्रसंग-चश हम पक बात और कह देना चाहते हैं. । जब यह पूरी छपी हुई पुस्तक पूज्यपाद आचार्य पं० मद्दावीरप्रसादजी हिवेदी की सेवा में सम्मति के लिये भेजी गई तब आपने अपनी सम्मान्य सम्मति प्रदान करते हुए एक बहुत ही उपयोगी प्रश्न किया था। इस अचसर पर दम वह प्रश्न और उसका उत्तर भी इसलिये दे देना उचित समभते हैं कि उसका
# निम्नोक्त चार अलंकारों में दूसरे प्रकार के उदाहरण भी दिए गए हैं; किंतु वहाँ पर उदाहरणांतर मात्र है, भेदांतर नहीं; भ्रतपृव उनकी मेदों में भिन्न गणना नहीं की गईं है--
(१ ) 'स्मरण' में वेधस्यं-संबंधी ।
(२ ) “प्रतिवस्तृपम!” में भी वैधस्य-संयंधी ।
( ३ ) 'निदना? में विना वाचक-संबंधी ।
(४ ) 'मद्रा! में संक्षिप्तत: कथा-निर्देश-संबंधी ।
( ४१ )
संबंध अलंकार-शाख के सभी मर्मझों से है । वह प्रश्न इस प्रकार है--
“क्ेडियाजी साहब से मेरा एक प्रश्न है। भूषण, अलंकार , जेवर या गहने सदा सबके एक से नहीं होते। प्रांत ओर देश- विशेष के कारण भी उनमें भिन्नता होती है और काल-विशेष के भी कारण । राजपूताने के जेवर बंगाल में प्रचलित नहीं और डेढ़ सौ दो सौ घर पहले के जेवर सबके सब अब प्रचलित नहीं । मतलब यहाँ खियों के आभूषणों से है। फिए क्या कारण कि बेचाये भारती के जेवर घही भरत, कालिदास, भोज इत्यादि के जमाने के ज्यों के त्यों बने हुए हैं? भारती को कया नवी- नता पसंद नहीं ? न हो तो न सही। हो तो केडियाजी ! कुछ नये भूषणों की खोज या कटपना करने की भी कृपा करें। ये पुराने भूषण भाषण के मिन्न-मिन्न ढंग हैं। क्या इनके सिवा बोलने और लिखने में सरखता था चमत्कार उत्पन्न करने के लिये कोई अन्य ढंग दो ही नहीं सकता ? मेरा यही प्रश्न है जिसे मैं केडियाही के समच्त सादर उपस्थित करता है ।”
दविवेदीजी ने प्रश्न के रूप में जो आज्ञा की है, वह ध्यान देने योग्य है। इस संबंध में हमारा निवेदन यह है कि नये-नये आशभूषणों का आविष्कार वराबर होता रद्दा है# क्योंकि अलं- कार्रो का ज्यों-ज्यों विकास होता गया त्यो-त्यों आचार्य छोग अन्यान्य अलछंकारों की कढपना भी करते गए । मुख्य-मुख्य
# उदाहरया-स्वरूप 'विकृद्प' अलंकार का प्रादुर्माव राजानक रुस्यक द्वारा हुआ। यह अछंकार अबतक चछा जाता है । यही बात कतिपय अन्यान्य प्रचक्तित अऊंकारों के संबंध में भी समझनी चादिए।
( ४२ )
आचायों ने जितने-जितने अलंकारों का निरुपण किया है उनकी तालिका नीचे दी जाती है--
| .. आचाये । अंथ __| समय |खंख्याक समय [संख्या अगवान् भरत | नाठ्य-शास््र | विक्रम के पूचे ॥ शव श्व््ट | काग्याऊंकार बि० नवीं घताब्दी| ७३ वामनाचाये ! काब्यालंकार-सूश्रशृत्ति | ,, दशवी ,, | ३१ ओजराज | झरस्वती-इंटामरण । » ग्यार्इवीं ,, | ७२६ महाकवि दंडी | काव्यादशे | 988 + | ४८ मम्मटाचाय | कांब्य-प्रकाश | # बारहवीं ,, | ६७ चाग्भट | वाग्मटारंकार | 8 « कह "के |. ३९ पीयूषवर्षी कयदेव | चंद्रालोक | » तेरहवीं ,, | १०४७ विदवनाथ । साहित्य-्दपंण | » चौदृहवीं ,, । ८४ केशव मिश्र | भर कार-शेखर | » खोलइवीं ,, | श्र _पंडितराज जगधाय | रसगंगाघर 2 अम्डारहबी, | ० रस-गंगाघर | >जठारइबी ,, | ७०
# यहाँ सभी प्रकार के अलंकारों की संक्या मिझछाकर लिखी गई है। पं उपमा, दीपक, रूपक और यभक | [ इनको २७ शब्दालंकार, २४ अथॉ्ृकार भौर २४ उभयाकंकारों में विचित्र ही ठंग से विभकत किया है ।
( ४३ )
इनके अतिरिक्त अन्य आचार्यो ने भी अपनी-अपनी रुचि के अनुसार न््यूनाघिक अलंकारों का निरूपण किया है। कितने ही आचायों ने पुराने अलंकारों फो विकसित किया, कितनों ने नये- नये आभूषण गढ़े और कितनों ने आगे चलकर उनकी काट- छाँट भी की । यही बात हिंदीवरर्लों की है | हिंदी फे आदि आचार्य महाकवि केशवदास ने' कविप्रिया' में अर्लंकारों के 'सामा- न््य! और “विशिष्ट! दो मुख्य विभाग करके “सामान्य! के अंतर्गत ४ और “विशिष्ट” के अंतर्गत ३६, इस प्रकार कुल चालीस श्र॒लं- कार्रों का निरूपण किया है; और उनके परघर्ती आचार्यो ने अपने- अपने मतानुसार संख्या रखी है। जिसकी उन्नति होते-होते सौ के ऊपर संख्या पहुँच गई है।
घतंमान समय में भी प्राचीन अलंकारों के परिष्कार के साथ ही साथ नवीन आभूषणों का आविष्कार भी हो सकता है; कितु आविष्करण तो कला-कुशछ आार्यो का कार्य है। हमने तो आज तक के बने हुए समस्त आमभूषणों को एकत्र करके केवल जाँचा है। अपूर्ण एवं ट्टे-फ़ूटे गहनों को गलाकर श्राह्म अलंकारों का संस्कार किया है । उन्हें सर्वांग-खुंदर बनाया है, माँजकर चमकाया है और आवश्यकतानुसार उनमें नये-नये रत्न भी अपनी ओर से जड़े हैं। हमने माता भारती फो उन्हीं प्राचीन रोचक पव॑ मनोहर भूषणों से अपनी शक्ति भर खुसज्जित एवं प्रसन्न करने का अयत्त किया है। हमने ( कटपना से प्रेरित दोने पर भी ) नये ढंग के भूषणों के निर्माण का साहस इसलिये नहीं किया कि फदाचित् भगवती भारती को नये फैशन के अलंकार अरुचिकर हों। यदि भारती के भक्त उसे नवीन अलंकारों से अलंकृत करना चार तो वे प्रसन्नता-पूर्वक ऐसा कर सकते हैं; परंतु वे नये अलंकार ऐसे होने चाहिएँ जो सर्चे-प्रिय
( ४७ )
हों। तभी उनका प्रचलन हो सकता है ।# हम द्विवेदीजी महोदय का प्रश्न विद्वद्वरों के समक्ष ज्यों का त्यों इस आशा से उपस्थित करते हैं. कि वे लोग इसपर अपने विचार प्रकट करने की कपा करेंगे।
आवश्यक रचनाएँ
प्रस्तुत पुस्तक के विषय से दम अपने प्रिय पाठकों फो निम्नाँंकित बातों की सूचना दे देना आवश्यक समभते हैं--
(१ ) उदाहरणों में अन्य कवियों के सभी पथ, एक आघ को छोड़कर, पूरे-पूरे दिए गए हैं; और एक पद्य एक दी स्थरू पर दिया गया है। स्वयं हमारे पद्म प्रायः पूरे लिखे गए हें; कितु जो थोड़े से पय दो अलंकारों में दिए. गए हैं, वे एक में
* कुछ धुरंधर आाचायों के बनाएं हुए भी नये-नये अलंकार प्रचलित नहीं हो सके । यथा--
(१ ) रुखूट का उभयन्यास, पू्वं और मत ।
(२ ) भोज का अद्देतु, भाव भौर वितक ।
(३ ) दंडी का आाशी ।
(० ) भालुदृत्त के अनध्यवसाय और भंग ।
(५ ) शोभाकर के भ्रचित्य, अतिशय, अनादर, भनुकृति, अवरोह, अ्रधाक्य, भादर, आपत्ति, उद्धेद, उद्देक, क्रियातिपत्ति, गूद़, तंत्र, तुल्य, नियम, प्रतिप्रसव, प्रतिभा, प्रतिमा, प्रत्यादेश, प्रत्यूइ, प्रसंग, वर्दमानक, बिनोद, विपयेय, वैधग्यं, व्यस्यास, व्याप्ति, ब्यासंग भौर समता |
( ६ ) विद्वनाथ का अनुकूछ ।
(७ ) यशस्क के अंग, अनंग, अभ्रप्रत्यनोक, अमीष्ट, अभ्यास, तत्सदशादर, तात्पयं, प्रतिबंध और संस्कार |
(< ) घुरारिदान के भतुल्ययोगिता, अनदसर और अपूर्वरूप ।
( ४५ )
तो पूरे हैं और दूसरे में उनका उतना ही अंश दिया गया हे जितने में वह अछंकार है; तथा वहाँ पर टिप्पणी में यह संकेत कर दिया गया है कि पूरा पद्य अमुक अलंकार में देखिए ।
(२) अन्य कवियों के उदाहरण-पद्यों के नीचे कवि अथवा प्रंथ का नाम लिख दिया गया है। जहाँ पता नहीं चला चहाँ “अजशात कवि' लिखा है। स्वयं हमारे पद्यों के नीचे इल प्रकार का कोई उल्लेख नहीं है ।
(३) डदाहरणों में संस्कृत के हमारे दो और अन्य कवियों के तीन पथ हैं तथा हमने अपने उदूं के दो पद्य भी पाठकों के मनोरंजनार्थ दे दिए हैं ।
(४७ ) 'रामचरित-मानस! के उदाहरणों का पाठ बाबू राम- दास गौड़ की प्रति के अनुखार और 'विहारी-सतसई' के दोहों का पाठ ग्रियर्सन साहब द्वारा संपादित “लालचंद्रिका? के अनुसार रखा गया है ।
(५ ) उदाहरण-पद्यों के कठिन शब्दों पर टिप्पणी तो दी ही गई है और आवश्यतानुसार कहाँ-कहीं पूरी टीका भी दे दी गई है।
(६ ) उदाहरण-पद्यों के जिन अशों में अभिप्रेत अलंकार हैं, वे आवश्यकतालुसार रेखाँकरित कर दिए गए हैं ।
(७ ) ब्ज-भाषा की प्रकृति के अज्भुसार शब्दों के जो रूप काव्य-परंपरा में ग्रहीत हैं, वे दी हमने भी अद्दण किए हैं। उनमें से कुछ मुख्य रूप नीचे लिखे जाते हँ--
( क ) 'णः के स्थान पर “न! और 'क्ष' की जगद “चल! लिखा है।
(ख) 'शः के स्थान पर 'स! का प्रयोग किया गया है; पर प्राचीन श्रंथों में 'भी” अपने शुद्ध रूप में दी पाई जाती है; अतः हमने “श्री” को तो शुद्ध रूप में रखा ही है, साथ ही “श्र! दें
( ४६ )
अन्य रुपों को भी तालव्य 'शः से ही लिखना उचित समझा है; क्योंकि धराचीन पुस्तकों में यह भी प्राय: अपने शुद्ध रूप में ही मिलता है। मूद्धेन्य 'घ! को ज्यों का त्यों रखा है।
(ग ) कहीं-कहीं 'ज्ञ” के स्थान पर “य”ः और 'ऋ!? के स्थान घर 'रि! का प्रयोग भी पाया जाता है; कितु प्राय: ये अक्तर शुद्ध रुप में ही मिलते हैं । हमने भी शुद्ध लिखना समीचीन समझा है।
(घ ) शब्दों के आदि में आनेवाले 'य' को 'जः और 'व' को “ब! लिखा गया है।
यद्यपि उपयुक्त नियमों का पालन बड़ी सावधानी के साथ किया गया है तथापि किसी विशेष स्थल पर आवश्यकता के अजुरोध से इनका अतिक्रमण भी हो गया है।
(०८) दो या दो से अधिक अलंकारों की भिन्नता-बोधक सूचना क्रम के विचार से अंत में पड़नेघाले अलंकार में दी गई है; और पाठकों के सुभीते के लिये ऐसी सभी सूचनाओं की पक सूची भी पुस्तक के अंत में छगा दी गई है।
(& ) गद्य और पद्य में कुछ सानुनासिक प्रत्यय एवं शब्द ऐसे हैं. जिनमें घस्तुत: चंद्रविदु का व्यवहार होना चाहिए; पर मुद्रण की कठिनता के कारण लोग अनुस्थार का ही प्रयोग करते हैं, अत: लेखक और पाठक इस प्रथा के पूरे अभ्यासी हो | गए हें || तो भी हमने की! में, मैं, कों, सौ, कर्मों, ह॒र्षी, दर्षे, भौंहें, आदि के स्थान पर की” में, कम आदि रखने के लिये बड़ी दौड़धूप की और यंत्रालय के प्रबंधकों ने भी इसके लिये व्यय और श्रम करने का वचन दिया । हमने कई टाइप-फाउंडरियों में. इन टाइपों के बनवाने का प्रयल किया; पर उन्होंने ऐसे अप्र- चकित टाइपों के बनाने में असमर्थता प्रकट की तब हमें बाध्य : होकर प्रचलित परिपाटी का ही अजुगमन करना पड़ा ।
( ४७ )
(१० ) दिंदी-गद्यखेखन की कोई निश्चित प्रणाली नहीं है। आ्राय: उसमें मनमानी ही देखने में आती है। शब्दों, प्रत्ययों एवं क्रियाओं को कोई किसी रूप में लिखता है और कोई किसी रझूप में । जैसे--अलंकार, अलक्कार; लिये ( वास्ते के अर्थ में ); लिए; गई, गयी; दिए, दिये; आदि । हमने इस विषय में 'काशी- 2 हक पथ सभा की नीति क समीचीन जानकर समस्त ग्रंथ में उसी का अनुसरण किया है । मुख्य-मुख्य नियमों का ज्यौरा यहाँ दिया जाता है--
शब्दों को पंचम वर्ण से न लिखकर अजुस्वार से लिखा है। यथा--शंकर, पंचम, तांडव, आनंद, जगदंबा। वास्ते के अर्थ में आनेवाले (लिये! को हमने “लिये” द्वी लिखा दे “लिए नहीं लिखा है। क्रियाओं के अत में 'ई! और “ए/ रूप अहण किए हैं। यथा--आई, किए। विभक्तियों को शब्दों से अलम रखा है। जैसे--गंगा को, किंतु सर्वनाम के साथ विभक्तियाँ मिलाकर लिखी गई हैं। जैसे--उसको, सबकी इत्यादि ।
लपसंहार
कुछ ग्रंथों में अलंकार-दोषों का निरूपण भी पाया जाता है; पर उन्हें विशेष प्रयोजनीय न समभकर हमने उनको लिखकर विस्तार नहीं किय(।
कई प्राचीन प्रंथों में 'रसवत्” आदि सात घा आठ अलंकार और भी माने गए हैं; परंतु उनका संबंध रसों और भावों से है। ज़बतक रसों और भावों का निरूपण न किया जाय, तब- तक उनका यथा स्वरूप सममाना कठिन ही नहीं, असंभव है। हमने इस पअ्रंथ में रस-माघों का वर्णन नहीं किया है; अतः उनकी जिवेचना भी नहीं की गई दे ।
( छउ् )
यहाँ पर हम इस पुस्तक के नाम के संबंध में भी कुछ निवेदन कर देना चाहते हैं। जिस समय हमने इस प्रंथ का आरंभ किया था, उसी समय हमने इसका नाम “भारती-भूषण' रखा था; परंतु जब इसका कुछ अश छप गया, तब हमें पता चला कि “भारती-भूषण” नाम को एक और अलंकार-संबंधी पुस्तक सन् १८६७ ई० में काशी के 'छाइट प्रेस” में प्रकाशित हुई थी जिसके रचयिता भ्रीयुत गिरिधरदासजी कवीश्बर थे। चह बहुत छोटी केवल २४ पृष्ठों की पुस्तक थी। वह पुस्तक अब साहित्यिक समाज के स्मरण-पथ से निकल छुकी थी, और इस समय उसका अस्तित्व नहीं के समान था । इसीलिए हमने अपने इस श्रंथ का नाम 'भारती-भूषण' ही रहने दिया।
इस पुस्तक के प्रस्तुत करने में हमने जिन-जिन कवियों के पद्य उदाहरण-स्वरूप उद्धुत किए हैं उनकी और संस्कृत तथा हिंदी-भाषा के जिन-जिन ग्रंथों से मत एवं प्रमाणादि के रूप में सहायता ली है उनके रचयिताओं की सूचियाँ पुस्तक के परिशिष्ट भाग में दे दी हैं। उन सभी महाशयों के हम श्रत्यंत रतज्ञ हैं ओर उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं ।
परम पूज्य गुरुवर गोस्वामी गणेशपुरीजी 'पहमश” के सी हम आभारी हैं. जिनकी कृपा से अलंकार-शासत्र की ओर हमारी प्रवृत्ति हुई ।
सेतंत्र-स्वतंत्र साहित्यद््शनाचार्य गोस्वामी दामोद्रलालजी शास्त्री, महामहोपाध्याय पं० देबीप्रसादजी शुक्ल कवि-चक्रवर्ती, पं० देवकीनंदनजी शास्त्री प्रिसिपल-टीकमाणी-संस्कृत-कालेज काशी, साहित्याचार्य पं० ताराचंदजी भद्दाचाय, घेदाचाये पं० विद्याघरजी शास्त्री ( अश्निहोत्री ) प्रिसिपछ धर्म-विज्ञान-विभांग, हिंदू विश्वविद्यालय काशी, सांदित्याचाय पं० रामप्रियजी कवि,
( ४६४ )
चं० रामचंद्र जी शुक्क प्रोफेसर हिंदू-विश्व-विद्यालय, काव्य-म्म्न सेठ कन्हैयालालजी पोद्दार तथा खाहित्य-रत्न बाबू रामचंद्रजी वर्मा ( सहायक संपादक हिदी-शब्द-सागर ) ने समय-समय पर अपने अमूल्य परामर्श द्वारा सहायता पहुँचाकर इस ग्रंथ को गौरवान्धित किया है; अत: इन महानुभावों के हम अत्यंत कृतज्ञ हैं और इन्हे धन्यवाद देते हैं । इनके अतिरिक्त 'माघुरी” एवं 'खाहित्य-समालोचक! के संपादक पं० कृष्णविहारीजी मिश्र बी० ए०, एलू-एलू> बी महोद्य ने अधिक कार्य-भार होते हुए भी हमारी प्रार्थना पर परिश्रम- पूर्वक प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका लिखकर इसको अधिक उपा- देय बना दिया है, जिसके लिये हम उनके बड़े अनुश्हीत और ऊतज्न हैं | विशेषतः कविवर पं० रामनरेशजी त्रिपाठी, प्रोफेसर छाला भगवानदीनजी “दीन! और साहित्य-एत्न पं० विश्वनाथ- प्रसाद् मिश्र 'मुक्ुंद! ने अपना बहुसूल्य समय देकर अपने सत्परामशशों द्वारा इस अ्ंंथ को उपयोगी बनाने में कोई बात उठा नहीं रखी है; अतएव हम इन तीनों महोदयों को अतःकरण से अनेकानेक धन्यघाद देते हैं । शुद्ध सच्चिदानंद परमात्मा के अति रिक्त और कोई व्यक्ति निर्दोष नहीं हो सकता । संसार में भूल-चूक सभी से होती है। हाँ, इतना अवश्य द्वै कि जो छोग प्रौढ़ पंडित होते हैं, उनसे बहुत कम और हमारे ऐसे अल्पज्ों से बहुसंख्यक भूल होती हैं। जिस- पर यह अलंकार-शास्त्र तो बहुत ही विवाद-ग्रस्त तथा गहन है; और इसमें भूल न होना ही आश्चर्य की बात है, भूल होना तो भाय: स्वाभाविक ही है। निदान हमारा अ्रंथ भी उक्त सिद्धांत का किसी प्रकार से अपवाद नहीं हो सकता; परंतु सह्ृदय सज्ञन श॒र्णों पर ही ध्यान देते हैं, दोषों पर नहीं। किसीने कहा भी दै--
( ४० ) “हट किमपि लोकेउस्मिन्न निर्दोष॑ न निर्येणम् । आहणुध्वं यतो दोषान विहृणुध्वं यतो गुशान् |”
अतः: आशा दे कि विद्वदुव्ृंद एवं प्रथीण पाठक-गण हमें आूलों के लिये केघल क्षमा ही नहीं करंगे, अपितु हमें भूछों की खूचना देकर भविष्य में इस पुस्तक के खुधार करने में सहायक दोते हुए अज॒ग्रद्दीत भी करेंगे। हे
अंत में हम यह भी निवेदन कर देना चाहते हैं कि यह ग्रंथ विद्द्दरों के समक्त चाहे कैसा ही क्यों न सिद्ध दो; किंतु अलं- कार का अध्ययन करनेवाले विद्यार्थियों के लिये तो अवश्य कुछ न कुछ उपयोगी द्ोगा। यदि ईश्वर की कृपा से हमारी यह धारणा सत्य हुई तो दम इतने से ही अपने परिअ्रम को सफल और श्रपने-आ्रापको छतकृत्य सममभेंगे।
विनम्र निवेदक-- अजेनदास केडिया रतननगर ( बीकानेर ) निवासी संप्रति 7
6.0, ९०४
४ ५५ ॥१/४५०/०४
2४४ 2८:॥< - ।<० ७.८
अलंकारों की अनुक्रम-सूची
नाम शब्दालंकार---
(९) अनुप्रास सूचना में बैण-सगाई (२) छाटानुप्रास (३) यमक (४) पुनरुक्तददाभास (५) पक्रोक्ति-शब्द (६) शब्द-इलेष (७) वीप्सा (८) चित्र
अथोलंकार--
(१) उपमा
(२) अनन्वय (३) उपमेयोपमा (४) अ्रतीप
(४) रूपक
(६) परिणाम (७) रलेख
(८) स्मरण
(&) आंति
प्र्छ्ठ नाम प््ष्ट क् ०) संदेह श्२१
५ | (११) अपहृति ११३ १७ (१२) उद्रक्षा १२३ 5 (१३) अतिशयोक्ति १३७ हक (१७) तुल्ययोगिता १४७ ३१ (१४) दीपक श्श्छ ३३ (१६) कारक-दीपक श्र ३७ (१७) मालछा-दीपक श१्५शज हे (१८) आइृत्ति-दीपक. ६ हर सूचना में देहरी-दीपक परे (१६) प्रतिवस्तूपमा श्च्श
(२०) दृष्टांत १६७
५४३ सुचना में उदाहरण १६७ ७७ | (२१) निदशना 30 3५ | (२२) व्यतिरेक श्ञ८ ७७ | (२३) सहोक्ति श्घरे ८४ | (२७) विनोक्ति श्प्ड १०१ | (२५) समासोक्ति श्घ्७ १०२ | (२६) परिकर १६१ १०६ | (२७) परिकरांकुर १8३ १०६ । (रुम) अथे-इलेष १६३
नाम (२६) अप्रस्तुत-प्रशंसा (३०) पयौयोक्ति (३१) व्याज-स्तुति (३२) आक्तेप (३३) विरोध (३७) विभावना (३४) विशेषोक्ति (३६) असंभव (३७) शअसंगति (३८) विषम (३६) सम (४०) विचित्र (४१) अधिक (४२) अल्प (४३) अन्योन््य (४४) विशेष (४५) व्याघात (४६) कारणमाला (४७) एकावली (७८) सार (४६) यथासंख्य (४०) प्यौय (५१) परिवृत्ति (४२) परिसंख्या (४३) विकल्प
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पृष्ठ १&७ २०२ २०५
श्न्प
र्श्२ २२२ श्श्८ २३२ २३७ श्रे८ २७३ २७७ रछ८ र्श०
- २५१
२५४५ २५६ २६१ रद श्ददद
श्ध्घ
२६६ २७२ रश्ज्प २७७
| नाम | (४४) समुश्ञय | (४५) समाधि ! (५६) प्रत्यनीक (४७) काव्याथोपत्ति (४०८) काव्यलिंग (५६) अथातरन्यास (६०) विकस्वर (६१) प्रौढ़ोक्ति (६२) संभावना | (६३) मिथ्याध्यवसिति ' (६४) ललित | (६४) प्रददषण (६६) विषादन , (६७) उल्लास | (६८) अवज्ञा | (६६) अनुज्ञा (७०) तिरस्कार | (७१) लेश (७२) मुद्रा (७३) रत्नावढी (७७) तद््गुण (5५) पूरवेरूप (3६) अतद्गुण (७७) अनुगुण (७०) मीलित
२८ रण श्८र श्प्रे श्र रप७ र२€० ञ् २&४ २७६७ २&६& ३०० ३०३ ३०४. ३०८. ३१० इ१२ ३१३ ३१५ शेश्८ ३१७ ३२० ३२२ ३२७ हे२५
नाम (७६) सामान्य (८०) उनन्मीलित (८१) विशेषक (८२) उत्तर (८३) सूक्ष्म (८४) पिह्ित (०५) व्याजोक्ति (८६) गृद्रोक्ति (४८७) विबृतोक्ति (८०) युक्ति (८७) लोकोक्ति (४०) छेकोक्ति.. (६१) वक्रोक्चि-अथ
( परे )
ज्छ ३२७ शेश््न ३२७ ३३० ३३७ ३३६ ३३७ शेरे८ ३४० ३७१२ शे४रे ३४७ ३४७
नाम (&२) स्वभावोक्ति सूचना में जाति (&३) भाविक । (&७) उदात्त ($५) अत्युक्ति (&६) निरुक्ति | (&७) प्रतिषेध (&८) विधि (&&) दवेतु (१००) प्रमाण उभयालंकार-- (१) संसष्टि (२) संकर
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भारती-भूषण
मंगलाचरण श्रीगणेश-सरखती -स्तुति । आया छंद ।
वीणावाद्यप्रवी्णं बाणीवितताय वागधिष्ठात्रीम् | वन्दे वारणवक्ज विफर्ट विज्नाय घिन्नानाम्॥ &
कवित्त । बिघन अतोक' ओक-ओक ' अवलोकि, उमा- डर मैं दया-प्रवाह उमग्यो अपार है। तिनके बिनासन अ्रसन लो गनेसजू को , गिरिजा निजांगन ते बिरच्यो5वतार है॥
१ भारी । २ स्थान ।
& वीणा-वाय के बजाने में चतुर और बाणी की अधीश्वरी श्रीसर- स्वतीजी को अपनी बाणी के विस्तार के निमित्त एवं हस्ती के मुखवाले तथा विकट (स्थुल-शरीर ) श्रीगणेशजी को विज्नों में विशन्न करने ( विन्न-निवारण ) के लिये नमस्कार करता हूँ। यहाँ नमस्कारात्मक मंगल है। इस पथ के 'वाद्य' का 'थ! हस्व ही समझना चाहिए; क्योंकि संस्कृत के 'प्रड्वेवा! विंगल-सूत्र के अनुसार 'प्रः और “ह? के एव के अक्षर को लघु भी मान सकते हैं।
२ भारती-भूषण
खुकुमारी खुंद्री कूसोदरी सिवा' पे रज्यौ , थूल बिकराल लंबउद्र कुमार है। पूजि पाद, पूजा-पद-आदि दे अजादि कक्मी , “जय हो गनेस जै गनेस” बार-बार है ॥ &
दोहा । मिरा कला-सकला्थमय करि' मोहि करिय छृतार्थ । प्रनवों करिय परार्थ ', निज्र गिरा नाम चरिताथे॥
ओ्रींशिच-सतुलि । कवित्त ।
मर “-हन, मरदन-मयन, नयन त्रय , बट-तर अयन”/ रजत-परबत -पर |
चरम-वलन, तन भसम, प्रमथ गन, ससधर -धरन, गरल-गर-गरधर / ॥
हरन-ब्यसन' -ज़न, करन-अमल-मन , भज़ मन! असरन-सरन अमर-बर।
चढ़त वरद”, वर वरद” प्रनत-रत , हरत जगत-भय, जय जय जय हूर॥
4 पार्वती । २ ब्रद्मादिक देवता्ों ने पाद-पूजा करके आदि-पूजा का अधिकार दिया। ३ मेरी गिरा (बाणी) को सकऊ ( चौंसठ ) कलाओं से युक्त करके । ४ परोपकार । ५ सरस्वती । ६ यज्ञ + ७ काम। < घर। ९ कैलास । १० चंद्रमा । ११ गले में विष और गर-घर ( विष-धर साँप ) हैं। १२ दुःख। १३ बैल। १४ वर देनेवाले ।
& यहाँ आशीर्वादात्मक मंगल है ।
मंगलाचरण ३
अ्रीगंगा-स्तुति ।
सबैया । कारन आदि तिहारो कह्यौ फमलासनजू को कमंडलु कारों । भयो घन स्थाम' जबें पद्मापति को पद पूत पज़्ारों ॥ ही तृतीय भयौ है जिलोचन-जूट-जटान को घोर आऑँधारो । तीनहँ ' अंब ! अचंमित हें लखि, कंबु-कदंबक-अंबु ' तिहारो ॥ श्रीसाहित्य-रतुति । छप्पय । प्रतिभा उभय प्रकार अवनि आधार बारि थर। प्रतिपादक-रमनीय-अथे-पद मल मनोहर ॥
गुन-गुंफित तय बृक्ति साख सब रखिक-रिक्रावन ।
वृत्त-त्रात बहु पात, खुलच्छुन सुमन खुहावन ॥ फल सरस-माव-ध्वनि चित्र पुनि माली मुमि-कवि-आदि अरू ।
भरतादि ब्यास तुलसी, जयतु खुख-सर्मद साहित्य-तरू ॥&
$ अल्यंत श्याम । २ चिद्णु । ३ प्रक्षाऊन किया | ४ ब्रह्मा, विष्णु, मद्देश और त्रिोक । ५ शंख-समूद्द के समान जल ।
& सहजा ( ईश्वर-दत्त या पूर्व संस्कार-जन्य स्वयमेव प्राप्त साहित्य यीज रूप संस्कार ) एवं उत्पाद्या ( निपुणता ओर अभ्यास द्वारा स्वार्जित ) ये दो प्रकार की प्रतिमाएँ ( शक्ति ) ही आधार रूप पृथ्वी एवं उत्तम जलू हैं। “रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्द:” ( रमणीय अर्थ देनेवाला शब्द ) मनोद्दर मूल है। माधुयांदि गुर्णों से अ्रथित उपनागरिकादि तीनों बृत्तियाँ सब साहित्य-रसिकों को प्रसन्न करनेवाली शाखाएँ हैं । नाना प्रकार के छंदों के समृद्ध अनेक पत्र हैं। शुभ लक्षण मनोहर पुष्प हैं। स्थायी आदि चारों भावों सह्दित, शंगारादि नरवों रसों से युक्त ध्वनि €ब्यंग्य ) एवं
भारती-भूषण अलकाएर जिसमें स्पष्ट व्यंग्य के विना (अप्रधान रूप से कुछ आंतरीय व्यंग्य होते हुए ) अथवा व्यंग्य के सवंधा अभाव में काव्य के शब्दों वा अर्थों की चप्रत्कारिक रचना हो, उसको “अलंकार!” कहते हैं । # यद्यपि इसके अनेक भेद होते हैं, तथापि प्राचीन आचार्यों ने उनको (१) शब्दा- लंकार (२) अ्रथोालंकार और (३) उभयालंकार इन तीन भागों में विभक्त करके फिर इनके अंतर्भेद बनाए हैं। शब्दालकार शब्दगत चमत्कार को 'शब्दालंकार' कहते हैं। * यदि ऐसे चमत्कारपूर्ण शब्दों के स्थान पर पर्यायवाची शब्द रख दिए जाय तो चमत्कार न रहेगा | इनकी संख्या के विषय में ग्रंथकारों में मतभेद है; किंतु हमने निम्नोक्त आठ शब्दालंकारों का विवेचन समीचीन समझा है--
खित्र ( अलंकार ) फल हैं भर साहित्य-निर्माता सुनि आदि-कवि (वाल्मीकि $, भरतादि, भगवान् वेद्ब्यास एवं गोस्वामी तुझसीदास माली है। हस प्रकार का जो साहित्य-वृक्ष ( सांसारिक ) सुख तथा छर्म ( परम- शांति ) दायक है, उसकी जय हो। यहाँ “बस्तुनिर्देशात्मकः मंगल है। & इंसका सविस्तर वर्णन भूमिका में किया गया है । + ब्याकरणादि शास्त्रों में शब्द को शरद्म माना है। यथा--
अलुप्रास है
(१) अनुप्रास
जहाँ केवल वर्ण ( अक्तर ) की अथवा स्वर-सद्दित ७ प बण की समता हो ( एक बार कथन किए हुए वर्ण का फिर कथन किया जाय ), वहाँ “अलनुप्रास' अलंकार होता है। इसके दो भेद हैं--
«& अनादिनिधन ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवतते5थंभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥?? --भठ्हरि ( वाक्यपदीय ब्रद्मकांड ) । भर्थात् आादि-धंत-रहित जो नित्य बह्म है, वही शब्द का स्वरूप द्द और वही भर्थ भाव से जगत् में विवर्त रूप से प्रतीत होता है। पुनः-- « शबदबह्म सुदुर्बोच प्राणेन्द्रियमनोमयमसर् । अनन्तपारं गस्मीरं दुर्विंगाह्य॑ समुद्ववत् 0? --श्रीमद्धागवत ( एकादश स्कंघ ) । इन प्रमार्णों से शब्द का विशेष महत्व सिद्ध होता है और वही शब्द्- अद्म परंपरा से बैखरी ( मुख से जो शन्द बाहर निकलता है, उसको बैखरी बाणी कहते हैं ) रूपी विवत्त द्वारा अर्थ को समभाता है, भर्थ से पहले श्रवण द्वारा शब्द का द्वी अनुभव होता है; अतः अर्थालंकारों से पहले शब्दालंकार लिखे गए हैं। $भ्रजाइईडऊ ऋकऋ ल लू ए ऐश ओ अं भा ( खवर ) भर कखगधरूु,चछजमण, टठडठढण, तथद्धन, पफबभ म, यरलव, शप सह, ( व्यंजन ) ये सब वर्ण ( अक्षर ) कहलाते हैं। इनकी समता यों हे--“अति उदार! में अ, उ की तथा “कंचन-कलदा!” में 'कः की। २ यथा--'राम नाम? में प्रथम अक्षर में मिले हुए “आ? €। ) स्वर-सहित 'म? अक्षर की ।
है भारती-भूषण
१ छेकानुपास जिसमें एक अत्तर वा अनेक अक्तरों की, खर-संयुक्त वा भक्तर मात्र की समता ( दो बार कथन ) हो । १ उदाहरण यथा--कवित्त । . मैं हों एक मात्र सो अनेक होहईँ इच्छा भई, चित्त में स्वते ही स्वतःसिद्ध' खुखकंद के ।
ताही छिन ताके संकलप ही ते बिस्व-बीज , प्रगय्यो बिरंचि, बीच नाभि-अरबिंद के॥ ताके भए मन ते मरीचि अन्रि आदि पुत्र, अति के भयो है चंद औसर अनंद के॥ ताखु बंस भाँहि भो ययाति भयौ ताके यदु, पुरुषा ये कान्हर करैया दुख ढंद के॥ यहाँ 'एक नेक' में 'ए! खबर युक्त 'क' का, “चंद नंद में अनुस्वार- युक्त 'द' का तथा 'विस्व-बीज', 'बिरंचि बीच', 'मन मरीचि', “अत्रि आदि', औसर अनंद', 'कान्हर कटेया' एवं दुख ंद में क्रमश: ब, य, म, अ, अ, क, द, वर्णों का साद॒श्य (दो दो बार कथन) है ।
२ पुनः यथा--दोहा । कवि फेसव-आसय गहन, गढ़ अमल अकलंक | मैं मतिरंक कह्यो चहों, ज्यों सिखु चहै मयंक | यहाँ भी कवि केसव! में 'क” की, “गहन गूढ़” में 'ग! की, “अमल अकलंक' में 'अ! की और 'में मतिरंक' में 'म' को आवृत्ति डुई दै ।
१ परमात्मा । २ कारण ।
अनुप्रास ।
३ पुनः यथा-दोहा । मुख मंजुल खुखमहिं लखत, मित्र-मयूखनि कज । चख अंजन-अंजित, भूखरू खंजन चपल खुरंज॥ यहाँ भी 'मुख मंजुल' एवं “मित्र-मयूख' में 'म' की, 'मुख सुख' में 'उ' खर के साथ 'ख की, 'चख मर में अर स्वस्-सद्दित 'ख' की, और 'अंजन-अंजित' में 'अ' 'ज' की आवृत्ति हुई है । खूचना--कुछ अंधकारों का मत है कि केवल एक अक्षर का साद्गश्य होने से 'छेकानुभास? नहीं हो सकता; किंतु प्रायः अंथकारों के मत से और हमारे विचार से एक वर्ण की समता से 'छेकानुप्रास” अवश्य हो जाता है । जैसे--उपयुंक्त तीनों प्यों के “विस्व-बीज! में 'ब' की, 'कवि केसव! में 'क? की एवं 'सुख मंजुल' में 'म? की है। किंतु यदि यही समता 'अमल अकलूंक? में 'ल? की, 'मतिरंक कद्यौ! में 'कः की एवं 'खंजन सुरंज! में “जः की सानी जाय तो चम्रत्कार का अभात्र होगा। २ ब्ृक्ति अनुप्रास लिसमें हत्तियों के नियमित वर्णालुसार एक वां अनेक अक्तरों का स्व॒र-संयुक्त वा केवल अक्तर का अधिक बार सादश्य हो (तीन वा अधिक बार कथन हो ) | दृत्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं -- ( के ) उपनागरिका (वैदर्मी ) वृत्ति जिसमें प्रायः माधु्य गुण॑-सचक वर्णों से वर्णन किया जाय, वह 'उपनागरिका' हृत्ति होती है--
$ झ्ये की किरणों से । २ प्रसाद गुण तीनों बृत्तियों में ब्याप्त र्ड्ट सकता है।
मा भारती-भूषण
(अर) कवगे से पवर्ग पर्यत २४ वर्ण स्पर्श कहे जाते हैं| इनमेंसे “* ठ ड ढ को छोड़कर शेष (कख गघरू, चछज भू ज, ण, त थ द धन, प फव भ म) २१ अक्तर इस दत्ति के हैं।
(आ) उक्त पाँचों वर्गों के अंतिम अच्तषर (डजण नम) सातुनासिक कहलाते हैं। इन्हींसे श्रजनुस्वार होते हैं, इन अलुखारों-सहित शब्द हों। यथा-गंगा, कैज, कंठ, संत, शंभ्रु इत्यादि ।
(३ ) णकार एवं रकार इस हों |
(ह ) समास' न हों, यदि हों तो छोटे ( अल्प शब्दों के ) हों ।
$ अ, आ, इ, ई आदि स्वर-अक्षर सभी वृत्तियों में आ सकते हैं; अतः इनको हमने लक्षण के साथ नहीं लिखा है । इनके हस्व रूप “उपनागरिका? तथा 'कोमला!” में भौर दीघ॑ रूप 'परुषा? वृत्ति में उपयुक्त जान पढ़ते हैं । यद्यपि अनुप्रास का विचार करते समय भाषा-प्रंथों में हस संबंध में कुछ भी नहीं कहा गया है, तथापि इससे यह न समभना चाहिए कि स्वर अनुप्रास-निर्वाहक होते ही नहीं। स्वतंत्र स्वर भी अनजुप्रास-निर्वाइक अवश्य होते हैं । जैसे--““उयोौ भाजु भानद्टि अवनि अलि! अकलंक मयंक ।?? २ एक से अधिक शब्द मिलाए जाने से एक पद बनता है। उसके मध्यगत शब्दों में विभक्तियों का लोप होता है और केवल भ्रंतिम शब्द के प्ताथ विभक्ति रहती है जिधको समास कहते हैं। जैसे--'रा म-राज्य? में 'राम? और राज्य? दो शब्द हैं। इनका समाप्त होने से पूर्व 'राम का राज्य? रूप था, किंतु षष्ठी विभक्ति-बोधक “हा? का लोप होने के कारण पराम-राज्य” एक पद् बन गया। यही समास है।
अलुप्रास &
्श््ं्ल्च्च्च्च्््ल्््िजत
यह हत्ति धृंगार, करुणा एवं हास्प रस में उपयोगी होती है। इसके दो भेद हैं-- [$ ] एक अक्षर-समता १ उदाहरण यथा-दोद्दा । या जे ४! ७, पंचम'पूरित जो करे, पिय-पुर पहुँचि पुकार।:*' तो पाते प्रिय पथिक पिक ! तुदुँ परभ्वत' उपकार॥
यहाँ माघुय गुण-व्यंजक' एक पकार को कई बार आवृत्ति है, रकार लघु हैं और टवर्ग का अभाव है । २ पुनः यथा--सवैया । अकलंक मयंक सो आठम को रचि श्रीहरि-ही रिक्रिएँ ही गयो । खुखमा की सभा द्रबार-खिंगार को सार निकार लिएँ ही गयो॥ ग़ुन-आगर रूप-उज़्ागरता नय नागरताई दिएँ ही गयो । लिखतो पति-प्यार अपार लिलार बड़ो करतार किएँ ही गयो ॥ यहाँ भी टवर्ग-रद्दित प्राय: मघुराक्षरों की रचना दे और द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में “आ स्वर-सद्दित रकार का अनेक बार प्रयोग हुआ है ।
३ पुनः यथा--कवित्त ।
कंकन करन कल किकिनी कलित कटि ,
कंकन केगूर कुच केख-कारी-यामिनी | कानन करनफूल कोमल कपोल कंठ ,
कंबुक कपोत-प्रीव.. कोकिला कलामिनी' ॥
$ गाने का स्वर-विशेष। २ अन्य द्वारा पाछा छुआ। ३ बोध करानेवारा । ४ बोलनेवाली ।
न््््््च्च्च््ल्ि्ल्ल््ल्िज्
१० भारती-भूषण
केसर कुसुंभ कलधौत' की कछू न कांति , कोबयिद 'प्रबीन-बेनी करिवर-गामिनी ।
क्येक-कारिका' सी किन्नरीक-कन्यका सी कैधों , काम की कला सी कमला सी कोई कामिनी ॥ --बेनी-प्रबीन-बाजपेयी ।
यहाँ भी केवल मधुराक्षर ककार की अनेक बार आवृत्ति हुई है और अनुस्वारों की अधिकता है । ४ पुनः यथा--कवित्त । बालक बनाये बुध बिमल विबेकवंत , बिबिध बज़ाबें बीन बीन-वेनवारी है। बेदन बखानी, बेद-बानो तें वानी बानी ! बिच्ुध-विपच्छिन' की बुद्धि लेनवारी है ॥ बारी बेसवारी बर बिसद् सवारी, बेष बिमल विराजै बारिजात-नैनवारी है। बिघु से बदनवारी बैठिके बदन-बारी", बेदन-बदनवारी बुद्धि देनवारी है॥ “- शिवकुमार 'कुमार! । यहाँ भी मधुराक्षर बकार की अनेक आवृत्तियाँ हैं और प्रायः इसी वृत्ति के अक्तर हैं ।
[२] भनेक अक्षर-समता
१ उदाहरण यथा--सोरठा । चरचा-नंदकिसोर, अरचा उनही की करे। यर चाहे नहि ओर, हर चाहै विधि होहिं किन ॥
$ सुबर्ण । २ कोकशाख्त्र की कारिका (सूत्र) | ३ शत्रु । ४ खिड़की ।
अलुप्रास श्र
यहाँ टवर्ग-व्ित प्रायः मधुराक्षरों की योजना दे ऋर चारों चरणों में 'अ' स्वर के साथ रकार चकार का साद॒श्य है । २ पुनः यथा--सोरठा । सिद्धि-सदन मुद-सूल, मदन-कदन-खुत गज-बदन । बिघन-हरन, अनुकूल कीजिय गन सवदन बरन || यहाँ भी टदर्ग-रहित मधुराक्षरों की रचना दे और 'अ' स्व॒र-युक्त 'द! 'न' की कई बार समता है । ३ पुन: यथा--सोरठा । विकसत बौर'-मिठास, निकसत नव पल्लव निदरि। पिक ! सतराय' पलास, धिक्रसत सेवत मंदमति ॥
यहाँ भी चारों चरणों में 'इ! स्त्रर-युक्त 'क” 'स' 'त' अक्षरों की समता और प्रायः मधुराक्षरों की रचना दे । ४ पुनः यथा--कवित्त |
मीन-मन-रंजन त्यों खंजन मुदित मन,
कूदत कवहुँ वन सघन सिधारे हैं। बिकसत फकंज हरघत ही“-हरिन-पुंज,
दीखत दुख्यारे कबहूँक मन मारे है समता मिले तें उपमान सब राज़त पे,
कवबहूँ अनादर ते लाज़त बिचारे हैं। रोचन सकल सोच-मोचन् मरोरवारे,
वे ही अनरोचन विलोचन तिहारे हैं।॥
$ आम्र-पुष्प । २ गये करके । ३ जल जोर जंगल । ४ हृदय ।
५२ भारती-भूषण यहाँ भी चतुर्थ चरण में “ओ! स्वर-युक्त “बच” “न! अक्षरों की समता है । (ख ) परुषा ( गोंडी ) बृत्ति जिसमें प्रायः ओज ग्रुण-व्यंजक परुषाक्षरों का प्रयोग हो, वह “परुषा हत्ति! होती हे -- (अ ) इस दृत्ति के लिये ट, ठ, ढ, ढ, श, प, ब्यंजन नियत हैं । (आ) द्वित्व वर्ण; यथा--स्वच्छ, मत्त, युत्य, मन्न आदि ओर संयुक्त वणे; यथा--लक्षा, पृष्ठ आदि हों । ( ३ ) रकार-मिश्रित वर्ण तथा रेफ-युक्त हों; यथा-चक्र, पत्र, तक, दप॑ आदि । ( ई ) लंबे ( अधिक शब्दों के ) समास हों । यह दृत्ति रौद्र, वीर एवं भयानक रस में उपयोगी
होती. है. १ उदाहरण यथा--दोहा ।
उलरि ब्रच्छ, फल भच्छि, हनि रच्छुक रच्छुस लकख । कटकटाय मककंट-मुकुट, कट पटकेउ भट अक्ख ॥ यहाँ ओज गुण-बोधक द्वित्व वर्ण एवं टक्ाार की भरमार और रेफ है । २ पुनः यथा--चौपाई (अऊद्ध ) । $ अच्छु मालतच्छुक बिसाल की | अच्छ दच्छ-दुहिता-कपाल की ॥
3 कठोर भ्क्षर। २ रावण का पुत्र अक्षयकुमार ) ३ !॥ ३ रुद्राक्ष की ।
अनुप्रास श्र
न्स्न्स्व्च्व््व्ल्ल्ल््ल््ल्ल्चिजी 5
यहाँ भी 'अ' स्वर-पूवेक भोज गुण-बद्धक द्वित्व अक्षर च्छो की अनेक आवृत्तियाँ हैं ।
३ पुनः यथा--कवित्त । राम | श्रुव-मंडल-अखंडल' तिहारे भ्ुज- दंड लेत कोदड अखंड बैरी कूटे जात। मंडि ना सकत रन-मंडल, अखंड तेज खंडे खंड-खंड के मवास वास लूटे जात ।॥ चलत - उदंड दल-मंडल-वितुंड-मुंड, खेंचे सुंडादंडनि उदग्ग डुग्ग छूटे जात। छुंडे द्ग-मंडरीक पुंडरीक भू को भार, कुंडली सँकोरे फन पुंडरीक' फूदे जात॥ “-कुमारमणि भट्ट । यहाँ भी “अं! एवं “डं? खर-युक्त ओज-गुण-बद्धंक डकार की अनेक आवृत्तियाँ हैं, द्विव्व वर्ण हैं और टकार का प्रयोग भी है ।
, ( ये ) कोमल्ा (प्रांचाली ) वृत्ति ' जिसमें प्रायः य, र'॑, ल, व, स, ह, व्यंजनों का व्यवहार हो और समास का अभाव हो वा छोटे समास हों, वह 'कोमला दृत्ति' होती है। यह दृत्ति शांत, अद्भुत ओर वीभत्स रस में व्यवहत होती है ।
१४ंद६।२ उद्प् ( ऊँचे )। इ डुग॑ ( गह ) । ४ एक दिग्गज । ५ श्वेत छन्न। ६ यहाँ दीघे रकार से तात्पये है ।
श्४ भारतो भूषण
हित +> ले >ल
१ उदाद्ररण यथा--दोद्दा । इहिं असार संसार मैं, सार चार कह ब्यास। गंग-सलिल सत-संग सिव-सेवन कासी-बास ॥ यहाँ सकार की अनेक आवृत्तियाँ और ल, व, द अक्षरों का बाहुल्प है; अतः यद्द माघुये तथा ओज गुण-रद्वित दै । २ पुनः यथा--कवित्त । गोपी ग्वाल माली जुरे आपुस में कहेँ आली ! कोऊ जखसुधा के अ्रवतस्यों इंद्रजालो है। कहै 'पदमाकर' करे को यों उताली जापे, रहन न पावे कहूँ एकौ फन खाली है॥ देखें देवतालो भई विधि के खुसाली कूदि, किलकत काली हेरि हँसत कपाली हे। जनम को चाली एरी अद्भुत है ख्याली आज, काली की फनाली पे नचत बनमाली है।॥ >पगाकर । यहाँ भी “आ?” स्वर-सद्दित लकार की अनेक ओआवृत्तियाँ हैं। सूचना--राजपूताने के बारहठ कवियों में पिंगल की मंति “डिंगल' छंद-शास्त्र का भी श्रचार है। पद्म के प्रत्येक चरण का प्रथम शब्द जिस अक्षर के आदि का द्वो, उसी अक्षर के आदि का कम से कम एक और शब्द उसी चरण में रखने का नियम इसमें अनिवार्य है । इससे 'अनुप्राख”' का चमत्कार द्वोता है। इसका नाम बैण-सगाई” प्रसिद्ध है (इसका उल्लेख ओऔउत्तमचंद-भंडारीकृत अलंकार-आशय” नामक पंथ में भी है | )--
है (2 कक | ५9? अमर ह अल्ज॒प्रास श्प
६२६२७६०२०७६३२३६२+७००+५०४२२५५००५नर 25222 ७त5८> ८2 चपटेक पर कल धर प पर
१ उदाहरण यथा--सोरठा । की मै कृपा बिसेस, मा करणी' ! करणी-खुमति । पूजे पूरब' 'देख', उत्तर 'णोक' अणी-घर्णी' ॥ यहाँ 'कीजे' 'कृपा, 'मा' “'मति', 'पूजै! 'पूरब'ं और “उत्तर! “अणी” शब्दों में 'बैण-सगाई' है । २ पुनः यथा--सोरठा । जा बिन रहो न जाय, एक घड़ी अद्गों ह॒वाँ । दोष कटे वे-दाय , रोष न कीजै राज़िया !॥ हक ..... --बारइठ कृपारास । यहाँ भी जा? 'जाय”, एक! 'अछ्कगो', दोष दाय'ं और “रोष! 'सजिया” क्रमश: चारों चरणों में कछ्दे गए हैं । ३ पुनः यथा--सोरठा । आये बस्तु अनेक, हद नाणो गँडे ह॒वे। अकल न आवबे एक, कोड़ रुपैये 'किसनिया' | प्र --+किशनिया । यहाँ भी चारों चरणों में 'आवै' “अनेक” आदि 'बैण-सगाई हैं । विशेष सूचना--कई स्रंथों में स्वर-समता के विना, ब्यंजन मात्र की समता ही ( इस अलंकार के लक्षण में ) पर्याप्त मानी गई है; किंतु हमारे विचार से केवल ब्यंजन-सादवृश्य के अतिरिक्त स्व॒र-व्यंजन दोनों की
सम॑ता से भी अवश्य यह अलंकार होता है। आंर केवल वर्णे-समता की अपेक्षा स-स्व॒र वर्ण-समत। के उदाहरण कहीं क््रिक होते हैं। “चंब्रालोक?
3 श्रोकरणी देवी । २ प्रथम । ३ एश्वात् । ४ 'देशणोक? नामक झाम में राजा छोग पृजते हैं । ५ ध्यथे ।
श्द भारती-भूषण
के छेक तथा वृत्ति अनुप्रास के लक्षणों और उदाहरणों से भी स्त्रर-ष्यंजन दोनों का साद्वश्य स्पष्ट रूप से मान्य है-- छेकानुप्रास-- | "ध्वस्यजजन पन््दोहव्यूढाः: सन्दोहदोहदाः । गौज॑गजाम्रदुत्सेका च्छेकानुप्रा समासुरा ॥7 बृत्ति अनुप्रास-- ; “अमन्दानन्दसन्दोहस्वच्छन्दस्यन्दमन्दिरिम् ।!? वीररपाचाय भूषण” ने भी सस्वर व्यंजनों की समता कैसी स्पष्ट लिखी है-- * “हवर-समेत अक्षर कि पद, आवत सद्दस प्रकास । भिन्न अभिन्ननि १दनि कह्ठि, छेक छाट अनुप्रास ॥? इसी प्रकार श्रीउत्तमर्चद-भंडारी-हत “अलंकार-आशयः नामक माषा-अंथ में भी ध्य॑जन के साथ स्वर-समता का स्पष्ट विधान है । इसके अतिरिक्त संस्कृत एवं भाषा के उदाहरणों से भी स्वर-समता स्पष्ट सिद्ध होती है-- #भजेनं भवबीजानामजन सुखसम्पदाम् | तर्जन यमदूतानां 'शामरामेतिगर्जनम् ॥2
--रामरक्षा स्तोन्र । “चण्डकोद्ण्डखण्डनम्?? --रामस्तवराज स्तोत्र । “पपिय-हिय की सिय जाननिद्दारी, मनि-मुँदरी मन मुदित उतारी ।” --रामचरित-मानस । जो “अ्ंत्यानुप्रास” संस्कृतन्सादित्य में इस अलंकार का भेद माना गया है, उसके लक्षण में भी स्वर-युक्त व्यंजन के साद्ृश्य का विधान है--
लाठाजुप्रास श्ड कम यो अब बन बी आप न न लक आज आज आय अ पा 5 म(0:£2% 0624४ “यथास्थित॑ ब्यज्ञनमादिमेन स्वरेण पादस्य पदस्य वाउन्ते। आवत्तते प्रज्ञ गिराउयमन्त्या3- जुप्रास उक्तो भ्शमुछसन्त्या ॥? --कविकंठाभरण । अर्थात् जिसमें किसी शब्द वा चरण के श्रंत में व्ण की समता, उसके आादि-अक्षर की स्व॒र-समता-सहित हो, उसको 'अंत्यानुप्रास! कहते हैं । केवल वर्ण-समता की तरह वर्ण-समता के विना स्व॒र-समता मात्र के पअसिद्ध कवियों के उदाहरण भी भाषा में पाए जाते हैं-- #बिवन-हरन मंगल-करन, “तुलसी? सीताराम । अष्ट सिद्धि नव निद्धि के, बर-दायक हनुमान ॥?? --गो० तुललीदास । “कण कीड़ी, सण कुंजराँ, अनड्पंख' गज पंच। मोती देत मराल कों, पूरत हैं. भगवंत ४७ --अज्ञात कवि ।
(२) लाटानुप्रास जहाँ वाक्य वा शब्द ओर अथ में भेद न हो और आहत्ति हो; किंतु केवल अन्वय करने से तात्पये में भिन्नता हो जाय; वहाँ “लाटाजुप्रासालंकार” होता है । इसके दो भेद हैं-- १ वाक्धावृक्ति जिसमें वाक्य ( अनेक शब्दों ) की आहृत्ति हो |
१ एक बड़ा पक्षी । २
श्द्ट भारती-भूषण
१ उदाहरण यथा--दोद्दा । «ै) खत खसपूत तो है ब्रथा, घन-संचय को खेद । खुत कपूत तो है बथा, धन-संचय को खेद ॥ यहाँ शब्द एवं अर्थ में भेद नहीं है। केवल पूर्वारद्ध के (सपूत के ) 'स' और उत्तराद्ध के ( कपूत के ) 'क' के साथ अन्वय करने से तात्पयों में भिन्नता हुई है और वाक्य की आवृत्ति है । २ पुन: यथा--दोहा । पूजे पितर भए सब्बे, खुछत याग तप त्याग । पूजे पितर न, गे सर्वे, खुछत याग तप त्याग ॥ यहाँ भी शब्द एवं अर्थ अमेद है और पूत्रौद्ध के 'भए! एवं उत्तराद्ध के 'नगे? के साथ अन्बय द्वोने के कारण तात्पयाँ में भेद हुआ है । ३ पुन: यथा--दोह्दा । स-धरम-श्रर्जित अर्थ की, रक्ता करिय किमर्थ । अ्-धरम-अ्रजिंत अर्थ की, रच्ता करिय किमर्थ ॥ यहाँ भी समस्त पूवोर्द्ध एवं उत्तराद्ध का लाट है, जिसमें 'स! और “अ' के अन्वय मात्र से तात्पय-भिन्नता हुई है । - २ शब्दावृत्ति जिसमें एक शब्द को आहत्ति हो। इसके दो भेद होते हैं-- (#) जिसमें मुक्त (समाक्ष-रद्धित) शब्द का आकृत्ति हो १ उदाहरण यथा--दोहा । लाल बिलोचन लाल पल, लालदहि जावक भाल। रख-रंज्ित चित साल अब, बने बिहारीलाल !॥
लाटाजुप्रास १&
यहाँ पूर्वोर्ध में एकार्थवाची 'लाल” शब्द का तीन बार व्यवह्दार हुआ है, जिनमेंसे प्रथम 'लाल' का “बिलोचन' ट्वितीय का 'पल' और ठृतीय का 'जावक! शब्द से अन्वय होने के कारण सबके तात्पयों में भिन्नता हुई दे । २ पुन: यथा--सवैया । यूस्नि' सती खुतपा सु प्रजापति,दंपति श्रीपति ते बर पाइके । देवकी औ वखझुदेव भप्ए तिनके मथुरा प्रगटे प्रभु आइके ॥ त्यौं बर दै बसु दोण घराहिं भए खुत नंद यसोमति माइ के । दासी है मुक्ति रही ब्रज मैं रहो गोकुल ते गऊ-लोक लजाइके ॥ यहाँ भी पति! शब्द की तीन आवृत्तियाँ हैं। प्रथम का अ्ज्ञा' द्वितीय का दं! एवं ठृतीय का श्री! के साथ अन्वय दोने के कारण सबमें अभिप्रायांतर हुए हैं । (ख) जिसमें प्मासयत शब्द की ग्रावृत्ति हो । इतके तीन मेंद होते हैं-- [१] जिप्तममें छाट का एक शब्द समास-युक्त और एक विना समास का हो। १ उदाहरण यथा--दोहा । कीन्हहु कृपा कृपायतन, दीन्हहु दुलंभ देद। अब अधमन-सिर-मौर लखि, तोरन लगे सनेह ॥ यहाँ 'कृपा' शब्द का लाट है। प्रथम 'कृप” विना समासख का और दूसरा समास-युक्त दै। इनमेंसे प्रथम का “ कीन्द्ु! और द्वितीय का “आयतन' ? शब्द से अन्वय द्वोने के कारण चात्पयौतर हुआ है । $ देवकी और वसुदेवज्ञी पृजस्म में प्श्नि पृवं सुतपा प्रजापति ये। २ नंद जोर यशोदा पूर्व जस्प में दोय भौर घरा (इसकी साया), बसु ये। ३ स्थान
२० भारती-भूषण
२ पुनः यथा--दोद्दा । संकर ! सं कतहूँ न लक्षो, दोरि रहो चहुँ ओर । कझुनाकर ! करुना करो, बिनय करों, कर जोर ॥ यहाँ भी 'करुना? शब्द का लाट है, जिनमेंसे प्रथम समास- युक्त और दूसरा बिना समास का है। प्रथम का “आकर” और द्वितीय का 'फरौ! शब्द से अन्वयय होने के कारण तात्पयाँ में भिन्नता हुई है । (२) जिसमें भिन्न-मिन्न समासों में लाट के शब्द हों । १ उदाहरण यथा--भुनंगी ( अद्ध ) । महाबीर बीराग्रनी बीर-पूजे । इन्हें देखिके धीर बीरों के धूजे। यहाँ एकाथवाची 'बीर! शब्द की तीन आवृत्तियाँ हैं | प्रथम का 'मद्दा' द्वितीय का “अग्रनी” एवं ठृतीय का पूजे” शब्द के साथ भिन्न-भिन्न समासों में अन्वय द्वोने से तात्पर्यातर हुए हैं । २ पुनः यथा--कवित्त । वानी-बाल-बानी' बेद-बानी श्री बिवुध-बानी ', ऋषिन वखस्नानी ते न पूरी पहिचानिए। अन्य देस-बानी काज्य-अंगन-अयानी अति , जानी मनमानी पै न पंडित प्रमानिए ॥ ठाकुर-बविहारी-ब्रह्म-केसब-कवित्तन की , कहै, को कवि कीरति-कहानिएँ | शऔन'-अभिलाषा भूमि-भारती-पताका, ऐसी भाषा जो न जाने ताहि साखासग * जानिए ॥ $ शं>कलक्ष्याण । २ सरस्वती को बाल-बाणी (प्राकृत) । ३ संस्कृत । ४ कान ।॥ ५ बंदर ।
लाटाजुप्रास २१
>> >> -ज जज आलव्ल्जज
यहाँ भी एकार्थवाचक 'बानी' शब्द की तोन भावृत्तियाँ हे । श्रथम का 'वाल' द्वितीय का 'बेद! और ठृतीय का “बिबुध' शब्द से भिन्न-भिन्न समासों में अन्वय द्ोने से तात्पयौतर हुए हैं । [३] जिसमें एक ही समास में छाट के ( दो वा अधिक ) शब्द हों । १ उदाहरण यथा--कवित्त । मेरे मनमोहन की मूरति मिली है कम तेल मैं खुबास ताहि कैसे, क्यों निकारों मैं ?। आ्रास गुरुजन को, उसाख सौति-गन को त्यों, हास सखियन को न लेख उर धारों में ॥ स्थाम तामरस की खुबास खुकुमारता त्यों, मारमुख-मोर' मन-मारि अनुहार्रो मैं। नंद-चख-चंद, चंद्-बंस-नभ-चंद, ब्रज़ञ- चंद-मुख-चंद् पे अनेक चंद वार में ॥ यहाँ “चंद-बंस-नभ-चंद' एवं “्रज-चंद-मुख-चंद” समासों में एकार्थवाची “चंद” शब्द की आवृत्ति हुई है । २ पुनः यथा--दोद्वार्द्ध । ९; जलद ! जलधि-जल-युरू हे, तू कत करत गुमान ।# यहाँ भी 'जलधि-जल-युक्त! एक ही समास में एका्थवाची “जल! शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है । सूचना--दिंदी में पंस्कृत की तरह विभक्ति-युक्त पद नहीं होसे, कारक के चिह्न ऊपर से छगते हैं। जैसे--राम का, राम से इत्यादि।
३१ कास । २ मरोड़ । -& पूरा पद्म तीसरे “प्रतीप? में देखिए्।
२२ भारती-भूषण
द्विंदी में केवल कुछ सर्वनाम दी पद के रूप में आते हैं। जैसे--पुम्हारा, लिन््हें इत्यादि । इसीसे “छाटाजुप्रास! में इमने संस्कृत-प्रंथों के समान
| 7 भेद नहीं रखा है । >ी . अं हे ४४ ( ३) यमक
जहाँ किसी शब्द वा वाक्य (जिनके खर एवं व्यंजन समान हों) की भादत्ति हो और अर्थ मिन्न-भिन्न हों, वहाँ “यमकालंकार' होता हे । इसके म्ुरूप पाँच भेद् ' हैं--
१ प्रथम उत्तम यमक
जिसमें छंद के चारों चरणों में यमक हों। इसके दो भेद हैं--
(के ) पादांत यमक्र अर्थात् जिसमें पद्य के श्रत्येक चरणांत में यमक हो । 2 १ उदाहरण यथा--सवैया । बारि-बहावन छाबन ताप-निदाघ-नसावन हे घन-सावन ! । जाइ वहाँ कहियोौ कर लाइ मयूर-नचावन पूरन चावन ॥
क्यों बिसरे जिय जानत ह मम रोमन-भावन ' की मन-भावन !॥ आव अबैं न तचाव इतो तन सौतन-दाबन ' बेतन-दावन ' "॥
१ उसी शब्द का पुनः पुनः प्रयोग होना । २ इसके भ्रणणित भेद हो सकते हैं जिनमें सबसे अधिक मद्दाकति केशवदास की “कपिश्रिया? में हैं; कितु हमने उक्त पाँच ही भेद माने हैं। इनमें प्रथम श्रेष्ट फिर क्रमशः उत्तरोत्तर निकृष्ट हैं। ३ रोम-रोम के भावों की । ४ दाँव-पंचों से । ५ काम की दावाधपशियों से।
यमक श्इे
ब््न्लख्ज््ल्चड्ल्च्ल
यहाँ चारों चरणों के अंत में 'घनसावन' 'रनचावन ध्नभावन' तथा 'तनदावन' पाँव-पाँच अक्षरों के यमक आए हैं।
२ पुन: यथा--कवित्त । पीरामल..प्रेरे-जल-अन्न-जननाहजू के, बसते 'बिसाऊ!ः आइ आदि सबसे बसे । नाती महानंद नंदराम लघु श्रात जाके , बीसों अंगरुरीन चक्र-चिन्ह बल से लसे ॥
रामपरताप सोसाराम हरदेवदास , डूगरसी पुत्र भए वीर बर सेर से ।
नीको नाहिं काह सौं विसेष सहबास जान , शआ्रान ठान जान-लौं' बिमान बिकसे कसे |
यहाँ भी चारों चरणों के अंत में भिन्नार्थवाची दो दो अक्षरों के चार यमक क्रमशः बसे! लखे” “रखे! 'कसे! आए हें । (ख ) चहुाद यमक अर्थात् जिप्तमें प्रत्येक चरण में कहीं यमक का शब्द हो | १ उदाहरण यथा--दोहा । *५५ श्रुति-सार-द ढुति जान जस, सारद्-सोम समान | खुमिर सारद' खुमिरि सब, भणए बिखारद' ज्ञान ॥ $ जाने के लिये। २ जीन कसे हुए वाइन शोमित हुए। दे 'इ सार को. देनेवाडी । ४ शरद ऋतु का। ५ शारदा। ६ विशारद ८ पंडित ।
& यह पद्य भ्रंथकर्ता के 'काब्य-कछानिधिः नामक प्रंथ में के वंश- वर्णन का दै।
२७ भारती-भूषण
यहाँ चारों चरणों में भिन्नाथवाची 'सारद” शब्द का यम॒क है। २ पुनः यथा-दोद्दा । आन! कियडु भयभीत हे, आनन' ही सकुचाइ। हटनि द्लावति आन' अंग, आनख-सिखनि' दुराइ॥ यहाँ भी चारों चरणों में 'आन' शब्द का यमक है। पुन: यथा--दोहा । विषयन-रत न भज्यौ कबहूँ, बानर-तनय-सहाइ” नर-तन दुलंभ लहि कहा, न रतन वियो गँवाइ' १ ॥ यहाँ भी चारों चरणों में 'नरतन” शब्द का यमक है। ४ पुनः यथा--दोद्दा । बस न हमारों' करहु बस, बस. अब राखहु लाज' । बसन देहु” ब्रज में हमें, बसन'' देडु ब्रजराज॥ --भज्ञात कवि । यहाँ भी चारों चरणों में बस” शब्द का यम है। २ दिलीय मुक्त पद-ग्राह्य यमक जिसमें प्रथम चरण के अंत का शब्द दूसरे चरण के आदि में एवं दूसरे के अंत का तीसरे के आदि में
$ शपथ । २ मुख। ३ अन्य । ४ नख से शिखा पर्यत। ५ जिनके हजुमानजी सद्दायक हैं, वन रामजी को । ६ क्या रत्न नहीं खो दिया ?। ७ हमारा कुछ वश नहीं । «८ वश में कीजिए । ९ बस, भव छाज रखिए् । ३० बसने दो। ११ वस्त्र।
यमक र्प
भी भी शा
इसी प्रकार चारों चरणों में आदिअंत के शब्दों की झूंखला हो। इसको 'सिंहावलोकन' भी कहते हें । १ उदाहरण यथा--सचैया ।
द्रसे बिन मोहनी मूरति लालची लोचन भे कुढ़ि कातर से | तरसे ही रहेँ न लहे पतियाँ पिय प्यारे! तिहारे लिखी कर से ॥ कर सेव बड़ों की बितायो चहोां दिन पै भए द्रोपदी-अंबर से । बरसे बिन नेन रहें वरजे न, रहे बनि सावन-बादर से ॥
यहाँ 'द्रसे! 'तरसे! 'करसे”! और “बरसे” शब्दों के यमक
हैं जो क्रमशः प्रत्येक चरण के अंत और उसके परवर्ती चरण के आरंभ में आए हैं ।
२ पुनः यथा--सबैया । जोरन लागी सनेह नयो, लट छोरिके लागी छुवे छिति, छोरन | छोरन' लागी छुपाकर की छुबि चंदमुजी मुख ही की मरोरन ॥ रोरन' रोकि रसालन को,रसना कसि लागी सुधा सी निचोरन । चोरन लागी 'बिचित्र' चितै चित,कोरन दे अँखियाँ बरजोरन ॥ --पं० मथुराप्रसाद पांडेय विचित्र” ॥ यहाँ भी 'जोरनों छोरन 'रोरना एवं 'चोरन!' शब्दों के यमक, ऊपर के सवैया के समान, आए हैं ।
३ यसक का तृतीय 'मेद् जिसमें यमक के दोनों शब्द निरथंक हों ।
$ जंजीर । २ छट के अमग्नमाग से । ६ छोनना । ४ कोछाइलक ॥
२६ भारती-भूषण
१ उदाहरण यथा--दोहा । «| डुखन वहे न अराति को १, राति-कोक के भाय । .. जिन खुकतिन के तनक ह, भ्रीरघुबीर सहाय ॥ यहाँ 'रातिको” शब्द का यमक है। “अराति को ९ और 'राति-कोक' के अर्थ तो 'कौन शत्रु ?” और 'रात्रि के चक्रवाक? होते हैं; किंतु 'रातिको' दोनों जगद्द निरथंक है। २ पुनः यथा--दोह्ार्द्ध । श्रीराधा राधा-रमन, मन-अधार मन धार।
यहाँ भी 'धारमन! शब्द का यमक है। यह शब्द दोनों चरणों में निरर्थंक रूप में है। यदि पूरे पद 'राधा-रमन” एवं “धार मन' यम्रक के होते तो श्रीकृष्ण!” एवं आधार, मन में” अथ द्वोता । ३ पुनः यथा--द्रुतविलंबित छंद । चतुर है चतुरानन' सा वही। खुभग भाग्य-विभूषित भाल है॥ मन ! जिसे मन में पर काव्य की । रुचिरता चिरताप-करी न हो॥ ... __पं७ रामचरित उपाध्याय । यहाँ भी 'चिरता' शब्द का यभ्रक है जो दोनों स्थानों में निरथंक है। हाँ, 'रुचिरता' का 'मनोहरता' और 'विरताप! का “बहुत समय तक रहनेवाला ताप अर्थ द्वोता है। $ ब्रढ्मा ।
यमक २
ल्ल्न्च्ल््य्च्चि्््ल््ल््ल्ल््ख््व््लि् ललित
४ थमक का चतुर्थ भेद जिसमें एक शब्द साथक और एक निरथंक हो ।
१ उदाहरण यथा--वसंततिलका छंद । कर्ताइविता जिज़गतश्च तथा5नन््तको यः सद्योगिनां पललचच्ुरलक्ष्यलक्ष्यः । गोप्यो5्धरा5मस्तमवाप्य विमुक्तिमापु- स्त॑ कुन्द्सुन्द्र रदं बरदं नतो5स्मि ॥ &?
यहाँ 'रद! शब्द का यमक दै। पहला रद! साथेक और दूसरा निरथंक है । यदि 'वबरद” पूरा शब्द यमक में द्वोता तो “वर देनेवाला' अर्थ दोता ।
२ पुनः यथा--सोरठा । प्रथम त्रिपथगा'-ती र, तीरथ-अधिपति-तद दुतिय । गृह, गंगा के नीर', तजे सरीर सहोदरनि॥ यहाँ भी 'तीर! शब्द का यमक है। प्रथम तीर शब्द सार्थक और द्वितीय 'तोर! 'तीरथ' का एक खंड है; अतः निरथंक दै ।
9 गंगा । २ तीर्थराज ( त्रिवेणी )। ३ 'रतननगरः में । ४ हरिद्वार- श्रवाह में ।
& जो त्रिोक के कर्ता, रक्षक एवं नाश करनेवाले हैं, मांस-चक्षुओों से अलट्ष्य होते हुए भी श्रेष्ठ योगियों के लक्ष्य ( निशाना ) हैं; और जिनका अधरास्त प्राप्त करके गोपियाँ मुक्त हो गई”, उन कुंद की तरदद सुंदर दाँतवाले वरदायक ( श्रीकृष्ण ) को नमस्कार करता हूँ।
+ पथकत्तों के पिता-पिठृष्य चार भाई ये, उनके देहांत का वर्णन है.।. यह पद्य 'काब्य-कछानिधिः के कवि-वंश-वर्णन का है ।
रेड भारती-भूषण
३ पुनः यथा--द्रुतबिलंबित छंद । मन | रमा, रमणी, रमणीयता । मिल गई यदि ये विधि-योग से ॥ पर जिसे न मिली कपिता-खुधा । रखिकता सिकता सम है डसे॥
--पं० रामचरित उपाध्याय । यहाँ भी 'सिकता” शब्द का यमक है । प्रथम शब्द निर्थंक ओर दूसरा साथक है । ४ यमक का पंचम भेद जिसमें दोनों शब्द सार्थक ( अर्थवाले ) हों । इसके तीन भेद हैं-- (क) जिसमें दोनों शब्दों को खंदित करने पर ध्र्य होता हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । एक कक्षो राजन ! रहत, राज-तनय ते राज । एक कह्यो राजन ! रहत, राजत नय तें राज ॥
यहाँ 'राजतनय” पद् का यमक है। प्रथम का अरथ 'राज- कुमार! और द्वितीय का 'नीति से शोभित' है। दोनों शब्द साथक और भिन्नाथ हैं; परंतु भिन्न-भिन्न रूप से खंडित होने पर
अर्थ वेते हैं । २ पुनः यथा--सोरठाद्ध ।
..।. बातन जात न नाह |, जा तन जाकी चाह हो । & & पूरा पद्य 'विषृतोक्ति? में देखिए ।
यमक र्ढ्ध
यहाँ भी जातन' पद का यमक है। प्रथम का अथ्थ जाती नहीं? और दूसरे का जिस शरीर में! है। दोनों भिन्नार्थ,खंडित एवं साथ क हैं । ३ पुनः यथा-दोद्दा ।
बर' जीते सर मेन के, ऐसे देखे में न ।
हरिनी फे नैनानि ते, हरि ! नीफे ये नेन ॥
--विद्दारी । यहाँ भी 'हरिनीके' पद् का यमक है। प्रथम का अर्थ 'दरिनी + के” दूसरे का 'दरि + नीके' है; अतः भिन्नार्थ साथंक एवं दोनों खंडित हू
(ख ) जिसमें एक शब्द खंडित एवं एक अखंडित हो ।
१ उदाहरण यथा--कवित्त । दूरि ढुरि जात दइग देखत सखँताप, सिर धारें, तजु-ताप इषभालुजा' निवारे नित। खुबरन' मय मनि मानिक जरे हैं देखि, भूखन' खुठौर और भूख न' चितारे चित ॥|
आयौ खुर-लोक ते बनायौो यह दंडी” किधों,
कवि-कुल कलस'“ बिलोकि यौं उचारे इत। राग' रस चित्र चारु लसत घिचित्र बृत्त,
पत्र पठयौ के सिर-छत्र ही हमारे हित ॥&
3 श्रेष्ठ। २ मैंने नहीं देखे। ३ राधिका और ज्येष्ठ के सूर्य-जन्य (घूप)। ४ अच्छे अक्षर और स्वर्ण । ५ भूषण ८ अलंकार और आभूषण । ६ क्षुधरा नहीं । ७ मद्दाकवि दूंडी और दंंडवाला छत्र । < प्रधान एवं छत्न का कछूश । ९ राग-रागिनी और इष्यां। १० नवरस और अभिलाषा । १4 चित्र-काब्य और बेल-बूटे | १२ इत्तांत भोर गोल ।
& इस पथ में पत्र और छत्र का शछेप है। सखी के प्रति सस्ती की उक्ति है।
ड्वे० भारती-भूषण
यहाँ 'भूखन' शब्द का यमक दै। श्रथम का अर्थ आभू- घषण” और द्वितीय का 'भूख+ न! होने से भिन्नार्थ है। प्रथम अखंडित, दूसरा खंडित और दोनों साथंक हैं ।
२ पुनः यथा--कवित्त-चरणु । « चढ़त बरद बर बर-द प्रनत-रत , हरत जगत-भय जय जय जय हर । &
यहाँ भो 'बरद' शब्द का यमक है। प्रथम बरद! का पथ वृषभ एवं दूसरे का “वर देनेवाला” द्वोने से भिन्न, साथंक हैं और प्रथम 'बरद” अखंडित एवं दूसरा खंडित है।
(ग ) जिसमें दोनों शब्द श्रखंडित हों । १ उदाहरण यथा--अभुनंगी ( अद्ध )।
हुई आप आय ते आये घनी हैं। वही राजधानी बनी चौगुनी है ।
यहाँ श्रीबीकानेर-नरेश महाराज श्रीगंगासिहजी की प्रशंसा में “आयें! शब्द का यमक है। प्रथम का अथथ “आने से” एवं द्वितीय का आमदनी” है; अतः दोनों शब्द सार्थक भिन्नार्थ और अखंडित हैं ।
२ पुनः यथा--कवित्त । झुषमा ' सहज ही ते उपमा हजार हारीं मार -मतवारी है अपार हाव-भाव ते। राजहंस कलहंस मानस बिद्दाइ जाइ, मानस बसे हैं बंस-आदर-अभाव तें॥
पुनरुक्तददाभास ३१
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लाज-काज काजर ते कारे गजराज़ बन, भाजन लगे हैं भीति-भाजन स्वभाव ते। गति-देवता है पतिदेवता!' तिहारो पति , एये गति ऐसी तेरी तिनके प्रभाव ते॥ यहाँ भी 'मानस”' और “भाजन' इन दो शब्दों के यमक हैं। प्रथम मानस” का अर्थ मनुष्य, दूसरे का “मानसरोवर एवं प्रथम 'भाजन! का अर्थ 'पलायन' और दूसरे का ात्र' है; इससे ये सार्थक, भिन्नाथं और अखंडित हैं । ३ पुनः यथा--सोरठा । कली भली दिन चार, जब लगि मुख मूँयो रहे । देत डार ते डार, फ़ूल्यो सहै न फूल को ॥ पा --भज्ञात कवि | यहाँ भी 'डार”ः शब्द का यमक दै। प्रथम का क्मर्थ शाखा” और द्वितीय का “गिरा देना” है; अतः दोनों शब्द सार्थक, भिन्नार्थ एवं अंग हैं । खूचना--एवोंक्त 'लाटानुप्रास! में दोनों शब्द एकार्थंवाची होते है, अअजुप्रासालंकारः में रुवरों एवं व्यंक्ननों की भावृत्ति होती दै। तथा यहाँ ( यमक में ) मिन्नार्थता भौर धाब्द वा वाक्य की आइसि होतो है। यही भेद है।
(४ ) पुनरुक्ततददाभास जहाँ भिन्न रूपवाले (जिनके स्वर व्यंजन समान न हों) शब्दों के अवणगत होते ही एकार्य प्रतीत हो; किंतु
$ पतित्रता ॥
शेर भारतो-भूषण
2-32 3922 ८ ०३२००८८ ० ०२२२० ८/०६ २४४०० ०२००० ४००, वस्तुतः उनके भिन्न-भिन्न अर्थ हों, वहाँ 'पुनरुक्ततदाभास' अलंकार होता है। इसको “पुनरुक्त श्रतीकाश” भी कहते हैं |
१ उदाहरण यथा--दोद्दा । अंबर-बास सने बसन, हरि ले चढ़े कदंब। करहु सदय उनको हृदय, जगत-जोति जगदंब ! ॥ यहाँ. “अंबर!' बासों एवं बस्रन!ं शब्द एकार्थ-बोधक जान पढ़ते हैं; किंतु वास्तव में “अंबर” का सुगंधित वस्तु-विशेष, “बास' का गंध एवं 'बसन' का वस्त्र अर्थ है।
२ पुनः यथा--सोरठा । बाती-बिरति-बिचार, चित-दीपक, घृत भव-भगति। नसत तिमिर-संसार, जगत जोति जब ज्ञान की ॥
२ कक: --शिवकुमार 'कुमार!। यहाँ भी “भव! संसार! एवं “जगत” शब्द एकार्थवाश्री जान पढ़ते हैं; किंतु वस्तुतः उनका क्रमश: 'शंकर” “विश्व” एवं 'प्रब्बलित द्वोना! अर्थ है । ३ पुनः यथा--दोहाद्ध । ४ राते फूल मँगाइए, लाल! खुमन ते आइ। >जअलकार-आभाशय | यहाँ भी 'राते फूल! और “लाल सुमन! पद् समानार्थवानी प्रतीत द्ोते हैं, किंतु 'लाल सुमन” का अर्थ 'दे कृष्ण ! प्रसन्न मन से है ।
वक्रोक्ति-शब्द डरे
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सूचना--वोंक्त 'बमकः अलंकार के शब्दों में भी भिन्नार्थता होती है; किंतु वहाँ शब्दों का आकार समान होता है ओर यहाँ भिन्न आकार- वाले शब्द होते हैं। यही 'यमकः से इसका भेद है।
( ५) वक्रोक्ति>शब्द जहाँ कह्दे हुए वाक्य का अन्य द्वारा अन्याथे कल्पित किया जाय, वहाँ “शब्द-वक्रोक्ति' अलंकार होता है । इसके दो भेद हैं-- १ श्लेष-वक्रोक्ति जिसमें, कहनेवाले ने जो वावय जिस अभिप्राय से कहा हो, छुननेवाला शेष द्वारा उसका कुछ ओर ही कल्पितार्थ करे । इसके दो भेद होते हैं-- (क ) समंय पद अर्थात् जिसमें पद के टुकडे होने पर भन्यार्थ हो १ उदाहरण यथा--खबैया । अयि ! देव नदीस सुता-पति' बोलि रहे कल कुंजन मैं चलु प्यारी। ब्रज देव-नदी न खुनी सपने कवहूँ कहूँ काहु न ईस-कुमारी ॥ तजितेह चलो तिल-फूल-नसी!तिल-फूलन सी चलिहेँ को गँवारी। पटुद्दास-बिलासन यो, भव-भोति हमारी हरौ बृषभाजु-ढुलारी ॥ यहाँ श्रीराधिकाजी से सखी ने कद्दा--“हे प्यारी ! आपको देव, नदीश-सुता-पति ( श्रीकृष्ण ) बुला रहे हैं” तब श्रीराधाजी ने उक्त वाक्य के देव + नदी” और 'इश+ सुता' डुकढ़े करके है के नदीश ( समुद्र ) सुता ( रद्ष्मी ) पति ( विष्णु-रूप श्रीकृष्ण )। ॥।|
डे
३७ भारती-भूषण
2 सरकार वहन ५2 तन ९ ज इन ११२०१ २३५० ०२३ ०७४१५२०५२२२६२२००००५%०+*९००५० के ५०५५३ ०५५०७ + ५2० कक
७७-७४ जल बज बन >ननन, कट्ा--“न तो ज्रज में देव-नदी (गंगा) है और न ईश (मह्ादेवजी) को कन्या द्वी सुनी गई है” । फिर सखी ने कहा--“दे विल-फूल- नस्री ! (तितर-फूलवत् नासिकावाली !) मान त्याग कर चलिए ।”? इसपर श्रीश्रियाजी ने इस पद के भी 'तिल + फूलन +सी? डुकड़े करके अपने-आपको चंपक-वर्णी मानते हुए कद्दा--“जो गेंबारिन तिल-फूलों-सी होगी, वह चलेगो” । इस प्रकार पदभंग करके अन्याथौं की कल्पना की गई है।
२ पुनः यथा--दोद्वा ।
प्यार करे अनप्यार वा, मो मन रहत समान।
देत दुसद् दुख पतिहिं यह, सख्त्रि ! खमानता-बान ॥
यहाँ भी नायिका ने सखी से कद्दा--“श्रीकृष्ण श्रसन्न रहें चाहे अप्रसन्न, मेरा मन तो समान ( एक रंग ) ही रहता है।” तब सखी ने समान” के 'स+ मान! टुकड़े करके कद्दा--““यह आपकी समान-युक्त रहने की बान द्वी उनको अत्यंत दुःख देती है”; अतः यह सभंग है। (ख) अंग पद अर्थात् जिसमें पूरे पद का अन्यार्थ किया जाय
१ उदाहरण यथा--दोहा ।
५ अंबर-गत बिलसत सघन, स्यथाम पयोधर दोय। देहु दिजाइ न राखिए, बलि कंचुकि-बिच गोय ॥ यहाँ नायिका का कथन ददै--“ दे श्याम ! अंबर-गत (आकाश में)
दो सघन पयोघर ( बादल ) शोभित हो रहे हैं?” । उक्त शब्दों के
डुकढ़े न करके श्रवश-कर्ता नायक ने यह अन्यार्थ कल्पित किया कि इन वस्त्र -गत पयोधरों ( कुचों ) को छिपा न रखिए ।
चक्रोक्ति-शब्द् £
२ पुनः यथा--कवित्त । खरी होह बारी ! नेंक, कहा हमें खोटी देखी, सुनो बेन नेंक, सु तो आन ठाँ बज़ाइए। दीजै हमें दान, सु तो आज न परब कछू, गोरस दे, सो रस हमारे कहाँ पाइए।॥ मही देह हमें, सु तो महीपति देहेँ कोऊ, दही देह, दही है तो सीरो कछु खाइए। 'सूरति' कहत ऐसे खुनि हसि रीके लाल, दीन्ही उर माल सोभा कहाँ ल्गि गाइए।॥ --स्लरति सिश्र । यहाँ भी नायिका के प्रति कद्दी हुई नायक की वक्ति में के खरी ( खड़ी ), बैन, दान (डान- कर ), गोरस, मद्दी ( छाछ ) और दद्दी देह ( दद्दी दो ), इन शब्दों के नायिका ने अभंग रूप में क्रमशः खरी ( सश्ची ), वेणु, दान, गया हुआ रख, प्रथ्वी और देह में जलन, ये और द्वी अर्थ कल्पित किए हैं । सूचना--यदि इस “कछेष-वक्रोक्तिः के उदाहरणों में श्िष्ट शब्दों के स्थान पर उनके पर्याय रख दिए जाये तो अलंकारता नहीं रहेगी; अतः यह शब्द-मूला है ( अर्थ-मूछा भर्थालंकारों में देखिए ) ।
२ काकु-वक्रोक्ति
जिसमें किसी के कथितारथ का कंठ-ध्वनि-विकार से अन्य द्वारा # अन्याथ किया जाय ।
& यहाँ भन्य द्वारा अन्या्थ किया जाना भ्रावश्यक है क्योंकि स्वयं | अपनी उक्ति का जन्यार्थ करने में इसकी अतिव्याप्ति काकु-वैशिष्व्य- ध्वनि में और काक्ाक्षिप्त-गुणीभूत ब्यंग्य में हो जाती है ।
व शी आज
है भारती-भूषण
१ उदाहरण यथा--सो रठा । क्यों हैं रहो निरास, कद्दि-कदि 'नहिं हरिहेँं बिपति!। राखिय टढ़ बिस्वास, हरि हे नहिं हरिहे बिपति १॥
यहाँ आपदूकाल में किसी दताश हुए व्यक्ति के “नहिं दरिहँ बिपति' इस निषेध-सूचक कथन का किसी भक्त ने केवल कंठ-ध्वनि से 'विपत्ति अवश्य हरेंगे! यह विधि-सूचक अन्यार्थ कर दिया है।
२ पुनः यथा--दोद्दा । एक कह्मो वर देत भव, भाव चाहिए चित्त । खुनि कह कोउ भोले भवहिं, भाव चाहिए ? मित्त !॥ यहाँ भी किसी भक्त ने कट्दा कि शंकर वर देते हैं; पर चित्त में भाव चादिए। इसे सुनकर दूसरे भक्त ने भोले भवहि भाव चादिए ९! कट्ककर कंठ-ध्वनि-विकार मात्र से यह अर्थ कर दिया है कि भोले शंभु को भाव की आवश्यकता नहीं अथीौत् वे पूर्ण भक्ति-भाव के विना भी प्रसन्न द्वो जाते हैं । ३ पुनः यथा--सोरठा । अबुध कही किर्दि आइ, हठ ते होति सती सबद्दि। झुज्ञन कददी मुसकाइ, हठ ते होति सती ? अद्दो ! ॥ --शिवकुमार "कुमार? । यहाँ भी किसी के कहद्दे हुए 'हठ तें दोति सती” बचन का सज्जन द्वारा कंठ-ध्वनि से सती हृठ से नहीं होती है! अन्याये
किया गया है ।
शब्द्श्छेष ३७
2.22 .+०००२२०३:७००००२०२००००३७२४२०-८२००२२:२-०४०६ खूचना--किसी-किसी अंथकारने “काकु-वक्रोक्ति! को “अर्था-
लंकार? माना है; किंतु इसमें कंठ-ध्वनि ही से अलंकारता है और कंठ-
ध्वनि ( शब्द ) श्रवण का विषय है; अतः यह “शब्दालंकार! ही हे ।
309 €06« ( ६ ) शब्द-श्लेष जहाँ ऐसे शब्दों की रचना हो जिनके एक से अधिक अर्थ होते हों, वहाँ “श्लेषालंकार” होता हे । इसके दो भेद हैं-- १ संग श्लेष जिसमें शब्दों के खंड ( डुकड़े ) होने पर कई अर्थ होते हों । १ उदाहरण यथा--कवित्त-चरण । दूरि दुरि जात दग देखत सँताप, खिर धारें तजु-ताप ब्ृषभाजुजा निवारे नित |& यहाँ वृषभानु' शब्द के “श्रीराधिका के पिता! और “बृष- संक्रांति के भानु! दो अर्थ होने के कारण यह झ्किष्ट है। बृष एवं भानु खंड पद द्वोने के कारण सभंग है । २ पुनः यथा--चौपाई (अद्धं) । बहुरि सक्र सम बिनवडँ तेही । संतत खुरानीक हित जेद्दी ॥ ४ --रामचरित-मानस ।
& पूरा प्रय 'यत्रक! के पंचम भेद में देखिए ॥
शे८ भारती-भूषण
यहाँ भी 'सुरानीक' पद के 'मदय अच्छा? एवं 'देवताओं की पेना! दो अर्थ होने के कारण यह श्लिष्ट और 'सुर + अनीक! खंड दोने के कारण सभंग है । २ अभंग छेष जिसमें विना टुकड़े किए, पूरे शब्द के कई अथ होते हों । १ उदाहरण यथा--कवित्त । मंजन किए रहें चमंक्रे चपला सी चारु , .._ चंचलता खंजन तें अधिक अपार है। भाव मुख बीरा त्यों खुदावे नथनी'(ह, नेह_ नाह ते लगावे स्यामा खुघर खुढार है॥ नाक की निसेनी दैनी भूमि-भोग लागे अंग , होत स्वर भंग राग-रंग. रिभवार है। नैनन निहारि त्यों बिचारि बार-बार कहे , नारि तरवार के बिहार इकसार है॥ यहाँ मंजन! शब्द के स्नान एवं मेंजी हुई, 'बीरा” के पान- बीड़ा और तलवार-कोषबंध, 'नेह” के प्रीति और तैल 'स्यामा' के षोढश-वार्षिका स्त्री एवं कालेरंग की, 'सुघर' के चतुर और अच्छी गढ़ी हुईं तथा 'राग-रंग” के अनुराग एवं रुधिर का रंग, शब्दों के विना ढुकड़े किए दो दो अर्थ हुए हैं । २ पुनः यथा--दोहा । ५, वास-बरन-बर-बृत्त-युत,. पय्म-पुष्प रस-मूल। ४ कवि त्यका लिक सुर पितर, गह्ुु निज-निज अलुकूल ॥ 3 स्त्री की नाक का एवं तलवार की मूठ का भाभूषण ।..........
शब्द्ज्लेष ३&
यहाँ भी बास' शब्द के वासना एवं गंध, 'बरन! के अक्षर एवं रंग, धृत्त! के छंद् वा बृत्तांत एवं गोलाई और “रस! शब्द के शंगारादि नवरस एवं मकरंद, दो दो अर्थ शब्दों के बिना टुकड़े किए द्वी हुए हैं उभ्य पर्यवसायी १ उदाहरण यथा--कवित्त । तीर ते अधिक बारि-घार निरधार महा , दारुन मकर चैन होत है नदीन को। हो तिहै करक अति बड़ी न सिरातिराति , तिल-तिल बाढ़े पीर पूरी विरहीन को॥ सीकर अधिक चारि ओर अंबु नीर है न, 77” थाबरीन बिना केद्द बनति घनीन को। 'सेनापति! बरनी है बरषा सिसिर ऋत,
सूढ़न को अगम खुगम परबीन को॥ +सेनापति । यहाँ 'नदीन' शब्द के नदियों और न+ दीन तथा सीकर! के जल-कण और सीत्कार करना, दो दो अथ पद भंग करने पर हुए हैं। इसी प्रकार तीर! के तट और बाण, 'मकर' के मत्स्य आर मकर-संक्रांति तथा 'करक' के कक-सक्रांति और खटकना ( बेचैनी ), दो दो अर्थ पूरे ( अभंग ) शब्दों के हुए हैं; अतः यह 'उभय पर्यवसायी' है । सूचना--इस “शब्द-श्लेप? सें शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं। इन शब्दों को पर्याय शब्दों में परिणत कर देने से शषिएता नष्ट हो जायगी। यथा--यदि 'दृपभानु” के स्थान पर 'बृपभ-रविः कर दिया जाय तो दूसरा अर्थ 'वृषभानु गोपः न रहेगा। यहाँ शब्दों पर ही अल॑कार निभेर होता है; अतः “शब्द-श्लेप! है ।
ला बल जा
४० भारती-भूषण
( ७) बीप्सा जहाँ आदर, आश्रय, आतुरवा और रोचकता आदि भावों का बाहुल्प प्रकट करने के लिये किसी शब्द का एक से अधिक बार प्रयोग किया जाय, वहाँ “बीप्सा! अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । उठि-डठि मन मिटते रहत, हत भागन अभिलाख। जिमि जल-बुद्बुद वायु ते, वनि-बनि बिनसत लाख ॥ यहाँ 'उठि” एवं “बनि' शब्द दो दो बार हृतभाग्यता की अधिकता सूचित करने के लिये रखे गए हैं । २ पुनः: यथा--दोहा । साँफहि सेज सिंगार सब, सजे सजीली याम। उभ्रकि-उभूकि भाँकति कुकति, अजहुँ न आए स्याम ॥ यहाँ भी “उमक्रकि! शब्द दो बार रखकर बासक-शख्या नायिका की विशेष आतुरता सूचित की गई है । बीप्सा-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । रीमि-रीकि रहसि-रहसि' हँसि-हँसि उठे, साॉँसे भरि ऑँस भरि कहत द्ई-दुई। चौंकि-चोंकि चकि-चकि औचकि उचकि “देव” छकि-छकि जकि-जकि बहत बई-बई ॥ कप 2 हि का
चित्र 8१
दोडन को रूप ग्रुन वरनत फिर बीर घीर न धरात रीति नेह की नई-नई |
मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधा मई, राधा-मन मोहि-मोहि मोहन मई-मई ॥ | >देव। यहाँ भी 'रीमि! एवं 'रहसि! आदि अनेक शब्दों की आवृत्तियाँ ( श्रीराधा-माधव के अलुरागोस्कर्ष-सूचक ) हुई हैं; अतः माला दै।
++३-०कु०-- (८) चित्र
जहाँ प-रचना में निपुणता से ऐसे अक्तर रखे जायें जिनसे 'कमल' आदि अनेक चित्र एवं “अंतर्लापिका' आदि अनेक प्रकारकी मनोरंजक कविताएं बन जाय, वहाँ “चित्रालंकार' होता हे। इसके दो भेद यहाँ दिए जाते हैं--
१ चित्र का प्रथम भेद
१ उदाहरण यथा--दोद्दा । आन' मान विन-मारन जिन ठान मान अनजान [| मीन दहोन-बन दोन तन छीन प्रान मन जान ॥ इस दोहे के कई प्रकार के चित्र बन सकते हैं; किंतु विस्तार- भय से यहाँ तीन द्वी चित्र दिए जाते हैं---
१ जौर॥ २ प्रमाण ! ३ मान जा । ४ जलू।
४२ भारती-भूषण
शि
मानबिनसा
७] कै नवनडी
चित्र ४३:
खूचना--परहाँ प्रथम बाण के निम्न भाग के दो अक्षर, फिर दक्षिण भाग की जद्द्ध॑ प्रत्यंचा के, फिर धनुष के अद्धंचद्राकार भाग के, फिर वाम भाग की अद्ध प्रत्यंचा के, फिर प्रत्यंचा के मध्य का नकार पढ़- कर शर के फल तक पढ़ते जाहए।
सूचना--यहाँपदले दंड के नीचे की नोक का, पश्चात् मुष्टि के आधार या ठहरनेवाले गोल भाग के मध्य का, फिर उसके वाम भाग का, फिर मध्य का, फिर दक्षिण भाग का, फिर सध्य का नकार पढ़कर दोदे के पूर्वार्द के शेष अक्षर दंड में पढ़िए, फिर बालों के एक एक अक्षर से दंड के शिर का नकार मिलाकर पढ़िए ।
38 भारती-भूषण
'खुचना--यहाँ ऊपर के “त्रयः से 'सित्रा” तक पढ़ने से सवैया पूरा -होता है। इसी प्रकार जहाँ से चाहें, वहीं से पढ़ें । उसके पिछले कोष्ठ तक तुकांत मिलकर सवैया बन जायगा | सब मिलाकर ४८ सवेया बनते हैं ।
$ तीनों ताप । २ रण में अजेय जो रामजी हैं, इनका नाम। ३ संम्रह।
चित्र ४५
(ड) कामघेचु-बंध चित्र
० 3 35 े मनराण, ही अर मजे
0%,%।
सूचना--यहाँ पुच्छ के अधोमाग के "त्रयः शब्द से पुच्छ-मूछ के ऊपर “लिया? शब्द तक सवैया छंद पूरा होगा। इसी प्रकार चाहे जहाँ सेः दो दो अक्षर पढ़िए, ४८ सवैया छंद बन जाएँगे।
(चर ) द्वितीय कामघेनु चित्र
72० भीति | व्यथा | मई बेरी | ञहै । जब | 22: तजै | धन धाम, तिया
अय | जीति | जथा | भई | चेरी | चदे । कच | हँन | ञजै
| रन |नाम लिया ॥। | राज
नीति | कब्ज हि कई | घेरी रहै [सब | सन ! श्जे [तन |काम ज़ियां बय | बीति | बथा | गई
यहै | अब | क्यू न | भज | मन [राम | सिया
खसूचना-यहाँ प्रत्येक कोष्ठ के दो दो अक्षर पढ़ने से ४८ सवैया बनते हैं।
४
६ भारती-भूषण २ चित्र का द्वितीय भेद
(क ) श्रमात्रिक
जिसमें छंद के समस्त अज्ञर मात्रा-रहित हों अर्थात् उसमें “अ” के अतिरिक्त कोई अन्य खर न हो |
१ उदाहरण यथा--कवित्त । मख्र-हन, मरदन-मयन , नयन त्रय,
वट-तर अयन' रज़त-परबत'-पर | चरम-बसन, तन भसम, प्रमथ गन,
ससधर -धरन, गरल-गर-गरघर' ॥ हरन-ब्यसन -जन, करन-अमल-मन,
भज मन | असरन-सरन अमर-बर । चढ़त बरद्, वर बरद्" प्रनत-रत,
हरत जगत-भय जय जय जय हर ॥
२ पुत्र:--यथा छुप्पय । / कमल-नयन पद-कमल कमल कर अश्रमल कमल-घर । नम लसत बदन बर॥ रहत सतन'-मन-सद्न हरख छुन-छुन तत' बरसत । है हर-कमलज' सम लददत जनम-फल द्रसन द्रसत ॥ है सघन-सजल-जलधघर-बरन जगत धवल जस वस-करन। शक “द्रन अमरन-वरन, देखसरथ-तनय-चरन-सरन ॥ शा --मभिखारीदास “दास* । १ यज्ष । २ काम | ३ घर। ७ कैछास । ५ संद्रमा । ६ गले में विष और ध्ाँप हैं । ७ दुःख । ८ बैल । ९ वरदायक | १० संतों के ।१३ तत्र ० वहाँ । ३२ ब्रह्मा १३ प्रकाशित है । १४ देवताओं द्वारा वरण किपु हुए ।
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चित्र 8७
इन दोनों उदाहरणों में आदि से अंत तक कहीं मात्रा नहीं ( ख ) श्रंतर्लापिका जिस पद्म में प्रश्न किए गए हों, उसी पद्च के अंत में उचतरों के अत्तर भी हों ।
१ उदाहरण यथा--छप्पय । किते खंड ग्रह द्वार होत का ईस अराधे ?। विषय-वेग का वाघ-बक्ख वेधत कर साथ? ॥ कहा रास में सरस, वास कित करति किराती ?। धघनद्-जान का होत भक्ति किय अ्रतनु-अराती ? ॥ विज्ु-प्रान पिंड का वीर-ब्रत कागद-हितु का गद कहत ?। को जननि-जनक-सेवक, कहा कवि वरनत ? 'नवरस' महत ॥
इस पश्च में चौदद प्रश्न हैं। उन सत्रके उत्तर अंत में एक “नवरस” शब्द द्वारा व्यस्त-समस्त-गतागत-श्ृंखला-रोति से दिए गए हैं; यथा--(१) खंड, प्रदद, द्वार कितने हैं ? 'नव” (२) शिव- सेवा से क्या लाभ है? “वर! (३) विषय-वेग क्या दै ९ “रस! ( अभिलाषा ) (४) सिंद्द के वक्तस्थल को कौन वेधता है? 'शर! (५) रास में सरस क्या है ? 'रव” (६) भीलनी कहाँ रहती है ९ “न! (में) (७) कुबेर का वाहन क्या है? 'नर' (८) भक्ति से शंकर कैसे होते हैं ? 'वश' (९) प्राण-रद्दित शरीर क्या है ९ 'शव' (१०) बीरों का प्रण क्या है? “रण” (११) कागज़ के लिये उपयोगी क्या वस्तु है ९ सन! (१२) रोग बतानेवाली फोन दै ९ “नस (नाड़ी) (१३) माता-पिता का सेवक कौन हुआ दै? 'सरवन' (तापस-वुत्र श्रवण) (१४) कवि क्या वर्णन करते हैं ९ 'नवरस' ।
(2&४&७ शी (25८० ४2.-< (0-% 6 रु 4.८ तििः ५ € है है न
के
छ्द् भारती-भूषण
२ पुनः यथा--दोद्वा । ५/ भाञुज ऋषि ते का चह्मी ?, रन बिचलें का होइ १। * भव-भय-तारन अंथ को ?, कहि 0874 ? खु जोइ ॥ --काशिराज ( लिन्रचंद्विका )। यहाँ भी उसी प्रकार (१) भाठुज अर्थात् अश्विनी-कुमारों ने ऋषि (च्यवन) से क्या चाद्दा ? (२) रण से विचलित होने पर क्या होता है? और (३) संसार-भयसे निवृत्त करनेवाला कौन ग्रंथ है ? ये तीन प्रश्न हैं। जिनके उत्तर 'भागवत' शब्द से (१) 'भाग! ( यज्ञ-विभाग ) (२) 'भागव” (भागना) और (३) 'भागवत' दिए गए हैं ।
(ग ) वहिलापिका
जिसमें प्रश्नों का उत्तर छंदांतगंत न हो, वरन् बाहर
से आता हो । १ उदाहरण यथा--रथोद्धता छंद ।
कने को कहत कीर्तिजा सती। भाजु-सूलु बृषभालुजा प्रती ॥ को चितौन-मुचुकुंद त॑ मरो ?। कौन होत ऋतुराज मैं हरो १ ॥
यहाँ कर्ण से श्रीराधिकाजी का प्रश्न है--'राजा मुचकुंद की दृष्टि से कौन मरा ९! उत्तर है--'हे राधे! यवन'? | एवं कर्ण श्रीराधाजी से पूछता है--'वसंत में क्या हरा होता है ९? उत्तर दे--दे राधेय' ! वन! । दोनों अश्नों का संबोधन-सद्ित एक उत्तर-वाक्य 'राधेयवन! बाहर से आता है, स्वयं छंद सें नहीं है । किजआ ;
2 कम 3 जम 3 का ही $ कालयवन ॥ २ राधा का पुत्र कर्ण ।
चित्र 38
२ पुनः यथा-दोहा । अच्तर कौन विकल्प को ?, ज्ञुवति बसति किहि अंग ? वलि राजा कोने छुल्यो ?, सुरपति के परसखंग ॥ +केशवदास । यहाँ भी (१) विकल्प का अक्षर कौन है ?, (२)लखी किस अंग में वास करती दै ? और ( ३ ) बलि राजा को किसने छला ? ये तीन प्रश्न हैं, जिनके उत्तर क्रमशः “वा”, वास! और 'मुप्न्ट! हैं जो 'वामन! शब्द द्वारा वादर से आते हैं।
(घ ) दृष्टिकूटक
निप्तप्रें शब्द ऐसे ढंग से रखे जायें कि देखने मात्र
से अर्थ समझ में न आवे । १ उदाहरण यथा--दोहा ।
क्वारी कन्या खुत जन्यो, पोष क्रियो वलवान।
जिन कीन्हो दिन हास तिहिँ, ताहि श्रस्यों वृषभान॥
यहाँ वास्तविक अथे यह है--“आश्विन की कन्या-संक्रांति ने शीत-पुत्र उत्पन्न किया और पौष सास ने उसको बलवान किया (यथा--कन्यायां जायते शीतो हेमन्ते च विवर्धति! )।” किंतु “अविवाहिता बालिका ने पुत्र उत्पन्न एवं पालन किया” यह् मिथ्याथ भान द्वोता है ।
२ पुन: यथा--दोदा ।
४ आदि अंत मथुरा” बरन, जपे विलोम न जोय।
मध्यम अक्षर तासु मुख-मध्य करो सब कोय॥ ४
पू० भारती भूषण
यहाँ भी राम-नाम का जप न करनेवाले मनुष्य के मुख में “यू? करना बतलाया है; किंतु यह कठिनता से जाना जाता है।
(७ ) एकाक्तर जिसमें समग्र पद्य का एक ही अक्तर के शब्दों से. निर्माण किया जाय | १ उदाहरण यथा--दोह्ा । श
( लोल लाल-ले लो लली, लोल लली लौं लाल। १ ॥क होल शला स लाइलो ! लोल लली लो लाख ]॥ & हे यहाँ एक 'ल' अक्षर से द्वी समग्र दोहे का निर्माण “४ हुआ है। २ पुनः यथा--दोहा ।
है. ६ नोनेनैनीनैन ने, नौ ने जुनी न नून।
/ (नानानन ने ना नने, नाना नेना नून॥ १९,
--काशिराज ( चित्र-चंद्रिका )। यहाँ भी केवल 'न! अक्षर से समग्र पद्य का निर्माण हुआ दै।
& सल्ली-वचन सखी से--श्रोकृष्ण की ( वेणु-वाद्य- ) रूय के लिये ओरीध्रियाजी चंचछ (भातुर ) द्वो रद्दी थीं; भौर राधिकाजी के छिये श्रीकृष्ण अधीर हो रहे थे। ( तब उनकी अंतरंग सखी ने उन्हें मिलाकर कहा ) हे छाइलीजी ! चंचल श्रीकृष्ण को लीजिए; एवं हे श्रीकृष्ण ! चंचल प्रियाजी को लीजिए |
+ सखी का वचन, नायक के प्रति--मनोइर नेश्नवाझी मायिका के नेत्रों ने नवीन नीति (कटाक्ष-संचार) कम नहीं चुनी है । ब्रक्मा ने (अन्य) ऐसे निर्माण नहीं किए; और जो अनेक नेत्र बनाए, वे इनसे मन््यून हैं।
चित्र ५१
्च्ं्ुलच्िवंिल्ंच्चिख्ि़्ंशय़्थच्?थयओचलओलओओल़़च़ललिलल७ आल जल तन्त
(च) निरोष्ठ
जिप्रमें पवग (पफ व भम) ओर _उ' स्वर के विना छंद का निर्माण हो ।
१ उदाहरण यथा--दोहा ।
चंचल खंजन भूखन से, दीह' जलज-दल ऐन। अनियारे' असरीर के, तीर तिहारे नेन ॥
२ पुनः यथा--अवित्त ।
फौन है सिंगार रस जस' ए सघन घन , घन केसे आनंद की भर ते संँचारते।
'दास' सरि' देत जिन्हें सारस “ के रस-रखे, अलिन के गन खन-खन तन भारते ॥
राधादिक नारिन के हिंय को हकीकति , लखे ते अचरज-रीति इनकी निहारते।
कारे कान्ह ! कारे-कारे तारे एए तिहारे जित, जाते तित राते-राते रंग करि डारते॥ --भिखारीदास ।
यहाँ दोनों पद्य पवगे और उकार के विना निर्मित हुए हैं; अतः इनके उच्चारण में ओठों का स्पशे नहीं होता ।
सूचना--(१) यद्यपि इस “चित्नालंकार? को सभी अंथकारों ने गोरख- घंघे की भाँति कष्ट-काब्य बतलाया है; तथापि प्रायः संस्कृत एवं भाषा काथ्यों में इसका कुछ न कुछ परिचय मिलता है । मद्राकवि “केशवदासः ने
$ दीघे। २ तोखले । ३ जैसे । ४ समता । ५ कम्ऊछ । ६ अनुरागमय ।
पर भारती-भूषण
“कविप्रिय? में इसका सविस्तर वर्णन किया है। महात्मा स्रदास ने 'ाहित्य-लद्दरी” एवं काशीनरेश ने 'चित्र-चंद्विका? प्रंथ केवल इसी विषय पर लिखे हैं। हमने इसमें कवि-नैपुण्य और मनोरंजकता पाई है; अतः संक्षेप में इसका उल्लेख कर दिया है ।
(२) इस अलंकार के निर्माण करने में कठिनाई है; अतः कवियों के लिए निम्नांकित सुविधाएँ नियमित की गई हैं-- (क) अभलुस्वार, भर्धघानुस्त्रार, विसर्ग और हस्व-दीघ॑ होने न होने से
कुछ बाधा नहीं होती ।
(ख) “ब, व! 'ज, य? 'र, लू? 'ड, छल? और “श, प, स? में कुछ भेद नहीं होता ।
(ग) अंघ, वधिर 5९८६७) गणागण 2२ टर ५०८) हीं होता।
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उपमा परे
अर्थालंकार अर्थगत चमत्कार को 'अ्रथालंकार' कहते हैं। जैसे- कहना है- “श्रीराधिकाजी परम सुंदरी हें।” यह बात इन सीधे-सादे शब्दों में न कहकर आलंकारिक रीति से यों कह्दी जायगी-- (१) श्रीराधिका शी के समान झुंदरी हैं । (२) श्रीराधा जेसी तो राधा ही हैं । (३) श्रीराधा के समान रति भी नहीं कही जा सकती। (४) श्रीराधा दूसरी पावती हैं । (४) ओऔराधा रानी की कांति से शरद-पूर्शिमा की चंद्रिका भी लजाती है। इत्यादि । कुछ आचार्यों ने इनकी संख्या अधिक और कुछ ने न्यून भी मानी है; किंतु हमने अधोलिखित एकसौ अर्था लंकारों का वणन उचित समझा है-- (१) उपमा जहाँ उपमेय-उपपान में भिन्नता रहते हुए भी समान धर्म बतलाया जाय, वहाँ 'उपमा” अलंकार होता है। इसके मुख्य दो भेद हैं--
$ यहाँ 'मिद्चता रहते हुए! कहने का आशय यह है कि 'अनन्वय! अलंकार से भिन्नता हो, क्योंकि जहाँ घयमेय-उपमान में भिन्नता नहीं ड्वोती वरन् एुकुत। बताई जाती है, वहाँ “अनस्वयालंकार” द्वोता है ।
पूछ भारती-भूषण 27706 :2/ 2200 00 00200 0५ 3२२१ १ पूर्णोपमा जिसमें उपमेय', उपमानं, साधारण पर्म' एवं उपमा-वाचक-शब्द ये चारों अंग कहे गए हों ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । संधित' खुमन-खुगंध इव, सिव-गिरिजदिं सिर नाइ। यहाँ 'शिव-गिरिजा! उपमेय, 'सुमन-सु्गंध! उपमान, 'संधित' साधारण धर्म ओर “इव” वाचक-शब्द इन चारों अंगों की पूर्णता है । २ पुनः यथा--चौपाई । पुनि हे बिकल धवल-जल-घारा । नभ ते गिरी टूटि जिमि तारा॥ पादि-पाहि अति आरत बानी। सुनि सुरधुनिहिं 'संभु सनमानी॥ यहाँ भी 'जल-घारा उपमेय, 'तारा” उपमान, 'धवल' एवं दृूट गिरना! धम और 'जिमि! वाचक-शब्द है ।
...__ ॥ अ्रधिक शोभा या गुण आादि का वर्णन करने के छिये किसी अन्य पदार्थ से जिसके लिये समता दी जाय, उसको “उपमरेय? कद्दते हैं। जैसे--- मुख, नेश्न आदि। इसके पर्याय-वाची-शब्द् 'प्रकृतः 'विषय? “प्रस्तुत? “वण्यः और प्रासंगिक? भी हैं। २ जिस पदार्थ से किसी अन्य पदार्थ के लिये समता दी जाय, वह 'उपमान? कहलाता हैं। जैसे-चंद, कमछ आदि। इसको “अप्रकृत? “विषयी? “अप्रस्तुत” 'भवण्य? भौर “अप्रासंगिक” भी कहते हैं। ३ उपमेय उपम्तान में रहनेवाले “समान धर्म? को 'साधारण घमम ? कहते हैं। जैसे--सुख एवं चंद्र में 'प्रकाश” और नेश्र एवं कमल में (विकास? आदि। ७ उपमेय-उपसमान की समानता सूचित करनेवाले शब्द को “उपमा-वाचक-शब्द? कह्दते हैं। जैसे-- इच, यथा, सदश, से, सम, सरिस, जिमि, छौं, तुल्य भादि । ५ मिले हुए | ६ गंगा को ।
उपमा ५४
३ पुनः यथा--दोद्दा । बृंदावन बानक बिखद, बगस्थो बहुरि वसंत। विद्युध-बधूटी सी बिमल, न्नज-बनिता बिलसंत ॥ --पँं० किशोरीलाल गोस्वामी । यहाँ भी “्रज-बनिता' उपमेय, 'बिलुध-बधूटी' उपमान, “बिमल' घमे और 'सी' वाचक-शब्द है |
पूर्णपिमा-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । चरन अरुन अरविंद से हरन ही' के, खंभ-कदली से गोरे जंघ ज्ञुग जोरी के | पीपर-पलास सो उदर को बिलास, कुच कुंभ से कलभ' के, वढ़त बय थोरी के॥ गोल ग्रीव कु सी, झ्ुनाल सी बिसाल बाहु , बीहुरटी के बीज से बिसद् ० के। विघु सो बदन सोहै, चाप ली कुटिल भौहें , तीरन से तीखे नेन फीरति-किसोरी के॥ यहाँ चरंण' उपमेय “अरबदिंद” उपमान, अरुण” धरम और 'से! धाचक, आदि दश पूर्णोपमाएँ हैं; अतः माला है । २ पुनः यथा--ऋवित्त । आठें' के खुधाधर सो लखत बिसाल भाल , मंगल सो लाल तामैं टीको छुबि भारी को। चाप सी कुटिल भोंह, नेन पैने सायक से , खुक सी उतंग नासा मोहे मन प्यारी को ॥
$ हृदय । २ पत्ता । ३ द्ाथी का बच्चा । ७ अरष्ट प्री ।
प् भारती-भूषण
बिंब से अरुन ओठ, रद-छुद सोहत है, पेखि प्रेम पासि पस्तो चित्त ब्रज-नारी को । चंद सो प्रकास-कारी, कंज सो खुबास-धारी , सब-दुख-त्रास-हारी आनन बिहारी को॥ --भलंकार-भाशय । यहाँ भी 'भाल' उपमेय 'आठें का सुधाधर' उपमान 'लसत धर्म और सो! वाचक आदि ६ पूर्णॉंपमाएँ तीन चरणों में कह्दी
गई हैं; अतः माला है; और चतुर्थ-चरण में वध्ष्यमाण' मिन्नध्मो- मालोपमा' है ।
२ लुप्तीपमा जिसमें उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और उपमा- वाचऊ-शब्द इन चारों में से एक, दो वा तीन का लोप हो । इसके आठ भेद होते हैं-- [ एक के लोप के तीन भेद ] (क) पर्मलुप्ता जिसमें उपमेय, उपमान एवं वाचक-शब्द तीनों हों, केवल साधारण धर्म का लोप हो | ः १ उदाहरण यथा--दोहाद्ध । श्रुति-सार-द दुति जान जस, सारद-खोम समान। ७
$ जो आगे कहा जाय। २ ्ितु ये छुप्त श्ंग कथित शब्दों द्वारा लक्षित हो जाते हैं । ३ वेदों का सार देनेवाली। & पूरा पद्म 'यमकः के प्रथम भेद में देखिए ।
उपमा ३७
नक्शा की शक
यहाँ 'श्रीशारदा की अंग-झुति!, वाहन और 'यश' उपमेय रद-चंद्रमा' उपमान तथा 'समान' वाचक-शब्द तो आया है; पर उज्बलता-सूचक साधारण धम का लोप दै। २ पुनः यथा-द्दोरी-अंतरा । डर ते लाली गई अधरन की, रुधिर, न पीक अयानी !|। गिरते मोहि चक्रोरन घेरी, चंदकला सी जानी ॥ यहै मुख चोच चुभानी ॥ यहाँ भी “गुप्ता नायिका उपसेय, “चंद्रकला' उपमान तथा 'स्री? वाचक तो है; पर प्रकाशादि धर्म का लोप है । ३ पुनः यथा--दोहा । माई! एहा पूत जण, जेहा राण प्रताप। अकबर सूतो ओधकै', जाण” सिरणे' खाँप॥ --महाराजा पृथ्वोराज ओर चंपादे । यहाँ भी 'पूत! उपमेय, 'मद्दाराणा प्रताप! उप्सान और जेहा! (जैसा) वाबक है; पर वीरादि धर्म का लोप है।
४ पुन: यथा--दोहा । सजि सिँगार तिय भाल मैं, म्तगमद-बंदी दीन्ह। खुबरन के जयपन्र में, मदन मोहर सी कीन्द॥ --राजा गुरदत्तर्सिढ 'भूपति? । यहाँ भी नायिका के ललाट की बेंदी' उपमेय, सुबर्ण के पत्र पर मोहर' उपम्मान और 'सी! वाचक है; पर धर्म का लोप है ।
$ अनभिज्ञे !। २ गिरती हुई को। ३ उत्पन्न कर। ४ चौंकता है। ७ जानकर । ६ शिर की भोर ।
पृ भारती-भूषण दम 3227020:274% 562५ 20 27%: 2:37: 9 56९2. (सर ) वाचकलुता जिसमें उपमेय, उपमान एवं साधारण धर्म तीनों हों, केवल वाचक-शब्द का लोप हो | १ उदाहरण यथा--दोदार्द्ध । कुसल-करन, अघ-हरन, हरि-चरन-अरुून-अरबिंद । यहाँ 'चरन उपमेय, “अरबिंद! उपमान और “अरुन! घ्म तो है; पर वाचक-शब्द से” का लोप है । २ पुनः यथा--छप्पय । भओऔीराधा आधार प्रानपति-प्रान-प्रेम की। जोग-भोग आरोग खुकछूत खुल जोग छेम की ' ॥ मूरति-रति-रमनीय मद्नमोहन-मन-मोहनि । जिन जीते जगदीस जथा रजनीसहिं रोहनि ॥ जय सक्ति सनातनि जगत की करनि-प्रगट-पालन-प्रलय '। जय जल-तरंग-अनुरूप तनु हुगल रूप जय जयति जय ॥ यहाँ भी श्रीराधिकाजी की मूर्ति” उपमेय, 'रति”ः उपमान और 'रमणीय” धमे तो दै; पर वाचक 'इव” का लोप हुआ है। ३ पुन: यथा--सवैया । गुरू शान-निधान के पॉयन की न बन्यौ रज्ञ कीन्ह अजानपनो तू। चहूँ साधन'ह्व न समाधि सधी मन ! कैसे लहै अजपा' जपनो तू ॥ ..._॥ श्रीराधा अपने आ्राणपति (श्रीकृष्ण ) के प्राण एवं प्रेम की और € भक्तों के ) सांसारिक भोगों के योग, भारोग्य, पुण्य-कर्म, सुख, योग ( भारम-ज्ञान-प्राप्ति ) प्व॑ क्षेम ( प्राप्त की रक्षा ) की आधार रूप हैं। २ संसार की उत्पत्ति, स्थिति एवं य करनेवाी । ३ साधन चतुष्टय | ४ ज्वान-गायत्री ।
उपमा हि
बिच भौंहन प्रानन रोकि' न रोकि सक्यो त्रय तापन ते तपनो तू । सपनो-जग-मायिक सो अपनो गुनि' भूलि सरूप रहो अपनो तू ॥
यहाँ भी 'जग' उपमेय, सपनो” उपमान एवं 'मायिक! धममे तो कह्दा गया है; पर व।चक सो” का लोप हुआ है ।
(गे ) उपमानलुप्ता
जिसमें उपमेय, साधारण धम एवं वाचक-शब्द तो. हों, केवल उपमान का लोप हो |
१ उदाहरण यथा--दोहदा । देखी खुनी न किहिं कहें, राधा सी रमनीय। त्रिभुवन मैं तिमि कान्ह सो, कतहुँ न कोड कमनीय ॥ यहाँ दो 'उपमानलुप्ताएँ! हैं--राघा' उपमेय, “रमनीय घमम और “सी” वाचक तथा “कान्ह! उपमेय, 'कमनीय' धमे और “सो! वाचक आया है। दोनों में 'देखी सुनी न एवं 'कतहुँ न को5उ' वाक्यों द्वारा उपमानों का लोप हुआ है | २ पुनः यथा--दोहा । सब साधन को सार अरु, आराधन को पार। ध्यान समान न आन कहूँ, ज्ञान मुक्ति को द्वार ॥ यहाँ भी 'व्यान! उपमेय, 'सब साधन को सार! “आराधन को पार! एवं ज्ञान मुक्ति को द्वार' धर्म और 'समानां वाचक-शब्द् आया है; पर विज्ञानादि उपमानों का लोप है ।
3 दोनों अकुटियों के मध्य-स्थान में प्रार्यों को रोककर । २ उसको, ३ अपना समझकर ।
"६० भारती-भूषण 3२ ०+७-००४०४ 225 ००326 0052. ३ पुनः यथा--कवित्त । चंद्रिका मैं मुकुट मुकुट मैं खु घचंद्रिका है, चंद्रिका मुकुट मिल्ति चंद्रिका अजोर की। नगन मैं अंग-अंग नग-नग अंगन मैं, कवि 'पजनेस” लखे नजर करोर की ॥ तल बिज्ज्ञु-दाम-मध्य विज्ज़ु तज्ु-मध्य, तनु बिज्जु-दाम मिलि देह-दुति दुईँ ओर की। तीन लोक भॉकी, ऐसी दूसरी न भाँकी जेसी, भॉकी हम झांकी बॉकी ज्ुगलकिसोर की ॥ 2802009 30042 28008: 2. 300५ 5:40 00: --प्रजनेस ।
यहाँ भी 'जुगलकिसोर की माँक़ी' उपमेय, 'बाँकी” धर्म और 'ऐसी” वाचक-शब्द है; पर 'दूसरी न माँकी” वाक्य से उपमान का लोप हुआ है ।
उपमानलुप्ता-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त ।
बानधारी पाथ' सो न, मान कुरुराज' केसो,
गान तानसेन सो न, दान ना अनाज सो । जल-जन्हुजा सो नाहि, थल-कासिका सो कहूँ,
जीवन सो चल ना, सबल ना समाज सो ॥ स्वाद पूप-खीर सो न, भूष रघुबीर जैसो,
जेठ केसो धूप नाहि, रूप नाहि लाज़ सो । ब्रज केसो धूर ना, सहर राजपूतन सो,
कूर कटुबादी सो न सूर सिवराज़ सो॥
$ अज्ञैन । २ दुर्योधन ।
उपमा दर
ल्य्य्््थ्््च्न््ल्ध्व््ल्जजज ४
यहाँ “अज़ुन' उपमेय, 'बानघारी' धर्म और सो” वाचक- शब्द आया है; पर द्रोणाचायोदि उपमानों का लोप है। इसी प्रकार १६ उपमानलुप्ताएँ हैं; अतः माला है । [ दो के लोप के चार भेद ] ( घ ) घर्मवाचकलुप्ता
जिसमें उपमेय और उपमान तो हों; पर धर्म एवं वाचक-शब्द का लोप हो ।
१ उदाहरण यथा--कवित्त । पाहन-करेजो तिमि हाथ क्यों न होत नाथ !
काटत अनाथ माथ बचन-विहीनों' के। ब्याधन ज्यों छुनिक सवाद लो विना5पराध,
मुरगे मयूर अज मेष म्ुग मीनो के ॥ गरल-गिरी स-गाथ जाने विन वन्हि-बात'
देत उदाहरन तपस्वी तलु खीनों के। पिंड-बलिदान-ओट कोटिन करें ये पाप , मोद यह माथे बँधे मानस-मलीनों के ॥ यहाँ 'कलेजा' उपमेय एवं 'पाहन! उपसान तो दै; पर “कठिन! घर्म तथा 'सा! वाचक का लोप है ।
$ भनवोल । २ श्रीमद्धागवत में रासक्रीड़ा के पश्चात् शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित की शंका का समाधान इस प्रकार किया था--शंकर का विष-पान करना और अग्नि की सर्वन्मक्षणता देखकर किसी व्यक्ति को
ऐसे कर्म न करने चाहिएँ।” ३ श्राद्धू-पिंड। ४ बहाना। ५ मलिन अंतःकरणवार्लो के ।
दर भारती-भूषण
२ पुनः यथा--चौपाई (अद्भ ) । कुंद-इंडु-निंद्क दुति-अंगा | फटिक-पुंज छुबि कोटि-पतंगा '॥ यहाँ भी श्रीशंकर को छबि! ( कांति ) उपमेय और “फटिक- पुंज” एवं 'कोटि-पतंग” उपमान हैं; किंतु प्रकाश” धर्म एवं 'सी? वाचक का लोप है | (७) वाचकोपमेयलुसा
जिसमें उपमान एवं साधारण धर्म तो हों; पर उपमेय एवं वाचक शब्द का लोप हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । सग-दारक -दीरघ-नयन, मसुगमद -विंठु-लिलार । भीरु-सगी, सगराज-कटि, भुख-म्गांक-अजुहार ॥ यहाँ 'मगी” उपमान एवं 'भीरु! धम तो है; पर “नायिका! उपमेय एवं 'इब” वाचक-शब्द का लोप है । २ पुनः यथा--दोद्वा । इत ते उत उत ते इते, छिन न कहूँ ठहराति। जक न परति चकई भई, फिरि आवति फिरि जाति ॥ +-विहारी । यहाँ “चकई” (चकरी ) उपमान और “फिरि श्ावति फिरि जाति! धर्म तो कद्दा गया है; पर नायिका” उपमेय एवं 'सी! वाचक- शब्द का लोप है ।
$ पतंग >सूर्य । २ बच्चा । ३ कस्तूरी । ४ कातर । ५ चंद्रमा ।
उपमा द्रे
(च) घम्मोंपमानलुप्ता जिसमें उपमेय एवं वाचक-शब्द तो हों; पर उपमान एवं साधारण धम का लोप हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । आन नहीं सब सुरन में, संकर-सि्रा समान। मुक्त कंठ ते कहत यां, खंतत वेद-पुरान ॥ यहाँ 'शंकर-शिवाः उपमेय एवं समान! वाचक है और “आन नहीं” पद से उपमान का एवं प्रधानता आदि धमम का अभाव है । २ पुनः यथा--दोद्दा । यदपि सरित संखार में, सत सहस्त परिमान। पे पतितन पाथोधि कहँ, सुरसरि सरिस न आन ॥ यहाँ भी 'सुरसरि! उपमेय और “सरिस” वाचक तो है; पर “अन्य नद नदी' उपमान और “कल्याणकारी आदि घम का लोप है । (छ ) वाचकोपमानलुसता निसम्ें उपमेय एवं साधारण धम तो हों; पर उपपान शव वाचक-शब्द का लोप हो । १ उदादरण यथा--दोहा । गुरु सो जानी गज़न गति, मानी सीख मराल। केहरि कटि-कूस कान्ह की, परिकर' पीत रुमाल ॥
३ कटि-्यंघ।
छठ भारती-भूषण
यहाँ कृष्ण की 'कटि! उपसेय एवं 'ऋस! धर्म तो आया है; पर सिंह की कटि' उपमान तथा “सी? बाचक का लोप है; और केहरि! शब्द केवल उपमसा-सूचक है । २ पुनः यथा--दोहा । हिय. सियरावे बदन-छबि, रस द्रसाबेै केस।
परम घाव चितवनि करे, खुंदरि यही अंदेस॥ --भिखारीदास दास? ।
यहाँ भी नायिका की बदन-छुबि, केश, और चितवन उपमेयों का एवं 'हिय सियरावै” 'रस द्रसावै! और “घाव करे! धर्मों का वर्णन है; पर उपमान और वाचक का लोप है । [ तीन के छोप का एक भेद ] (ज ) घर्मोपमानवाचकलुप्ता
जिसमें केवल उपम्रेय हो; पर डपमान, धर्म एवं वाचक तीनों का लोप हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । सिय-रामहिं अवलंब अर, भालु-कपिन कहेँ प्रान। दान दियो हज्ुमान यह, सुन्यो न देख्यो आन ॥ यहाँ श्रीदनुमानजी के 'दान' उपमेय मात्र का उल्लेख है, उपमान, वाचक एवं धम का लोप है; और चतुर्थ चरण से लुप्ता लक्षित द्वोती है। २ पुनः यथा--चौपाई ( अद्ध )। अकथनीय अज्ञुपम केलासा। तासु सिखर बट-बिटप-बिलासा ॥
उपमा च्ष
यहाँ भी केवल 'कैलास” उपमेय तो है; पर 'रजतसमूह उपमान, 'घवल' धर्म एवं 'खम' वाचक-शब्द का लोप है; और “झकथनीय' एवं 'अनुपम' शब्दों से 'छप्तोपमा' लक्षित द्वोती है ।
सूचना--य्दाँ आठ प्रकार की 'लुप्तोपमाएँ? लिखी गई हैं । यद्यपि कई प्रं्थों में इससे अधिक देखो जाती हैं, तथापि हमने निम्नोक्त लुप्ताएँ नहीं मानी हैं--
(क) “उपमेयल॒प्ता? में उपसमान, धर्म एवं वाचक होता है, प्रधान अंग डपमेय नहीं होता ।
(ख) “धर्मोपमेय्रछ॒प्ता? में केवल उपमान एवं वाचक होता हे।
(ग) “उपमेयोपमानलुप्ता? में केवल धर्म एवं वाचक होता है ।
(घ) “घर्मोपमानोपमेयलुघा” में वाचक मात्र होता है।
(७) 'बाचकोंपमेयोपमानछुप्ता? में धर्म मात्र होता है। अतः इन पौँचों में चमत्कार का भभाव हैं।
(च) 'वाचकधमॉँपमेय” का छोप होने के कारण केवल उपमान के वर्णन से वरष्य्माण “रूपकातिशयोक्ति? नामक एक अन्य अलंकार होता है; अतः इसकी मी छुप्तोपमाओं में गणना नहीं क्री गई हे ।
विशेष सूचना--“उपमालंकार' के उक्त दो भेदों के अतिरिक्त निम्नोक्त चार भेद और लिखे जाते हैं--- ३ मालोपमा & जिसमें एक उपमेय के अनेक उपमान कहे जाये। इसके दो भेद होते हैं-- (के ) भिन्रधर्मा
जिसमें जितने उपमान हों, उन सबके भिन्न-भिन्न धम बतलाए जाय । & उपमार्ओों की माला | कै.
द््द् भारती-भूषण 2७००० +-ल जज बल बल जल न् >>... १ उदाहरण यथा--दोहा । चंचल खंजन-कजन से, दीह-जलज-दल ऐन । अनियारे असरीर के, तीर तिहारे नेन॥ यहाँ 'नेत्र' उपमेय के 'खंजन, मीन! “कमल-दल” एवं 'काम के तीर' उपमानों के क्रमशः 'चंचलता” 'दीघता” एवं 'तीक्ष्णता! इस भिन्न-भिन्न धर्मा का उल्लेख है । २ पुनः यथा-- राम काम-सत-कोटि-सुभग-तन । दुर्गां-कोटि-अमित अरि-मर्दन ॥ सक्र-कोटि-लत सरिस बिलासा। नभ-सत-कोटि अमित अवकासा॥ मरुत-कोटि-सत बिपुल बल, रबि-सत-कोटि प्रकास । ससि-सखत-कोटि सो सीतल, समन सकल-भव-त्रास ॥ काल-कोटि-सत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरंत। धूम-केतु-सत-कोटि. सम, दुराधरष भगवंत॥ प्रभु भ्रगाध सत-कोटि-पताला । समन-कोटि-सत सरिस कराला ॥ तीरथ-अमित-कोटि सम पावन | नाम अखिल-अघ-पुंज-नसावन ॥ दिम-गिरि-कोटि अचल रघुबीरा । सिंघु-कोटि-सत सम गंभीरा ॥ काम-घेजु-सत-कोटि समाना | सकल-काम-दायक भगवाना ॥ सारद-कोटि-अमित चतुराई। विधि-सत-कोटि स्टृष्टि-निपुनाई ॥ विष्णु-कोटि सम पालन करता । रुद्र-कोटि-सत सम सखंहरता॥ धनदू-कोटि-सत सम धनवाना । माया कोटि प्रपंच-निधाना ॥ भार-धरन सत-कोटि-अहीसा । निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ॥ --रामचरित-मानस । यहाँ भी श्रीरामचंद्र मद्दाराज उपमेय के काम, दुगो आदि २३ उपमान और इनके 'खुभग-तन! “अरि-्मदेन'! आदि मिन्न- भिन्न धमे “भार-धरन सत-कोटि-अद्दीसा” पर्यत कहे गए हैं ।
उपमा 5६७
३ पुनः: यथा--कवित्त । नमंदा सी समंदा प्रसिद्ध है जहान बीच , सरयू समान वहु भाँति भूरि भाई है। जमुना सी मानस की मोहिनी अनूठी बनी , खुंदर सरस्वती सी गुप्त रूप आई है॥ खुर-सरिता सी तीन ताप को हरनवारी , खुखद् सुधा सी सब चाल सों खुहाई है । भूप गंगासिंह की खुदाई! खुद आई जज , नहर अनूठी यह लोक मैं लखाई है।॥ --महामहोपाध्याय पं> देवीप्रसाद शुरू कवि-चक्रवर्ती । यहाँ भी बीकानेर-नरेश श्रीगंगासिंहजी की लाई हुई “नहर उपमेय के 'नमेदा' आदि ६ उपमान और उनके 'शमेदा' ( शांति- दायिनी ) आदि भिन्न-भिन्न धरम कद्दे गए हैं । (ख) अमभिन्रधर्मा जिसमें अनेक उपमानों का एक ही धम बतलाया गया हो । १ उदाहरण यथा--अऊवित्त । कारीगर चार अ्रध ऊरध बिठाए बिधि , सोंपि सेवकाई सखि | श्रोनि-सुमुखी की है । इत को नितंब नित खैँचि कुच एंच्ि उतें , फूली तूल फेन ' फूलह सी हरवी की है॥
$ खुदाई हुई एवं प्रभुता। २ खोदी गई एवं स्वयं भाईं। ३ यंदद पक्की नहर फीरोज़पुर ( पंजाब ) से हनुमानगढ़ ( बीकानेर 9» तक बनाई गई है। ४ कटि । ५ घुनी हुई रूई । ६ काग ।
द्च्ष भारती-भूषण
कीन्ह कटि सार खीन सुमन-सिरीष-तार , भार गहि आपु आस पूरी पिय-जी की है। लोनी ललना की लुरे लट सी निपट नीकी नाक-नटनी ' की ह न ऐसी कटि नीकी हे ॥ यहाँ नायिका की कटि उपमेय के 'फूली तूल', 'फेन' एवं 'फूल' इन तीन उपसानों का 'हरवो” (हलकी) एक ही धर्म कहां गया है । २ पुनः यथा--कवित्त । राम-नर-नाहर के तरल तुरंग ताते, जगत जवाहिर ते जीन जरतारी से । आछे आव-जाव मैं सो तिरछे तराछे साचे , कुलटा-कटाछै ताछै नाचे नम्न-नारी से॥ धूरजमल' फुरती कहाँ लों वजानी जाइ, सुग्ध मन होत तहाँ बड़े बुद्धि-धारी से । चकरी से चक्र से अलात-चक्र' चपला से , चीता से चिराग से चिनाक चिनगारी से ॥ --बारहठ महाकवि सूर्यमछ । यहाँ भी दूँदी-नरेश रामसिंह के 'तुरंग-समूह” उपमेय के 'चकरी? आदि उपमानों का 'फुरती”? (चपलता) एक ही धम कहद्दा गया द्दे। ३ पुनः यथा--कवित्त । कीरति तिहारी राम ! कहा कहै 'हनूमान' , दसों दिसि दिव्य दीह दीपति अकेली सी । भोडर सी भूषन सी भानु सी भगीरथी सी , भारती सी भव सी भवा ' सी भरुज बेली सी ॥ 3 भप्सरा । २ वेश्या। ३ किसी छकड़ी आदि के अम्रभाग को अ्रश्वलित करके घुमाना ॥ ४ पार्वती
उपमा ६६
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2 2 थक उस 30270 20022: 0 ऋुंद सी कविद' सी कुछुद सी कपूरिका सी, कंजन की कलिका कलपतरू केली सी। चपला सी चक्र सी चमर सी ओ चंदन सी, चंद्रमा सी चाँदनी सी चाँदी सी चमेली सी ॥ “हनुमान । यहाँ भी मद्दाराज श्रोरामचंद्रजी की कीति उपमेय के भोडर आदि अनेक उपमानों में दीप्रि ( प्रकाश ) एक ही घमें कहा गया है ।
४ लक्ष्योपमा
जिसमें उपमेय ओर उपमान के समता-स्ूचक (वाचक)- शब्द सम, समान, हव आदि के स्थान पर बंधु, चोर, वादी, सहृद, कल्पटक्ष, प्रशु, रिपु, सोदर, बहसत, निदरत, हँसत, होड करत, आदि शब्दों का प्रयोग हो । इसे 'संकी्ोंपमा' तथा 'ललितोपपा' भी कहते हैं ।
१ उदाहरण यथा--सबैया ।
उन आँगुरियाँ अलि ! गंध गुराई गुलावन की छुलि छीन लई। जब काम अकाय' भयो तब ही स॑ंव सायक सोंपि दिए कि दई ! ॥
नख रोरी से राते जराव-जरोी मुँदरीन की ओप अनूप ठई। मजु देखन कौ पिय के तिय के हिय ते आँखियाँ निकसी ये नई ॥
यहाँ कद्दा गया है--“नायिका की करांगुली उपमेय ने गुलाब
१ शुक्र तारा । २ अशरी र।
छ० भारती-भूषण
उपमान की गंध एवं गोरापन छीन लिया ।” इसमें 'छीन लई? वाचकं-शब्द द्वारा 'लक्ष्योपमा' हुई है। २ पुनः यथा--कवित्त । गावन-मलार मिलि प्यारी-मनभावन को , साधन के आवन को आदर द्रीची मैं। बरषा-बहार धार-सूसल निहारि बेठे वारिनिधि! को अनाद्र द्रीची मैं ॥ आऔरसी -ललाम-फूल-दाम'-मखतूल *स्याम- भूूलन भुलाबे स्यामा सादर दरीची मैं। हिलत हिंडोरे गोरे गात भलकत मानो , थिरकि रही है बिज्जु बाद्र-द्रीची में ॥ यहाँ भी “बरषा-बहार धार” उपमेय के बारिनिधि! उपमान का वाचक-शब्द अनादर” आया है।
३ पुन: यथा--सवैया । अलि-पुंजन की उत पाँति लगी इत हैं अलकें छुबि बंक धघरे। मकरंद भरें अरबिंद उतें इत नेनन सों जल-बिंदु भरे॥ उत लाल प्रसून पलासन मैं इत हैं अ्रधराधर लाल परे। कवि “आये! अहो ! अवलोकिए तो विरहीनि बसंत सो बाद करे ॥ --पें० गोवद्धंनचंद्र ओमका । यहाँ भी 'वियौगिनी नायिका? उपमेय का “वसंत” उपमांन बाद करें समता-सूचक-शब्द द्वारा बतलाया गया है। १ समुत्र । २ दपंण। ३ सुंदर । ४ फूल-माला । ५ मखमर। ६ कालेरंग की तथा श्रीकृष्ण ।
उपमा उश
>> -ल+
लक्ष्योपमा-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । करि की छुराई चाल, सिंह की चुराई लंक, ससि को चुरायो मुख, नासा चोरी की र की । पिक के चुराए बैन, स्ृग के चुराए नेन, दूखन अनार, हाँसी बीजरी गँभीर की।॥ कहै कवि 'बेनो” बेनी ब्याल की चुराइ लीन्ही, रती-रती सोभा सब रति के सरीर की। श्रब तो कन्हैयाजू को चित ह चुराइ लीन्हो, चोरटी है गोरटी या छोरटी अहीर की ॥ --बेनी-प्राचीन ( असनी के ) । यहाँ 'नायिका की चाल' उपमेय के 'करि की चाल' उपमान का वाचक-शब्द “चुराई” रखा गया है। इसी प्रकार के और भी अनेक वर्णन होने के कारण माला है ।
५ रसनोपमा 9
जिसमें कहे हुए उपमेय क्रमशः उत्तरोत्तर उपयान होते जाये और इसी प्रकार उपमेयों तथा उपमानों की शृंखला बन गई हो ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । खुरघुनि-सुश्रन-सरीर इबव, आसय अमित उदार। आखसय सरिस अमोघता, अघ-ओघन-परिहार ॥ $सॉकल (जंजीर)।.... हु & यह अलंकार “उपमा? के और 'एकावली? को ग्द्दीत-मुक्त-रीति के
संयोग से होता है ।
७२ भारती-भूषण
यहाँ श्रीगंगाजी का “उदार-आशय” उपमेय है; फिर वही
“अमोघता” का उपमांन रखा गया है । २ पुनः यथा--दोहा ।
स्याम-काम-चामर सरिस, मद मखमल के तार।
तिन तारन अनुहार अलि !, भानु-कुमरि के बार ॥
यहाँ भी 'मखमल के तार! उपमेय है; और यही उपमेय श्रीराधिकाजी के बालों का उपमान रखा गया है ।
३ पुनः यथा--दोह्दा ।
कुल सी काया, काय सी, चित-चतुराई-बाल |
चित-चतुराई सी चखनि-मोहनि मद्नगोपाल !॥
यहाँ भी 'श्रीराधिकाजी की काया” उपमेय है; और वह्दी “चित-चतुराई' का एवं 'चित-चतुराई' 'नेत्रों की मोहिनी” का उपमान रखा गया है ।
६ सछुचयोपमा जिसमें उपपान के धर्भों का सम्मच॒य' (बाहुलय) हो । १ उदाहरण यथा--दोहा ।
स्याम-कमल-स्यामल-मदुल, सारस -स्याम-विकास ।
स्याम-तामरस -मंज़ु-मुख, स्याम-सरोज-सुबास ॥
यहाँ “श्रीकृष्ण के मुख! उपमेय को ए% 'नील-कमल” उपमान के श्यामवर्ण, कोमलता, विकास, सुंदरता एवं सुबास पाँच धर्मों से उपमा दी गई है ।
9 अथांत् एक उपमान के कई धर्मों से उपमा दी जाय। २ कमछ। ३ कम ।
उपमा रे
२ पुनः यथा--दोद्दा । भ्रीरघुवर को बीर-ब्रत, साहस सिंह समान । प्रबल पराक्रम आक्रमन, पंचानन परमान ॥ यहाँ भी “श्रीरघुनाथनी' उपमेय के लिये 'सिंह' उपमान के वीर-ब्रत, साहस, पराक्रम एवं शत्रु पर आक्रमण करना इन चार
धरम से उपसा दी गई है ।
३ पुनः यथा--स्झोक । विद्यत्सम्पातनिनद॑ विद्यत्सम्पातपिड्जलम् । विद्यत्सस्पातदुष्प्रेज््यं विद्युत्सम्पातचञ्च लम् ॥ --महाभारत ( वनपव )॥ यहाँ भी द्रौपदी के आग्रह से एक अद्भुत पुष्प के लिये जाते हुए भीमसेन को मा में दर्शन देने के समय श्रीहलुमानजी के लिये उनके बीर रूप के उप्सान 'विद्यत्संपात' (विजली-गिरने ) के भयानक शब्द, धूसर ( बानर का रंग ), आँखों में चकाचोध ह्दो जाने से कष्ट से देख पढ़ना एवं चंचलता इन चार धर्मों से उपसा
दी गई है ।
सूचना--प्रह 'उपमा? अलंकार अनेक अलंकारों का उत्पादक वा कारण है | यथा-( १ ) “मुख सा सुख ही है!?--अनन्बय । (२) “चंद्र सा मु है, मुख सा चंद्र हैं??- उपमेयोपमा | (३ )''मुख सा चंद्र है?! -- भ्रतीप । (४ ) “मुश्न ही चंद्र है?--रूपरू। ( ५) “चंद्र समकफकर चकोर सुख की ओर अभिनेष नेत्रों से देख रहा है??--अ्रांति । ९ ५ ) “यह मुख है वा चंद्र”--संदेह । ( ७) “मुख नहीं चंद्र हे?--अपह्ृति। (८) “सुख -मानो चंत्र है?--उत्प्रेक्षा। (९) “मुख सुपमा से एवं चंद्र प्रकाश से शोभित है”--दीपक । (१०) “मुख सुषमा से शोभित एवं चंद्रमा चंद्रिका
७8 भारती-भूषण
से विलसित है?--प्रतिवस्तूपमा । (११) “मुख अपनी सुषमा से पति को प्रसन्न करता है, चंद्रमा अपनी चंद्विका से संसार को शीतर करता है? +द्वशंत । (१३) “मुख को सुखमा चंद्र में है? अथवा “चंद्र का प्रकाश मुख में है?”--निदर्शना । (१३) “चंद्र कलंकित है; अतः मुख की समता नहीं कर सकता?--व्यततिरेक । इत्यादि । और रमणीयार्थता भी इसीमें सबसे अधिक है; क्षतः इसको बहुत से श्र्थालंकाररों का प्राण रूप एवं प्रधान मानकर संपूर्ण प्ंथकारों ने सबसे प्रथम स्थान दिया है।
इसके पूर्णोपमा, लु॒प्तोपमा, मालोपमा भादि जितने भेद यहाँ लिखे गए हैं, इनके अतिरिक्त श्रौती ( शाब्दी ), आर्थों, समस्त-वस्तु-विषय, सावयव, निरवयव, एकदेशविवर्ति, परंपरित, भूषणोपमा, ब्यंग्योपमा, विपरीतोपमा, अप्लंभावितोपमा, संशयोपमा, हेतूपमा, भभूतोपमा, अद्भुतो- पा भादि २२४ तक भेद होने का लेख देखने में आया है। सबसे अधिक भेद “अलंकार-आशय? एवं 'कविप्रिया? में पाए जाते हैं।
न्हज्ाकट्णर ( २) अनन्वय जहाँ उपमेय ही को उपमान बतलाया जाय, वहाँ अझनन्वय' अलंकार होता हे | १ उदाहरण यथा--दोहद्दा ।
काम, काम-तरु, सखसि, ऋषभ, राम रहे मन मान । रुचिर बरद रत! बिरत' बलि, हर से हर हि न आन ॥
यहाँ 'हर! उपमेय के 'हर” ही उपमान कहे गए हैं ।
१ अजुरागी । २ वीतराग । ३ बलवान ।
उपमेयोपमा 99
२ पुनः यथा--कवित्त । रूप भरी रंग भरी भावन अनेक भरी, देखि-देखि मोहि रही साथ की जे सखियाँ। मैन भरी मान भरी मोहनी निपट अति, रस भरी जस भरी आाँखें कोर भँखियाँ।॥ “नंद! कहै टोने भरी सोभित सलोने मुख, तब ते न देत चेन जबते में लखियाँ। मारिवे जिवाइबे को उपमा लज़ाइवे को, तेरी अँखियाँ सी प्यारी | तेरी दोनो अखियाँ ॥ नंद । यहाँ भी 'अंखियें! उपसेय का “ऑँखियें/ ही उपमान रखा गया है ३ पुनः यथा--रोला छुंद् । खुरसरि-सरि-हित बिसरि आन उपमान न आनत। कहे खुने चित ग्रने सकल अलुचित सो जानत॥ खुमिरि गंग कद्दि गंग गंग-खंगति अभिलाखत। भाषि गंग सम गंग रंग कविता को राखत॥ बाबू जगन्नाथदास 'रटनाकर! ।
यहाँ भी श्रीगंगाजी उपमेय को ही उनका उपमान कह्दा गया है।
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( ३ ) उपमेयोपमा जहाँ उपमेय को जिस उपमान से उपमा दी जाय, उस उपमान को भी उसी उपमेय से उपमा दी जाय, अर्थात् जहाँ तीसरे समान पदार्थ का अभाव हो, वहाँ
७दे भारती भूषण
“उपमेयोपमा” अलंकार होता है। इसको “परस्परोपमा* भी कहते हैं । १ उदाहरण यथा--कवित्त | संकर छुबीले राम ही से रमनीय रूप , संकर से राम कमनीय छुबि-धाम हैं। राम अनुहार एक ओऔढर-उदार' ईस , इस से उदार राम पूरे सब काम हैं॥ राम-नाम हेतु-उपराम' खिव-नाम ही सो, राम-नाम ही सो अभिराम सिदव-नाम है। पोषक प्रज्ञा के प्रान सोषक खुरारिन के, राम के समान संभु संभु सम राम हैं ॥ यहाँ 'शंकर” उपमेय के 'राम!ं उपमान एवं 'राम” उपमेय के 'शंकर! उपमान कहे गए हैं । २ पुनः यथा--सवैया । बारन ते बकसे जिनकी समता न लहै बढ़े विध्य समूचो । कित्ति-छुधा दिग-भित्ति पजारत चंदू-मरीचिन को करि कूचो' ॥ राव सता“खुत को 'मतिराम” महीपति क््योंकरि और पहुँचो। मूपर भा भुवप्पति को मन सो कर औ कर सो मन ऊँचो ॥ --मतिराम । यहाँ भी राजा भाऊसिंद्द की उदारता के वर्णन में उनके मन के समान हाथ और द्वाथ के समान मन ऊँचा कद्दा गया है । $ अत्यंत उदार । रे शांति । ३ कीर्ति रूप अम्त, चंद्रमा की किरणों का छूचा ( एक भौजार, सफ़ेदी छगाने की कूँची ) बनाकर दिशाओं की लिस्तियों को धोता है। ४ शत्रुशाल ।
प्रतीप ञ्ऊ
मिल न मी नी मी को थआ अ३अबक आल
उपमेयोपमा-साला १ उदाहरण यथा--कवित्त । सब-मन रंजन हैँ खंजन से नेन आली ! नैनन से खंजन हू लागत चपल हैं। मीनन से महा मन-मोहन हैं मोहिबे को, मीन इनहीं से नीके सोहत श्रमल हैं ॥ सगन के लोचन से लोचन हैं रोचन ये, सग-टग इनहीं से सोहें पलापल' ह्े। 'सूरति' निद्ारि देखी, नीके एरी प्यारोजू के, कमल से नेन अरू नेन से कमल हैं॥ +स्लूरति सिश्र । यहाँ खंजन से नेत्र एवं नेत्र से खंजन, मीन से नेत्र एवं नेत्र से मीन, सग-तेत्नों से नेत्र एवं नेत्रों से सगन्तेत्र तथा कमल से नेत्र एवं नेत्र से कमल, ये चार 'परस्परोपमाएँ” आई हैं; अतः यह माला है ।
कअपा-छ इनक
(४) प्रतीप &
जहाँ उपमान को उपमेय कल्पित किया जाय अथवा
आदरणीय उपमान का उपमेय द्वारा तिरस्कार किया
जाय, वहाँ प्रतीप” अलंकार होता है। इसके पाँच भेद हैं-- १ चमकदार |
& “रतीप' शब्द विलोमवाची है । इसे महाकवि दंडी ने 'विपरीतो- पमा? माना है।
८ : भारती-भूषण
जल -लओ
१ प्रथम प्रतीष जिसमें प्रसिद्ध उपमान ( चंद्र कमलादि ) को उपमेय माना जाय |
१ उदाहरण यथा--दोहा । “५ सोहत श्रीमति-कुचन से, ब्यक्॒कुंअ.के कुंभ । अरू इन सम उन्नत अ्रहैं, मत्त करिन के कुंभ ॥ यहाँ कुचों के प्रसिद्ध उपमान शातकुंभ ( छुढ़य, ) के कुंभों ( कलसों ) को एवं हाथी के कुंभों को उपमेय माना गया है।
२ पुन: यथा--दोहा । मोहि देत आनंद हो, वा मुख सो यह चंद। लीनो आइ छिपाइके, वेरी बादर-इंद॥ --राजा रामसिंह ( नरवरूगढ़ ) । यहाँ भी “चंद” प्रसिद्ध उपमान को उपमेय कहा गया है ।
प्रथम प्रतीप-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । चरन-करन सम जाके कहे 'रघुनाथ' सरद-समे को फूल्यो चारु अरबिंदु है। जाके बार खुकुमार ऐसे मखतूल-तार, नैन से निहारि देखो माधौ' के मलिदु है॥ बोलन सी अमी जाके अधर सो अज॒ुराग, जाकी मोहनता ऐसो मदन नरिदु है। ऐसी बाल लाल हों तिहारे लिये लाऊँ जाके, अंग-ओप स्री उज़ेरी, आनन सो इंदु है॥
--रघुनाथ ।
$ वैशाख |
प्रतीप ज&
यहाँ 'चरन' करन! आदि कई उपमेयों के अरविंदादि' प्रसिद्ध उपमानों को उपमेय बनाया गया है; अतः माला है ।
२ द्वितीय प्रतीप
जिसमें उपमान को उपमेय बनाकर वर्णीनीय उपपेय का तिरस्कार किया जाय ! १ उदाहरण यथा--दोहा । चंपक चामीकर' तड़ित', तव-तनु सरिस समर्थ । यह जिय जानि अजान तिय ! गरब ग्रुमान निरथे ॥ यहाँ नायिका का अंग-द्युति वर्णनीय उपमेय है। उसके चंपक, चामीकर एवं तड़ित उपमानों को उपमेय बनाकर चतुथ चरण द्वारा उपमेय का गर्व-परिद्वार (अनादर ) किया गया है । २ पुनः: यथा--ऋवित्त । सागर में गहराई मेरू में उँचाई रति नायक में रूप की निकाई निरधारिण। दान देव-तरू मैं सयान खुर-गुरू में प्रसाद गंग-नीर में ख कैसे के बिसारिए ॥ तरनि में तेज बरनत 'मतिराम' जोति, ज़्गमगें जामिनी-रमन में विचारिए। राव भावर्सिह ! कद तुम ही बड़े हो जग , रावरे के गुन और ठौर हु निहारिप्ट ॥ +-मतिराम । यहाँ श्री समुद्र आदि उपमानों को उपमेय बनाकर वास्तविक $ स्वर्ण । २ बिजली । ३ चंद्र ।
अल के का
८० भारती-भूषण
उपमेय राजा भाऊसिंद का कहा तुम द्वी बड़े दो! वाक्य द्वारा तिरस्कार किया गया है। ३ तृतीय प्रतीप
जिसमें उपमान को उपमेय मानकर (द्वितीय प्रतीप के विरुद्ध) वशनीय उपमेय द्वारा उपमान का तिरस्कार किया जाय ।
१ उदाहरण यथा--दोद्दा । सहज स्याम सुषमा खुधा-सदन स्याम-तनु जान। जलद ! जलधि-जल-युक्त हे, तू कत करत गुमान ॥ यहाँ श्रीकृष्ण की श्याम एवं सुधामयी अंग-द्युति उपमेय का जलद् उपमान है; उसको उपमेय मानकर अंग-सुति द्वारा उपमान का तिरस्कार किया गया है । २ पुनः यथा--दोह्दा । अबनि ! हिमाद्वि ! समुद्र | जनि करहु बथा अभिमान | सांत धीर गंभीर हैं, तुम सम राम खुजान॥ यहाँ भी अवनि, द्विमाद्वि एवं समुद्र उपमानों को उपमेय बनाकर उनके गुणों का श्रीरामजी में द्वोना वर्णन करके उत्त उपमानों का गबे-परिद्वार किया गया है । ३ पुनः: यथा--कबवित्त | अंक न कलंक जाके राहु को न संक कछू , ज्ञामँ बखुधा की सोध खुधा भरियतु है। एन' ते सरस नेन पच्छ हु घटे न जोति सोई छुबि दिन-रेन दूनी घरियतु दै॥
१ मूंग ।
प्रतीप घर
चकवा सु भौर और कंज को न भयकारी , बिरही बिलोके ते बियोग हरियतु हे। आनन-प्रबीन आगे मान न रहेगो ससि! क्यों रे दुःख-दान तें गुमान भरियतु है॥ -प्रवीख-सागर । यहाँ भी चंद्रमा उपमान को उपमेय बनाकर उस (उपमान) का चतुर्थ चरण द्वारा अनादर किया गया है। ४ चतुथ प्रतीप जिसमें उपमान को उपमेय एवं उपमेय को उपभान मानकर उस कल्पित उपभान से उपमा दी जाय और फिर वह उपमा असत्य सिद्ध की जाय। १ उदाहरण यथा--कवित्त-चरण । आम है अमी से इन ओठन सरीसे पैन , लेहु पांध प्यारे ! ये तिहारे अनुकूल है। ७ यहाँ आम उपसान को उपमेय और ओछ्ठ उपमेय को उप- मान मानकर जो उपमा दी गई है, उसको 'सरीसे पे न! बाक्य से झिथ्या सिद्ध किया गया है। ४ पुनः यथा--दोहा । 2 के है हे दान माँफक तरुराज अरु, मान माँक कुरुराज । -0) ७७ शेप जसवँत ! तो सम कहत, ते कवि निपट निकाज़ ॥ ५ --कविराजा मुरारिदान । यहाँ भी तरुराज ( कल्पवृत्त ) एवं कुरुराज (राजा दुर्योधन ) & पूरा पथ “अथनवकोक्ति? में देखए ।........ ६
4 भारती-भूषण
उपभानों को उपमेय और जोधपुर-नरेश महाराजा जसवंतर्सिह उपमेय को उपमान बनाकर, इनसे दी हुई उपमा को मिथ्या कहा गया है । ३ पुनः यथा--कवित्त । वे तुरंग' सेत रंग संग एक, ये अनेक, हैं. खुरंग अंग-रंग पे कुरंग-मीतसे। ये निसंक-अंक-यश, वे ससंक 'केसौदास” ये कलंक-रंक, वे कलंक ही कलीत से॥ वे पिए खुधाहि ये खुधा-निधीस के रसे' जु, साँच हू खुनीत ये पुनीत, वे पुनीत से । देहि ये दिए्प बिना बिना दिए न देहि वे, हुए न हैं न होहिंगे न इंद्र इंद्रजीत से ॥ --केशवदास । यहाँ भी जो देवराज इंद्र उपमान हैं, उनको उपमेय और जो ओड्छा के राजा इंद्रजीत उपमेय हैं, उनको उपमान बनाकर इस कल्पित उपमान से जो उपमा दी गई दे, उसको “हुए न 9 न द्वोंहिंगे न” इस कथन से मिथ्या सिद्ध किया गया है ।
४५ पंचम प्रतीप जिसमें इप्त रीति से उपमान का तिरस्कार किया जाय --''जब उपमान का भार उठाने को उपमेय ही समय है तब फिर उपमान की व्या आवश्यकता है १” पक्का घोड़ा स्येश्रवा। २ चंद्रमा। १ यज्ञ-कुंठ। ४ पा इश्ेरवा । ३ चंत्रमा। ३ यज्ञ-कुड। ४ शिव की भक्ति का रस ।
प्रतीप मरे १ उदाहरण यथा-दोद्दवा ।
परिमल-पूरित पीत मृदु, मंजर गुसाँइन-गात ।
अब अलि ! चंपक-फूल की, भूलि न कीजिय बात ॥ यहाँ पर कहा गया है कि जब चंपक-पुष्प के सुत्रास, पीतत्व, कोमलता एवं सुंदरता गुणों का भार उठाने को श्रीराधिकाजी की अंग-श्ुति उपमेय ही समर्थ है, तब उसकी कया आवश्यकता है ९।
इस प्रकार चंपक-पुष्प उपमान का तिरस्कार किया गया है ।
२ पुनः यथा--कवित्त । दिन-दिन दीन्हे दुनी संपति बढ़ति जाति,
ऐसो याकों कछू कमला को बर बर है। हेम हय हाथी हीरा बकसि अनूप जिमि,
भूपन को करत भिखारिन को घर है॥ कहे 'मतिराम' और जाचक जहान सब , एक दानि सत्रुसाल-नंदन को कर है। राव भावसिंहजू के दांन की बड़ाई देखि , कहा कामघधेनु है कछू न खुरतरू है॥ +-मतिराम । यहाँ भी कामधेनु एवं कल्पतरु उपमानों के समस्त गुण- कार्या की सामथ्य राजा भावश्तिंद के 'द्वाथ” उपमेय में है; अतः अंत में उनकी अनावश्यकता बतलाकर उनका तिरस्कार किया गया है ।
सूचना--“पंचम प्रतीप? में आदरणीय एपप्तान का निराइर होना ही प्रतीपता ( विछोमता ) है ।
गे भारती-भूषण
(५) रूपक
जहाँ उपमा-वाचक एवं निषेध-सूचक शब्दों के बिना ही उपमेय का उपमान-रूप से वर्णन किया जाय, वहाँ “रूपक! अलंकार होता है । इसके दो भेद हैं-- १ अभेद रूपक जिसमें, उपमेय में उपमान का अभेद आरोप हो ।
इसके तीन भेद होते हैं-- ( के ) सम अमेद रूपक जिसमें, उपमेय में उपमान का, विना कुछ न्यूना-
धिकता के यथादत् आरोप हो | इसके तीन भेद हैं--- [१] सावयव ( सांग ) जिसमें, उपमेय में उपमान का अंगों (सामग्रियों )-
सहित आरोप हो । इसके दो भेद हैं--
$ यहाँ “उपमा-वाचक-शब्द के विना! वर्णन करने का अभिप्राय प्रवोक्त “उपमालंकार”? से एवं मिषेध के विना लिखने का अभिप्राय वक्ष्यमाण “अपद्वति अलंकार? से भिन्नता दिखछाने के छिये है। क्योंकि 'डपमा? वाचक-शब्द प्रवंक जैसे--“चंद्र सा मुख” भौर 'अपहृति! में निषेध प्रवंक जैसे--'सुख नहीं चंद्र! कहा जाता है। २ वक्ष्यमाण 'आंति? अलंकार में भी अभेद कट्दा जाता है; किंतु वहाँ वह कढिपत नहीं दध्ोता, वरन् उध्धमें देखनेवाले द्वारा वास्तविक अभेद माना जाता है, जैसे-रज्जु में सर्प का; पर यहाँ आरोपित ( कह्पित ) अमभेद होता है। ३ जैसे--'मुख-चंद? भर्थात् मुख दी चंद्र है। यहाँ मुख उपमेय में चंद्र उप्मान का आरोप मात्र द्ोता है; वस्तुतः मुखर ही चंद्र नहीं होता ।
रूपक घ्प
[ समस्त-वस्तु-विवर्ति ] जिसमें, आरोप्यमाण (जिसका आरोप किया जाय) ओर आरोप-विषय (जिसमें आरोप किया जाय ), इन दोनों का स्पष्ट शब्दों में वर्णन हो ।
१ उदाहरण यथा--कवित्त ।
विजय-मनोरथ को रथ, मनमत्थ' साथ सारथी, सहाय ताके सकल समाज की । लोचन-कुरंग” ताते तरल तुरंगन" तें, नासखिका-निषंग , छाई ओरें छुबि आज की ॥ कुटिल कटाछे आछे आयुध, असेष केस, कवच, कमान सोहे भोंहें खुख-लाज की। चढ़ी असवारी लाज-ज्ञान की गढ़ी पै आज, राधा -मुख - मंडल - मयंक - महाराज की ॥ यहाँ श्रीराधा-मुख उपमेय में चंद्र उपमान का विना किसी न्यूनाधिकता के सर्वागतया अभेद आरोप हुआ है । यथा--मुख उपमेय के विजय-मनोरथ, काम, काम की सेना ( बसंतादि ) एवं नेत्र आदि में क्रमशः चंद्र उपमान की रथ, सारथी, सेना एवं सृग आदि सामप्रियों का आरोप किया गया है; अतः यद्द “सावयव' है और सभी उपमानों का शाब्द वर्णन दे; इससे यद्द “समस्त-वस्तु-विषय' है ।
+ मैसे-चंद्र का। २ जैले-सुख में । ३ काम। ४ खूग। ५ घोड़े । & तरझश ।
ण्द भारती-भूषण
२ पुनः यथा- छुप्पय । प्रतिभा उभय प्रकार अवनि आधार बारि बर। प्रतिपादक - रमनीय - अर्थ पद मूल मनोहर ॥ गशुन-गुंफित त्रय बृत्ति सात्न सब रसिक-रिफावन । चृत्त-त्रात' बहु पात, खुलच्छुन सुमन खुहावन॥ फल सरस-भाव-ध्वनि चित्र पुनि माली मुनि-कवि-आदि अरु । भरतादि ब्यास तुलसी, जयतु खुख-सर्मद् साहित्य-तरु ॥& यहाँ भी न्यूनाधिकता के विना साहित्य, वृक्त-रूप में कद्दा गया दै और साहित्य उपमेय में वृक्त उपमान स्वीगतया अभेद् आरोपित किया गया है। यथा--वृक्ष की प्रथ्वी-आधार, जल, मूल, शाखाएँ, पत्र, पुष्प, फल और माली, सामग्रियाँ ह्वोती हैं; एवं साहित्य की दो प्रकार की प्रतिभाओं (सद्दजा और उत्पाथा), रमणीयार्थ-प्रतिपादक-शब्द, गुणों से अ्थित वृत्तियों, छंद, लक्षण, रस तथा भावों-सद्दित ध्वनि ( व्यंग्य ) एवं चित्र ( अलंकार ) ओर काव्य-कर्ता महर्षि वाल्मीकि आदि में क्रमशः बृक्ष की उक्त सामग्रियों का आरोप हुआ है; अतः यह 'सावयव” है, और इन सबका वर्णन शब्द द्वारा हुआ है; अतः 'समस्त-वस्तु-विवर्तिः है । ३ पुनः यथा--दोद्दा । खूरजमल' कवि-बृंद रवि, गुरुगनेस अरबिंद। पोषे खुमति-मरंद दे, मो से मलिन मलिंद ॥ यहाँ भी गोस्वामी गणेशपुरीनी गुरु उपमेय में अरविंद ॥ समृह २ डूँदी राजाश्रित मद्दाकवि सुर्य॑मकछजी जिन्होंने 'वंश-भास्करः नामक भरपूरवे प्रंथ बनाया था; और जो गुरुवर ग्णेशपुरीजी के गुरु ये । & इस पद्चका अर्थ 'मंगलाचरण? में देखिए ।
रुूपक घ्3
>> >> >लट >> +ल + +2
उपमान विना न्यूनाधिकता के सबोगता से अभेद आरोपित है। अथीौत् गुरु उपमेय के महाकवि सूर्यमछजी, सुमति एवं मो से मलिन में क्रमशः उपमान की रवि, मकरंद एवं मलिंद सामप्रियों का आरोप हुआ है; अतः यह 'सावयव' दै और उक्त उपमानों का वर्णन शब्द द्वारा हुआ है; इससे 'समस्त-वस्तु-विषय' है । ४ पुनः यथा--पद् ( रागिनी बिलावबल ) | अबके माधव ! मोहि उधारि। मगन हों भव-अंबुनिधि में कृपा-सिंघु मुरारि!॥ नीर श्रति गंभीर माया, लोभ-लहरि तरंग। लिए. ज्ञात अश्रमाथध जल में गदे ग्राह-अनंग ॥ मीन-इंद्रिय अतिहि काटत मोट-अघ सिर भार । पग न इत उत धरन पावत उरभि मोह-सेवार ॥ काम-क्रोध-समेत तृष्ण पवन अति भकभोर। नाहि। चितवन देत तिय खुत नाम-नोका-ओर ॥ थक्यौ बीच बेहाल विहवल खुनहु करुना-सूल | स्याम ! भुज गहि काढ़ि डारहु 'सूर! तश्रज के कूल ॥ --महात्मा सूरदास । यहाँ भी बिना न्यूनाधिकता के संसार का समुद्र रूप उल्लेख हुआ है और उपमेय के अंग माया आदि में उपमान अंग नीर आदि का शाब्द आरोप किया गया है । ५ पुन: यथा--कबित्त । खुनि मुनि कौखिक ते साप को हवाल सब , बाढ़ी चित करुना की अजब उमंग है। पद-रज डारि, करे पाप सब छारि, करि नवल सु नारि दियौ धाम ह उतंग है॥
7? अर
द्८ भारती-भूषण
“दीन' भने ताहि लबि जात पति-लोक-ओर , उपमा अभूत को खुकानी नयो ढंग है। कौतुक-निधान राम रज की बनाइ ण्ज्जु, प्रद॒ ते उड़ाई ऋषि-पतनी-पतंग है॥ ->छाला भगवानदीन । यहाँ भी चतुर्थ चरण में ऋषि-पत्नी ( अद्दल्या ) उपमेय में पतंग उपमान का अभेद आरोप है । अथात् ऋषि-पत्नी-उपसेय- पक्त के राम एवं पद-रज में उपमान-पत्त के कौतुक-निघान ( बाजीगर ) एवं रज्जु ( डोरी ) का आरोप हुआ है । [ एक-देश-विवर्ति ] जिसमें आरोप किए जानेवाले कुछ उपपान शाब्द' और कुछ आर्य हों । अर्थात् जो रूपक उपभान के किसी अंग से हीन हो । १ उदाहरण यथा--चौपाई । करि उपदेस श्रमित उपचारा । औषध उचित प्रकति-अनुसा रा॥ माया-जनित मोह अश्ाना । अ्रम संसय सब हरहिं सुजाना ॥ यहाँ त्रक्ञ-विद्या के उपदेश रूप उपमेय में औषध उपमान का आरोप तो शाब्द है; किंतु मोह, अक्ञान, भ्रम एवं संशय उपमेयों के लिये रोग उपमान नहीं कहा गया; वह केवल अर्थ से जाना जाता है; अतः 'एक-देश-वित्र्ति! है ।
१ जो शब्दों द्वारा बतछाया जाय । २जो बिना कहे अर्थ द्वारा जाना जाय ।
रूपक ण्&
२ पुनः यथा--दोहा ।
ब्रजञ-बारिधि यदुकुल-सलिल, कुमुदिनि-गोप-कुमारि ।
जन-रंजन-हित स्याम-ससि,, प्रगटेड खल-जलजारि' ॥
यहाँ भी विना न्यूनाधिकता के श्रीकृष्ण को चन्द्रमा कहा गया है । इसमें त्रज, यदुकुल, गोप-कुमारि एवं खल उपमेयों में तो क्रमशः वारिधि, सलिल, कुसुदिनी तथा जलज उपमारनों का आरोप शादद है; किंतु जन (भक्त) उपमेय में चकोर उपमान का आरोप शाबद नहीं है; केवल अर्थ द्वारा सूचित होता है ।
३ पुन: यथा--कवित्त । स्याम-तन-सागर में नेन वारपार थके, नाचत तरंग अंग-अंग रगमगी है। गाजन गहर धुनि बाजन मधुर बेल; नागनि अलक ज्ुग सौथे सगवगी है॥ अँबर जिभंगताई पानिप लुनाई तामें, मोती-मनि-जालन की जोति जगभगी है। काम-पौन प्रवल घुकाव लोपी पाज तामैं , आज राधे-लाज़ की जहाज डगमगी है॥ --सुंदरि कुँचरि । यहाँ भी श्रीकृष्ण के शरीर को समुद्र रूप बतलाया गया दै । इसमें नाचने आदि में तरंग आदि का शाब्द आरोप है; किंतु राधिका-नेत्र उपमेय में छोटी नौका उपमान का आरोप अथे द्वारा सूचित द्वोता है ।
$ खल रूपी कम्र्छों के शत्रु । २ सुगंध से ।
&० भारती-भूषण
[२] निरवयव (निरंग ) जिसमें, उपमेय में अन्य अंगों के विना केवल उपमान का आरोप हो । १ उदाहरण यथा--दोद्दा । «५ बअचन-सुधा मुख श्रवत इत, कोकिल-कंठ लज्ञात। * होत बिरह-विष-बस अधिक, उत अलि |! स्यामल गात ॥
यहाँ वचन उपमेय में सुधा उपमान का और विरद उपमेय में विष उपमान का अन्य अंगों के विना अभेद आरोप हुआ है ओर दो रूपक हैं, इससे यह माला है । २ पुनः यथा--दोहा । द्र-दर डोलत दीन है, जन-जन जाचत जाइ। दिएँ लोभ-चसमा चखनि, लघु पुनि बड़ो लखाइ॥ --विह्ारी । यहाँ भी लोभ उपमेय में अन्य अंगों के विना केवल चश्मा उपमान का अभेद आरोप है । निरवयव -माला १ उदाहरण यथा--सवैया । अंकुर द्वेष के नाहिं उगें, उर सत्य-सनेह-सुधा सौं सनो रहे। कंचन-कामिनी मैं न रमे मन, धमम-बविवेक-बितान तनो रहे ॥ माधुरी मूर्ति नचो करे नेनन, भक्ति-उमंग को रंग घनो रहे । पॉयन-पंकज में प्रभु के नित नेम निबाहत प्रेम बनो रहे ॥ --जगन्नाथप्रसाद सर्राफ 'गुप्तः । यहाँ सत्य-सनेद्द उपमेय में सुधा उपमान का, धम्म-विवेक में
रूपक &₹
बितान का और चरणों में पंकज का आरोप विना अंगों के हुआ है; और इन तीनों के कारण यद्द माला है । [३] परंपरित जिसमें प्रधान रूपक का कारण एक अन्य रूपक
हो। अथांत् प्रधान रूपक किसी दूसरे रूपक के आश्रित हो । इसके दो भेद होते हैं --
[ हिलश्ठ-शब्द ] १ डदाहरण यथा--कवित्त । कैकेरे कुमति ते छपति बिनती करत , बाम ! वन राम को खुधाम ते निकास ना । करिए न साहस विसरिए्ट न लाज सारी बनके कुठारी रघुबंस -बन नासना॥ भरत न लैहे राज़ तेरे बृथा हेंहे साज , राम बन जैहे धरि लेहेँ सिर सासना । श्रब ना खुहात किंतु अंत याद ऐहें बात, वासन बिलाइ जात रहि जात वासना ॥ यहाँ पूर्वाद्ध में जो 'बंश' उपभेय में वन! उपमान का अभेद आरोप है, वही कैकेयी में कुठारी के आरोप का कारण है; क्योंकि बन कुठारी से काटा जाता है; अतः 'परंपरित' है; और “वंश शब्द के दो अथ कुल एवं बाँस हैं; इससे 'श्लिष्ट' है ।
२ पुनः यथा--दोहा । अखिल-लोक-अभिरा म, मुख राम जपहु अबिराम । भव-निदाघ, जनि-मरण-भय-घोर-घाम-घनस्याम ॥
3 कुल पूव॑ बौस । २ शासन + आज्ञा । ३ भलाई-बुराई और गंध ।
$२ भारती-भूषण
यहाँ भी “भव! उपमेय में निदाघ” उपमान का, 'जन्म-मरण- भय! में 'घोर-बाम' का एवं 'श्रीरामचंद्र' में बादल! का अभेद आरोप है; तथा “्रीरामचंद्र-घनश्याम” रूपक “जनि-मरण-भय- घोर-घाम! के एवं यद्द 'भव-निदाघ! के आश्रित है; अतः 'परंपरित' है; और 'धनश्याम! शब्द के 'श्याम बादल' एवं श्रीरामचंद्र” दो अर्थ हैं; इससे 'श्लिष्ट” है । श्लिष्ट परंपरित-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । कुबलय ' जीतिबे को वीर बरिबंड राजें , करन ' पे जाइबे को जाचक निहारे हैं। सितासित अरुनारे पानिप के राखिबे को , तीरथ के पति हैं अ्रलेज' लखि हारे हैं ॥ बेधिवे को सर भार डारिबे को महा बिय , मीन कहिये को दास” मानस बिहारे हैं । देखत ही खुबरन' हीरा" हरिबे को पस्य- तोहर“ मनोहर ये लोचम तिहारे हैं॥ --भिखारीदास ।
यहाँ “कुबलय जीतिबे कों बीर बरिबंड” और “करन पै
जाइबे कों जाचक” आदि पाँच 'श्लिष्ट परंपरिव! हैं; इससे माला है। [ अश्लिष्ट शब्द ] १ उदाहरण यथा--कवित्त । बेद के बजार निरबेद की दरी के द्वार , राग-रागनीन के श्रगार श्रति लोना द्वे।
7 ॥ कप्रक और भू-मंडलू। २ राजा कर्ण भोर कान। ३ पानी भर रूप . ४ देवता । ५ मन भोर सरोवर । ६ सुंदर वर्ण और स्वर्ण । ७ हृदय और ड्ीरा-रत्न । ८ पश्यतोहर » देखते-देखते घुरा लेनेवाछा सुनार ।
रूपक रे
>> ल्जध 5 2तर2७ल5ञ५ञ5ल5 2९ 25.०५ ८; ५८
स्वाति-सलिलागम विचार-मुकता के सीप,
मेरे मनमोहन के मोहन लो टोना दे ॥ बानी झखुख-दानी खुधा-सानी प्रान प्रीतम की,
पान करिबे के मान कंचन के दोनादे। श्रवन सुहागिन के सहज सलोना तापे,
तीतर के छोना चारू तरल तरोना हे॥
यहाँ “आगम ( शास्त्र)” उपमेय में 'स्वाति-ललिल उपमान का, विचार! में 'मुक्ता' का एवं 'राधिकाजी के कानों! में 'सीपों का अभेद आरोप है; और 'कान-सीप' रूपक “विचार-मुक्ता' के
एवं यह् 'खाति-सलिलागम' के आश्रित है; अतः 'परंपरित' है ।
२ पुन: यथा--छप्पय । कपर-कार्ये कडु-कलह कुमति कुविचार कढ़ेंगे । बुद्धिमान बिज्ञानवान वलवान बढ़ेंगे ॥ विपथ बुरे व्यवसाय व्यसन ब्यसनी विसरेंगे। कर्मबीर-कुल-कुमुद'-कलानिधि कुसल करेंगे ॥ सब भाँति जाति उन्नत बनहिँ सबकी एक अवाज हो। यदि दीक्षित बिमल विचार-युत ''सिक्षित सकल समाज हो” ॥ --शिवकुमार “कुमार? । यहाँ भी अग्रसेन-कुल” उपमेय में 'कुमुद! उपसान का एवं उनके वंशज 'कर्मवीर' उपभेय में 'कल्ानिधि' उपमान का अभेद आरोप दै; और “कुल-कुमुद! रूपक 'कर्मवीर-कलानिधि' रूपक का आधार दै; इससे 'परंपरित' है ।
१ राक्रि-विकास्ी कमछ |...
8 भारती-भूषण
जजजजजज
३ पुनः यथा--चौपाई (अद्ध )।
राम-कथा कलि-पन्नग-भरनी । पुनि विबेक-पावक कहूँ अरनी ॥
--रामचरित-मानस । यहाँ भी 'कलि' उपमेय में 'पन्नग ( सपे )” उपमान का एवं राम-कथा' उपमेय में 'भरनी” ( गारुड़ी मंत्र का गान ) उपमान का अभेद आरोप है; और 'राम-कथा-भरनी” रूपक 'कलि-पन्नग! का आश्रित है; अत: 'परंपरित' है। इसीके उत्तराद्धंगत “बिबेक- पावक कहेँ अरनी ” में भी इसी प्रकार यद्दी रूपक है; अतः 'अश्छिष्ट परंपरित” की माला है । सूचना--यहाँ परंपरित-लक्षणोक्त 'कारण? शब्द का तात्पय यह हे कि मुख्य रूपक अपने कारणभूत अन्य रूपक का आश्रित द्वोता है, न कि प्राकृतिक कारण व; और प्रधान रूपक जिस रूपक का आश्रित होता है, वह रूपक भी किसी अन्य रूपक का आश्रित हो सकता है। इसी प्रकार ऐसे बहुत से ( दो से अधिक ) रूपकों की भी शंखछा हो सकती है; और “परंपरित” शब्द से भी रूपकों की परंपरा सिद्ध द्वोती है ।
( ख ) अधिक अभेद रूपक
जिसमें, उपमेय में आरोपित होने से पहले उपमान की जो सहज स्थिति थी, वह आरोप किए जाने के प्रथात् कुद अधिक या बढ़ाकर कही जाय ।
१ उदाहरण यथा--दोह्दा । कुटिल-कटाछ-कटार को, बिक्रम विषम बिसेख। आऑँजत कडटै न आँगुरी, कटे करेजो देख ॥
यहाँ 'कटाक्ष' उपमेय में 'कटार! उपमान का अभेद आरोप
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किया गया है; किंतु अंजन देती हुई उँगली को न काटकर दूर से देखने मात्र से ही देखनेवाले का कलेजा काट देने की सामथ्य कटार की प्रथम स्थिति में नहीं थी; अब वह कटाक्ष में आरोपित होने के पश्चात् कह्दी गई है; यद्दी अधिकता है । २ पुनः यथा--सवैया । दूरहिं ते दग देखत ही दसिहँ बस नाहिन मंत्र मनो को । क्यों उपहास करे जमुना-जल-धार अली-अवलीन घनी को ॥ तू निज रूप सिमैहें महा पदछितेहँ कहो जिय ऐहें जनी' को । बालन-ब्यालन-बालन को प्रतिपालन बावरी वाल ! न नीको ॥ यहाँ भी नायिका के 'बालन' ( केशों ) उपमेय में 'ब्यालन- बालन! ( सर्पों के बच्चे ) उपमान का अभेद आरोप है; अिंतु दूर से ही डसने की एवं मंत्र और मरिश के उपचारों से इनपर सफलता न होने की अधिकता जो आरोप किए जाने से पूर्व नहीं थी, उसका अब द्वोना कहा गया है; अतः “अधिक अभेद है। (ये ) न्यून अभेद रूपक जिसमें, उपमेय में आरोपित होने से पहले उपमान की जो सहज स्थिति यी, वह आरोप किए जाने के पश्चात् कुछ न्यून करके कही जाय । १ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
अरसि सलोनो स्याम घन, अवसि जात अरखाय। तिमि तुम्दार मुज़-ससि-दिवस, नयन-नलिन-निखि न्याय ॥
$ दासी।
&६ भारती-भूषण
यहाँ मुख उपमेय में शशि एवं नेत्रों में नलिन उपमान का अभेद आरोप है; किंतु 'दिवस-सशि' एवं “निशि-नलिन” वाक्यों से इनकी पहली अवस्था की अपेक्षा न््यूनता बतलाई गई है। २ पुनः यथा--दोहदा । हरषत मित्र-चकोर-गन, मंद कमल-अ्रि-बूंद। भ्रजा-कुम्रुद॒प्रफुलित, निरखि रामचंद्र-भुवि-चंद ॥ +-भलंकार-आशय । यहाँ भी “श्रीरामचंद्र' उपमेय में चंद्र” उपमाच का अभेद आरोप है; किंतु भुवि-चंद! ( प्रथ्वी का चंद्रमा ) वाक्य से प्रथमावस्था की अपेक्षा “चंद्र” उपभान में न््यूनता बतलाई गई दे । र् तान्ुष्प रूपक जिसमें उपमेय को उपमान से पृथक् उसी (उपमान) का स्वरूप एवं कार्यकर्ता कहा जाय । इसके तीन भेद होते हैं- ( के 2 प्तम तादुष्य रूपक १ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
एकाकी फिरि-फिरि निरखि, अखिल प्रजा के काम । तोलि तुला तें न्याय किय, राम अपर हृप राम ॥
यहाँ जयपुर-नरेश राजा रामसिंदजी उपमेय को “राम अपर नृप राम” वाक्य द्वारा श्रीरामचंद्रजी महाराज उपमान से भिन्न बतलाकर यथार्थ न्याय करने के कारण उपम्ान के समान कार्य- कर्ता कह्दा गया है ।
रूपक ७
२ पुन: यथा-सवैया । आँगन कुंकुम-चर्चचित सो अभिषेक को नीर चल्यौ रँग रातो | घोड़स-दान-सँकलप को नोर बद्यो बहुते बढ़ि मोद खुमातो ॥ नारि-अरीन के नीर ढस्यो दग आज़ हि देखि नपे बढ़ि ज्ातो । कीन्ह अिबेनी नई ज़सवंत सु सेस हु थाकहिगो ग्ुन गातो ॥ >> लेकार-आशय । यहाँ भी जसवंत नृप के अभिषेकादि के जल-प्रवाह उपमेय को त्रिवेणी उपमान से “कीन्ह त्रिबेनी नई” वाक्य द्वारा प्रथक् करके उपमान के समान कार्यकर्ता कहा गया है । ३ पुन; यथा--दोहा । अरसी निपुन न॒पाल को, कहियत दूज़ों सूर। हरषत वरषत सब लखें, करषत लखेंन मूर'॥ >>जेलकार-आशय | यहाँ भी अरसी-नप उपमेय को सूर्य उपमान से “कह्यत दूजो सूर'” वाक्य द्वारा भिन्न वतलाकर 'हरषत बरषत लखें” एवं “करषत न लखें” वाक़्यों से उपमान के समान कायकर्ता कहा गया है । (ख) श्रधिक ठाद्र॒प्य रूपक १ उदाहरण यथा--कवित्त । बात-बेगवान वज्ञपात' सो निपात , नाद , पाखुपत्य-ब्ह्म-अस्त्र सो अमोघ सक्तिमान। मान ' में समान, साल-बृच्छु सो बिसाल स्वच्छ , अंतरिच्छु -जान-आन में सपच्छु सेस आन॥
$ इस छूर्य रूप राजा को दर्पषित होकर वरसते हुए तो सत्र देखते हैं; पर किसीसे कुछ लेते हुए नहीं देखते । २ बिजली का गिरना । हे आक्र- मण। ४ प्रमाण ( माप )। ५ आकाश ।
हे
हि भारती-भूषण बच्छ “बेध मैं विपच्छ रच्छुलान के विदच्छ ;, कच्छ-कूट-दाह भब्य हब्यवाह' ज्यों खुज्ञान तेज श्रप्रमान ज्यों निदाघ को गर्भस्तिमान , युक्त हनूमान राम-बान की समस्त बान॥ यहाँ श्रीहनुमानजी उपमेय को “आन शब्द द्वारा शेष भगवान् उपमान से भिन्न बतलाकर 'सपक्ष' शब्द से उनकी अधिकता का वर्णन किया गया है ।
२ पुनः यथा--कत्रित्त । बिकसत कंजन की रुचि फो हरे न हठि, होत छिन-छिन ही मैं नित ही नवीनो है। लोचन-चकोरन कौ छखुख उपजाबे शअ्रति, घधरत पियूष लखें मेटि दुख दीनो है॥ छुबि द्रसाइ सरसावे मीनक्ेतन' को, तो पै चुधि-हीन बिथि काहे बिधु कीनो है। एह्ो नँदू-नंद-प्यारी ! तेरो मुख-चंद यहे , चंद तें अधिक अंक पंक को विहीनो है ॥ “-- अलंकार-आशय । यहाँ भी श्रीश्ृषभानु-कुमारी के मुख उपसेय को “तेरो मुख- चंद यदै”” एवं “काद्दे बिधु कीनो दे” वाक््यों द्वारा चंद्र उपमान से मिन्न बतलाकर “कमरों की कांति न हरने” एवं “प्रतित्तण नवीन रहने” आदि विशेषणों द्वाता उसकी अधिकता बतलाई गई है। 3 वक्ष “हृद4। २राक्षसों। ३ निषुण । ४ तृण-समूद। ५ भप्ति। ६ सूर्य । ७ कामदेव ।
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्न्न्््श्््््स््च््श््च्व्यत््ल्््व्य्त्य्तत्ल््ल्लत लत 5
(ग) न्यून ताद्रप्य रूपक १ उदाहरण यथा--दोहा ।
अरि मारे पारे' हितू, कीन्हे वांछित काम । विज्ञु बिरोध इक लंक के, राम दूसरे राम ॥
++अलंकार-भाशय ।
यहाँ श्रीरामणी उपमान से 'राम दूसरे राम वाक्य द्वारा राजा रामसिंह उपमेय में भिन्नता दिखाकर 'बिनु त्रिरोध इक लंक के! वाक्य से न्यूनता बतलाई गई है ।
२ पुनः: यथा--कवित्त ।
रख भरे जस भरे कहे कवि “रघुनाथ' , रंग भरे रूप भरे खरे अंग कल के। कमला-निवास परिपूरन सुबास आस , भावते के चंचरीक' लोचन चपल के॥ जगमग करत भरत दुति दीह पोखे , जोबन-द्निस के खुदेस भ्रुज-बल के। गाइवे के जोग भण ऐसे हैं अमल फूले , तेरे नेन-कमल कमल बविन्नु जल के॥ +-रघुनाथ यहाँ भी “तेरे नैन-झमल कमल विनु जल के” वाक्य द्वारा कमल उपमान से नेत्र-झमल उपमेय में भिन्नता सूचित करके “बिन्ु जल के! पद् से न्यूनता दिखाई गई है।
३ पालन किए । २ सुंदर । ३ अमर ।
१०० भारती-भूषण
न्यून ताद्रप्य-माला १ उदाहरण यथा--सवैया । लसे द्विज औरहि मुत्तिय-माल पयोनिधि में उपजे नहिं जो है। भए न सरोवर अंबुज और सुलोचन कान्द्र कुमारहिँ मोहे॥ सरोरुह्द में न रहे अ्ररु लच्छि प्रतच्छ खुलच्छुनि तो सम को है। सदा परिपूरन तो मुख राधे ! खुधाधर और धरा पर सोहै॥ न--अजलकार-आदषाय | यहाँ चारों चरणों में चार ही 'न्यून ताद्रुप्य! हैं; अतः माला है | यथा--हद्विज ( दाँत ), लोचन, स्वयं श्रीराधिकाजी एवं उनके मुख उपमेयों से क्रमशः उनके सहधर्मी मोती-माल, अंबुज, लक्ष्मी एवं पूर्ण चंद्र उपमानों को औरहि! और! '्रतच्छ” एवं और' शब्दों द्वारा भिन्न बतलाकर 'पयोनिधि में उपजे नहिं! 'भए न सरोवर” 'सरोरुह मैं न रहे! एवं 'धरा पर सोहै? वाक्यों द्वारा उनमें न्यूनता बतलाई गई है । उभय पर्यवसायी (अधिक एवं न््यून) १ उदाहरण यथा--दोद्दा । डयो' आजु आनहि अवबनि, मुख-मयंक अकलंक। चख्न-चकोर छुबि-छोर लखि, तजहि दहन-दुख रंक ' ॥ यहाँ मुख उपमेय को 'उयौ आजु आनहि' वाक्य द्वारा चंद्र उप- मान से प्रथक् बतलाकर “अकलंक' शब्द से अधिक एवं 'उयो अवनि' पद् से न््यून सिद्ध किया गया है; अतः यह 'उभय पर्यवसायी! है । खूचना--प्रायः 'रूपक! अलंकार में पहले उपमेय (जैसे-'मुख-चंद”) और पूर्वोक्त 'उपमा? अलंकार में पहले ग्पमान ( जैसे-'चंद-मुख? ) रखा जाता है । >909<% €6-06-« 7 | बदित हुआ २ अर्थात् छटा । ३ बेचारा ।
परिणाम १०१
न््न्स्न्स्न्य्न्स्व््व्््ल्ल्व्ल््च्््ल््जि्चिल्लिलिलिजजिजलज 5
( ६ ) परिणाम
जहाँ कोई क्रिया ( काय ) करने के लिये उपमान स्वयं समर्थ न हो और उपमेय के साथ मिलकर वह काय करे वा उपमेय के करने का का्य उपमान द्वारा होने का । ॥आ। १ 7] वर्णन हो, वहाँ 'परिणाम' अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--दीहा ।
बुद्धपितामह तृषित लखि, कर-कमलनि सर मार ।
खुरपति-खुत' भट भूमि ते, प्रगट कीन्ह जल-धार॥
यहाँ केवल 'कमल' उपमान बाण चलाने में असम है; अतः “कर! उपमेय से मिलकर बाण चलाने योग्य बतलाया गया है ।
२ पुनः यथा--दोहा ।
तिय-चख-झूख भरतार को, उर दारत' किहि हेतु ।
लखि बंसी धर बेर निज-वंस-विघातक लेतु ॥
यहाँ भी 'कख' उपमसान हृदय विदीर्ण करने में असमर्थ है; ओर 'चख' ( नेत्र ) उपमेय से मिलकर विदीण करने योग्य बतलाया गया है ।
परिणास-साला--१ उदाहरण यथा--सवैया । भूषन' तीखन तेज-तरक्षि साँ बेरिन को कियो पानिप हीनो | दारिद-दी करि-बारिद सं दलि त्यों घरनीतल सीतल कीनो ॥
१ अजजुन । २ मछली। ३ विदीर्ण करते दें। ४ मुरली भौर मछलो पकढ़ने की ठढ़ी
१०२ भारती-भूषण
ऑौंखिला भूप बली भुव को भुज-भारी-भुजंगम ' सो भरु लीनो। साहि-तनै कुल-चंद सिवा ! जस-चंद सो चंद कियो छुबि-छीनो ॥ --भूषण । यहाँ 'तरत्नि! (सूय ), 'बारिद! ( बादल ), 'भुजंगम? एवं 'चंदः उपमान स्वयं क्रमश: शत्रुओं का पानिप ( जल एवं रूप ) द्वीन करने में, दारिद्य-द्व-दलने में, भुव-भार लेने ( उठाने ) में एवं चंद- छवि को क्षीण करने में असमर्थ हैं; और छत्रपति शित्राजी के तेज, करि (हस्तियों का दान ), भुज ( बाहु ) एवं यश उपमेयों के साद्दाय्य से उक्त क्रियाएँ करने में समर्थ बतलाए गए हैं; अतः माला है । "90-२3 €6-06« (७) उल्लेख जहाँ एक पदाये का अनेक प्रकार से उन्नेख (वर्णन) किया जाय, वहाँ “उल्लेख” अलंकार होता है । इसके दो भेद हैं-- हू १ प्रथम उल्लेख जिसमें एक पदार्थ को अनेक व्यक्ति अनेक भाति से देखें, समझें वा वर्णन करें। १ उदाहरण यथा--कवित्त । सज्जन सुजान जानयो खुजन समान जाहि , जान्यी जलवंत जस जोधा जग जाने को ।
उपन बजीर जानो बीरबर हतें बर , बीररस बीरन को बीरता बताने को ॥
$ शेषनाग । २ तनय ८ पुत्र ।
उल्लेख १०३ ममस्मट ओऔ केसोदास काब्य-अलनुरागिन को , रागिन को तुंबुरू गुरू है गूढ गाने को। और सब सिस््य जानें गुरु हैं गनेसपुरी , मेरे कामतरू है असेष मन माने को।। यहाँ स्वामी श्रीगणेशपुरीजी 'पद्मेश' को महाराणा सज्जन- सिंह ने अपना बंघु, जोधपुराधीश महाराजा जसबंतर्सिह ने अपने आदि पूर्वज महाराज जोधाजी का यश, अन्य राजाओं ने राजा बीरबल से भी उत्तम मंत्री, शूरवीरों ने वीरता की शिक्षा देने के लिये स्त्रयं वीररस रूप, काव्य-रसिकों ने साहित्याचाय मम्मट एवं केशवदास, संगीत-प्रेमियों ने गंधवेराज तुंचुरू, अन्य सब शिष्यों ने साकज्षात् बृहस्पति तथा कवि ने अपने लिये कल्पवृत्त समझा है । २ पुनः यथा--दोद्ा । ज्ञानति सौति अनीति है, जानति सखी खुनीति। गुरुजनन जानत लाज है, प्रीतम जानत प्रीति॥ --अलंकार-आशय । यहाँ भी श्रीराधिकाजी को उनकी सपक्षियों ने अनीति, सखियों ने सुनीति, गुरुजनों ने लज्जा और पति ने प्रीति रूप अनुभव किया है । ३ पुन: यथा--कवित्त । गंगा-जमुना की कोऊ खुषमा बताबे, कोऊ, संगति सतोगुन-रजोशुन अमंद की। कोऊ धूप-छाँद्द की बतावत छटा है, कोऊ, लाज ये चढ़ाई कुसुमायुध खुछंद की॥
१०४ भारती-भूषण
सोभा-सिंघु नवला की बेस की बिलोकि संधि, बीरता खुहात मोहि 'पूरन! अनंद की। रूप देस एके रंग राजै उजियारी चारु, जोबन के सूरज्ञ की सैसव के चंद की॥ राय देवीप्रधाद 'पूर्ण!। यहाँ भी “नायिका के यौवन और शैरशव की संधि” एक ही पदार्थ का अनेक व्यक्तियों ने “गंगा-जमुना की सुषमा” आदि अनेक प्रकार से उल्लेख किया है | सूचना-इस उल्लेख! के प्रथम भेद में अनेक व्यक्ति! लिखने का तात्पये निरवयव रूपक की म्राछा से भिन्नता दिखलाने के लिये है; क्योंकि वहाँ देखने एवं समभनेवाले अनेफ नहीं होते; पर यर्दाँ निय्रमित रूप से अनेक होते हैं । २ द्वितीय उल्लेख जिसमें एक ही पदाथे का विषय-भेद से एक ही व्यक्ति अनेक भाँति से उल्लेख फरे | १ उदाहरण यथा--ऋवित्त । स्वासन को बाग, सोभा-सदन खुबासन को, मुकता-बिलासन को आखन सरख है। चंपा-कलिका सी, चारु दी पक-सिखा सी कहें, कौन जो न होइ अपजस को कलस है॥ मैन महिपाल, गाल-गादिन के राखिबे को, राखी दुइ तोपें ज्यों परे न परबस है। नासिका तिहारी पर बीर ! बलिहारी कीर- तुंडः तिल-फूल फूल-तीर-तरकस' है॥ १ चोंच । २ कामदेव का निर्षंग ।
उल्लेख श्ग्प
यहाँ प्रथम चरण में कवि ने श्रीवृषभानु-नंदिनी की नासिका को श्वासों के लिये बाग सुवासों के लिये महल एवं मोतियों के लिये क्रीड़ा करने का आसन इन तीनों प्रकारों से वन किया द्वै।
२ पुन: यथा--कवित्त ।
दिनेस में प्रभामयी, मयंक-चंद्विकामयी ,
हुतास दीरघामयी, प्रकासमान काय हे । पुरातनी पुरामयी, जगत्परंपरा मयी ;
पुरान ब्रह्मभामयी, प्रकाम काम-दाय हे ॥ धरामयी, चरामयी, अखेस थावरामयी ,
अनंद कंद्रामयी, अनंद बुद्धि भाय है। बिरंचि में गिरामयी, समेस में रमामयी ,
महेस मैं उमामयी, खिलामयी सहाय है॥
--भ्रज्ञात कवि ।
यहाँ भी कवि ने राजा मान द्वारा स्थापित जयपुर की शिला- मयी देवी का “दिनेश मैं प्रभामयी” आदि विषय-मेद पूवेक अनेक भौति से वर्णन क्रिया है ।
३ पुनः यथा--कवित्त ।
चैज्ञ'-प्रतिपाल, भूमि-भार को हमाल , चहँ ,
चक्क को अमाल' भयौ, तूृठक जहान को । साहन को साल भयौ, ज्वार को जवाल ' भयौ,
हर को करृपाल भयौ हार के बिधान को ॥
4 प्रतिज्ञा। २ बोक ढठोनेवाला । ३ दिशा। ४ शासक | ५ जाए ऋज्ा रक्षक साल । इ दिशा। ४ शासक । ५ देश-विशेष । ॥ < विपत्ति |
१०६ भारतोी-भूषण
बीररस ख्याल सिवराज भ्रुवपाल ! तुब ,
हाथ को बिसाल भयौ, 'भूषन' बखान को | तेरो करवाल बेद-पंथन को चाल भयौ,
दब्छिन को ढाल भयौ, काल तुरकान को ॥
--भूषण । यहाँ भी कवि द्वारा छत्रपति शिवराज के खजन्ब का 'पैज- प्रतिपाल' आदि बहुत भांति से वर्णन हुआ है । ७ पुत्र: यथा---
तू रूप है किरन में, सोंदर्य है सुमन में ।
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में ॥ तू शान हिंदुओं में, ईमान मुसलिमों में ।
तू प्रेम क्रिश्वयन में, है सत्य तू खुजन में ॥
--कविवर पं० रामनरेश त्रिपाठी । यहाँ भी कवि ने परत्रह्म परमात्मा का 'तू रूप है किरन में” आदि विषय-भेद् पूनक विविध प्रकार से वर्णन किया है । >90:9 6-06«
(८) स्मरण जहाँ पहले के देखे, सुने वा समझे हुए किसी साकार पदार्थ के सपान ही, फिर किसी समय कोई अन्य पदाथे दिखाई पड़ने, उप्तका वर्णन सुनने अथवा चिंतन करने आदि से उस पहलेवाले पदार्थ का स्मरण हो आवे, वहाँ स्मरण” अलंकार होता है। इसे “स्मृति” भी कहते हैं।
5)
स्मरण १०७
इज श्र कम क नमक अल के कक. 3 303० ही अकि# मु
१ उदाहरण यथा--दोहा । डच्च उदक हु अवबनि पै, ठहरि जात उहिं ठाम। मकरालय - मरजाद लखि, सखुधि आवत श्रीराम ॥ यहाँ समुद्र की मयौदा देखकर मयोदा-पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र महद्दाराज का स्मरण होना वर्णित है । यह स्मरण पूर्व में श्रवण किए हुए श्रीरामजी के समान धर्म ( गुण ) बाले अन्य पदार्थ समुद्र को देखने से हुआ है ।
२ पुनः यथा-दोद्दा । बिसरन लो मन ते ललन, कीजत जिते उपाय । दीखत ही देवर-बदन, ससक-सींग है जाय'॥ यहाँ भी नायिका को पहले देखे हुए अपने पति के मुख का, उसीक्े सदश देवर का मुख देखने से स्प्रति होने का वर्णन है । ३ पुनः यथा--सबैया । 'केसब' एक समै हरि-राधिका आसन एक लरसे रँग-भीने । आनँद सौं तिय-आनन की दुति देखत दर्पन मैं दग दीने॥ भाल के लाल मैं वाल बिलोकत ही भरि लालन लोचन लीने। सासन-पीय' सवासन' सीय हुतासन मैं जनु अःखन कीने ॥ --केशवदास । यहाँ भी माया-मलुज श्रीकृष्ण को प्राण-प्रिया राधा महद्दारानी का मुखारविंद दर्पण में देखते हुए उनके ललाट की लालमणि में उन्हींका प्रतिबिंब दिखाई पड़ने से रामावतार के समय श्रोसीताजी की अप्नि-प्रवेशवाली घटना के स्मरण दो आने का 3 अर्थात् मिथ्या हो जाते हैं। २ पति की भाज्ञा | ३ वर्सों-सद्वित ।
श्०्८ भारती-भूषण
+२००२०२०३२२२३०६०७००३००००००४००८०००२२ ००२ वर्णन किया गया है। यहाँ पूर्व युग के देखे हुए दृश्य का सादृश्य देखकर स्प्रति हुई है । सूचना--यद्यपि प्राचीन प्रंथों में समान वस्तु के देखने मात्र से ही स्मरण होने में यह अलंकार माना है; तथापि देखने के अतिरिक्त श्रवण, चिंतन आदि अनेक भाँति से भी स्मरण होना युक्ति-युक्त ज्ञात होता है । यहाँ तक कि विरोधी पदार्थों के देखने से भी यह अलंकार स्पष्ट सिद्ध होता हुआ देखा जाता है-- १ उदाहरण यथा--दोदा । चालि चँदेरी नगर ते, आए खुनि सिखुपाल। सुता-विदर्भ-भुआल' के, उर आए नंदलाल॥ यहाँ विरोधी शिशुपाल का आना सुनकर श्रीरुक्मिणी को पूब में श्रवण किए हुए श्रीकृष्ण मद्वाराज का स्मरण होना बतलाया गया है । स्मरण-बैधम्य-प्ाला १ उदाहरण यथा--कवित्त । देखि खुनि - खुनिके मलेच्छन के अत्याचार, कल्की - अवतार राम-गुनन गुन्यो करें। ताकि तुकबंदी हम जैसन की मम्मट ओ, वंंडी -भरतादि'-ब्यास-यादनि भुन्यो करें॥ कलह-कलेस - देस - बंचुन विलोकि भीम- भीषम, भरत' के निबंधन चुन्यो करें। कुपथन देखि दंभ-दलन - असेस स्वामी- संकर -चरित्र अभयंकर खुन्यौ करें॥ _ 3 विद देश के राजा की पुत्री। २ नाव्य शास्त्र-कर्त्ता भरत मुनि भादि | ३ दशरथ के पुत्र भरत ।
#
श्रांति १०६
लक कक जल लक कल मी आम 0 320-2060:4% शक
यहाँ विधर्मी ( विरोधी ) स्लेच्छों के अत्याचार, कवियों की
तुरबंदी, बंधुओं की कलह और अनेक पाखंड मतों के देखने से क्रमशः कलकी अवतार तथा श्रीराम, आचाये मम्मट आदि, भरत भीष्मादि और स्वामी श्रीशंकराचार्य का जिनकी कीत्ति पहले सुन चुके हैं, स्मरण हो आना वर्शित है। यहाँ चार स्टृतियाँ हैं, इससे माला है ।
(६) भ्रांति
जहाँ उपमान के समान उपमेय पदाथे को देखने से उपमान का भ्रम हो जाय, अर्थात् पेय को उपमान सपभा जाय, वहाँ 'श्रांति' अलंकार होता है। इसे “श्रप! भी कहते हैं । ९ उदाहरण यथा--दोहा । कटि घटती, उठती निरख्तरि, उर उपाधि अकुलाइ। सखिन कही, उनि हँसि, दियो ब्रज-निधि' बेंद बताइ ॥ यहाँ मुग्धा नायिका को अपने उरस््थल में उभरते हुए कुच उपमेयों में उनके समान आकारवाले फोड़े उपमानों का श्रम हुआ है । २ पुनः यथा--कवित्त । चेई सुरतरू प्रफुलित फुलवारिन मेँ, चवेई सरवर हंस बोलन - मिलन को । चेई हेम - हिसरन दिखान दहलीजन में, वेई गज़राज़ हय गरज - पिलन को ॥ $ श्रीकृष्ण । २ तेजी से कह्दीं प्रवेश करना ।
२१० भारती-भूषण
द्वार-द्वार छड़ी लिए द्वार-पौरिया जो खड़े , बोलत मरोर-बरजोर त्योँ मिलन' को । द्वारका ते चल्यो भूलि द्वारका ही आयो नाथ ! मागियो न मोपे चारि चाउर गिलन' कौ॥ --नरोत्तमदास । यहाँ भी सुदामाजी को सुदामा-पुरी उपमेय में द्वारकापुरी उपमान की श्रांति हुई है ।
३ पुनः यथा--दोद्दा । अंत मरेंगे चलि जरें, चढ़ि पलास की डार। फिर न मरें मिलिहेँ अली ! ये निरधूम अँगार॥ --विहारी । यहाँ भी प्रोषितभर्ृका नायिका को प्रलाप करते समय पलाश- पुष्पों में नि अंगारों का भ्रम हुआ है । ४ पुनः यथा--दोद्दा । बृंदाबन विहरत फिरें, राधा-नंदकिसोर । नीरद-दामिनि जानि सँग, डोलें बोलें मोर ॥ --राजा रामलिंद ( नरवलऊुगढ़ )। यहाँ भी मयूरों को श्रीराधा-नंदकिशोर में बिजली और बादल की श्रांति हुई है । सूचना--२वॉक्त 'हपक? ५्वं वक्ष्यमाण 'रूपकातिशयोक्तिश अलंकार में उपमेय में उपमान का आरोप ( स्थापन ) वास्तविक नहीं होता, कढ्िपत होता है; भौर इस अलंकार में वास्तव में श्रम हो जाता है। यही इनमें भेद दे ।
जता +स्लकमककप--५००-०-7
१ झेल देना । २ खाना ।
संदेह श्श्र् (१०) संदेह जहाँ सत्य असत्य का निश्चय न होने के कारण उपमेय का एक वा अनेक उपमानों के रूप में वर्णन किया जाय; और यह संशय बना हो रहे कि “यह असमुक वस्तु है वा अमुक ?” वहाँ 'संदेह' अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यधा--कवित्त | कोधों खुस्राज के समाज की सम्दद्धि यह, कीधों ऋचद्धि-सिद्धि र/जराज -राजघानी की । कीधों बेद वाँ चिबे की स्वच्छ परिपाटी पद, की्धों स्वर-ब्रह्म की प्रतच्छ॒ प्रतिमा नीकी ॥ की्धों अप्सरान की बसीकरन-बिद्या किधों विजय-पताका._गढ़ी-गंध्रव॒ पुरानी की। रागन की रानी ठकुरानी तीन आरमन की, बानी-बीन-वानी, गुरुषानी के खुबानी की ॥ यहाँ श्रीसरस्वतीजी के वीणा-शब्द उपमेय में इंद्र की समृद्धि
आदि अनेक उपमालों का संदेद्द होना कद्दा गया है ।
२ पुनः यथा--कवित्त | ग्वालिन की बेनी किधों नीरज की नाली चढ़ि,
चाली मधुपाली मधु पीवन म्नाली को । ल् अपने उद्धार-हेतु धार जमुना की लेतु, चरन -अधार के प्रनत-प्रतिपाली को ॥
३ यह संशय कवि-ऋल्पित होता है। २ कुबेर। ३ गाने के प्राम न् ( नंथावत, सुभद्व और जीमूत ) एवं गाँव।
११२ भारती-भूषण
धारा बाँधि आयो तारामारग ' धरा को तम, ससि पे रिसायौ के समूह निसि काली को । फेर नथि जाइ ना फलानी इहि भीति आली ! काली के रिभ्काइ रहो चित्त बनमाली को ॥ यहाँ भी श्रीवृषभानु-नंदिनी की वेणी उपमेय में भ्रमर-पंक्ति- आदि बहुत से उपमानों का संदेदद हुआ है ।
३ पुनः यथा--कवित्त । चंपे की पिराका है कि सोने की सिराका है कि, संपा ' ही को भाग है कि कला कोड न्याय है। खुकवि 'नरोत्तम' के भूतल को भूषन है, के चकोर-पूषन के पुन्य की उज़ारी है॥ मेरी अ्रभिलाषा है कि कामतरू-साखा है कि, गीरवान-भाषा' है कि सुधा-कंद-क्यारी है। राग है कि रूप है कि रस है कि जस है फि, तन है कि मन है कि प्रान है कि प्यारी है॥ --नरोत्तमदास । यहाँ भी नायिका उपमेय में चंपा की पंखड़ी आदि अनेक उपमानों का संशय हुआ है । ४ पुनः यथा--कबित्त । 'केसोदास” मस्॒गज बछेरू चोषें बाधिनीन, चांटत सुरभि बाघ-बालक-बदन है। सिंहन की सटा ऐचें कलभ-करनि करि', सिंहन को आसन गयंद को रदन है॥ $ आकाश । २ पंखड़ी । ३ शलाका । ७ बिजली | ७ चंद्र । ६ देव” बाणी ८ संस्कृत । ७ हाथी के बच्चे अपनी सूँड़ों से ।
अपहृति श्श्रे
अदा न हा जी न आम ५ 3 2 मअआ 42240 02005 ४
फनी के फनन पर नाचत मुदित मोर, क्रोध न बिरोध जहाँ मद न मदन हे। बानर फिरत डोरेडोरे अंध तापसनि, सिव को समाज केधों ऋषि को सदन है॥ --केशवदास । यहाँ भी श्रीसदाशिव के समाज उपमेय में ऋषि-आश्रम उपमान का संदेह हुआ है ।
(११) अपहृति
जहाँ किसी पदार्थ का निषेध पूवंक अपहब' (गोपन) करके क्िप्ती अन्य पदाथे का स्थापन किया जाय, वहाँ “अपदुति' अलंकार होता है। इसके ६ भेद हैं--
१ शुद्धापहुति
जिसमें वास्तविक ( सत्य ) उपमेय को निषेध पूर्वक दिपाकर उसके सहधर्मी उपप्रान का आरोप ( स्थापन ) किया जाय ।
१ उदाहरण यथा--दोह्ा ।
तिल कज्जल चूयुक' चिकुर, डग द्ठीन जनि जान। सखिरि | राधा रानी रच्यो, यह षड़यंत्र-बिधान ॥
३ “अपहृव? शब्द का अर्थ छिपाना दै। २ कुचाप्रभाग। ३ केश | घर
११४ भारती-भूषण
यहाँ नायिका के तिलादि वास्तविक उपमेयों. का. 'जनि जाने पद से निषेध पूर्वक गोपन करके पड़यंत्र उपमान का आरोप किया गया है। ; *
२ पुनः यथा- दोहा ।
तिय-मुख-रूप-समुद्र मैं, तिल पंथी मत चेत। बिरही ड्ब्यो जात है, सीस दिखाई देत॥
--भज्ञात कवि । यहाँ भी नायिका-मुख के तिल उपमेय का 'मत चेत! पद से
निषेध पूवंक गोपन करके किसी विरद्दी के शिर उपमान का स्थापन किया गया है ।
शुद्धापह्चति-माला १ उदाहरण यथा--सवैया | '
लाली लगी ललना के लसे न, सुहाग हमारहु की प्रभुताई। लावनहारिहु नाइन है न, गुसाइन-गेह कसाइन आई॥ हा | ठकुराइन पाँयन ना इन लाई जतू' उर लाय लगाई। है यह कीरति की कुँवरी न, जरो बुषभाजु के बीज्ुरी जाई॥
यहाँ सपत्नियों ने मद्दावर-अरुणंता, नाइन, जतु एवं सत्र श्रीराधिकाजी, इन चार उपमेयों को 'लखे न! आदि शब्दों द्वारा निषेध पूवेक छिपाकर क्रमशः अपने सुहाग की प्रभुता, कसाइन, लाय ( अग्निकांड ) एवं बिजली चार उपमानों का स्थापन किया
है; अतः माला है । 3००8 हट
$ लाख का रंग।
अपहृति श्श्ष २ पुनः यथा--ऋवित्त । लाल-मनि-बेंदी ना बिसाल भावती के भाल , काढ़त कलंक बैठ्यो मंगल मयंक में । छेसत इकीस की न मोतीमय माँग राजे रानी रजनोस की बखानी मति-रंक में ॥ सीसफल सोने को न नीलमनि मध्य जाके सोवत खुभाय सबिता के सनि अंक में । नारी है न आज हो निहारी है विहारी-संग वारि-निधि-जा * है जो अजा है' परजंक में ॥ यहाँ भी श्रीराधारानी के लाल-मणि-बेंदी, २२१ मोतियों की माँग, नील-सणि-जटित स्वर्णमय शीशफूल एवं नारी, इन चार उपमेयों को 'ना' आदि निषेध-शब्दों द्वारा छिपाकर क्रमशः मंगल अद्वाईसों नक्षत्रों के २२१ तारे, सूर्य की गोद में शनि एवं लक्ष्मी इन चार उपमानों का स्थापन किया गया है; अतः माला है ।
२ हेत्वपह्ति जिसमें उपमेय का निषेध एवं उपमान का स्थापन युक्ति पूर्वक, अर्थात् किसी हेतु-सहित किया जाय । १ उदाहरण यथा--दोहा ।
सज्ञन-सरल-खुभाव के, मघुर बचन मत मान। _/ करतल करन जहान, यह मोहन-मंत्र महान॥
यहाँ मधुर वचन उपसेय का “मत मान पद दारा निषेध 24845 कि ३6 मी 75-20 04226 70: 5 #स $ अद्वाईस नक्षत्र | २ लक्ष्मी । ३ वही माया है।
११६ . भारतो-भूषण
पूर्वक गोपन करके 'मोदल मंत्र' उपसम्ान का स्थापन, जगत को वश करने के द्ेतु-खद्दित, किया गया है । २ पुनः यथा-- सीतलाई खुधाकर में है नहीं सुनु॒ खाँच। ५ सखी ! याकी किरन में खु अनोखिये है आँच॥ जो न ऐसो होइ तो क्यों बिमल खसरवर-बारि- बीच सरसिज मुरभ्िके गिरि जाइ लखु सुकुमारि | ॥ --बाबू जयशंकरप्रसाद | यहाँ भी शीतलता उपमेय को 'दै नहीं? पद से निषेध पूर्वक छिपाकर आँच उपमान का आरोप, कमल के सुरमाकर गिर जाने की युक्ति से, किया गया है ।
३ पुनः यथा--सवैया । आनन की घुनिएँ सुनिए, यह कूक न कोयल की धसती है। स्वास को चारू प्रकास, बयारि न मंद सुगंध हियो मसती है ॥ दंतन की दुति ये 'रघुनाथ', कला न कलाधर की गसती है। देखि भरी रिसि प्यारी ! तुम्हें ये दसों दिसि आपुस मैं हँसती है॥ --रघुनाथ ।
यहाँ भी नायिका का मान-मोचन कराने के कारण कोयल की कूक, मंद समीर एवं कलाघर की कलाओं का श्रकाश वासंतिक उद्दीपक उपसेयों का निषेध-सूचक नकार से गोपन करके दशों दिशाओं के परिधास-जन्य क्रमशः मुख का शब्द, स्वास एवं दाँतों का प्रकाश उपमानों का स्थापन हुआ दै ।
अपहृति ११७
्श्ल््व्श्ल्िज
७ पुनः यथा--कवित्त ।
कंपित शरीर ऊनी वस्त्र तूल तेल प्रिय , ताप औ तमोल अब सभी को खुहाते हैं। चलता समीर दीन दशा सभी मानवो की , खाया है हेमंत दंत-दल भिड़ जाते हैं॥ शोत के प्रताप सभी सिकुड़े हुए 'मुकुंद , भालु भगवान अग्निकोण में जड़ाते हैं। कोहरा नहीं है यह घूम सलिलानल का; भाजु तापने को आग पानी में लगाते हैं ॥ _..पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र 'खाहित्य-रक्ष! । यहाँ भी कुदरा ( नीदार ) उपमेय का “नहीं है! पद द्वारा निषेध पूर्वक गोपन करके धूम्र उपमान का स्थापन, सूय के जाड़ा लगने पर तापने के द्वेतु-सद्दित, किया गया है ।
३ प्यस्तापहृति
जिसमें उपमान के धर्म ( गुण ) का निषेध उपमेय में स्थापित करने के लिये किया जाय । १ उदाहरण यथा--दोदा । बिष ब्यालन फे डसन मैं, तू न चतुर ! चित चेत । कटु-बादिन के बदन विष, बोलत ही डसि लेत ॥ यहाँ सपे उपसानों के डसने में विष घर्म का निषेध, कड़-बादी उपमेयों के बोलने में स्थापित करने के लिये किया गया दै ।
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श्श्८ भारती-भूषण 5:22 4207 72063: ५ ०, २ पुनः: यथा--दोहा । काल करत कलि-काल में, नहिं तुरकन को काल। काल करत तुरकान को, सिव सरजा-करघाल ॥ --भूषण । यहाँ भी काल उपमान के संधवार करने धर्म का निषेध, छत्नपति शिवाजी की तलवार उपमेय में स्थापित करने के लिये किया गया है । खूचना--यहाँ उपमान के जिस धर्म का निषेध किया जाता है, डदाहरणों में उसका प्रायः दो बार व्यवद्टार होना पाया जाता है। ४ आंतापहुति जिसमें, किसीको किसी पदार्थ में दूसरे पदार्थ की भ्रांति हो जाय और सत्य बात कहकर उसका निवारण किया जाय । १ उदाहरण यथा--दोद्दा । वेगि बुकझावहु बरत बन, बिरहिनि कह्मो पुकार | सखिन क्यो किंसुक-कुसुम, नांहिन ये अंगार ॥ यहाँ वियोगिनी नायिका को पलाश-पुष्पों में अंगारों की भ्रांति हुई, जिसका सख्तयों ने “नाहिन ये अंगार” वाक्य से निषेध करके और “किंशुक-कुसुम है ” सत्य बात कहकर निवृत्त किया है । आंतापहुति-माला १ उदाइरण यथा--तोमर छंद । हे पंच-सायक मार ! | मत युष्प के सर मार॥ असि गदा सूल चलाव | पुनि देख मेरे दाव॥ मत जान तू बिधु बाल।| है खौर-चंदन भाल ॥8
अपहृति ११६
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नहिं. जटा मेरे सीस। मंडील आहि रतीस !॥ नहिं जाहबी की धार। हैं मुक-होरन-हार॥ है सर्प नांहि अनंग !। यह पत्यो सेला अंग॥ में अहईँ. राजकुमार । सिव जानि मोहिनमार ॥ ह --राय देवीप्र वाद पूर्ण! । यहाँ कामरेव को चंदन-तिलक में चंद्रमा, मंडील में जटा, मोती-दहीरों की माला में गंग-घार, शेज्ञा में सर्प एवं स्त्रयं राज- कुमार (भानुकुमार ) में शिव की अति हुईं, जिसका कुमार त्ते पप्त जान! आदि शब्दों द्वारा निषेध करके ओर “ है खौर-चंदन ”” आदि सत्य बात कहकर निवारण किया है। यहाँ पाँच “अआंता- पहुतियों ! होने के कारण माला है । २ पुनः यथा-सवैया । आन है, अरबिंद न फूले अली-गन ! भूले कह। मड़रात हो। कीर ! तुम्हें कहा बाई लगी भ्रम रबिंब के ओडन को ललचात हो॥ 'दासजू' ब्याली न, वेनी वनाव है पापी कलापी | कहा इतरात हो। बोलती वाल, न बाजती बीन कहा खिगरे मिलि घेरत जात हो ॥ --भिखारीदास । यहाँ भी नायिका के मुख में कमल, ओछ्ठ में त्रिंचरफल, वेणी में नागिन और वाणी में वीणा की, क्रमशः अमर, शुरू, मयूए ओर मनुष्यों को भ्राति हुई, जिसका सखी ने अरबिंद न॑ आदि कथन द्वारा निषेध करके और 'आनन दै” आदि पदों द्वारा खत्य बात कहकर निवारण किया है। इस प्रक्वर चार आँतापहुतियाँ ' होने के कारण माला है ।
$ काम । २ मसूर ।
१२० भारती-भूषण
भर छेकापहुति
जिसमें किसी दूसरे व्यक्ति से कही जानेवाली कोई ग्रप्त बात कोई तीसरा व्यक्ति सुन ले और इस कारण उस कथित रहस्य को कोई दूसरा कल्पित अभिप्राय बतलाकर छिपाया जाय! | इसे 'मुकरी” भी कहते हैं ।
१ उदाहरण यथा--सवैया ।
छीन सरीर न पीन रहै नित अंक भर्त्रो उनको अति भायौ। हें खिरकी-मग आइ रहो कर ' लाइ अहा ! छतियाँ लपटायौ ॥ पाइ पियूष-प्रबाह सो अंगन अंग अनंग उमंग न मायौ। यों निसि नायक केलि करी ब्रज-चंद् किधों, नहिं चंद खुहायो ॥
यहाँ नायिका को अपनी अंतरंग सखी से नायक का क्रोड़ा- वृत्तांत कहते हुए, 'क्षीण शरीर! आदि सुनकर किसी बहदिरंग सखी ने पूद्रा--'क्या श्रीकृष्ण थे ?” पर नायिका ने बात बनाने के लिये उत्तर दिया--नह्दीं चंद्रमा' | इस प्रकार कल्पित फथन द्वारा सत्य बात छिपाई गई है ।
२ पुनः यथा--सचैया ।
फैलि रही घर घाटन जाके चवायन' की चरचा चहुँघाँ ते। ओऔचक आ असखँकोच विदारत गोपिन के कुच नौंचि न्खाँ ते ॥ चझौसहु मैं नवला अबलानि तें छेर करे निडरैे सब ठाँ तें। कीधों कथा मेरे मोहन की, सखत्रि ! ना कपि आयो है कूर कहाँ ते ॥
4 'ठेकापहु ति! का वर्णन श्लेपारमक शब्दों में होता है। २ हाथ और किरण । ३ अपवाद |
अपहृति श्र्रे
वि की पल पक बी >> >> >ल्ल लत तल 3 लत 5
यहाँ भी कोई सखी किसी सखी से श्रीवृंदावन-विह्वारी के डउत्पातों का वर्णन कर रददी थी, इतने में उनकी अंतरंग सखी ने अचानक आकर पूछा--“क्या यद्द कथा हमारे कृष्ण की है ?” उस सखी ने कहा--नहीं सखी ! कहीं से आए हुए एक क्रूर बंदर की ।” ३ पुन: यथा--कवित्त । सूठी में समात मध्य उर की नरम अति परम खुखद सोहे समुन' प्रमान की। गोसे-गोसे त॑ हु कुकि कपटि मिलति जब , राखि लेत प्रान पन वरनी जहान की ॥ सर मैं सुभाल' वर परसे अनंद होत, देखे बने 'कासीराज' रंग' रुचि सख्रान की। काह गोप-बधू संग रमे कहो नंदलाल ! नाहीं तिय ! खेंची ही कमान मुलतान की ॥। --काशिराज ! यहाँ भी श्रीकृष्ण को अंतरंग सखी से 'मूठी में समात' आदि किसी नायिक्ना का वृत्तांत कहते समय किसी बहिरंग सखी ने अचानक आकर पूछा--“क्या आपने किसी गोपिका से रमण किया था ९” उन्होंने सत्य को छिपाकर कद्दा--*नहीं, ग्रुलतान की कसान खींची थी ।” ६ कैलवापह्ुति जिसमें उपमेय का निषेध कैतव, व्याज, मिस आदि
$ गुणवतती और प्रत्यंचान्युक्त। २ किनारे । ३ शिर में खुंदर लूछाट ओऔर बाण में उत्तम साल ( अणी ) । ४ प्रेम और रुचिर ।
श्श्र भारतो भूषण
8 पक कक अीश का 320 000 क अत ०30 2202 तक लक] शब्दों के अर्थ द्वारा किया जाय) इसको “आर्यी अपहुति भी कहते हैं ।
१ उदाहरण यथा--दोद्दा । गंग महिप महाराज की, निसित ' असित असि-ब्याज । हनत कुपित जमराज़ नित, तिनके सत्रु-समाज ॥
यहाँ बीकानेर-नरेश श्रीगंगासिंह की तलवार उपमेय का निषेध प्रझट शब्द से नहीं हुआ है। “व्याज! शब्द के अर्थ द्वारा किया गया है ।
२ पुनः यथा--कवित्त ।
खुंद्रबदनि ! राधे ! सोभा को सदन तेरो, बदन बनायो चारिबदन बनाइके।
ताकी रुचि' लेन कौ उद्ति भयो रैन-पति, मूढ़मति राख्यो निज् कर बगराइके' ॥
कहै 'मतिराम” निसिचर चोर जानि याहि, दीन्ही है सजाइ कमलासन रिसाइके।
रातो-दिन फेरे अमरालय के आस पास, मुख में कलंक-मिस कारिख' लगाइके॥ --मतिराम ॥
यहाँ भी चंद्रमा के कलंक उपमेय का निषेध स्पष्ट नद्ीं किया गया, केवल 'मिस” शब्द के अर्थ द्वारा हुआ है|
$ निशित ८तीदृण । २ ब्रह्मा। ३ सेवारकर। ४ शोभा। ५ किरण । ६ फैलाकर । ७ कज़ऊ ।
ज्ज्न्य्न््न््श््््य्ख््च््ल््च््ल््लिल लि जज] +४ ++ ५
उत्प्रेत्षा १२३
ह पुनः यथा-- श्रीकृष्ण के खुन वचन अज्जुन क्रोध से जलने लगे | सब शोक अपना भूलकर करतल युगल मलने लगे॥ मुख बाल रवि सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ । प्रलयाथे उनके मिस वहाँ दया काल ही क्रोधित हुआ ! ॥
--बानू मैथिल्लीशरण गुप्त । ५ अं पु ० जे ख्श यहाँ भी अजुन उपसेय का निषेध स्पष्ट शब्दों में नहीं हुआ; वरन् 'मिस' शब्द द्वारा हुआ है ।
४ पुनः यथा--सवैया । भूमहिं धूम छणएए घन भ्रूमत लाय लगी चपला चहँँघोँ तें। जूह'पतंग चिनंग उतंगनि उद्दि चले पुरवाइन-बा तें॥ पावस-ब्याज प्रबीन हु पावक कीन्ह बियोगिनि के तन ताते । दाव लगे पर दाव लगावन आए हैं चातक कूर कहाँ तें॥ --भ्रवीण सागर ।
यहाँ भी वषो-ऋतु उपमेय का निषेध “व्याज! शब्द द्वारा
किया गया है ।
खूचना--यद्यपि इस 'कैतवापह्दुति? में नकारादि शब्दों द्वारा वाच्य ( शाब्द ) निषेध नहीं होता; तथापि 'कैतव” आदि शब्दों से छ्क्ष्य ( भ्षार्थ ) निषेध दोता हे ।
( १२) उम्परन्ना जहाँ उपपान से भिन्न जानते हुए भी प्रतिभा-बल से + झूथ। २ वायु। ३ ईश्वर-दूत्त काब्य-निर्माण-द्यक्ति ।
१२४ भारती-भूषण
उपम्रेय में उपमान की उत्पेज्ञा ( संभावना ) की जाय, वहाँ उत्प्रेज्ञा! अलंकार होता है। इसके वाचक-शब्द् मज्ु, जन्ु, मानो, जानो, मनहु, निश्रय, मेरे जाने, इव इत्यादि होते हैं | इसके मुझ्य तीन भेद हैं--- १ चस्तूत्पत्षा जिसमें किसी उपमेय वस्तु में क्रिसी उपमान वस्तु की संभावना की जाय | इसको 'स्वरूपोत्पेत्ञा' भी कहते हैं । इसके दो भेद हैं-- ( क ) उक्तविषया जिसमें उत्पेज्ञा फे विषय का कथन करके संभावना की जाय |
१ उदाहरण यथा--कवित्त |
कुंदन घरे हैं मनि मानिक जरे हैं और, चंपक चमेली चारु कुंद-कलिकान के। बाजूबंद राजै बाहु, बलय' बिराजै कर, थ्राजै वँगरी'ह बेठि बीच चुरियान के॥ $ साधारणतः व्यवहार में दो बातों को तुलना करते हुए कहते हैं हि अमुक बात पाँच जिस्त्रे ठीक है और अमुक बात पंत्द विस्वे ठीक है । यदाँ ज्ञान की दो कोटियाँ हो गईं हैं, जिममेंसे पंत्रढ बिस्वेवाली उत्कट है; इसी उत्कट-कोटिऋ-हान को 'संभावना? कइते हैं। २ “इत्प्रेज्ञार अलंकार के समस्त भेदों में उत्प्रेक्षा का विषय (आस्पद, भाश्रय) उपमेय होता है । ३ कंकण । ७ कर-भूषण-विशेष । ह
उत्प्रत्ता श्श्ष
सात-सात चूरी प्रति हाथन रुनित चारु,. | मानो खुर सात ह खुहाग-गुन गान के । सातो सिंघु-धार ले अखंड अहिबात' विधि, कीन्हो अभिषेक है कुमारी-बृषभान के॥ यहाँ ठृतीय चरण में श्रीराधिकाजी के हाथों को खात-सात चूड़ियाँ उपमेय वस्तु हैं, जिनमें 'मानो' वाचक से सौभाग्य-गुण- गायन के सातों ख्वर उपमान वस्तु की उत्प्रेज्ञा की गई है; अतः 'बस्तूत्मेज्ञा! और उपमेय कद्दा गया है; अतः “उक्तविषया' दे । २ पुनः यथा--सवैया । मुकताहल-हार, हमेल हजारन-हीर-कनोन-बनी बिमला। नग नीलम मानिक पन्नन की सत-लात-लरी' ललचाए लला ॥ भतिबिंब अलंकृत-अंगन के परि आरखी-अंगन भावै भला । चमके मनु काच के मंदिर मैं रवि-चंद-अमंद-कला चपला॥ यहाँ भी उत्तरा्ध में श्रीराधिकाजी के अलंकृत अंगों के प्रति- बिंब उपमेय हैं, जिनमें “मनु” वाचक-शब्द द्वारा 'सूय-चंद्र की किरणों' और बिजली की चमक! उपमानों की उत्प्रेज्ञा उपमेय के उल्लेख पूर्वक हुई है । ३ पुनः यथा--दोद्दा । गौरे मुख पर स्याम तिल, ताको करों प्रनाम ।
मानहूँ चंद बिछाइके, पौढ़े खालग्नाम॥ --भ्ज्ञात कवि ।
$ शब्दायमान। २ सुद्दाग । ३ शतखड़ी और सातलड़ी॥ ४ उनके ही आरसी-जैसे अंगों पर ।
श्२६ भारतो-भूषण
यहाँ भी उत्प्रेक्ञा का विषय श्याम तिल” कह्दा गया है; और 'शालग्राम” उपमान से उत्प्रेज्ञा हुई है । (ख़ ) अनुक्तविषया
जिसमें उत्प्रेज्ञा के विषय ( उपप्रेय ) का कथन किए विना संभावना की जाय । १ उदाहरण यथा--दोहा । गए खुदामा द्वारका, देखि लगन दिकद्वार!। द्वारहि पे परसे मनहुँ, पारस परम उदार ॥ यहाँ उत्प्रेज्ञा के विषय श्रीकृष्ण उपमेय में 'पारस” उपमान की संभावना की गई है; किंतु श्रीकृष्ण” शब्द नहीं कद्दा गया। २ पुनः यथा--कवित्त । तामस मैं भरे नैन खुनत जनक-बैन, कोप मझ्गराज़ ज्यों गयंद-पाँति करिगो। राम करि तेह' तोस्थो गरब अछेह भस्थो, चटक निगाढ़ गोसा ट्ूटि भूमि परिगो ॥ तनक भनक जब जानकी के कान परी, ठाढ़ी रही भाँकि पट नील सो उधरिगो | चहूँ ओर फेलि गई चाँदनी 'मुबारकजू', मानो राहु-मुख तें निसाकर निसरिगों॥ --सैयद मुबारकअली । यहाँ भी जगदंबा जानकीजी के मुख उपमेय में निशाकर (चंद्रमा) उपसान की उत्प्रेज्ञा हुई है; पर उक्त उपमेय नहीं कद्दा गया । $ यात्रा का एक उत्तम मुहूत । २ क्रोच । ह
उत्प्रेत्ञा ६२७
३ पुनः यथा-दोहा । ज्ञीति-जीति कीरति लई, सच्रुन की बहु भाँति । पुर पर बाँघी सोभिजै, मानहूँ तिनकी पाँति ॥ -केशवदास । यहाँ भी अकथित ध्वजा उपमेय में 'क्रीति-पंक्ति' उपमान की जत्प्रेज्ञा की गई है ।
पीजी ही अआ
२ हेतूत्पेत्ञा
जिसमें अहेतु को हेतु पानकर (जो उसत्म्रेज्ञा का कारण न हो, उसको कारण मानकर) उत्पेत्षा को जाय। इसके दो भेद हैं--
( के ) लिद्धास्पद हेतूत्त्ञा
जिसमें उत्पेज्ञा का आस्पद ( आधार रूप विषय )
सिद्ध ( संभव ) हो । १ उदाहरण यथा--सवैया ।
मार के चाबुक चारु मनो चितए ते चुमें चित चोगुने चायन । गौरवता लौं गिरीस के सीस गिरे ज॒मुना जल जाहवी-सायन ॥ गाल-तड़ागन नागिन द्वे पसरी मलु पाइ पियूष-रसायन। नायन | तू न बनाय खुभाय अन्यायन री अलकेंठकुरायन ॥
यहाँ तीसरे चरण में, अलकों का कपोलों पर पड़ा रहना स्वाभाविक है, न कि नागिन रूप से कपोलरूपी तड़ागों पर अमृत पाकर; किंतु इस हेतुता से संभावना की गई दै; और रागिनियों का अम्ृत-खरोवर पर रहना सिद्ध है। इसके प्रथम चरण में 'वस्तूस्तेज्ञ! और द्वितीय में 'फलोस्प्रेज्ञा” भी दै ।
श्श्ड भारती-भूषण
२ पुनः यथा--दोह्ा । ० नितसंसो' हंसो वचत, मानहूँ इहिं अज्ठमान। बिरह-अगनि-लपटनि, सके कपट न मीच-सिचान ॥ --विद्वारी । यहाँ भी शरीर में हंस ( प्राण ) का रद्दना स्वभाव-सिद्ध है; किंतु विरद्दाग्नि की लपटों के भय से मृत्यु रूपी सिचान ( बाज ) मपट नहीं सकता, इस हेतु से संभावना की गई है; जो सिद्ध है; क्योंकि अग्नि को लपट में बाज वस्तुत: कपट नहीं सकता । ३ पुनः: यथा--कवित्त । पूजन करत महाराज रनधीरसिंह , बरनों कहाँ लॉ आस पास बेठे कोद मैं । देखि-देखि दीपति की प्रभुता उमंग भरी हि मन को लगाएँ सिवा-सिव के प्रमोद में ॥ 'मनिदेव” भाल मैं बिभूति की खु तीन रेस लहरें खुढारि सिखा बायु के बिनोद् में । मेरे ज़ानि पीछे परी जमुना मचलि रही ह आछी तिरसोता को निहारि भाजु-गोद में ॥ --पं० मणिदेव । यहाँ भी राजा रणधीरसिंह के स्वाभाविक त्रिपुड्र-तिलक एवं शिखा में गंगा-यमुना की उत्प्रेज्ञा की गई है; और राजा के मुख रूपी सूय ( अपने पिता ) की गोद में त्रिस्लोता (गंगा ) के दिखाई पड़ने के कारण जो यमुना का मचलना कहद्दा गया दै, वह सिद्ध है ।
.. 9 संशय। २ दिशा।...
उत्प्रेत्षा १२६ (ख ) अ्रतिद्धास्पद हेतूऊक्षा जिसमें उत्पेज्ञा का आस्पद ( आधार रूप विषय ) असिद्ध ( असंभव ) हो । १ उदाहरण यथा--कवित्त । पाँयन प्रियाजू के महावर विलोकि कान्ह , आन गोपिकान की निछावर स्रो कीनी हे । एक ते अधिक एक उपमा अनेक जाकी , गाई ग्रुनियन एक पाई पे नवीनी है।॥ कांत' छुकुमार देखि दुःखित दिनांत, नेही नाह को नितांत, स्वांत' सेवा-गति लीनी है । मेरे ज्ञान अरुन, अरूुन अरबिंदन को, आपुनी अरूतता नज़र कर दीनी है॥ यहाँ श्रीराधा रानी के चरण-कमलों में अरुणता स्वाभाविक है, न कि सूर्य-सारथी अरुण की दी हुई; किंतु अरुण के स्वामी सूर्य के सखा दोने आदि कारणों से चरण-कमलों में अरुण की दी हुई अरुणता की संभावना की गई है; और अरुण का ऐसा करना असिद्ध है । २ पुनः यथा--चौपाई (अद्र )। पावकमय सखि झबत न आगी । मानहूँ मोहि जानि हतभागी ॥ --रामचरित-प्रानस । यहाँ भी वियोगिनी जानकीजी द्वारा चंद्रमा में अग्नि की संभावना इस द्वेतु से की गई है कि यद्द मुझे मंदभागिनी सममःः कर अग्नि नहीं देता; किंतु चंद्रमा का ऐसा करना असिद्ध है।_ 3 सुंदर । २ अपने अंतःकरण सें । हक &
१३० भारती-भूषण
कक. ०2 सना ५०० ३2 १७ ने१करच2र 2०2 १२०९ ०५० न ५2०५ >५२२०६३२५००५२६००५५०-६४७८
३ पुनः यथा--दोहा ।
मनहूँ मराल बियोग को, सहि नहिं सकत कलेस | बरषा-ऋतु नलिनी करत, सरवर-सलिल-प्रबेस ॥ --जसवंत-जसोभूषण ।
यहाँ भी कमलिनी के स्वाभाविक जल में प्रवेश करने में हंस के वियोग की हेतुता से उत्प्रेत्ला की गई है; और जड़ कमलिनी का ऐसा करना असिद्ध है | ३ फलोत्पच्षा
जिप्तमें अफल को फल्न मानकर उत्पेत्षा की जाय | इसके दो भेद हैं--- (% ) तिद्धास्पद फलोसेन्षा
जिसमें उत्पेत्ञा का आस्पद ( आश्रय रूप विषय ) सिद्ध ( संभव ) हो । १ उदाहरण यथा--सवैया । पह्लव बिंब प्रबाल पक्के कट्ठु काठ, न ओउ-जथा-मुगधा' । फीके परे सिंगरे पक्रवान खुरंजन बिंजन हु बहुधा॥ मानो बिरंचि विचारि रच्यो परिपूरति लो पति-प्रेम-छुधा | संपुट-पाट-खुधाधर में भरि राख्यो है सोधि खुधारि खुधा ॥ यहाँ नायिका का ओछ खाभाविक सुधामय है; किंतु इसमें पति-द्लु धा-निवृत्तिफल के लिये सुधा-संपुट-पाठ की संभावना ३ पछव पक जाते हैं, विंवफल कद हैं और प्रवाल काह हैं; भतः नवोढ़ा नायिका के ओछ की तुलना नहों कर सकते ।
उत्प्रेक्षा १२१
हुई है; और इससे पति-प्रेम-क्षुता की पूर्ति होती द्वी है; अत 'सिद्धास्पद फलोस्प्रेक्षा' है । २ पुनः यथा--कवित्त । समर अमेठी के सरोष मगुरुदत्तसिह, सादत की सेना समसेरन सा भानी हे। कहत 'कविंद' काली इलसी असीसन लो सीसन लो ईस की जमात सरसानी हे ॥ तहाँ एक जोगिनी सुभद्ट खोपरी लें डड़ी शआ्ओोनित पिवत ताकी उपमा बखानी हैं । प्यालो लें चिनी को छुकी-जोवन-तरंग मानो रंग-हेतु पीवबति मजीठ मुगलानी है॥ “-उदयनाथ “कविंद! यहाँ भी अमेठी के युद्धस्थल में योगिनी का मनुष्य की खोपड़ी में रक्त पान करना स्वाभाविक है; जिसमें किसी मुगलानी द्वारा सुंदर रंग रूपी फल की इच्छा से चीनी मिट्टी के थ्याले में मजीठ पान करने की उत्प्रेज्षा हुई है, जो सिद्ध दै; क्योंकि श्लियाँ प्रायः ऐसा किया करती हैं । (ख ) असिद्धास्पद फलोसोक्षा
जिसमें उत्पज्ता का आरपद (आश्रय रूप विषय ) असिद्ध (असंभव ) हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । मानहूँ इहिं अभिलाष लो, चिनगी चुगत चकोर । राधा-मुख-ससि-चज़ बन्यो, रहों लहों चित चोर' ॥ १ राजा गुरुदत्तसिंद की राजधानी । २ रुघिर । ३ चंद्रमा ।
श्श्२ भारती-भूषण
यहाँ चकोर का अग्नि चुगना स्वाभाविक है, न कि चंद्र संयोग की अभिलाषा से; किंतु उक्त फल के लिये इसकी संभा- बना मात्र की गई है; और चकोर पक्ती का ऐसी इृच्छा करना अखिद्ध है; अतः “असिद्धास्पद फलोस्क्षा' है २ पुनः यथा--दोद्दा । पिवत पयोधर-पूतना, यों हरि-मुख छबि देत। गहयो कलाधर कलस मजु, बेर बाप को लेत॥ --स्वामी गणेशपुरीजी “पह्मेश! । यद्दाँ भी श्रीकृष्ण के मुख ने पूतना का स्तन-पान स्वभावतः किया है, न कि चंद्र रूप से (अगस्त्य मुनि के उत्पत्तिकारक कलश मानकर ) अपने पिता समुद्र का वैर लेने के लिये; किंतु चक्त फल के लिये इस अथ की संभावना की गई है; और चंद्रमा का ऐसी इच्छा करना असिद्ध है । ३ पुनः यथा--दोहा । मानईँ विधि, तन-अच्छ-छबि, स्वच्छ राखिये काज ।
डग-पग पौंछन को किए, भूषन पायंदाज ॥ +-विहारी ।
यहाँ भी नायिका के शरीर पर आभूषणों का होना स्वाभाविक है, न कि पुरुषों की दृष्टि की मैल पोंछा जाने के लिये पायंदाज होना; किंतु उक्त फल के लिये इसकी संभावना मात्र हुई है; और विधाता का इस इच्छा से आभूषण रचना असिद्ध है।
सूचना--(१) 'अभेद रूपक! अलंकार में उपमेय-उप्मान का अमेद संबंध होता है। जैसे--मुख-चंद्र भर्थात् मुख ही चंद्र है; भौर 'उत्प्रेक्षा? में भेद होते हुए संभावना होती है। जैसे--मुख मानो चंद्र दे ।
उप्प्रेत्षा १३३
(२) 'फलोत्प्रेक्षा' और 'हेतूत्प्रेक्षा' का निर्णय करना क्रिया से ही सुगम होता है। यदि क्रिया किसी कारण से कही गई हो तो 'हेतूत्प्रेक्षा? भौर यदि किसी फल की इच्छा से व्यवहृत हुई हो तो फलोसपेक्षा होती है ।
विशेष सूचना--5त्मेक्षा' के उक्त मुख्य तीनों भेदों के ही संबंध में निम्नोक्त और भी दो भेद द्वोते हैं--
9 लुपतोत्प््षा
जिसमें मन्नु, जनु आदि उत्म्रेज्ञावाचक-शव्दों के विना उत्पेज्ञा की जाय । इसको 'गम्योत्प्ेज्ञा', प्रतीय- माना एवं “्यंग्योत्मेज्ञा' भी कहते हैं ।
१ उदाहरैण यथा--सवैया ।
रग देखत ही दुति दंतन को चक्रचोंघत ज्यों चमरके चपला। मुख देखि नई दुलही को दई अपनी पिय आधी कला विमला ॥ बिष होरन को अधरारस लाइ हरे जिन खाइ मरे अबला। मुख-चंद में चंदमुखी के लखें ब्रजचंद-कला-ज्ुत चंद-कला ॥
यहाँ द्वितीय चरण में 'दुलद्दिन के दंंत' उपमेय में “६४ कलाओं की आधी ३२ कलाएँ” उपमान की उस्प्रेज्ञा वाचक-शब्द् के विना मुख-दिखलाई में देने के द्ेतु से हुई है; और यहद्द देतु सिद्ध है; अतः 'सिद्धास्पद द्देतु लप्तोत्मेज्ञा' है । इसी प्रकार ठृतीय चरण में 'सिद्धास्पद फल लप्तोत्ेत्ञा' दे ।
$ गुरु से पढ़ी हुईं ६४ कलाओं में से आधी ३२ । २ कृष्णावतार की १६ और चंद्रमा की १६।
१३४ भारती-भूषण २०<-सद तन नअतक 42:23 7०० चह 5 52 २ पुनः यथा--दोह्ा । करनफूल कंचन - रचित, खचित - रतन - बहुरंग । ससि सेवत सियरान हित, ग्रह-श्रुति '-लहित पतंग ॥ यहाँ भी श्रीराधिकाजी के स्वर्ण के रत्न-जटित कर्णफूल में ग्रद्दों एवं श्रुति ( वेद )-सद्दित सूर्य की संभावना वाचक-शब्द के विना हुई है; और सूर्य का शीतलता की इच्छा करना असिद्ध है; अतः 'असिद्धास्पद फल गम्योस्ेक्षा' है। ३ पुनः यथा--दोहां । रमनी-मुख-मंडल निरखि, राका-रमन लजाइ।
जलद जलधि सिव रूर मैं, राजत बदन छिपाइ ॥ +केशवदाप |
यहाँ भी नायिका के मुख में चंद्रमा की संभावना वाचक-शचब्द् के बिना हुई है; और चंद्रमा का मुख से लज्वित होने के कारण जलदादि में अपना मुख छिपाना असिद्ध है; अतः “असिद्धास्पद हेतु लप्तोत्प्रेज्ञा' है । ४ पुनः: यथा--दोहा । 3) ऊल- कपूत - करनी निरखण्रि, धरनी के उर दाह। घधधकि उठत सोई कबहूँ, ज्वालागिरि की राह॥
--पं० जगन्नाथप्रधाद चतुर्थ दी । यहाँ भी ज्वालागिरि की अग्नि-शिखा में पृथ्वी के मानस- दाह की संभावना वाचक-शब्द के बिना हुई है। प्रथ्वी का कपूत की करनी के कारण धघकना असिद्ध है; अत: “असिद्धास्पद देतु छप्तोत्म्े्षा' है ।
१ कान ओर वेद ।
उत्प्रेत्ना श्श्ष
सूचना--यह 'छप्तोत्मेक्षा? हेतूत्पेक्षा भर फलोष्प्रेक्षा में ही होती है; क्योंकि इनमें वाचक-शब्द के अभाव में भी उत्प्रेक्षा व्यंजित हो जाती हे, वस्तुत्प्रेक्षा में ऐसा नहीं होता; भतः उसमें 'छप्तोत्पेक्षा? नहीं हो सकती ।
५ सापहतवोत्पक्षा जिसमें अपहुति-श्रलंकार-सहित उत्पे्ञा की जाय । १ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
खुबल - खुघन' को छुल-कलित, चौपर-खेल न जान ।
चोपट' करिबे कुरुन लौं, मनहूँ काल-चौगान' ॥
यहाँ शक्रुनी के कपट-युक्त चौपड़-खेल' उपमेय में “काल के चौगान! उपम्ान की संभावना “अपहुति! के निषेध-सूचक न जान! पद द्वारा कौरवों के सर्व-नाश रूपी फल की इच्छा से की गई है; और कौरवों का नाश होना सिद्ध है; अतः 'सापहव सिद्धास्पद फलोख्ोक्षा' है ।
२ पुनः यथा--दोहा । सीता के पद्-पदम के, नूपुर पट जनि जान। मनहूँ. करस्मो सुप्मीव - घर, राज्य -श्री. प्रस्थान ॥ --केशवदापत ।
यहाँ भी श्रीसीताजी के नपुर और पट उपमेय में राज-लक्ष्मी उपमान की उत्प्रेज्ञा अपहृति' के 'जनि जान! दाचक-शब्द से उपमेय के उल्लेख पूर्वक हुई है; अतः 'सापहव उक्तविषया बस्तू: ज़क्षा' है |
$ शकुनी । २ सर्वन्ताश । ३ दंगलू।
१३६ भारती-भूषण
न््ल््च््ल््ल््ल््जिलि लत
३ पुनः यथा--कवित्त । झखुंदर बदन छुवि मंद करे चंद् ह की, किरन बतीसन ' के तेज-पुंज भीनो है। तेसे ही तिहारे नेन मैन-बान-गंजन हें; कंचन -हरन छुबि बरन नवीनो है॥ लागि जेहें कोऊ दीठ ईठ-जन' ऐसे कहें, करिके त्रियार यों दिठौना भाल दीनो है। कीन्हों ना दिठौना कवि 'राम! कहे मेरे जान, मोहन के मोहिबे को टोना कोड कीनो है ॥ +--राम । यहाँ भी नायिका के दिठौने में टोने की संभावना “अपहृति' के निषेध-बोधक 'कीन्हों ना' पद द्वारा मोहन को मोहने रूपी फल की इच्छा से हुई है; और मोहन का मोदित होना सिद्ध है; अतः सापह्व सिद्ध/रयद फलोलोक्षा' है । ४ पुनः यथा-दोद्ा । नाहिन ये पावक प्रबल, लुएँ चलत चहूँ पास । मानहूँ बिरह बसंत के, ग्रीपम लेत उसास ॥ - विद्दारी यहाँ भी पावहरवत् प्रवल प्रीष्म-जन्य लछुश्रों में ग्रीष्म के उच्छासों की उत्प्रेत्ञा वसंत का वियोग हो जाने के हेतु से 'अपहति' के निषेध-सूचक 'नादिन' पद द्वारा हुई है; और बसंत के वियोग से चच्छासों का द्वोना अखिद्ध है; अतः “असिद्धास्पद हेतु सापह- वोत्ेक्षा' है ।
+ दांतों की बत्तीसी । २ इणमित्र।..
अतिशयोक्ति १३७
हज -ज-ज+ल
ब्स्न्स्न्स्ल््व्लव्ल्ल्लल्ज्ल्ललजजजलज जज « >-ल
सूचना --यह 'सापहवोटपेक्षा? वस्तु, हेतु, फल तीनों भेदों में होती है; भौर छुद्ध, परयस्त, कैतब इन तीन प्रह्नार की अपहृतियों से दो लकती है; किंतु विस्तार-भय से इन सबके उदाहरण नहीं दिए गए। हमारे विचार से यह 'खापह्नवोत्पेक्षा? हेल्वपह्मति, आंतापहुति और छेकापहुति से नहीं हो सकती । हे पु ह
विशेष सूचना--कुछ आचार्यों ने 'उत्प्रेक्षालूकार' में उत्प्रेक्षा' और 'संभावना? के पर्याय रूप में 'तर्क' शब्द का भी व्यवहार किया है; किंतु हमारी सम्मति में 'तक! शब्द का दग्रवद्दार उचित नहीं है, क्योंकि यह दर्शन-शास्त्र का एक पारिभाषिक शब्द है, जो व्याप्यारोप से ब्यापकारोप में परिभाषित है भौर इपका व्यवहार करने से अ्रथातर का अम होने की संभावना है । तक वास्तव में 'अप्रमा? का एक प्रकार है। कारण की उपपत्ति से किसी बात का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिये जो विचार किया जाता है, वह तक॑ कहलाता है। जैसे--पव॑त में धुआँ उठता हुआ देखकर यदद समभना कि वर्दां भाग जल रही है ।
(१३) अतिशयोक्ति
जहाँ प्रस्तुत की अत्यंत प्रशंसा के लिये अतिशय अर्थात् लोकसीपा का उल्लंघन करके कोई बात कही गई हो, वहाँ “अतिशयोक्ति' अलंकार होता है । इसके सात भेद हैं --
१ रूपकातिशयोक्ति जिसमें उपसेय के बिना केवल उपमान का उपमेय से
१३८ भारतो-भूषण
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अभेद बतलाया जाय; अर्थात् उपमान के कथन द्वारा ही उपमेय का बोध कराया जाय । इसके दो भेद होते हैं---
( + ) शुद्ध रूपकातिशझयोक्ति
जिसमें अपहुति' अलंकार की रीति के विना उपमान
का उन्नलेख हो । १ उदाहरण यथा--सवैया ।
दुइ कंजन पे कदली तहूँ तार सिरीष-प्रसून को राजत है। दल-पीपल कूप लता दुइ श्रीफल पे कल कोकिल साजत है ॥ तहँ कुंद-कली सुक मंजुल मीन अली-अवली भल श्राजत है। ब्रज़ वाग लसे नँद-नंदन को सखि ! नंदन ह लखि लाजत है॥
यहाँ नायिका के चरण, जंघा, कटि, उदर, नाभि, रोमावली, स्तन, कंठ, दंत, नासिका, नेत्र, वेणी एवं खय॑ नायिका, इन सब उपमेयों का उल्लेख न करके क्रमशः इनके उपमान कमल, कद्ली, शिरीष-पुष्प का तार, पीपल-पत्र, कूप, लता, बिल्व-फल, कोयल, कुंद-कलियों, कीर, मछलियों, श्रमर-पंक्ति, एवं बगीचे का उल्लेख करके उक्त उपमेयों का बोध कराया गया है; तथा क्रमशः एक उपमान के ऊपर दूसरे की विचित्र स्थिति बतलाई गई है; इससे लोकोत्तरता है ।
२ पुन: यथा--छप्पय ।
$ हंसहि गज चढ़ि चल्यो, करी पर सिंह बिरज्जे। . सिंदहद्दि सागर धस्खो, सिंघु पर मिरि हे सज्जे ॥
अतिशयोक्ति १३६
> चल >ल जी +ल जल 5 ४5५ ८ *+ “5+८४+ “४5
गिरिवर पर इक कमल, कमल पर कोयल बोलें। कोयल पर इक कीर, कीर पर झगह डोले॥ ता ऊपर दे खिसु नाग के, निसि-दिन फनिय धरे रहे। कबि “गई! कहे गुनिज़नन सौं, हंस भार केतो सहे ॥ “+गड ह। यहाँ भी नायिका के अंग उपमेयों का उल्लेख किए विना केवल उपमानों का द्वी उल्लेख हुआ है । हंस, हाथी, सिंह, समुद्र, पर्वत, कमल, कोकिल, कीर, म्ग और सपे के बच्चे क्रशः एक के ऊपर एक का चढ़े रहना, अलौकिक वर्णन है । सूचना--इस 'छछ रूपक्रातिशयोक्ति? के और एर्वोक्त 'वाचक्ोपमेय लुप्त? के उदाहरणों में अधिकतर समानता आजाती है; किंतु इसमें उपमान
प्रसिद्ध होता है और केवल उपमान का छोकोत्तरता पूर्वक वर्णन रहता हैं; तथा उसमें उपमान का उल्लेख धर्म के साथ होता है । यही भिन्नता है ।
( ख ) सापहृव रूपकातिशयोक्ति
जिसपें अ्रपहुति' अलंकार की रीति से उपमान का उल्लेख हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । बुध बैरिहिं समुझत सजा, सठ खुत सत्रु-समान | धरमराज राजत धरनि, संयमनिहु मत मान ।॥| यहाँ 'राजा” उपमेय का उल्लेख नहीं हुआ है । “उनकी पुरी संयमिनी में द्वी मत मानो” इस निषेध-सूचक वचन द्वारा केवल धंर्मराज उपमान का घर्सुन किया गया है, जिससे राजा का बोध
होता है; और घर्मराज का प्रथ्वी पर होना लोको्तरता है ।
२४० भारती-भूषण
हे जल जब लाल +ल ला
२ पुनः यया--कवित्त । श्रीफल-सरस चंद बुंद-अल्रि ब्यालन के, बिदुम ओ कीर मीन खंजन बसाने हैं। कोकिल कपोत फंबु कंचन-कलस केलि', कल रब कंज़ करी फेहरि समाने हैं ॥ आली ! बनमालीजू के बगर' बिहार करें, चलदल-दल' सो पिपीलिका खुहाने हैं। आन ठाँ कदत कोऊ ऐन अ्रविचारें ये तो, कंचन-लता पे सब नीफेके पिछाने हैं॥ --भअलंकार-आशय । यहाँ भी कुच आदि उपमेयों का वर्णन नहीं किया गया है “आन ठाँ कट्दत कोऊ ऐन अबिचारें” अपहृति के इस आशे-निषेध- बोधक वाक्य द्वारा श्रीफल आदि उपमान ही कहे गए हैं, जिनसे उपमेयों का बोध होता है | खूचना--( १ ) एर्वोक्त 'हपकालंकार! में “अभेद! प्ृव॑ 'ताहूप्य” दोनों भेदों के झ्ंत्तगंत जितने उपमेद हैं, उन सक्षम यह हो खकती हे; हृपीलिये इसे 'रूपकातिशयोक्ति! कहा गया है; किंतु उन सबके उदाहरण देने से बहुत विस्तार द्ो जायगा; अतः वे छोड़ दिए गए हैं । (२ ) 'अम्ेद रूपकालंकार” में भी उपमेय-उपमान में अभेद होता है; किंतु उसमें इन दोनों का और हसमें केवल उपसान का वर्णन होता है।
२ भेदकातिशयोक्ति जिसमें वास्तविक अभिन्न उपमेय को भिन्न ( भभेद
१ कदछी॥ २ घर । ३ पीपल का पत्ता ।
अतिशयोक्ति १४१२ होने पर भी भेद ) कहा जाय | इसके वाचक-शब्द प्रायः रे वा इसके पर्याय “नवीन”, न्यारा! आदि होते हैं । १ उदाहरण यथा--दोहा । गुना उपाय' सेना सचिव, सबके होत अधीन । ये सासन-सैली निपुन जप की निपट नवीन॥
यहाँ निपुण राजा की 'शासन-शैली! उपमेय को “नवीन शब्द द्वारा भिन्न कद्दा गया है; और यद्दी लोकोत्तरता है ।
२ पुनः यथा--सबैया । अंबर ते अति ऊँची वहै अरु ऊँडी रसातल ह ते अथारी। वूहिन' के गिरि ते अति सीतल पावक ते अ्रति जारनहांरी ॥ मार' हु ते कडु मीठी खुधा डु ते कीनी अनू ते खुमेरू ते भारी । ज्ञानत जान अजान न जानत, सागर ! बात सनेह की न्यारी ॥ --प्रवीण सागर [| यहाँ भी 'स्नेह की बात! उपमेय की भिन्नत्ता 'न्यारी' शब्द से और लोकोत्तरता 'अंबर तें अति ऊँची” आदि त्रिशेषणों द्वारा व्यक्त की गई दै । मेदकातिशयो क्ति-माला ? उदाहरण यथा--कवित्त | और भाँति कुंजन में गुंजरत भौर-भीर, और भाँति बौस्न के भौरन के हे गए । कहै 'पद्माकर” खु औरें भाँति गलियाँनि, छुलिया छुवीले छेल और छबि छैु गए ॥ ३- छः गुणश-- संधि, विप्रह, यान, भासन, दैध और भाश्रय । २ चार छपाय--साम, दान, भेद और दंड । ३ बरफ | ४७ विष। ५ भाम्र-मंजरी !
१७४२ भारती-भूषण
औरें भाँति ब्रिहँग-समाज में अवाज होति, अब्रे ऋतुराज केन आजऊ्ु दिन द्वे गए। औरे रस ओरें रीति औरें राग औरें रंग, औरें तन औरें मन औरें बन हे गए ॥ “>-पञ्माकर । यहाँ 'औरें! शब्द द्वारा वासंतिक सामप्री उपमेयों की भिन्नता कही गई है; अतः माला है। ३ संबंधातिशयोक्ति जिसमें, असंवंध में संबंध अर्थात् अयोग्य में योग्यता बतलाई जाय | १ उदाहरण यथा--कवित्त-चरण । बिन ही बिचारे सुनि सहज उचारे खदु- बचन, विचारे कवि रचना रघच्यो करें। & यहाँ श्रीराधिकाजी के मुख से साधारणतया निकली हुई बाणी सुनकर दी, कवियों के काव्य-निमोण का संबंध न द्वोने पर भी, उनका काव्य-निर्माण करना कद्दा गया है। यद्दी अलौ- किकता है ।
२ पुन: यथा--कवित्त । जटित जवाहिर सों दोहरे दिवानखाने, छुला छाति आँगन ओ हौज सर फेरे के । करी ' ओ केवार देवदारु के लगाए लखो, लक्कौ है सुदामा फल हरि-पद हेरे के॥ $ शहतीर । & बूरा पद्य 'सौंदर्यात्युक्तिः में देखिए ।
अतिशयोक्ति १७३
पल में महल बिखकरमें तयार कोन्हे, कहे 'रघुनाथ' कैयो जोजन के घेरे के। अति ही बुलंद जहाँ चंद में ते अमी चारु, क ३ 5३७ हि चूलत चकोर बेठे ऊपर मुंड़ेरे के॥ --रघुनाथ । यहाँ भी सुदामा के मंदिर के मुंड़ेरे पर बैठे हुए चकोरों के चंद्रमा में से ( इतनी ऊँचाई से ) अम्रत चूसने का असंबंध द्ोने पर भी संबंध कहद्दा गया है । ३ पुन: यथा--दोह्दा ।
में बरजी के बार तू, इत कित लेति करौट। पखुरी गरे गुलाब की, परिहें गात खरोट ॥& --विहारी । यहाँ भी नायिका के गात्र में गुलाब के फूल क्री पंखडी ( दल ) गड़ने से खरोट ( घाव ) पड़ने का संबंध न द्वोने पर भी खरौट पड़ना कद्दा गया है । ४ पुनः यथा--कवित्त ।
आहछी बनि आई सो सराही सूरबीरन ने, रूँती है' सिरोही' मद मूँछ हाथ धरिके। खेंचिके उठाई बग्ग', बाही बीर खूब खग्ग, कायर जे भागि गए छांड़ि खेत डरिके॥ $ विश्वकमां । २ खींची दें । ३ तछवार । ४ रूगाम । & पति की ओर पीठ करके खोई हुई मानवत्ती नाथिका को पति की ओर करने के लिये सखी का कथन है।
१४७ भारती-भूषण
कड़फे-कड़ाफे खो तड़ाके होत तेगन के, नंद ज्ुगलेस को खड़ो है खेत अरिके। तोलाराम बेस्य की वखानी असि रावराजा,'., ले गई बिमान में बिठाइ हर बरिके॥+ --जवानजी € बंदीजन ) | यहाँ भी वैश्य में तलवार चलाने का असंबंध होने पर भी शूर-वीरों एवं रावराजा द्वारा सराहे जाने के रूप में योग्यता कद्दी गई है । ४ असंबंधातिशयोक्ति जिसमें, संबंध में असंबंध अ्ांत् योग्य में अयोग्यता
कही जाय । १ उदाहरण यथा--कवित्त ।
आदि-अंत जाको ना प्रजा को आदि-श्रंत आपु,
रूप -गुन-हीन हु सरूप-गुनवारो है। संकलप-सून्य त्यों अनल्प फल्पना को हेतु,
न््यारो नित जाते ता श्रजा ते सबिकारो है ॥ दिषय-विकार हैं न इन ही को वारापार,
बेद ह लजात पै न जात श्रम-भारों है। केसे को बखाने वाहि' कोन जो न जाने याहि',
दीन जन हेतु जो नवीन तनु धारो है॥
3 सीकर ( शेखावाटी )-नरेश | २ निर्गुण । ३ सगुण ।
+ यह पथ सेठ जुगलकिशोरजी गनेड़ीवाले फतेहपुर ( शेखावाटी )- निवासी के पुत्र वीरपुरुष तोलारामजी की प्रशंसा में है। जो अनेक डाकुओं को युद्ध में मारकर स्वय॑ स्वगंगामी हुए थे ।
अतिशयोक्ति १७५
यहाँ श्रीवेद भगवान् में क्रिसी विषय में संशय न द्वोने की योग्यता द्वोते हुए भी निर्गुश-सगुण-परमात्मा के यथाथे ज्ञान में अ्रम होने का असंबंध कहा गया है; यही लोक-मयादोलूंघन द्दै। २ पुनः यथा--सवैया । इन पंकज-पंज कठोर किए यह सोर पस्यो सब साथिन में । नर-नाथ निहारि प्रज्ञान के, ज्यों सब सौतिन के मन माथ नमे' ॥ सकुचाइ रही अरगाइ गिरा कहि गाइ सकी ग़ुन गाथ न मैं । बरने कवि को किहि भाँति अहो ! त्रजनाथ बिके जिन हाथन में ॥ यहाँ भो देवी सरस्वती में अशेष गुण - विषय - वर्णन का संबंध होते हुए भी राधारानी के द्वार्थों की प्रशंसा-वर्णन न कर सकने का असंबंध ( अयोग्यता ) बतलाया गया है। असंबंधातिशयोक्ति-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । कोटिन कुबेरन को कनक, कनूका सम, ताको चारों वेद एक अलप कहानी है। कामधेलु कल्पतरु चितामनि आदिक की, ताको दान देखि-देखि मति चकरानी है॥ पाँच हू मुकुति ताकी दासी हे खबासी करे, काल हू कराल की न ता खँग बिसानी है। दोन' कवि जाके मन-मंदिर में बास करें राम सो खुराजा ओ सिया सो महारानी है | “-लाला भगवानदीन। यहाँ करोड़ों झुबेरों के सुवर्ण-समूह में योग्यता होते हुए भी ( जिसके अंत:करण में श्रीसीतारामजी निवास करते द्वों ऐसे )
$ मुकते हैं । २ अछूग होकर । ३ सरस्वती । १०
१४६ सारती-भूषण
भक्त द्वारा कनूका ( कण ) सममा जाने का असंबंध कहा गया है। इसी प्रकार यहाँ और भी चार “असंबंधातिशयोक्तियाँ ! हैं; अतः माला है ।
सूचना--काव्यों में 'अतिशयोक्ति! के इस भेद का अधिक प्रयोग
होता है; और प्रायः इसके ऐसे उदाहरण देखे जाते हैं--"ईश्वर का वर्णन शेष भर शारदा भी नहीं कर सकते”? तथा “वेद भी नेति-नेति
कद्दते हैं?? । ४ अक्रमातिशयोक्ति जिसमें क/रण ओर कार्य का पौर्वापये क्रम के बिना एक ही साथ हो जाना कहा जाय |
१ उदाहरण यथा--सोरठा ।
जप
अज्ञामील के प्रान, इत निक्से हरि-नाम-ज़ुत। । उत वह बेठि बिमान, तब लगि पहुँच्यो हरि-सदन ॥ यहां हरि-नाम लेते हुए पापी अजामिल के प्राणयों का निक- लना कारण दै; तथा उसका विमान में बैठकर वैकुंठ-धाम पहुँ- चना काय है; इन दोनों का एक साथ हो जाना कद्दा गया है; यद्दी लोकोत्तरता है । २ पुनः यथा-सवैया । बूकत ही वह गोपी गुवालहि आऊ़ु कछू हँसिके गुन गायहि | पेसे मैं काहु को नाम सखी ! कद कैसेधों आइ गयो त्रज़नाथहदि ॥ स्तात खुवावत ही जु बिरी सु रही मुँह की मुंह हाथ की हाथहि । श्तुर ह्ले उन आ्रँजिन ते अँसुबा निकसे अखरान फे साथहि ॥ +-अक्कार-भादशाय
अतिशयोक्ति १४७
लक के जननी जब न को की कक अप 3 मकर कक इक किस
यहाँ भी श्रीकृष्ण के मुख्य से अन्य गोपिका का नाम निक- लना कारण ओर श्रीराधिकाजी को आंखों से अश्रुपात होना कार्य, दोनों एक साथ ही हुए हैं ।
पुनः यधा-दोहा । उत गँकार मुख ते कढ़ी, इत निकली जमधार। ध्वार कहन पायो नहीं, भई . कलेजे-पार ॥ --भज्ञात कवि । यहाँ भी यह आशय है कि बादशाह का साला सलाततखों, गठौर अमरसिंह को 'गँंवार' कहने लगा था; किंतु 'गैं' ही कहने पाया था कि अमरसिंद् ने छटार उसके कलेजे के पार कर दी जिससे वह 'वार! कहने दी नहीं पाया; अतः उसके मुँह से “गे कहना कारण एवं कटार का प्रद्वार काय, इन दोनों का पूर्वोत्तर क्रम के बिना एक साथ होना कहा गया है
६ चपलातिशयोक्ति
जिसमें कारण के ज्ञान अर्थात् देखने सुनने मात्र से ही तत्वाण कार्य होने का वणन हो । १ उदाहरण यथा--सव या-च रण । दूरद्दि तें डग देखत दी दसिहेँ वस नाहिन मंत्र मनी को ।&
यहाँ नायिका के केश-रूपी स्पा को दुर से देखने मात्र कारण से ढसा जाना कार्य द्ोना कद्दा गया है; यद्दो अलौकिकता है ।
& पूरा पद्य 'रूपक' में देखियु
१छ८ भारती-भूषण
२ पुनः यथा--कवित्त ।
योध बुधि विधि के कमंडल उठावत ही, धाक खसुर-घुनि की धँसी यों घट-घट में । कहे 'रतनाकर' खुराखुर ससंक सबे, बिबस बिलोकत लिखे से चित्रपट मैं ॥ लोकपाल दौरन दसां दिखि हहरि लागे, हरि लागे हेरन सुपात बर बट में। अ्रसन नदीस लागे, खसन गिरीस लागे, ईस लागे कसन फनीस कटि-तट में ॥ --बाबू जगन्नाथदास “रत़्ाकर? । यहाँ भी त्रह्माजी के कमंडलु उठाते ही श्रीगंगाजी के प्रपात कारण का ज्ञान दोने मात्र से तत्काल घट-घट में भय उत्पन्न द्ोने आदि कार्यों का होना कद्दा गया है । चपलातिशयोक्ति-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । दारे दुख दारिद घनेरे सरनागत के, अंब ! अलुकपा उर तेरे उपजत ही। मंदिर मैं महिमा बिराजे इंद्रि की नित, गाजे ऋनकार धुनि कंचन-रजत ही॥ गाज सी परत अनसहन बिपच्छिन पै, मक्त गज़राजन की घंटा मरजत ही। हारे हिय सारे हथियार डरि डारे देत, हारे देत हिम्मत नगारे के बज़त ही॥ --पं० कृष्णशंकर तिवाड़ी, एम, ए, । यहाँ प्रथम चरण में दुर्गा के हृदय में दया का संचार मात्र होने कारण्य द्वारा शरणयागत मनुष्य के दुख-दारिद्य दरने का कार्य
ठुल्ययोगिता १४७
तुरंत हुआ है। इसी प्रकार ठृतीय तथा चतुर्थ चरणों में भी है; अतः यह माला है । ७ अत्यंतातिशपोक्ति जिसमें कारण ऐसा लाधव ( शीघ्र )-कारी हो कि उससे पहले ही काये हो जाय । १ उदाहरण यथा--दोहा । संभु-लमाधि ललार-चलख, खुलत न लागी वार। प्रथमहिं दुस्यौ रसाल-दल, मार भयौ जरि छार॥ यहाँ श्रीशंसु के ललाट -नेत्र का ख़ुलना कारण है, जिससे पहले द्वी काम् का भस्म द्वोना कार्य द्वो गया है । २ पुनः यथा--दोद्दा । उद्य भयौ पीछे ससी, उदयागिरि के रहंग। छुव मन-सांगर राग' की, प्रथमहिं बढ़ी तरंग ॥ --जसवंत-जसोभूषण । यहाँ भी चंद्रोदय कारण से पहले द्वी समुद्र की तरंग का बढ़ना कार हुआ है । सूचना--संस्कृत-अलंकार-शाखतर के मम्मट भादि प्राचीन भाचायों
ने 'अतिशयोक्ति? अलंकार को भी 'उपमा? की भाँति प्रधान भौर बहुत से अलेकारों का आश्रय माना है।
५ किए ७००७
(१४) तुल्ययोगिता जहाँ अनेक के धर्मों' का तुल्ययोग अर्थात् एकता हो,
$ अज्लुराग । २ गुण क्रिया आदि।
१५० भारती-भूषण
7 0४४७७७७७७७७७७७७७७७७४७७७७७०७७७७७000 200 की की कक के की कु सब वहाँ तुल्ययोगिता' अलंकार होता है । इसके तीन भेद हैं--
१ प्रथम तुल्यथोगिता जिसमें अनेक उपमेयों वा अनेक उपमानों का एक ही धर्म कहा जाय । इसके दो भेद हैं--- ( के ) उपसेयों के एक धर्म का १ उदाहरण यथा--दोहा । श्री रघुबर के नख, चरन, मुख सुषमा-सुख-जान | लहै चार फल अछत तजु, देखु घरिक धरि ध्यान॥ यहाँ 'नखो, चरन एवं 'मुखां इन तीन उपमेयों का 'सुषमा-सुख-खान' एक ही धमं कहा गया है | २ पुनः यथा--दोद्ा । सखि ! स्थामा के ज्यों लगे, नेन, बेन इठलान। खुखद भए त्यों स्थाम को, सौोतिन को दुखदान॥ यहाँ भी 'नैन” और बैन! दो उपमेयों का 'इठलान लगे एक ही धरम वर्णित है । ( ख़ ) उपमानों के एक घर्म का १ उदाहरण यथा--दोह्दा । अंग अलोक विलोकि तव, सकुचि बसे बन' जाय। केहरि कीर कुरंग करि, कमल कंबु समुदाय ॥ यहाँ केहरि आदि अनेक उपमानों का वन में जा बसना _ एक ही घमे कहा गया है ।
$ वन भोर जछ |
तुल्ययोगिता १११
3-3 -> पल +- बल 3ज 3 ल लत तल 5 व जज +त 5
२ पुनः: यथा--कवित्त ।
सपत नगेस आठठों ककुम' गजेल कोल, कच्छुप दिनेस घरें घरनि अखंड को। पापी घांलै' धरम खुपथ चाले मारतंड, करतार प्रन पाले प्रानिन के चंड को॥ पूषन! भसनत सदा सरजा सिवाजी गाजो , स्लेच्छुन को मारै करि कीरति घमंड को । जग - काजवारे, निहिचित करि डारे, सब भोर देत आसिष तिहारे भ्रुजञदंड को ॥ -> मभुूषण । यहाँ भी सातों नगेश ( पर्वतराज ) आदि उपसानों का धरैं घरनि' एक धर्म कद्दा गया दे ।
उपमानों के एक धर्म की माला १ उदाहरण यथा--सवैया । तो सुर-सेबित-साखिन' के फल की ओ धा/कन को खुधि अ्रवि। कोकिल-कूजन काब्य-कला रति-भारती' भारती-बीन' हु भावै ॥ दाखन की मधु माखन की चित चाखन की अभिलाष लखावें। स्याम खुजानहि जो सख्त! स्वामिनि भ्रीमुज बेन नबोलि खुनावें॥
यहाँ आरंभ के तीन चरणों में क्रमशः फल आदि, कोकिल-
कूजन आदि पवं दाख आदि अनेक उपमानों का 'सुधि आदे', 'भावै! एवं 'अभिलाष लखाबै' एक-एक दी धर्म है; अतः माला है।
4 दिशा। २ नाश करता है। ३ शूर-सामंत। ४ कह्पवृक्ष | ७५ रति की बाणी | ६ सरस्वती की वीणा | ७ शददद् ।
१५२ भारती-भूषण
2५
उभय पर्यवसायी १ उदाहरण यथा--दोद्दा । कोक कुंभ नहिं लहत सख्तरि ! सोभा-उरज-उतंग। नैन बन बाँके भण, प्रगटत जोबन अंग।॥ --अर्लकार-भाशय । यहाँ कोक ( चक्रवाक ) एवं कुंभ उपमानों को उरोजों की शोभा न प्राप्त होना और नैन एवं बैन उपमेयों का बाँके धोना, एक-एक धम कह्दा गया है; अतः दोनों की 'तुल्ययोगिता' है। २ द्वितीय तुल्ययोगिता जिसमें हित ओर अनहित ( मित्र-शत्रु, सुख-दुःख ) में तुल्य ( समान ) व्यवहार बतलाया जाय | १ उदाहरण यथा--कवित्ताद्ध । विमल बिरागी त्यागी यागी बड़भागी भक्त, विषयाजुरागी त्यों कुसंगति करेया है। कोऊ पंचकोसी माहि पंचपन पावें' मुक्ति, सबको समान देत कासी पुरी मैया है ।।# यहाँ पुण्यात्मा ( मित्र ) एवं पापात्मा (श्र ) दोनों को श्रीकाशीजी द्वारा समान मुक्ति प्राप्त होना कहा गया है । २ पुनः यथा--छप्पय । श्ररि हु दंत तन घरे, ताहि मारत न सबल कोइ | हम संतत तृन चरहि , बचन उच्चरहि दीन होइ || अम्बत-पय नित श्रवहिं, बच्छ महि-थंभन जावहि । हिंदुहिं मधुर न देहि.,कटुक तुरकहिं न पियावहि ॥ $ खत्यु को प्राप्त हो । ७ पूरा पथ “विकस्वर' में देखिए ।
तुल्ययोगिता श्षरे
कह कवि “'नरहरि! अकवर ! खुनो, बिनवत गउ जोरे करन । अपराध कौन मोहि मारियत ? मुयहु चाम सेवइ हम ॥ --नरहार । यहाँ भी चतुर्थ चरण में दिंदू (दितैषी) और तुक (विद्वेषी ) दोनों के प्रति गाय का समान व्यवद्दार करना कद्दा गया है। ३ तृतीय तुल्ययोगिता जिसमें उत्कतद ( अधिक ) शुणवाले उपमारनों के साथ मिलाकर उपमेय का वर्णन किया जाय । १ उदाहरण यथा--दोद्दा । मदन - महीपति- तिय - बदन, सरद -चंद - अरबिद । अरु तव मुख खुखमा-सदन, कहत सकल कवि - बूंद ॥ यहाँ श्रीराधिकाजी के मुख उपमेय का रति के मुख, शरद ऋतु के चंद्रमा और कमल उपमानों के साथ मिलाकर ( सोंद्य की समता करके ) वर्णन किया गया है । २ पुनः यथा--दोहा । भोज विक्रमादित्य. नभ्रप, जगदेवो. रनधीर । दानिन हू के दानि दिन, इंद्रज्ीत बर बीर॥ “--कंशघदास यहाँ भी राजा भोज, विक्रमादित्य एवं जगदेव पेँवार के साथ ( उदारता की समता करके ) ओड़्छा के राजा इंद्रजीत का वर्णन किया गया है। ३ पुनः यथा--दोद्ा । जग-प्रसिद्ध की पाँति मैं, गने हु प्रस्तुत जान । लोकपाल खुरपति बरुन, यम कुबेर न्प-मान।॥ “-अछंकार-आाशय ।,
१५४ भारती-भूषण
यहाँ भी इंद्र आदि उपमानों के साथ ( लोक-पालन की समता करके ) राजा मान का उल्लेख किया गया है। खूचना--पूर्वोक्त “द्वितीय उदलेखालंकार” में एक ध्यक्ति एक ही | वस्तु का एथक्-एथक् विषय-भेद द्वारा अनेक प्रकार से वर्णन करता है और यहाँ ( तुक््ययोगिता में ) एक उपमेय को अनेक उपमानों के साथ मिलाकर उसका वर्णन किया जाता है। वहाँ केवछ गुण-कथन का तथा यहाँ भनेक उपमानों से समता का भाव होता है; यही इनमें अंतर है।
"909 €06*
(१५) दीपक जहाँ उपमेय और उपमान दोनों करी एक ही धम वाची क्रिया कही जाय, वहाँ 'दीपक' अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहा । मुख मंज़ुल सुषमहि लखत, मित्र - मयखनि' कंज | चखत्र श्रंजन - अंजित भूख रु, खंजन चपल सुरंज॥ यहाँ मुख एवं चख उपमेय और इनके कंज तथा मख, <ंजन उपमानों की एक ही क्रिया 'लखत! का व्यवद्दार हुआ है | २ पुनः यथा--दोहा । चंचल निसि उदबस ' रहैँ, करत प्रात बसि राज । अरविंदनि में इंदिरा, खुंदर नेननि लाजञ॥ --मत्तिराम । यहाँ भी नेत्रों की लाज उपमेय और अरबिंदों की श्री उप- मान है । इन दोनों लिये 'उद्बस रहैँ” एवं 'राज करत! क्रियाएँ व्यवहतत हुई हैं ।
9 सूर्य की किरणों से। २ उजड़ी हुई ।
दीपक श्षप ३ पुनः यथा-सवैया । कामिनि कंत सं, ज्ञामिनि चंद सौं,दामिनि पावस-मेघ-घटा सौ । कीरति दान सों, सूरति ज्ञान खों, प्रीति वड़ी सनमान महा सो ॥ 'मूषन' भूषन सो तरुनी, नलिनी नव पूपन-देव-प्रभा| सो जाहिर चारहुँ ओर जदान ले इिंदुवान खुमान सिवा सो >-भुण्ण । यह भी 'हिंदुबान खुमान सिवा सो” डपमेय-वाक्य एवं 'कामिनि कंत सौ! आदि उपमान-वाक्य हैं। इन सबकी एक ही क्रिया 'लसै' कद्दी गई दै ।
सूचना--(१) पूर्वोक्त 'तुल्पयोगिता? अलंकार में केवल उपमेयों वा उपसानों का एक धर्म कद्दा जाता है; और इसमें उपसेय तथा उपमान दोनों का एक ही धर्म कहा जाता है| यही इनमें अंतर हे ।
(२) कुछ भाषा-म्रंथों में लिखा है कि 'दीपक” का लक्षण उपमेय- उपमानों का गुण और क्रिया आदि एक धर्म होना है; किंतु वामनाचाय के प्राचीन “अलूंकार-सुत्र” नामक ग्रंथ में दर्ण्य * अवण्य * की एक ही क्रिया होना लिखा हे ॥ यथा--
»उपमानोपमेयवाक्येष्वेका क्रिया दीपक!
श्रीजीवानंद् विद्यासागर-कृत 'साहित्य-द्पंणय” की टीका से भी यद्दी
सिद्ध होता हे। यथा-- #अन्रप्रस्तुताया अप्रस्तुताया च एकानुगमन क्रिया सम्बन्ध?
इसके अतिरिक्त संस्कृत तथा भाषा के जितने उदाहरण देखे गए, उन सबमें भी केवल क्रिया का ही उपयोग है; अतः पाठकों को स्मरण रखना चाहिए कि 'कारक-दीपक?, 'माऊा-दीपक?, “आजृत्ति-दीपक?, 'वेहरीदीपक! भर्थात्'दीपक' मात्र में ही केवल क्रिया का संबंध नियमित होता ह्टे।
3 सूय्येदेव की आभा। २ उपमेय । दे उपसान ।
१५६ भारती-भूषण
(१६) कारक-दीपक
जहाँ क्रप पूवेक अनेक क्रियाओं का एक ही कारक ( कर्ता ) हो, वहाँ 'कारक-दीपक' अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--कवित्त ।
खुने मन हु की, खुनि सेस हु घुने है सीस,
ये ही खुख परस-समे को सरसावैरी। देखि रूट लेत उर-आसय समेत, षट
स्वाद रसना तें श्रति सरस बताबेरी॥ गंध-गुन-औगुन गनावै दूर ही ते चित्त,
चंचल की चाल पल-पल की जनावे री । पाँचो इंद्रियन के ओऔ मन के अनेक, एक
नेनन नलिन-नेनी नाटक नचावेरी॥
यहाँ श्रोत्रादि पाँचों इंद्रियों एवं मन के क्रमश: श्रवणादि एवं संकल्प-विकल्प विषयों या कार्यां को अपने नेत्रों द्वारा करनेवाली एक श्रीराधिकाजी दी कह्दी गई हैं । २ पुनः यथा--कवित्त । कंस ते पिता को बंस द्ोन-सुत-श्रस्त्र ह॒ तें, अंस अभिमन्यू को! उबारो अघ-हीनो तें।
पूतनादि पातकी बिदूरथ लों मारि, कौरू- पांडुन भिराइ भूमि-भार दूर कीनो ते ॥
$ परीक्षित ।
माला-दी एक १५७
मातु - शुरु - बिप्र- पुत्र' मृतक मिलाए आनि, उद्धव बिज' को गढ़ ज्ञान, भक्ति दी नो तें। रास ब्रजनारिन लौं द्वारका विहारन लों, कान्ह ! अवतार कोटि कारन लौं लीनो तें ॥ यहाँ मी 'कंस के अत्याचारों से अपने पिता वसुदेवजी के वंश को उबारना” आदि क्रम पूर्वक अनेक क्रियाओं के कतो एक श्रीकृष्ण दी कह्दे गए हैं ।
३ पुनः यथा--दोहा । पूरन सकल विलास रख, सरस पुत्र-फल - दान | अंत होइ खसहगामिनी, नेह-नारि को मान॥ --चंद बरदाई । यहाँ भी क्रमशः दास-बिलास की पूर्ति, सुपत्रोत्पत्ति एवं अंत में सहगामिनी ( सती ) होना, इन तीन क्रियाओं की करनेवाली एक धर्मपत्नी कद्दी गई है । --०शै७-+
(१७) माला-दीपक जहाँ वर्ण्य-अवण्य की एक क्रिया का शहीत-पुक्त- रीति से व्यवहार किया जाय, वहाँ माला-दीपक' अलं- कार होता है ।'
+ माता देवकी के पुत्र, गुरु खांदीपनि के पुत्र और एक ब्राह्मण का पुत्र। २ अर्जुन। ३ नवधा ( भक्ति )। ४ यह अलंकार “दीपक के भौर “एकावली? की गृद्दीत-मुक्त-रीति के संयोग से होता है ।
१५४८ - भारती-भूषण
पल
१ उदाहरण यथा--सोरठा । प्रान-परायन देह, देह-परायन रूप -रँग। रूप-परायन नेह, नेह-परायन पिय-प्रिया ॥ यहाँ पू्व-गृद्दीत 'प्रान! शब्द का त्याग करके एक ही 'परायन! क्रिया से देह” शब्द का प्रहण किया गया है; और शेष वर्णन भी इसी प्रकार है । हि २ पुनः यथा--दोहा । | भू-मंडल में ब्रज बसत,त्रज मैं खुंदर स्याम। सुंदर स्याम-स्व॒रूप में, मो मन आठों जाम॥ --राजा रामसिंद ( नरवलूगढ़ )। यहाँ भी भू-मंडल में त्रज, ब्रज में श्यामसुंदर और श्यामसुंद्र में कवि के मन का रहना गृद्दीत-मुक्त-रीति से कद्दा गया है; और इनमें एक द्वी क्रिया 'बसत! का प्रयोग हुआ है । माला-दी पक-माला १ उदाहरण यथा--सबैया । बात को दीप दिया को पतंग पतंग को तेज कहाँ लो जगैहें । ग्राव' को कुंद जु कुंद को फुंदन फुंद को मोती कहा लों रहेहें ॥ पात को बुंदन बुंद-प्रसून प्रसून मैं बास कहाँ खगि रेहें।
साधन गुंज-प्रबोन तजे तब' प्रान कपूर की ज्यों उड़ि जेहे ॥ --भ्रवीण सागर ।
यहाँ प्रथम चरण में 'बात” शब्द का त्याग करके दीप! शब्द का और फिर 'दीप' का त्याग करके पतंग” का ग्रहण “कहाँ लों जगैहैं! इस एक ही क्रिया द्वारा हुआ है। इसी प्रकार द्वितीय एवं सृतीय चरण में भी है; अतः यद्द माला है ।
$ पल्थर | २ साधन कालीमरिच रूपी राजकुमारी प्रवीण ने जब स्थाग दिया, तब ।
आदुत्ति-दो पक श्ष&
सूच चंद्रालोकः में इस 'माला-दीपक! अलंकार को एकावलछी के समीप स्थान दिया गया हैं; किंतु कई ग्रंथों में इसे 'दीपक के समीप रखा गया है; और इसके नाम में ही 'दीपकः है; क्रतः यह “दीपक! से द्वी विशेष संबंध रखता है । --+ ४४४०: घ८ डी. "« (१०) आबवृत्ति-दीपक जहाँ क्रिया-राब्दों की आहृत्ति ( एक से अधिक बार प्रयोग 98।# बढाँ 'आहचि-दीपक' अलंकार होता है । इसके तीन भेद हैं-- १ पदावृतक्ति-दी पक जिपतवें एक ही क्रिया-पद की आहत्ति हों; और उन क्रिया शब्दों के भिन्न-मिन्न अर्थ होते हों । १ बदाहर्ण यथा--दोहा । द्रवत न तन हू पे तनक, द्वत नजे रन त्यागि। लहत न तन पुनि ते अनत, यह अंतिम तन त्यागि॥ यहाँ क्रिया-वाची एक ही 'द्रव॒त' शब्द दो बार आया है; और दोनों के 'पिघलना! एवं 'भागना' भिन्न-मिन्न अथ हुए हें । २ पुन; यथा--दोहा | 'पमिहारी पानी भरत, तृ कत भरत उसास। डग न भरत मग रुकि रह्यो, कहु पंथी ! किहि आख १ ॥ यहाँ भो क्रिया-वाची भरत” शब्द का तीन बार प्रयोग हुआ है; और इनके क्रमशः '( पानी ) भरना”, “( उच्छास ) मारना एवं '( पैर आगे को ) बढ़ाना' भिन्न-भिन्न अथ हुए हैं।
१६० भारती-भूषण
३ पुनः यथा--दोह्दा ।
जागत हौ तुम जगत मैं, भावर्सिह ! बर-बान।
जागत गिरिवर - कंदरनि, तव अ्रि तज्ञि अभिमान ॥
--मतिराम । यहाँ भी 'जागत' क्रिया-शब्द का दो बार व्यवह्ार हुआ है; आर इनके 'प्रकाशित रहना' तथा निद्रा न आना! भिन्न-भिन्न
: अथ हुए हैं ।
सूचना--यह अलंकार पर्वोक्त 'बमकः अलंकार का रूपांतर मात्र है; किंतु इन दोनों में यद्द श्रंतर रखा गया है कि क्रिया-पद की आवृत्ति से पदाबत्ति-दीपक' और अक्रिया-पद् की भावत्ति से यमकः अलंकार
होता. है. २ अधीध्ृत्ति-दीपक
जिसमें एक अर्थ-वाचक भिन्न-भिन्न क्रिया-शब्दों की
आहत्ति हो । १ उदाहरण यथा--सवेया ।
सोहत सर्बंसहा' सिव-सेल ते, सेल हु काम - लतान - उमंग ते । काम-लता बिलसे जगदंब ते, अंब हु संकर के अरघंग तें॥ संकर-अंग हु उत्तमअंग' ते, उत्तमअंग हु चंद्-प्रसंग ते। चंद जटान के जूटन राजत, जूट जटान के गंग-तरंग ते॥
यहाँ 'सोहत” 'बिलसे! एवं 'राजत' ये तीन भिन्न-भिन्न क्रिया- शब्द हैं; पर ठीनों एक द्वी अर्थ 'शोभित द्वोना' में प्रयुक्त हुए हैं ।
4 पृथ्वी । २ मस्तक ।
आवृत्ति -दीपक १६१
२ पुनः यथा--कवित्त ।
दोऊ दुहँ चाहेँ दोऊ दुदुंन सराहे सदा,
दोऊ रहें लोलुप दुह्ेँन छुबि न्यारी के। एके भणए रहें नेन मन प्रान दोहन के,
रखसिक बनेई रहें दोझऊ रख-क्यारी के ॥ 'हरि औध' केवल दिखात दे सरीर ही है,
नातो भाव दीखे हैं महेस-गिरि-बारी के । प्रान-प्यारे-चित मैं निवास प्रान-प्यारी रखे,
प्रान-प्यारो बसत हिये मैं प्रान-प्यारी के ॥
--पं० अयोध्या्िंह उपाध्याय । यहाँ भी चतुर्थ चरण में निवास रखे! एवं 'बसत” एकाथे- वाचक, पर भिन्न-भिन्न क्रिया-शब्द प्रयुक्त हुए हैं । ३ पदाथो्ृत्ति-दीपक
जिसमें पद और अर्थ दोनों की अछृत्ति हो, अर्थात् वही क्रिया-पद उसी अथे में एक से अधिक बार व्यवहृत हुआ हो ।
१ उदाहरण यथा--दोह्दा । विषयिन के संतोष नहिं, नहिं लोभिन के लाज। बार - बघुन के नेह नहिं, नहि नद्ियन के पाज ॥
यहाँ 'नहिं” क्रिया-पद् का एक ही अथे में चार बार व्यवद्दार किया गया है ।
११
श्द्र भारती भूषण
२ पुत्र: यथा--कवित्त ।
संपति के आखर ते पाँय में लिखे हैँ, लिखे
भ्रुव-भार थाँमिबे के भुजनि बिखाल मैं। हिय में लिखे हैं हरि-मूरति बसाइबे को,
हरि-नाम आखर सो रखना रखाल में ॥ आँखिन मैं आखर लिखे हैं. कदै 'रघुनाथ',
राखिबे को दृष्टि सब ही के प्रतिपाल मैं । सकल दिसान बस करिबे फे आखर ते,
भूप बरिबंड के बिधाता लिखे भाल मैं ॥
--रघुनाथ । यहाँ भी 'लिखे' क्रिया-शब्द का एक ही अर्थ में अनेक बार प्रयोग हुआ है । ३ पुनः यथा--कवित्त ।
फोरि डारों फलक' जमीन जोरि डारों बल,
बारिध में वेरिन' के बूंद बोरि डारों मैं । रोरि डारों रन घन घोरि डारों बन्नी-बन्ञ,
छोरि डारों बारिध-म्रजाद तोरि डारों मैं ॥ ध्वधविहारी' रामचंद्र को हुकुम पाऊँ,
संद को निचोरि मेरू को मरोरि डारों में । मोरि डारों मान, मानी सूढ़ महिपालन की
नाक तोरि डारों ओ पिनाक तोरि डारों मैं ॥
--अवधधिहारी । यहाँ भी लक्ष्मणजो की उक्ति में 'डारों? क्रिया-शब्द् एक दी जर्थ में अनेक बार आया है ।
$ आाकःश ।
>> प-ज लत 2 ४.न3 लक तल 5 लत ७त 5 > >जत+
आवृत्ति-दीपक श्६३
पद्थोवृत्ति-दी पक-साला १ उदाहरण यथा--कवित्त ।
दोरे काल कंक' करतारी कर ताएरी दें-दे, दौरी काली किलकत खुधा की तरंग सौं।
कहे 'हरिकेस' दंत पीसत खबीस' दौरे, दौरे मंडलीक गीध गीदर उमंग सौं॥
बीर जयसिंह | जंग-जालम सु कौनपर, फरकाई शभ्रुज्ञ त्यों चढ़ाई भौंहें भंग सों।
भंग डारि मुख सो, भुजन सौं भ्रुजंग डारि, हर्षि हर दौरे, डारि गौरी अरधंग सों॥ +हरिकेश ।
यहाँ दौरे! क्रिया-पद का 'दौइना” अर्थ में चार बार एवं डारि! क्रिया-पद् का 'डालना” अथे में तीन बार प्रयोग हुआ है । दो जगद्द यद्दी चमत्कार द्योने के कारण यह माला है । सूचना--य्ह्द अलंकार एक प्रकार का पूर्वोक्त 'शब्दावृत्ति-छाटा- . चुप्रासः ही है; किंतु क्रिया-शव्द की आवृत्ति में 'पदार्थाद्वत्ति-दी पक? और अक्रिया-शब्द की आव्रत्ति में 'शब्दाबूत्ति-लाटानुप्रास” जानना चाहिए। विशेष सूचना--दक्त चार दीपक अलंकारों के अतिरिक्त 'देहरी-दीपक' नामक अलंकार का विहारी-लतसई की टीका लाल-चंद्रिका में एवं अलंकार-मंजूष। में यद्द लक्षण लिखा है-- “परे एक पद् बीच में, दुहूँ दिसि लागे स्रोइ। सो है 'दीपक-देहरी', जानत दैं सब कोइ ॥”? किंतु किसी अन्य ग्रंथ में यह नहीं पाया जाता; और हमको इसमें कोई ऐसा चमत्कार नहीं दिखाई देता जिससे इसकी अलग गणना की ज़ा सके क्योंकि इसमें जो पद देद्दरी-दीपकवत् आता $ पक्षी-विशेष । २ प्रेत-विशेष ।
श्द्ड भारती-भूषण
है वह दो पत्तों में ग्रद्दीत होता है; इस प्रकार उस पद की एक तरदद से आवृत्ति हो जाती है; अतः यह 'पदाथोबृत्ति-दीपक” का एक संत्तिप्त स्वरूप द्वी है। सुतरां इसका दिग्दशन मात्र करा देते हैं-- १ उदाहरण यथा--फवित्त | विरखि बिरंचि ने प्रपंतच पंचभूतन ते, रचना विचित्र लोक लोकप घनेरे की। जीव जड़ जंगम भ्रुजंगम अगूढ़ बरनों कहाँ लो मतिसूढ़ बिन बेरे की! ॥ पूरन लो काम, श्रम हरन तमाम तथा हेतुउपराम' यह वात मन मेरे की। भागवत ब्यास, बिनै-पत्रिका पियूष पूरि छुलसी, बनाई त्यों निकाई मुख तेरे की ॥ यहाँ ' बनाई” क्रिया-पद “देहरी-दीपक” है । यह भागवत आर विनय-पत्रिका बनाई एवं 'मुख की निकाई बनाई” दोनों तरफ देहरी-दीपकवत् प्रकाश डालता है । २ पुनः यथा--सोरठा । बंदर्ड विधि-पद्-रेछु, भव-सागर जेहि कीन्ह जहेँ। संत सुधा, ससि घेलु, प्रगटे खल बिष बारुनी ॥ 9 --रामचरित-मानस । यहाँ भी 'प्रगटे! क्रिया-शब्द मध्य में है; और पू्े के “ संत सुधा, ससि थेजु” एवं उत्तर के 'खल बिष बारुनी! दोनों में समान रूप से लगता है ।
>>डब>४ च७79४++ $ बिना पते की । २ शांति ।
प्रतिवस्तूपमा श्द्प
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(१६) प्रतिवस्तृपमा जहाँ उपमेय-उपमान वाक्यों में एक ही घम का एकाथ-वाची भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा वणंन किया जाय, वहाँ 'प्रतिवस्तूपमा' अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--कवित्त-चरण । स्यामल घटा में ज्यों चमंक चपला की चारु, नीले दुपटा मैं त्यों दमंक ढुति पीली की | & यहाँ नीला दुपट्टा और श्रीराधिकाजी की पीली अंगनयुति उपमेय और श्यामल घटा एवं चपलां की चमक उपमान-वाक्य हैं । इनका 'चमंक' एवं 'दमंक' एकार्थ-वाची शब्दों से एक दी धर्म 'वमकना' कह्दा गया है । २ पुनः यथा--दोहा । वीती बरबा-काल अब, आई खसरद् खुज्ाति। गई आऑधारी, होति है, चारू चाँदनी राति॥ --केशवदास । यहाँ भी वषो-काल एवं शरदू-ऋतु उपमेय और “अँधारी' ब॑ं 'चाँदनी राति” उपमान-वाक्य हैं | इनके क्रमशः बीती” एवं गई” और “आई एवं 'होति है? एकार्थ-बाची भिन्न-भिन्न शब्दों
छारा चला जाना एवं आना एक-एक ही धर्म कद्दे गए हैं। दो होने के कारण माला है ।
& पूरा पद्म 'श्वभावोक्ति” की सूचना में देखिए ।
१९६ भारती-भ्रूखण
५ पह अलंकार वैधम्य ( जिसमें विधि एवं निषेध रूप धर्म एकार्थ-वाची भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा जाय ) से भी होता है--
१ उदादरण यथा--दोहा । तजत न सज्जन याँद गहि, कियो हु अंगीकार ।
अंक मयंक, भुजंग भव, धरत धरनि मल्न-भार ॥
यहाँ सज्जन का व्यवहार उपसेय और चंद्रसा, शंकर एवं पृथ्वी का व्यवहार उपमान-वाक्य हैं, इनका 'तजत न! (निषेध रूप ) तथा 'धरत” ( विधि रूप ) एकार्थ-वाची भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म 'नहीं छोड़ना' कद्दा गया है । २ पुनः यथा--दोहाद्ध । विष-धर साँप न सेइए, तजिए बैनहि. कूर। व +-अलंकार-आइशायय । यहाँ भी क्र्र वचन! उपमेय और 'विष-धर साँप! उपमान-वाक्य हैं, इनका 'तजिए? (विधि रूप) एवं 'न सेइए' (निषेध रूप) एकार्थ- वाची भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म 'त्यागना' कद्दा गया है । सूचना“-( १ ) इस अलंकार में वस्तु-प्रतिवस्तु-भाव ( जुदे-ज॒दे झब्दों द्वारा एक मे कहा जाना ) होता है; इसीसे इसको 'अतिवस्तृपसा! . कहा गया है। (२) इस 'प्रतिवस्तृपमा” अर्लक्वार की तरद्द पूर्वोक्त 'र्थावृत्ति-दीपक? में भी भिन्न-मिन्न शब्दों द्वारा एक ही धम कहा जाता हे; किंतु वहाँ | डपमेय-उपमान-वाक्य नहीं होते; और यहाँ होते हैं ।
रष्ांत १६७
(२०) दृष्टांत जहाँ उपमेय-उपमान-वाक्पों और इनके साधारण धर्मों का विंब-प्रतिविंव भाव ' हो, अर्थात् उपमेय-वाक्य को उपमान-बाक्य से दृष्टांत दिया जाय, वहाँ दृष्टां! अलंकार
होता है।
१ उदाहरण यथा--दोहा ।
दोन दरिद्विन दुखिन को, कर्त न प्रभु अपकार |
केहरि कबहूँ कि कृमिन पे, करतल करत प्रहार ॥
यहाँ पुज्रौद्ध उपमे य-वाक्य एवं उत्तरा्धू उपमान-वाक््य है; और अपकार (तिरस्कार ) न करना' एवं "प्रहार न करना' ये उन दोनों के भिन्नमिन्न साधारण घमम हैं । इन सबका अिंब-प्रतिविंब- भाव है, अथोत् उपमेय-वासक््य को उपसान-बाक््य से दृष्टांत दिया गया है ।
२ पुनः यथा-दोहा । तुम तारत अपनी प्रजहिं, कहा अधिक उपकार। बारिहु बोरत दारू नहिं, अपनो अंग विचार ॥
३ पथिब! किप्ती लैजल पदार्थ के मंडरु को पुवं 'अतिबित्र! उस ब्रिंब के भाभास (अक्स) को कहते हैं । जैसे --'राजा में उसी प्रकार प्रताप है, जिस प्रकार सूर्य में तेज”! इस वाक्य में राजा उपमेय एवं प्रताप इसका धर्म है, यह दोनों बिंब हैं, तथा सूर्य उपमान एवं तेज उसका धर्म है, जो दोनों प्रतिबिंब हैं। यहाँ राजा उपमेय एवं सूर्य उपमान का कौर इनके प्रताप एवं लेज् साधारण धर्मों का द्वष्टांत (नज़ीर) रूप से वर्णन हुआ ह्दे। इसीको अ्िंब-प्रतित्रिंब-भाव कद्दते हैं । २ काष्ठ
श्द्ट्द भारती-भूषण
यहाँ भी पूवोद्ध उपमेंय-बाक्य एवं उत्तराद्ध उपमान-वाक्य है; और 'तारना' एवं “न डुबोना! ये उन दोनों के भिन्न-भिन्न साधारण धमे हैं । इन सबक्ता विंब-प्रतिबिंब-भाव से वर्णन है ।
३ पुनः यथा--सवैया ।
हों सुख पाइ सिखाइ रही सिख सीखे न ये सिख तेँ हूँ सिखाई । मैं बहुते दुख पाई हूँ देखे ये 'केसब' क्यों हूँ कुटेव न जाई ॥ दंड दिए बिन साधुन हूँ सँग छूटत क्यों खल की खलताई। देखहु दे मधु की पुट कोटि मिटे न घटै विष की बिषताई॥ --केशवदास । यहाँ भी टृतीय चरण में उप्मेय-वाक्य एवं चतुर्थ चरण में उपमान-वाक्य है, इनके दुष्टता न छूटना' एवं 'विषता न जाना!
भिन्न-भिन्न साधारण धर्म हैं। इन सबका बिंब-प्रतित्रिंब-भाव है।
9 पुनः यथा--दोहा । _, भरतहिं होइ न राज-मद, विधि-हरि-हर-पद पाइ। कवहूँ कि कॉजी-सीकरनि, छीर-सिंचु बिनसाइ॥ --रामचरित-मानस । यहाँ भी पूत्रौद्धे उपमेय-वाक्य एवं उत्तराद्ध उपसान-वाक्य है; और “गये न द्योना! तथा 'न फटना! इनके भिन्न-भिन्न साधारण घमम हैं । इन सबका विंब-प्रतिबिंब-भांव है । । सूचना---एरवोक्त “प्रतिवस्तृयमा? अलंकार में तो उपमेय-उपसान ; दोनों व/क्यों का शब्द-भेद से एकार्थ-वाची एक धमं कद्दा जाता है; और ; इसमें दोनों वाक्यों के मिन्न-भिन्न धर्म होते हैं तथा उनमें किंव-प्रतिर्यित्- ( द्वशंत )-भाव रहता है ।
डर्शांत रच
विशेष सूचन[--किसी-किसी भाषा-प्रंथ में इस 'दृष्टांता अलंकार के साथ ही “उदाहरण” नामक अलंकार भी अलग मानकर वा उसझे भेद की भाँति इस आधार पर लिखा दै कि इसको भ्राचीनों ने भिन्न माना है; और यद्द लक्षण लिखा दै--
“ज्यों, यों, जैसे कद्दि करिय, युग घटना सम तूल। “उदाहरन!' भूषन कहैं, ताहि सुकवि बुधि-मूल ॥”
जज
किंतु संस्कृत एवं भाषा के प्रायः अलंकार-प्रंथों में यह भिन्न नहीं माना गया है; और केवल ब्यों, जिमि आदि वाचकों का होना यान होना उसकी भिन्ननाणना करने के लिये पर्याप्त कारण नहीं है; अतः यहाँ उसका दिग्दशेन मात्र करा देते हैं---
१ उदाहरण यथा--सवैया ।
सक्र सुधाकर आदित आदि खुधाद' खुधा के सवाद सँतोषनि। ज्ञो जन जान्दवी -तीर बसें नित ता ज्ञल को जो दले दुख दोषनि॥ जानि अरोचक, गोरस चाखन चाहें पियो पय कप अहो !खनि। पाठक त्यों मम भाषित लौं अभिलाषहिंगे लखि लाख अनोखनि |। यहाँ कविता के पाठकों का वृत्तात उपमेय-वाक्य और देवगण एवं गंगातट निवासियों का वृत्तांत उपमान-वाक्य है । तथा इस कविता को पढ़ना' उपमेय का और “गोरस चखना एवं 'कूप-जल पीना” उपमानों के भिन्न-भिन्न साधारण धर्म हैं। इन सब का बिंब- प्रतित्रिंब-भाव से वाचक-शब्द 'त्यौं' के द्वारा वर्णन हुआ है ।
१ देवता । २ गंगा ।
१७० भारती-भ्रूषण
२ पुनः यथा--चौपाई (अद्भ ) । पर श्रकाज्ञु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम-उपल कृषी दलि गरहीं॥ ““राप्रचरित-्मरानस । यहाँ भी समाहत ' खल का बृत्तांत उपमेय-बराक्य एवं हिम-उपल (बरफ)-ब्ृत्तांतव उपमान-वाक्य है; और “शरीर त्याग देना! उप- मेय का एवं “नष्ट हो जाना! उपमान का भिन्न-भिन्न धर्म है। इन सबका विंब-प्रतिव्रिंब-भाव से वाचक-शब्द 'जिपि! के द्वारा वर्णन हुआ है । ३ पुनः यथा--दोहा । खेत बनाइ किसान यौं, करत मेह-अवसेर। वासकसज्ञा बाम ज्यों, रहति कंत-मग हेर॥ राय देवीप्रसाद 'पूर्ण!। यहाँ भी किसान का व्रृत्तांत उपमेय वाक्य एवं वासकशय्या नायिका का वृत्तांत उपमान-जाक्य है, और “वो की प्रतीक्षा करना! उपसेय का एवं 'नायक की राह देखना” उपमान का, भिन्न-भिन्न धर्म है। इन सबका बिंब-प्रतििब-भाव से, यों? ब्यों' धाचक-शब्दों द्वारा वर्णन हुआ है । ४ पुनः यथा--दोहा । मिसरी माहँ मेल करे, माल बिकराना बंस। यौं 'दादू! महिंगा भया, पारब्रह्म मिलि हंस॥ “-दादुदयाल 4 यहाँ भी 'पारअद्या मिलि हंध! उपमेय-वाक्य एवं 'मिसरी माहँ
१ ऊपर से लाए हुप् ।
निद्शना १७१
मेल करि, बंस' उपमान-बाक््य है। 'महिया भया' डपमेय का और (मिखरी के भाव) माल बिकाना' उपमान का भिन्न-भिन्न धर्म है । इन सबका बिंब-प्रतिबिंब-भाव से वाचक-शब्द थयों' द्वारा वर्णन
हुआ है । *क99-+-4-4<€६&-
(२१) निदर्शना जहाँ उपमेय-उपमान-वाक्यों के अरथों में मिन्नता होते हुए भी एक पें दूसरे का इस प्रकार से आरोप किया जाय, जिससे उनमें समानता जान पड़े, वहाँ “निदशेना' झलंकार होता है| इसके तीन भेद हैं-- १ प्रथम निद्शना जिसमें उपमेय-उपमान-वाक्यों के समान अर्थों का अमेद आरोप हो (अर्थात् दोनों की एकता कही जाय )। ऐसा आरोप प्रायः जे' 'ते! “जो” 'सो” आदि वाचक- शब्दों के द्वारा होता है। इसको “वाक््पार्थ-टत्ति” निदशना भी कहते हैं । १ उदाहरण यथा--दोहा ।
वरनत नायक -नांयिका, हरि-राधा तजि आन। सो कवि त्यागत कल्पतरु, थूहए गहत अजान॥ ;
यहाँ “आ्रीकृष्ण एवं राधिका को छोड़कर किसी अन्य नायक-नायिका का वर्णन किया जाना” उपमेय-वाक््य दै, जिसमें
श्ज२् भारती-भूषण
सो धाचक-शब्द द्वारा “कल्पवृक्ष को छोड़कर थूहर को भ्रहण करना” उपमान-वाक्य के समान अथ का अभेद आरोप
हुआ है। २ पुनः यथा--चौपाई ।
जे असि भगति जानि परिहरही । केवल ज्ञान हेतु श्रम करहाँ।
ते जड़ कामधेनु गृह त्यागी । खोज़त:आक फिरहि पय लागी॥
--रामचरित-मानस ।
यहाँ भी “भक्ति को त्यागकर ज्ञान के लिये श्रम करना ”?
उपमेय-वाक्य में “कामधेनु को छोड़कर आक को ढूँढ़ना'” उपमान- वाक्य का जे, ते, वाचक द्वारा अभेद आरोप हुआ है ।
३ पुनः यथा--सवैया ।
डुलंभ या नर-देह अमोलक पाइ अजान अकारथ खोबै।
सो मतिहीन बिबेक बिना नर साज मतंगहि इंधन ढोचै॥
कंचन -भाजन धूरि भरे सठ मूढ़ सुधारल सौँ पग धोवे।
बोहित काग उड़ावन कारन डारि महा मनि सरख रोबे॥
--अलंकार-आशय ।
यहाँ भी “दुलेभ मनुष्य-रेह पाकर उसे व्यर्थ गेवाना” उपमेय-
/ वाक्य है, जिसमें 'सो! वाचक-शब्द द्वारा “दाथी पर ईंधन ढोना”,
“स्वर्ण-पात्र में धूलि भरना”, “अमृत से पाँव घोना” और
“जद्दाज पर से काग को उड़ाने के निमित्त मणि को फेंकना” उप- आन-वाक््यों का अभेद आरोप हुआ है।
यह अलंकार वाचक-शब्दों के बिना भी होता है;
निद्शेना श्ज्३
ज्न्य्््््््य्व््ल्ल््ल्् जज डा
किंतु ऐसे स्थल पर वाचक-शब्दों का समाहार किया जाता है--
१ उदाहरण यथा--खवैया ।
भरिवो है समुद्र को संबुक' मैं,छिति को छियुनी' पर धारिवों है । बँधिवों है म्नाल सौं मत्त करी, ज्ुही-फूल सो सेल विदारियो है ॥ गनियो है सितारन को कवि 'संकर' रेनु सों तेल निकारिवो है। कविता समुझाइवो मूढन को, सविता गहि भूमि पै डारिबो है ॥ +-पं० नाधराम शंकर शर्मा । यहाँ 'मूखों को कविता सममलाना' उपमेय-वाक्य है, जिसमें संयूक में समुद्र भरना' आदि सात उपमान-वाक्यों का विना
बाचक-शब्द के आरोप हुआ दे ।
२ द्वितीय निदश ना जिसमें उपभेय के गुण का उपमान में अथवा उपमान के ग्रुण का उपमेय में अभेद आरोप किया जाय | इसको “दार्थ-हचि' निदर्शना भी कहते हें । इसके दो भेद हैं-- ( के ) उपमेय के गुण का उपमान में आरोप | १ उदाहरण यथा--दोहा
मेघन, घन मेचक वरन, गाज-गज़ारि गँभीर। जग जीवन'-बितरन, दिए, अपने ग्रुन रघुबीर ॥
$ अकथित शब्दार्थ बाहर से लाकर रूगाया जाय। २ सीप । ३ कनि- छिका श्रेंगुली । ४ प्राण तथा जल ।
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१७७ भारती-भ्ूषण
यहाँ श्रीरधुनाथजी उपमेय के गदरे श्याम करण, सिंद्द के समान गंभीर-नाद, एवं जगज्जीवन-दातृत्व, गुणों का मेध छपमान में आरोप हुआ है । २ पुनः यथा--कवित्त । प्यारी ! तेरे अंगन की उमगी खुबास खोई, लागी हरिचंदन' में इंदिरा के घर ' में । मालती-लता-बन में खेवती गुलाबन मैं, सगमद घनसार अंबर अगर मेंँ॥ डउभलि-उकलि छबि छाई पुनि छिति पर, देखियत सोई मनि-मानिक-निकर में। चंपक-बनी में ओऔ चिराग की झअनी में,
चारु चंद की कला मैं चपला में चामीकर' मैं ॥ --अलंकार-भाशय ।
यहाँ भी नायिका के अंग उपमेय के सुवास गुण का दरि- चंदन आदि उपमानों में और देह-दुति गुण का मणि आदि उप- मानों में आरोप हुआ है | ३ पुनः यथा--चौपाई । जेहि दिन दसन-जोति निरमई । बहुतै जोति जोति ओहि भई ॥ रविससि नखत दिपहि ओदि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती ॥।
जहँ-जहँ बिहँसि सुभावहिं हँलो। तहँ-तहँ छिट कि जोति परगसी॥ --मलिक मुहम्मदजायधी ।
यहाँ भी रानी पद्मावती की दंत-ज्योति उपमेय के प्रकाश गुण का खूर्य आदि उपमानों में आरोप किया गया है ।
$ देवबृक्ष । २ कमल । ३ सुबर्ण ।
निदर्शना श्ज्ष्
>> +
(ख़) उपमान के गुण का उपमेय में आरोप ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । पारस की खुबरन-करन', वारिद-वरसन-वान | धनद् -कोष की सरसता', राम-पानि पहिचान ॥ यहाँ पारस, वारिद और धनद-कोष उपमानों के क्रमशः सुबर्ण करने, वरसने और सरसता गुणों का श्रीरघुनाथजी के हाथ उपभेय में आरोप किया गया है । २ पुनः यथा--कवित्त । भारती को देखा नहीं कैसा है स्पा का रूप, केवल कथाओं में ही खुने चले आते हैं। सीताजी का शील सत्य, वैभव शची का कहीं, किसी ने लखा छी नहीं अंथ ही बताते हैं ॥ “दीन! दमयंती की सहन-शोलता की कथा , ४ भूठी है कि सच्ची कौन जाने कवि गाते हैं । इंदूपुर-यासिनी प्रकाशिनी मल्हास्वंश, मातु श्रीअहल्या में सभी के गुख पाते हैं ॥ --छाला भगवानदीन । यहाँ भी अहस्या वाई उपमेय में भारती, रमा, सीता, शची ओर दमयंती उपमानों के गुणों का आरोप किया गया है । इस भेद् की माला १ उदाहरण यथा--दोह्दा । खुज़न खभागिन के वलै, बेननि खुधा-मिठास। कुसखुम-ऋरन कल हाल मैं, मुख मैं चंद-प्रकास ॥ $ स्पश द्वारा स्वर्ण करने की । २ कुबेर के खनाने का भ्क्षयत्व गुण ।
१७६ भारती-भूषण
यहाँ वचन, द्वास एवं मुख उपमेयों में क्रमशः अमृत, पुष्फ एवं चंद्रमा उपसानों के मिठास, मड़ने एवं प्रकाश गुरणों का आरोप किया गया है; अतः माला है ।
२ पुनः यथा--सवैया । ब्याल,सनाल सुडाल कराकृति, भावतेजू की भुजान में देख्यो । आरखसी सारसी ' सूर ससी दुति आनन-आनेंदखान में देख्यो।॥ मैं उग मीन सनालन की छुबि 'दास' उन्हीं अँखियान में देख्यो । जो रस ऊख मयूख पियूष मैं सो हरि की बतियान मैं देख्यो ॥ --भिखारीदास ।
यहाँ भी प्रथम चरण में व्याल, मृणाल, डाल एवं सूँड़ उप- मानों का आकृतिवाला गुण भुजा उपमेय में स्थापित हुआ है । इसी प्रकार शेष तीनों चरणों में भी हैं; अतः माला दै ।
३ तृतीय निदशेना जिसमें अपनी सत् या असत् ( भली, बुरी) क्रिया से अन्य को सत् या असत् अर्थ (व्यवहार) की शिक्षा दी जाय | १ उदाहरण यथा--छ्पय ।
यद्यपि संत हु सहत कष्ट किहिं कर्मे-डदय ते । तद॒पि होत उन्नत अवस्य पुनि तप-संचय ते ॥ देखिय दुष्ट दिगंत-भूमि भोगत समस्त खुख | किंतु होत खंतान-प्रान-ज्रुत अंत अस्त खुख ॥ मुनि बालमीकि-नारद-चरित उक्ताखय उत्तम कहत। परिनाम - पाप, लंकेस अरु कंस - अखुर -चरितन लहत।॥
$ कमलिनी ।
निदशना १७७ यहाँ “संतों का किसी प्रकार कष्ट सहकर भी अंत में उन्नत हो जाना” और “ुष्टों का साम्राज्यादि सुख भोगकर भा अंत में बिलकुल नष्ट दो जाना” उपमेय-वाक्य हैं, जिनके सतू और असत् अथ्थी की शिक्षा अन्यों को महर्षि वाल्मीकि एवं देवर्षि नारद के और रावण एवं कंस के चरित्रों (जो उपतान-वाक््य हैं ) की क्रियाएँ देती हैं. । २ पुनः यथा--दोहा । तप-बल पद पावें अचल, खीन पुन्य गिरि जाइ। उन्नत हें भव कहत आरु, उडु गिरि रहे बताइ ॥ यहाँ भी भक्त भ्रव के उन्नत द्वोने की क्रिया के द्वारा और अन्य तागओं के टूटकर गिर पड़ने की क्रिया के द्वारा क्रमशः तपोबल- से उच्च पद पाने रूप सदर्थ की और क्षीण्प-पुण्य से गिरने रूप अख- दूर्थ की शिक्षा देना कद्दा गया है । ३ पुनः यथा--दोदा । तजि आसा तन प्रान की, दोपहि मिलत पतंग। द्रसावत सब नरन को, परम प्रेम को ढंग॥ --भिखारीदास दास? । यहाँ भी पतंग का प्राण-आशा त्यागकर दीपक से मिलने की क्रिया के द्वारा शुद्ध प्रेम के सदर्थ की शिक्षा देना कद्दा गया है । ४ पुनः यथा--दोहा । मधुप ! त्रिभंगी हम तजी, प्रगट परम करि प्रीति।
प्रगट करत सब जगत मैं, कडु कुटिलन की रीति ॥ --मतिराम ।
यहाँ भी 'कुटिलों में कुटिलता द्ोती है” इस असद्थ की शिक्षा श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों को त्याग देने की क्रिया से दी गई है। १२
श्ज८ भारती-भूषण
खूचना --प्रतिवस्तूपमा? में उपमेय-उपमाव दोनों वाक्य पुक दूसरे से निरपेक्ष होते हैं; भौर इसमें उक्त दोनों वाक्य परस्पर सापेक्ष होते हैं।
यही भिन्नता है ।
| ७० अप (२२) व्यातेरेंक जहाँ उपमेय में ( उपमान की अपेक्षा ) उत्कर्ष वा उपमान में अपकषष दिखलाने के द्वारा उपमेय की उत्कृष्टता (विशेषता) का वर्णन हो, वहाँ व्यतिरेक' अलंकार होता है । इसके दो भेद हैं-- १ प्रथम ब्यतिरेक, उपमेय में उत्कर्ष का १ उदाहरण यथा--सवैया । अंग अनंग की जोति जगै तलु-संग न भंग तजें मधुहारी । पान-प्रमान चडै मदिरा तब ध्यानहिं बीर ! महा मदकारी ॥ मान-विमोचन भौंह-कमान बिलोचन-वान कटाछु-कटारी। श्रीत्रजचंद-चितौन को चुंबक तो मुख, अंबुज-अंबकवारी !॥ यहाँ द्वितीय चरण में मद्य उपमान से नायिका उपमेय में
ध्यान मात्र' द्वारा अधिक मादकता दोने का उत्कर्ष कहा गया है । ह २ पुनः यथा--कवित्त ।
की्धों मुल-कंज में मरालबाहिनी' की मं हु,
कोमल कमल-दल-तलप' रँगीली है। कीर्धी रस-राग-रस' जाँचिबे की जंतिका है, कीधों बेद बाँचिये की बाँसुरी खुरीली है॥
4 मकर॑द-छोभी । २ कमलन्ययनी !। ३ शारदा। ४ शय्या। ५ रात
नव, राग 5 87, रस ८ टंगारादि नव रस और कट आदि षट्रस ।
व्यतिरेक १७& कीधों पटु प्रीतम छबीले छुलिया की छल गॉठ खोलिब्रे की चारु चाबी चटकीलो 6। रीकमिह रसिक लाल देजि मेरी राधाजू की, रखना रसाल' ह के रस ते रसीली हे ॥ यहाँ भी श्रीराधारानी की रसना उपमेय में आम्रफल उपसान के रस से भी अधिक रसीलापन बतलाया गया है ।
२ द्वितीय व्यतिरेक, उपमान में अपकर्ष का
१ उदाहरण यथा--ऊवित्त । लागी है न लगन बिरागी वड़भागिन के, व्योंन अलुरागिन के बाके खुमरन की। दोखत दयालुता न पातकी दुखीन दीन, के दुरित दुख दारिद दरन की॥ स्याम-मन भाई चतुराई हू न आई वबाहि, पाई प्रभुताई ना कन्हाई के करन की। ममता करें सो अरबिद की अधमता है, समता लहै ना रानी राधिका-चरन की ॥ यहाँ श्रीवृषभानु-नंदिनी के चरण डपमेय की अपेक्षा कप्रल! उपमान में 'लागी है न लगन! आदि अपकर्ष कहे गए हैं । २ पुनः यथा--कवित्त । देखि तजु-जोति बिज्छु लज्जित बिसेष होति कंपित सरीर दुरि-दुरिकै दिखायो जाइ। चपक-छुमन की सघन गंध, हाटका हु, निपट निगंध पटतर' क्यों बतायो जाइ॥
३ आम । २ पाप। ३ सुवर्ण । ४ समता।
श्र भारती-भूषय
मेटत प्रकास ज्यों उसास आरसी के लागि, अंगराग जो पे इन अंगन त्गायो जाइ। चीर लपटायौ पे सवायो तनु तेज्ञ पायौ, भीनी बद्री ते क्यों छुपाफर छिपायो जाइ॥ यहाँ भी पूर्वाद्ध में श्रीराधारानी की अंग-्युति उपमेय से बिजली, चंपक-पुष्प एवं सुबर्ण उपमानों में क्रमशः लब्जित, उग्रगंघ ओर निर्गध होने का अपकर्ष बतलाया गया है | ३ पुनः यथा--चौपाई । . गिरा मुखर तनु अरध भवानी । रति अति दुखित श्रतनु पति जानी “ बिष घाझुनी बंधु प्रिय जेही | कहिय रमा सम किमि बेदेही !॥ “--रामचरित-मानस । यहाँ भी जगज्जननी जानकीजी उपमेय से गिरा, भवानी, रति एवं रमा उपमानों में मुख्रता आदि का अपकषे कट्दा गया दे । ४ पुनः यथा--कवित्त । कोऊ बिगरी है तरी तीर मैं बनावन को, कोऊ झुधरी तो रही नाहक धरी-धरी। कोऊ प्री तो कछु दूर जाइ फेरि अरी, कोऊ सरी संग-बस नीर में परी-परी ॥ कोऊ पतरी सी बही फूल की छरी ली आप, कोऊ ऊबि ड्ूबि गई भार ते भरी-भरी । श्रीयुत नरेस चंद्रसेखरजू ! मेरे जान, रावरी तरी के तौर और ना तरी तरी ॥ --महामहोपाध्याय पं० देवीप्रसाद शुक्र कवि-चक्रवर्ती |
१ वाचाल।
ब्यतिरेक श्प्र्
यहाँ भी राजा चंद्रशेखर की तरी ( नाव ) उपमेय की अपेक्षा अन्य तरियाँ उपमानों में 'बिगरी है” आदि बर्णन से अपकर्ष दिखलाया गया है । उभय पर्यवसायी १ उदाहरण यथा--कविच । तैने दिच्य-नारी! बर बसन बिहीन कीन्ही, मैं हों दिव्य-नारी' वर वसन वरन को। तैने पथ पान कीन्हौ, ताको पुनि प्रान लीन्हौ, में हाँ पय पान कौन्ही ता हित मरन को ॥ ससकत सेस सिटि', कसकत कंप क्रिटि', चसकत पान, लख ! धसकि धरन' को। तेरो अवतार भ्रुव-भार को हरन कान्ह। मेरो अवतार भ्रुव भार सौंँ भरन कोौ।॥ & --स्व्रामी यणेशपुरीजी ( पद्मेश )। यहाँ श्रीकृष्ण उपमान में अपकृषे और कर्ण उपमेय में उत्कर्ष टिप्पणी के अनुसार वर्णित हुए हैं; अत: यह 'उभय परयवसायी' है।
3 गोविराएँ। २ अप्परा । ३ थकुकर | ४ वाराह-अवतार | ५ द्वाथ । ६ एय्वी ।
& कर्ण॑-बचन श्रीकृष्ण से-तुमने गोषियों को ( इनका चीर हरण करके ) वस्त्र विहीन किया, मैं उत्तम वख्चधारी अप्घराओं को बरने के डिये हूँ.। तुपने जिसका पय् पान किया, डली पूतना का वध किया, मैंने जिसका अन्न-जछ भक्षण किया है, उस दुर्शोधन के देतु मरने के लिये मैं उपस्थित हूँ । मेरे पराक्रम से थसती हुई श्थ्वी को तुम शेष एवं वराह रूप से धारण करने में असमय हो रहे हो। तुम्दारा अवतार भ्रू-भार हरने को और मेरा अवतार एथ्त्रो को भार से भरने के छिग्रे है, भर्थाव मेरे बोर से एथ्वी पर भार है।
श्ष्२ भारती-भूषण
सूचना--यद्यपि किसी-किसी ग्र॑ध में उपमेय की अपेक्षा उपसमान की इत्कषेता तथा उपमेय-उपमा न-वाक्यों में छिंचित् विलक्षणता के € न्यूना- घिक ) वर्णन में भी उयतिरेकः अलंकार माना है; और कह्दा है कि प्रस्तार भेद से इसके शतशः प्रकार हो सकते हैं; तथा 'भलंकार-भाशय! में इसके ३२ प्रकार के लक्षण एवं उदाहरण लिखे हैं; तथापि इन्हें अनपेक्षित सम- झते हुए हमने हृतना अधिक विस्तार न करके प्रायः प्रंथों के भजुसार यहाँ मुख्य दो द्वी सेद लिखे हैं ।
छ्श्ूछ्त्ण (२३) सहोक्ि जहाँ सह, संग, साथ आदि शब्दों की सामथ्य से एक ही क्रिया-शब्द दो अर्थों का ( एक का प्रधानता से ओऔर दूसरे का गौणता से ) बोधक हो, वहाँ “सहोक्ति' अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहा । कुल कीरति गुन मान मति, महत रहत घन-साथ | ज्ञान भक्ति तप त्याग उर, आवत सह-रघुनाथ ॥ यहाँ दो सद्दोक्तियों हैं, पूर्वाद्ध में 'रहत” क्रिया-शब्द 'साथ' शब्द की सामथ्य से धन एवं कुल दो अर्थी का बोधक हो गया है; और धन के साथ श्रघानता से तथा कुल आदि के साथ गौणता से उसका अन्वय हुआ है, इसी प्रकार उत्तराष्ध में “आवत' क्रिया-शब्द सह शब्द की सत्ता से दो अथी का सूचक हुआ है । -
सहोक्ति श्स्रे
२ पुनः यथा-सवैया । रूप अनूप लख्यो कितनो 'रघुनाथ' कहै ब्रज की वनिता को। पैनहिं ऐसो पस्यौ कोड दीठि बन्यो एह्टि भाँतिन ते सिर - पा को॥ और कहां सो सुनो चित दे एहि भाँतिन को निरख्यो गुन बाको । जात दिगंतन लो चलिकै मिलि साथ समीर के सोरभ जाको ॥ --रघुनाथ । यहाँ भी जात! क्रिया-शब्द 'साथ' शब्द की सामथ्य से समीर एवं सौरभ दो अर्थी का बोधक हो गया है; तथा समीर के साथ मुख्यता से और सौरभ के साथ गौण॒ता से उसका अन्वय हुआ है। ३ पुनः यथा--सवैया । कूकत ही हिय हक चलावति कोपि कसाइनि क्वेलिया काली । लोचन-नीर के संग बही ऋ्रज़-बालनि के कुल-कानि की डाली ॥ देखहिं कौन उपाय किए रख-सागर नागर को दग-पाली। जीवन-प्रान-अधार वही, वन बाँखुरी टेरत जो बनमाली ॥ - पं० किशोरीलाल गोस्वामी । यहाँ भी 'बही' क्रिया-शब्द संग! शब्द की सत्ता से 'लोचन- नीर! एवं 'कुल-कानि की डाली” दो अर्थी का बोधक दो गया है; ओर लोचन-नोर के साथ प्रधानता से तथा कुल-कानि को डाली के साथ गौणता से उसका अन्वय हुआ दे । सहोक्ति-माला ९ उदाहरण यथा--सवैया । मुनिनाथ के गात रुमांचन-खा थहि वो सहसा सिव-चाप डठायो । नर-नाथन के मुख-मंडल-साथहदि जो अवनी-तल-ओर नमायो ॥
$ सिर से पैर तक का ।
१८४ भारती-भूषण
22602 02030: 2:77: 20: 20 मिथिलेस-खुता-मन-साथहि त्यों गुनि खेंचिकफे जो छिन माहि चढ़ायौ गुनाथ के गये अखंडित-साथ सो खंडितकै रघुनाथ गिरायो ॥
सेठ अन््हैयालाल पोद्दार । यहाँ प्रथम चरण में 'उठायो क्रिया-शब्द साथ” शब्द की सामथ्य से शिव-चाप तथा रोमांच दो अथी का बोधक द्वो गया है. और शिव-चाप के साथ प्रधानता से एवं 'रोमांच' के साथ गौणता से उसका अन्वय हुआ है । इसी प्रकार शेष तीनों चरणों में भी वीन सहीक्तियाँ हैं; अतः मात्रा है । सूचना--'सहोक्ति! अछंकार में 'सहः आदि शब्दों के साथ चम- तकारिक ( मनोरंजरू ) अर्थ दोना आवश्यक है, साधारण वर्णन में “सह! आदि शब्द होते हुए भी यह घलूंकार नहीं होता । जैसे--“नाइ
सनिहि पिर सहित-समाजा? में चमत्कार का भभाव है । "उकश0क---
(२४) विनोक्नि जहाँ कोई प्रस्तुत किसी वस्तु के विना अशोभन अथव। किसी के विना शोभन कहा जाय, वहाँ 'विनोक्ति अलंकार होता है। इसका वाचक प्रायः 'विना' शब्द होता है; किंहु कहीं 'हीन! 'रहित' “न हो” आदि भी हो जाते हैं। इसके दो भेद हैं -- १ प्रथम विनोक्ति, अशोभन की १ उदाउरण यथा--दोहा । लसत न पिय-अनुराग बिन, तिय के सरस सिंगार। विदुषन के वेराग बिन, त्यों वेदांत-बिचार ॥
बिनोक्ति श्थ्पू
यहाँ पति के प्रेम विना स्त्री के ऋंगार की एवं वैराग्य के विना पंडितों के वेदांत-विचार ( श्रस्तुतों ) की अशोभनता कद्दी गई है। २ पुनः यथा--ऋवित्त । खुंदर सरीर होइ, महा रनघीर होइ , बीर होइ भीम सो. भिरेया आठो जाम को । गरुओ गुमान होइ, भलो सावधान होइ , सान होइ साहिवी प्रताप-पुंज-चाम को ॥ भनत 'अमान' जो पे मघवा महीप होइ , दीप होइ बंस को, जनेया गुन-प्राम को । सब गुन-ज्ञाता होइ, जद्यपि विधाता होइ , दाता जो न होइ तो हमारे कौन काम को ॥ «अमान । यहाँ भी कवि द्वारा किसी राजा में ( झुंदर शरीर आदि अनेक गुण द्ोते हुए भी )“ दाता जो न द्ोइ तो हमारे कौन काम को /” यह अशोभनता “न द्ोइ! वाचक द्वारा बतलाई गई है । विनोक्ति अशोभन की माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । ग़ुन॒ बिन धजु जैसे, गुरु विन शान जैसे , मान विन दान जैसे, जल विन सर है। कंठ बिन गीत जैसे, हेत बिन प्रीति जैसे , बेस्या रस-रीति जैसे, फूल बिन तर है॥ तार बिन जंच् जैसे, स्याने ब्रिन मंत्र जैसे , नर बिन नारि जैसे, पूत बिन घर है। 'टोडर' खुकवि जैसे , मन मैं विचारि देखो , धर्म बिन धन जैसे, पंखो बिन पर है।॥
--राजा ठोडरमऊर ।
श्षदे भारती-भूषण
यहाँ गुन बिन धनु” आदि वाक््यों में अशोभनता की बहुत सी विनोक्तियाँ हैं; अत: माला है।
२ द्वितीय विनोक्ति, शोभन की
१ उद्ादरण यथा--दोद्दा । बिन कह्नल कारे नयन, निरखि अधिक आनंद। मुख मंज़ुल दूनो द्पत, बिन मंडन' जिमि चंद ॥ यहाँ शोभन की दो विनोक्तियाँ हैं । कज्जल के विना काले
नेत्र अधिक आनंदकारी और मंडन के विना मंजुल मुख ंद्रभा की तरह दूना देदीप्यमान बतलाया गया हैं । २ पुनः यथा--दोहा । देखत दीपति दीप की, देत प्रान अरू देह। राजत एक पतंग में, बिना कपट को नेह॥ +-मतिराम । यहाँ भी पतंग का दीपक-ज्योति में बिना कपट का (पवित्र) प्रेम रखना कद्दा गया है । उभय पयेवसायी १ उदाहरण यथा--दोद्दा । लाज बिना राज़त नहीं, कुल-तिय लोचन त्याग। लाज बिना राज़त खसद्दी, गनिका हरि-जन फाग | यहाँ लज्जा के बिना कुलांगना, नेत्र और दान शोभित न दोने में ग्रशोभन की एवं लज्जा के विना वेश्या, भक्त और फाग शोभित द्वोने में शोभन की विनोक्ति है । "9५% 6:-06«
$ भाभूषण ।
4१4, 7५ । !4, ॥0::/2 7 की लि 0 0 क्र (थक /332. श्र समासोक्ति श्८ड
दमन शक लक जज
(२५) समासोक्ि जहाँ प्रस्तुतार्थ ' के वर्णन में सपानाथ-सूचक श्शिष्ट वा अछिए ( साधारण ) विशेषण-शब्दों की सत्ता से किसी पप्रस्तुताथ, का बोध होता हो, वहाँ “समासोक्ति! अलंकार होता है। इसके दो भेद हैं-- १ प्रथम समासोक्ति, स्छिष्ट शब्दों की १ उदाहरण यथ--दोहा । मुख पियूषमय सीत रुचि, ऋषि'-संभव खुचि देह। पै सस्ति सेवत बारुनी, अति अनुचित गति एह॥ यहाँ चंद्रमा का वर्णन प्रस््तुतार्थ है, जिसमें मुख पीयुषमय, शीतल रुचि, ऋषि-संभव शुचि देद एवं वारुणी ( पश्चिम दिशा और मदिरा ) सेवत, इन समानार्थ-सूचक विशेषण-शब्दों की सत्ता से किसी मथ-सेवी त्राह्मण का अग्रस्तुताथे भी प्रकट द्वोता है; और 'वारुणी सेवत! विशेषण र्छिष्ट द्ोने के कारण यह श्लेष-मूला दै ।
२ पुनः यथा--दोद्दा । सालंकार खुबने-ज़ुत, रस-निरभर गुन लीन । भावष-निबंधित जयति जग, कवि-भारती नवीन ॥ --जसवंत-जसोभूषण । यहाँ भी कवि-भारती ( बाणी ) की स्तुति प्रस्तुदार्थ के
$ जिस अर्थ का वर्णन करना हो। २ जिस भर्थ का वर्णन न करना हो। ३. घंद्रमान्पक्ष सें भ्त्रि ऋषि ।
श्ष्८ भारती-भूषण
वर्णन में अलंकार ( उपमादि चमत्कार एवं हारादि भूषण ), खुबर्ण ( सुंदर अक्षर एवं शरीर का रंग ), रस ( रूंगारादि एवं अनुराग ), गुण (माधुयोदि तथा शीलादि ), भाव ( स्थायी आदि एवं विचार ) और नवीन ( अपूर्व एवं नववयस्का ) इन श्लिष्ट विशेषणों के सादृश्य स्रे नायिका को प्रशंसावाला अप्रस्तुता्य भी प्रतीत द्वोता है ।
२ द्वितीय समासोक्ति, अश्लिष्ट शब्दों की १ उदाहरण यथा--कवित्त । गोप मिलि खेलें आज्ु चोपर श्रथाई मॉँम , पासे हार जीत होनहार होइ सो परें। एक ओर तेरह ओऔ बारह इतेई रहें, एक ओर पच्चिस ओ बाइस बन््यो करें ॥ एक ओर एक हो अनेकन ते एक ओर , एक तें अनेक है विसेष बढिबो करें। एक ओर खारें बार-बार मरि जाम्यो करे , एक ओर लिढर निकेत पहुँच्यो करें। यहाँ प्रस्तुत चौ 7र-खेल का बृत्तांत कहने में 'बासे द्वार जीत द्वोह सो परें' आदि खाधारण और दोनों पत्तों में समानाथ-वाची विशेषयणों की सामथ्य से अग्रस््तुत जगज्नीवों का बृत्तांत मी जाना जाता है । २ पुनः यथा--दोहा । लोभ लग्यो निसि-दिन भ्रम्यो, बन उपब्रन बहु ठौर। मिली मलिंदहि मालती सरिस पैन अलि ) और ॥ यहाँ भी प्रस्तुत अमर-यृत्तांत के वर्णन से चायक की लंपटता के उपालंभ रूप अप्रस्तुवाथे का भी बोध द्वोता दै ।
समासोक्ति श्प&
३ पुर: यथा-दोदा । तप्यो आँच अब बिरह की, रहो प्रेम-रस भोजि। नैननि के मग जल वहै, हियो पसीजि-पसीजि ॥ बिहारी ।
यहाँ भी नायक के विरद-निवेदन प्रस्तुताथ में वियोगाग्नि एवं प्रेम-जल से पसीजकर नेत्रों द्वारा अश्रु-जल निकलने में अरके निकलने की रीति के अप्रस्तुत वृत्तांत का भी बोध द्वोता दे ।
सूचना--पएतरोंक्त 'श्लेप” अलंकार में विशेष्य भिन्न-भिन्न द्वोते हैं; और जितने अर्थ हों, वे सभी प्रस्तुत ढ्वोते हैं। यहाँ प्रस्तुत से अप्रस्तुत की प्रतीति होती है। यही इन दोनों में अंतर है । विशेष सूचना--कविराजा मुरारिदान ने जसवंत-जसोभूषण' नामक संथ में 'खमासोक्ति' पद में 'लमास? शब्द का अर्थ 'संक्षेप” करके “थोड़े से भधिक्र कहना? इसका रक्षण कहा है; और यद्द ददाइरण दिया है-- ५ छत-जुत करत जु॒ पीन कुच, गद्तत जु सुंदर केस । हरत बसन बन भुवि खदिर, तुत्र अरिबतिःन नरेस ! ॥४? प्रस्तुत खदिर ( खैर )-ब॒क्ष का बृत्तांत कहने में अप्रस्तुत कामी-पुरुष की चेष्टाओं का भी बोध द्वोना, थोड़े से अधिक कहने के उक्त लक्षण से इसको घटित किया है; भौर इसी आधार पर साक्षात् दिष्णु-अवतार दिव्यदर्शी-भगवान् वेदब्यास आदि प्राचीन आचार्यों के (समानार्थ-सचक) निम्नोक्त लक्षणों का खंडन किया है-- भगवान् वेदब्यास का मत-- « यत्रोक्तादस्पतेडन्यो 5थंस्तत्समानविशेषणः । सा समासोक्तिरुदिता संक्षेपार्थतया डुचैः |” महाराज भोज का मत-- « यत्रोपमानादेवैतदुपमेयं॑ प्रतीयते । अतिप्रसिद्धेस्तामा हुः समसोक्ति मनीषिणः ॥१
२६० भारती-भूषण
भाचाये दंडी का मत-- “ वस्तु किश्चिद्मिप्रेत्य तत्तु श्यस्थान्यवस्तुन: । शक्ति: संक्षेपरूपत्वाश्सा सम्रासोक्तिरिष्यते ॥? मस्मटाचायं का मत-- ४ परोक्तिमेंदके!ः श्लिष्टे: समासोक्तिः 0१ राजानक रुय्यक का मत-- “विशेषणानां साम्प्ादप्रस्तुतस्य गम्पत्वे समासोक्तिस्क/ .. $. कविवर जय्देव का मत-- “ध्मासोक्ति: परिस्फूतिः प्रस्तुते5प्रस्तुतस्यचेत् ।!? उन्होंने लिखा है--“सम्रासोक्ति शब्द के नामाथे स्वारस्य को नहीं जानते हुए उदाहरणों से अप्त करके प्राचीनों ने प्रस्तुत से भग्रस्तुत की गमस्पता में 'समासोक्ति! एवं अप्रस्तुत से प्रस्तुत गम्य होने में “अप्रहवुत्त- प्रशंसा? मानकर प्रस्तुत से अप्रस्तुत की गम्प्रता में 'तमापोक्ति! नाम को उपयुक्त लक्षणों में घटाया है ।? स्त्रयं कविराजाजी ने भप्रस्तुत से प्रस्तुत एवं प्रस्तुत से प्रस्तुत दोनों की गम्पता में “अप्रस्तुत-प्रशं सा! अलंकार ही मानकर केव्रल संक्षेप से अधिक कहने को “क्षम्राघोक्ति! अलंकार का विषय मान लिया है । भस्ठु । हमारे विचार से आपने 'समासोक्ति? शब्द का जो भाशय सूक्ष्म दृष्टि से समफकर लिखा है ! वेद्ब्याप आदि प्राचीनों ने धाधारणवः वही भाशय सममरऊर वक्त लक्षण बनाए हैं; और अढप से अषिक कहे जाने का ही अभिप्राय ( आहंकारिक वा साहित्य-शैली के भनुसार ) कहा है। "एक अर्थ कहने में सप्ान विशेषणों की सामथ्ये,से दो अर्थ सिद्ध हों? इसके अतिरिक्त अल्य से अधिक. कहना और क्या ड्ढो सकता है ? स्वयं कविराजाजी का उक्त 'छत-जुत! उदाहरण एवं उश्चछ्ा म्िछान मी प्रस्तुत से प्रस्तुत गम्प डोने का द्वी है; और ठीऊ प्राचीर्नों के ऊक्षगा-
| .._ ॥ विशेषयों से।
परिकर १६१
जुसार है; तो भी आपने न जाने क्यों पृज्पन्याद प्राचीनों के उपयोगी रूक्षणों का खंडन कर डाला है !
अब रहा आय का यह विचार--''बदि अमप्रस्तुत से प्रस्तुत की अथवा प्रस्तुत से भप्रस्तुत की प्रतीति को 'लमासोक्त! मानेंगे, तो ध्यंग्य- मात्र शधमासोक्ति' अलंकार द्वी जायगा।? यदि ऐसा हो तो अग्रस्तुत से अस्तुत की अथगा प्रस्तुत से अभ्नस्तुत की प्रत्तीति में भापने जो “अप्र रुतु त- प्रशंसा? का ही स्वीकार किया है, क्या वदद 4अप्रस्तुत-प्रशंघा? अलंकार ब्यंग्प्-पात्र नहीं हो जायगा ? कदाचित् इससे अधिक यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है ।
(२६) परिकर जहाँ विशेष्य' का वणन साभिप्राय विशेषणों' से किया जाय, वहाँ 'परिकर' अलंकार होता है | १ उदादरण यथा--कवित्ताड़ । स्याम-घन-अंक में चमंक चपला की चारु, पंकज-प्रतीक रानी राधिका रही विराज। देख्यो बिसमय पक देस एक ही समय, एक साथ पवस बसंत ऋतु आई आज ॥#& यहाँ रानी राधिका विशेष्य है, जिसका पंकज-प्रतीक सामि- _ आय विशेषण है, क्योंकि पंकज वसंत का अंग द्वोता दे । भादि। २ अन्य क्मिप्राय-युक्त। ३ विशेष्य के गुण, स्वभाव, ब्यवस्था आदि जैसे--डुद्धिदात्री, दयाछ, दुर्बछ, सुंदर, उज्ज्वल, सघन भादि ।
विशेषण प्रायः विशेष्य से पहले प्रयुक्त होता है, जैसे--बद्धिदात्री शारदा आदि। ४ भ्वयव ( अंग )। ७ पूरा पथ "विरोध! में देखिए।
१६२ भारती-भूषण
अंिििल-जजलत
२ पुनः यथा--चौपाई ( अद्ध )। तद्पि परम करुनामयि माता। प्रतिदिन जीवन उन्नति-दाता ॥ यहाँ भी माता ( पावेती ) विशेष्य का 'करुणामयि? विशे- षण जीवों की प्रतिदिन उन्नति करने के कारण स!भिप्राय है| ३ पुनः यथा--दोद्दा । ससि-बदनी मोसों कहत, सो यह सखाँची बात । नेन नलिन ये राबरे, न्याय निरखि नैं जात ॥ --विद्वारी । यहाँ भी 'घीरा नायिका? विशेष्य का ससि-बदरनी” साभिप्राय विशेषण है, क्योंकि चंद्रमा के उद्त होने पर कमलों का संकुचित
होना प्रसिद्ध है । "909 6:06*
(२७) परिकरांकुर जहाँ विशेष्य का समिप्रायता से वर्णन किया जाय, वहाँ 'परिकरांकुर' अलंकार होता है | १ उदाहरण यथा--दोद्दा । मनहूँ. कृष्ण ! खैंचत थके, जद॒पि आप जदुबीर !। मो अध भो वलबीर ! वह, दुपद-खुता को चीर॥ यहाँ 'कष्ण! विशेष्य है, जो "आकर्षण करना” अर्थ होने के कारण 'साभिग्राय! है । २ पुनः यथा--दोद्दा । बिनय कान्ह की हठभरे, तब सठ ! करी न कान । अब जरियत करियत कहा ?, मन ! मोहन सखों मान ॥
अर्थ-स्छेष १६३ यहाँ भी कलद्वांतरिता नायिका के ( अपने मन के प्रति ) कथन में 'मोहन' शब्द विशेष्य है, जिसमें मोहने के अर्थ के कारण साभिप्रायता है । ३ पुनः यथा--दोहा । कियो सब जग काम-बस, जीते जिते अजेइ। कुखुमसरहि सर-घनुष कर, अगहन गहन न देइ ॥
--विहारी । यहाँ भी “अगददन' शब्द का 'प्रहण न करना! अर्थ है; इससे बह साभिप्राय विशेष्य है ।
(२८) अथ-शछेष
जहाँ शब्दों के अथ ऐसे शक्ति-संपन्न हों कि यदि अन्य प्रकरण से अवरोध न हो तो वावय का एक ही अर्थ अनेक ( एक से अधिक ) पक्षों में घटित हो जाय,
वहाँ अर्थ-छेष”' अलंकार होता है।
१ उदाहरण यथा--सवैया ।
पर मंदिर जाइ बुलाए बिना झढु वात बनाइ रिक्रायो करें। कविता कमनीयन की पतियान पियष-प्रयाह बहायो करें ॥ गुन गौरवता अपनी न गनें निगुनीन हु के गरुन गायौ करें। परमारथ-स्वारथ साधत यों सम साधु-असाधु लखायौ करें ॥ 3 जैसे घन? शब्द बादुख और मोथा ( ओऔषधि-विशेष ) दो अर्थों का बोधऊ है, किंतु औषधि-पक्ष में बादल अर्थ का और वर्षा-ऋतु-पक्ष में
मोथा अर्थ का अवरोध हो जाता है । २ मनोहर कविता्भों की । श्र
श्छ भारती-भूषण
यहाँ साधु और असाघु का श्छेष है। यदि 'पर मंदिर' आदि के स्थान पर “अन्य के गृह” आदि शब्द रख दिए जायें, तो भी यथार्थ श्लेष बना द्वी रहेगा; अतः अर्थ-श्लेष है ।
२ पुनः यथा--दोहद्दा ।
..ै, छुखदा खिखदा अथंदा, जसदा रख '-दातारि।
रामचंद्र की मुद्रिका, क्रिधों परम गुरु-नारि॥
--कफैशवदास ।
यहाँ भी श्रीरामचंद्रजी की मुद्रिका एवं गुरु-नारि की 'सुखदा' आदि श्लिष्ट शब्दों से समता वर्शित है ।
सूचना--(१) इस “अर्थ-श्लेष' में शब्दों का एक ही अर्थ दो पक्षों में घटित होता है, जो उदाहरण्ों से स्पष्ट सूचित है, उन शहदों के पर्याय रख देने से भी 'श्छेष! उग्रों का त्यों बना रहता है। पूर्वोक्त 'शब्द-श्लेष? में एक शब्द के दो अर्थ होते हैं; और उनके स्थान पर उनका पर्थाय रखने
से श्लिष्टता नहीं रहती । दोनों में यही झंत्तर है। (२) इस “अर्थ-श्लेप? के प्रायः उदाइरणों में 'संदेद” भंडार का
पंयोग होता है। जैसे 'सुखदा सिश्लदा? वाले उदाहरण में है। "9099 6:06-« (२६) अप्रस्तुत-प्रशेसा जहाँ अप्रस्तुतार्थ के वर्शन द्वारा प्रस्तुताय छचित किया जाय, वहाँ “अप्रस्तुत-प्रशंसा'” अलंकार होता है| इसके पाँच भेद हैं-- 7 | छानंद । २ यहाँ 'प्रशंसा? दाब्द से तात्पर्य 'वर्णंत करना? दे, न कि स्तुति ।
अप्रस्तुत-प्रशंसा श्ष्प १ कारण-निवबंधना जिसमें अप्रस्तुत कारण का वर्णन करके प्रस्तुत कार्य का बोध कराया जाय । १ उदाहरण यथा--दोहा । शआवत नित नियमित समय, वहु विधि देत असीस । खाइ खरच निज्ञ गाँठ को, कवि कूस भयौ महीस ! ॥ यहाँ मंत्री की उक्ति में किसी कवि का सश्कार कराना प्रस्तुत कार्य है, जिसका वर्णन न करके “"आवत तित” आदि अग्रस्तुत कारणों के वर्णन द्वारा राजा को उक्त कार्य का बोध कराया गया है । २ पुनः यथा--सवैया । हे हेहरिजू! बिछुरे तुम्हरे नहिं घारि सकी सो कोऊबिधि घीरहिं। आखिर प्रान तजे दुख सौं, न सभा रि सकी वा बियोग की पीर्हि॥ पे 'हरिचंद' महा कलकानि कहानी खुनाऊँ कहा बलबीरहिं । जानि महागुन रूप की रालि नप्नान तज्यो चहेँ बाके सरीरहिं ॥ --भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र । यहाँ भी नायिका से नायक को मिलाना प्रस्तुत कार्य है, जिसका वर्णन न करके नायिका की वियोग-दशा रूपी अग्रस्तुत कारण के वर्णन द्वारा उस कार्य का बोध कराया गया है। ३ पुत्र: यथा--कवित्त । कोमलता कंज ते, सुगंध ले गुलांबन तें, चंद ते प्रकास लीन्हो उद्त उजेरो है। रूप रति-आनन तें, चातुरी छुजानन ते, नोर नीस्वानन' ते, कौलुक निबेरो है॥ ३ खाबदार वस्तुएँ जैसे मोती आदि ।
१&६ भारती-भूषण
“ठाकुर! कहत ये मासाला, बिधि कारीगर, रचना निहारि क्यों न होत चित चेरो है। कंचन को रंग लें, सवाद ले खुधा को, बसुधा को खुख लूटिके बनायों मुख तेरो है ॥ “-ठाकुर ( प्राचीन )। यहाँ भी श्रीराधिकाजी के मुख के सोंदय का वर्णन प्रस्तुत कार्य है, जो 'कोमलता कंज तें? आदि अनेक कारणों का वर्णन करके सूचित किया गया है । ४ पुनः यथा--दोहा । 'सम्मन' नेनन मैं गिरी, जिन नैनन को सेन। फिर काढ़न को चाहिए, वे ही तीखे नेन॥ “-सम्मन | यहाँ भी नायिका को नायक से मिलाना प्रस्तुत कार्य है, जिसका वर्णन न करके “सम्मन नैनन मैं गिरी” आदि अभ्रस्तुत कारण कहकर नायिका को (सखी द्वारा) उक्त काये सूबित किया गया है । २ कार्य-निबंधना जिसमें अप्रस्तुत कार्य का वर्णन करके प्रस्तुत कारण का बोध कराया जाय । १ उदाहरण यथा--दोहा । बरनाभ्रम निज धरम-रत, कलह कलेस न लेख। धन्य-धन्य यह देस जहाँ, बरसत समय खुरेख।॥
अप्रस्तुत-प्रशंसा १६७
हक हिचकी अर 5 लुक आह: 0/गिरकिएकी रद
यहाँ “धमौत्मा राजा' प्रस्तुत कारण का 'बरनाश्रम निज घरम- रत” आदि अग्रस्तुत कार्यों के वर्णन द्वारा बोध कराया गया है । २ पुनः यथा--सवैया ।
बासर को निकसे जु भट्ट, रवि को रथ मॉँक-अकास अरे री ।
रैन इहे गति है 'रसखान' छपाकर आँगन ते न दर री
आउोहि जाम चल्योई करें, निसि भोर के तरल उसास भरे री।
तेरो न जात कछू दिन रात, विचारे बटोहो की वाद परे री ॥
--रसखान ।
यहाँ भी नायिका का सौंदये प्रस्तुत कारण दे, जो आकाश
के मध्य में सूचे और चंद्रमा के रथ रुक जाने के अभ्रस्तुत कार्य के वर्णन द्वारा सूचित किया गया दै।
३ पुनः यथा--कवित्त । नहान समै 'दास' मेरे पाँयनि पत्मो है सिंधु- तट नर-रूप दे तनिपट वेकरार में । मैं कही तू को है? कह्मौ बूकति कृपाके तो, सहाय कछु करो पेसे संकट अपार मैं ॥ मैं हैं बड़बानल वसायौ हरि ही को मेरी, विनती खुनावो द्वास्केस-दस्वार मैं। ब्रज्ञ की अहीरिनी की अखुवा-वलित आइ, जमुना जराबै मोहि महानल-मभकार में ॥ --भिखारीदास । यहाँ भी किसी त्रजांगना का श्रीकृष्ण-वियोग प्रस्तुत कारण है, जिसका वर्णन न करके उसके अश्रुपात-मिश्रित यमुनाजल ड्वारा अमुद्र में वाडवाप्ति को जलाने का अभ्रह्तुत कार्य वर्णित है ।
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श्ह्ड भारती-मूषण
३ विशेष-निबंधना जिसमें अप्रस्तुत विशेषाथ के वणन द्वारा प्रस्तुत सामान्याथं सूचित किया जाय |
१ उदाहरण यथा--सबैया ।
आपुदहि पावन ' प्रौढ़' प्रभावन जोगी जती मुनिहूँन लुभावे। लागे न जंग' अँगार दे गारिए बारहि-बार पै पूरोहि पाधथे॥ बार सो पातरो तार बने ओ प्रमान ते चौगुनों भार उठाचे। आधु मरे करे बृद्धे ज्ुवा गुन पावे इते सो खुबने कहाते (।
यहाँ सुबर्ण के बृत्तांत अग्रस्तुत विशेषाथे के वर्णन द्वारा संतों का वृत्तांत प्रस्तुत सामान्यार्थ बोधित किया गया दै ।
२ पुनः यथा--दोद्ा । फरजी साह न है सके, गति टेढ़ी तासीर।
'रहिमन! सीधी चाल ते, प्यादा होत बजीर॥ --रहीम ।
यहाँ भी कुमार्गी-सुमार्गी मनुष्यों का प्रस्तुत सामान्याथे सूचित करने के लिये शतरंज के मोदरों का अप्रस्तुत विशेष बृत्तांत
वर्णित हुआ दे । ३ पुनः यथा--सोरठा । नभचर विहँग निरास, विण' हिम्मत लाखाँ बहें। वाज नृपति-कर वास, रजपूती सो राजिया !॥ --बारहठ कृपाराम ।
$ जो वात किसी ख़ास से संबंध रखती हो । २ जो बात स्ंश्लाधारण से संबंध रखतो हो। ३ जो स्वयं पवित्र है। ४ दुद। ५ मोरवा। ३ दिना ।
अप्रस्तुत-प्रशंसा श्&&
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यहाँ भी वीर पुरुषों के सामान्यार्थ का घोध कराने के लिये बाज पक्षी का अप्रस्तुत विशेष वृत्तांत कद्दा गया है । ४ साम्तान्य-निवंधना जिम्में अप्रस्तुत सापान्य के वर्णन द्वारा प्रस्तुत विशेष का बोध कराया जाय | १ उदाहरण यथा--दोहदा । पछितिहँ. कारज परे, पेंदे विषम बिपाद। है दुप ! गज़ को भार जे, देत गधे पर लाद॥ यहाँ अयोग्य अमात्य पर राज्य का कार्य-भार रख देनेवाला राजा प्रस्तुत विशेष है, जिसके संबंध में द्वाथी का भार गधे पर लादनेवाले मनुष्यों ( अप्रस्तुत सामान्य ) का वर्णन दै। २ पुनः यथा--दोद्दा । सीख न मार्ने मुरुत की, अहितहिं हित मन मानि।
सो पछताबै, ताखु फल, ललन ! भए ह्वित-हानि॥ +-मतिर/म ।
यहाँ भी परकीया-खंडिता नायिका का नायक के प्रति उपा- लंभ प्रस्तुत विशेष है, जिसका सीख न मानें! आदि अग्रस्तुत सामान्य के वर्णन द्वारा बोध कराया गया है ।
५४ सारूप्प-निबंधना जिसमें समान अप्रस्तुत का वर्णन करके प्रस्तुत का बोध कराया जाय । इसीको “अन्योक्ति! कहते हैं ।
१ उदाहरण यथा--सोरठा । बिकसत बौरमिठास, निकसत नव पह्चव निद्रि। पिक | सतराय' पलास, घिक सत' सेबत मंद्मति ॥ यहाँ योग्य वस्तु का त्याग करके अयोग्य वस्तु का सेवन
करनेवाले अस्तुत मनुष्य को बोधित करने के लिये उसके प्रति कुछ न कट्ककर उसीके समान अप्रस्तुत कोकिल के प्रति कद्दा गया है। २ पुनः यथा--दोद्दा । उनमादक वाधक- विनय, निंदाभय सकलंक। छुटत न लग्यो महीप-मुँह, रे मदपात्र ] असंक ॥ . यहाँ भी अप्रस्तुत मद्यपात्र के प्रति कहकर उसीके समान राजा के मुँह लगे हुए किसी प्रस्तुत चुगुलखोर को उपालंभ दिया गया है । ३ पुनः यथा--दोद्दा । को छूख्यो इहि जाल :परि, मत कुरंग ! अकुलाइ | ज्यों -ज्यों सुरभि भज्यो चहै, त्यों-त्यों उरफत जाइ ॥ +-बिद्वारी । यहाँ भी अभ्रस्तुत म्ग के प्रति कद्दकर उसके तुल्य सांसा- रिक मनोरथों की पूर्ति करके विरक्त द्वोने की इच्छा करनेवाले विचार-शून्य प्रस्तुत पुरुष को सूचित किया गया है । ४ पुनः यथा--दोहा । हम तो तेरे फलन को, तब ही छोड़ी आस। निकसत मुँह कारो कियो, रे मतिसंद पलाख!॥ --शभ्रज्ञात कवि | .._॥ क्षम्र-मंजरी २ गये करके । ३ सौ बार घिक्कार हे ।
अप्रस्तुत-प्रशंसा २०१
यहाँ भी अप्रस्तुत पलाश-बृक्ष को संबोधित करके उसीके सदृश भ्रस्तुत कुपूत को बोधित किया गया है । ५ पुनः यथा--कवित्त । पुहुमी सबोज़ करो बारिद ! तिहारी रीति , सबपै समान दीठि प्रभुता खुहात की। स्वाति-बूँद पाइ प्रेमी पालत कुटुंव सदा , और सो न प्रीति ऐसी रीति इहि जात की ॥ 'परछछुराम' परे घन ! बरस पपीहा काज , आइ जैहे पौन रेहे प्रशुता न हात की। कित जल जैहे कित उमँग बिलेहे कित , तू ही चलि जैहै कित जैहै उड़ि चातकी ॥ +-परझुराम कहार । यहाँ भी किसी प्रस्तुत सम्रृद्ध पुरुष को दान का उपदेश करना है, पर ऐसा न करके उसीके समान अप्रस्तुत मेध के प्रति कहकर उक्त पुरुष को बोधित किया है । ६ पुनः यथा--आय्यों छंद । किशुक ! मा वह गर्व निज शिरसि भ्रमरो5प्रवेशनेन | नव विकसित मल्लिका वियोगाज्ज्वलन धियात्वयि मज्ति द्रिरेफः --अज्ञात कवि । यहाँ भी किसी मिथ्याभिमानी पुरुष का गवं-परिद्दार भ्रस्तु- ताथ है, उसकी जगद्द अप्रस्तुत पलाश-दबइक्ष का बृत्तांत कद्दा गया दद् कि छे पलाश ! तू व्यर्थ द्वी अपने ऊपर अमर के बैठने का गव करता है। यह तो मोगरा के वियोग में तेरे पुष्ष को अग्नि सममाकर उसमें जलने को गिरा दै, न कि मकरंद के लोभ से ।
२०२ भारती-भूषण सूचना--(१) इस “'सारूष्य - निबंधना? (अम्योक्ति) में जो भप्रस्तुत बृत्तांत कहा जाता है, वह हमारे विचार छे, यदि किसी के प्रति कद्दा जाय तो विशेष रमणीयता आ जाती है; इसलिए इमने सब उदाहरण हसी प्रकार के दिए हैं। इसके प्रमाण भी निम्नोक्त ग्रंथों में पाए जाते हैं। यथा-- विद्दारी-सतसई की टीका, छाल-चंब्रिका-- « अन्योकति जहूँ और प्रति, कद्ै भौर की बात | !?
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अलंकार-भाशय--
४ अन्योकति अरु की कहैं, औरें प्रतिहि सुजाति। ” अलंकार-मं जूप। --
“कहूँ सरिस सिर ढारिकै, कदै सरिस सौं बात 0१
(२) इस 'अस्योक्ति? में अप्रस्तुताथ के वर्णन द्वारा प्रस्तुता्थ सूचित किया जाता है; भौर पूर्वोक्त 'धमासोक्ति? अलंकार में इसके विपरीत प्रस्तुत के वर्णन से अप्रस्तुतार्थ का बोध कराया जाता है; अतः ये दोनों परस्पर विरोधी हैं। कुछ ग्रंथों में इनसे मिलता-जुलूता “प्रस्तुतांकुरः नामक अलंकार स्थतंत्र माना गया है; किंतु हमें उसमें चमस्कारिक प्रथक्ता प्रतीत नहीं होती; इसलिए उध्का उल्लेख नहीं किया गया।
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(३०) पर्यायोक्ति जहाँ पर्याय” शब्द के प्रकार और “व्याजा ( मिस ) इन दो अर्थों के आधार पर वर्णन हो, वहाँ 'र्यायोक्ति' अलंकार होता है | इसके दो भेद हैं--
पर्यायोक्ति २०३
| १ प्रथम पयोयोक्ति जिसमें विवज्षिताथें का वणन सीधी रीति से न करके चमत्कारिक प्रकारांतर से किया जाय | १ उदाहरण यथा--दोहा । विन हरि-खुमरन हू समय, गनत नरायु मँकार। नहिं ज़मराज-बिचार यह, प्रत्युत अत्याचार ॥ यहाँ विवक्षितार्थ यह है--“परमात्मा के स्मरण के विना मनुष्य का जितना काल व्यतीत द्वोता है, वह व्यथे है।” किंतु इस प्रकार सीधी रीति से यह बात न कहकर इस प्रकारांतर से कद्दी गई है--““यमराज मनुष्यों की आयु में उस समय की भी गणना करता है, यह उसका विचार नहीं बल्कि अत्याचार है।” २ पुनः यथा--दोहा । चल्यो चहत परदेस अब, प्रिय प्रानन के नाथ। कछु ठहरो ले जाइयो, अँखुवा ! अखुबन साथ ॥ यहाँ भी प्रवत्स्थ्पतिका नायिका का--“पति के परदेश जाने से ये प्राण न रहैंगे” विवज्षितार्थ है, जो सरल रीति से न कददकर आश्रुपात के प्रति इस ढंग से कद्दती है--“तुम कुछ ठहरकर प्राणों को भी साथ छेते जाना |” ३ पुनः यथा--कवित्त । भीम को दयो हौ बिप ता दिन बयो ही बीज, लाखाशह भएँ ताको अंकुर लखायोौ है। दूत-क्रीड़ा आदि बिसतार पाइ बड़ो भयौ, द्ोपदी-हरन भएँ मंजरि सौं छाप्य है॥ $ जिस बात का वर्णन करना हो। २ प्रार्णों को ।
२०४ भारती-भूषण
मत्स्य गाय घेरी जब पुष्प-फल-भार भव्ौ, तेने ही कुमंत्र-जल सींचिके बढ़ायो है। बिदुर के बचन-कुठार तेन कस्यो बृच्छ, वाको फल पाकौ भूप ! तेरी भेट आयोौ है। --बारहठ स्वरूपदास साधु । यहाँ भी संजय द्वारा राजा घृतराष्ट्र के ग्रति दुर्याधन की मृत्यु विवक्षितार्थ का परम रमणीयता पूरक प्रकारांतर से वर्णन किया गया है । ४ पुनः यथा--सोरठा । दीन जानि सब दौन, एक न दीनौ दुसह दुख। सो अब हम कह दीन, कछु नहिं राख्यो वीरबर !॥ --बादशाद अकबर । यहाँ भी राजा बीरबल की मझुत्यु का शोक प्रकाश करना कथितारथ है, जो रमणीयता पूर्वक अन्य प्रकार से कट्दा गया है | २ द्वितीय पर्योयोक्ति जिसमें किप्ती रमणीय व्याज द्वारा अभीष्ट-साधन किया जाय | १ उदादरण यथा--दोदा । पुनि-पुनि कर -लाघवनि हरि, गेदनि रहे उछारि। तिनहिं धरन लो कर अधो, करि न सकद्दि सब ग्वारि ॥ यहाँ रसिक-शिरोमणि श्रीकृष्ण महाराज का अत्यंत दृस्त- लाधवता (फुर्ती ) से बार-बार गेंदों को उछालने के छल से ब्रजांगनाओं के उरस्थल निरीक्षण रूपी इष्ट-साधन वर्णित है ।
व्याज-स्तुति २०५ २ पुनः यथा--दोहा । सखियन ढिंग हु रह्यो न गो, कह्ती पसारिय बाहु। तनिक खिलावन लो ललन !, लरिका घर ले जाहु | यहाँ भी नायिका ने सख्ियों के समक्ष श्रीकृष्णजी से परिरंभण रूप इष्ट इस छल से सिद्ध करना चांह्ा है कि आप भुजा पसारकर मेरी गोद से थोड़ी. देर के लिये इस लड़के को घर ले जाइए ।
३ पुनः यथा-दोहा । बतरस लालच लाल की, मुरली घरी लुकाइ। सौंह करे, भौंहनि हँसै, देन कहे, नटि जाइ॥ -- बिहारी । यहाँ भी मुरली छिपाकर श्रीराधिकाजी द्वारा अनेक चेष्टाओं के मिस से श्रीकृष्ण की बातों का रस लेने के इष्टटसाधन का वर्णन है । सूचना--.एवॉक्त 'कैतवापह्ृतिः में उफ्मेय को छिपाने के लिये ध्याज? भादि शब्दों द्वारा उपमान स्थापित किया जाता है; और 'द्वितीय पर्यायोक्ति ? में किसी क्रिया रूपी छल से दृष्ट-साधन किया जाता है तथा ध्याज? आदि शब्दों का होना नियमित नहीं है। इनमें यही अंतर है ।
(३१) व्याज-स्तुति जहाँ निंदा के शब्दों में स्तुति या स्तुति के शब्दों में निंदा प्रकट हो, वहाँ व्याजस्तुति” अलंकार होता है। इसके दो भेद हैं--
$ कई प्ंथकारों ने इस अलंकार के ध्याज - स्तुति एवं व्याज-मिंदए: नामों से दो भिन्न-भिन्न अलंकार माने हैं ।
२०६ भारती “भूषण
१ प्रथम भेद ( निंदा के शब्दों में स्तुति ) । १ उदाहरण यथा--ऋकवित्त । मच्छ कच्छु कोल से मलीन जल-जंतु पसु , पंचानन बासन की ख्लीन मन भाई देह। पाक-पात्न लागी साक-पत्ती नोंचि जूँठे फल, खाए असंकोच छाल-कदली सने-सनेह ॥ दास भयो छुत्री तें बिलास ब्रज-बालन लॉ रीमि रम्यौ जाइ वा कुजाति कुबजा के गेह। चोरी वटपारी जारी छोरी छुलकारी हू न, औतस्यौ सगुन हो, पे औगुन भव्बी अछेह ॥ यहाँ श्रीकृष्ण के मच्छादि की मलीन देह धारण करने आदि निंदा के शब्दों में अवतार धारण करने आदि की स्तुति ही व्यंजित द्ोती है । २ पुनः यथा--दोहा । कहा लड़ेते द॒ग करे, परे लाल बेद्वाल। कहूँ मुरली कहूँ पीतपट, कहूँ. मुकुट बनमाल ॥ --विहारी । यहाँ भी नायिका के नेत्रों की “कहा लड़ते ह॒ग करे” आदि से निंदा करके वास्तव में उनसे नायक के मोदित द्वो जाने के रूप में उनकी प्रशंसा द्वी सूचित की गई है । ३ पुनः यथा--कवित्त | कये आप गए थे बिसाहन बज़ार बीच, कये बोलि ज्ुलहा बुनाए द्रपट से। संदज्ञी की कामरी न काह बखुदेवजी की, तीन हाथ पडुका लपेडे रहे कशि से ॥
है
व्याज-स्तुति २०७
मोहन! भनत यामें रावरी बड़ाई कहा, राखि लीन््ही आनि-बानि ऐसे नटखट से । गोपिन के लीन्हे तब चीर चोरि-चोरि अब, जोरि-जोरि दैन लागे द्वौपदी के पट से ॥ मोहन । यहाँ भी “कपड़े खरीदने आप कब गए थे ९” आदि निंदा के वर्णन से वास्तत्र में द्रोपदी के चीर बढ़ाने के रूप में श्रीकृष्ण की प्रशंसा द्वी व्यक्त की गई है । ४ पुनः यथा--सवैया । पक दिएँ जहँ कोटिक होत हैं सो ऋुरुखेत मैं जाइ अन्दाइय । तीरथ - राज़ प्रयाग बड़े मन-बांछित के फल पाइ अधघाइय ॥ भ्रीमधुरा वसि 'केसवदासजू' छे भ्रुज ते श्रुज चार है जाइय । कासीपुरी की कुरीति बुरी जहेँ देह दिए पुनि देह न पाइय ॥ --केशवदास ( द्वितीय )॥ यहाँ भी “कासीपुरी की कुरीति बुरी” आदि निंदा के शब्दों से मोक्ष प्रदान करने की घात कहकर उसकी स्तुति की गई है।
२ द्वितीय लेद ( स्तुति के शब्दों में निंदा ) १ उदाहरण यथा--दोहा ।
डग - रंजन अंजन - अचल !. सह - गज - गंजन - गाज ।
धनि जहँ जल-जाचक ज्ुरत, चातक-मोर - समाज ॥
यहाँ शब्दार्थ से तो कज्जल-गिरि की श्लाधा श्रतीत द्वोती है; किंतु वास्तव में बादल का आकार और लक्षण रखकर जल के लिये चातक-मयुरों को धोखा देने की बात से उसकी निंदा द्दी व्येजित की गई हे ।
र०्८्ट भारती-भरूषण
२ पुनः यथां--सबैया । नाख्यो न लक्खन की धलु-रेखें, बिमान की वायु लौं बेग करी है । गीध जटायु सौं जंग रच्यो, फिरि जानि जरापन लाज घरी है ॥ बालि के फंद सो फा[दि बच्यो,'लछिराम' कथा को कहै सिगरी है। बीर को रावन! रावरे सो? बन में जिन राम की बाम हरी है ॥ “-लकछिराम । यहाँ भी रावण के प्रति अंगद की सक्ति में “नाख्यौ न लक्खन की धनुररेखें” आदि रावण की प्रशंसा के वाक्य हैं, किंतु वस्तुतः उनसे निंदा द्वी प्रकट होती है । सूचना--ऊुछ ग्रंथों में इस 'व्याज-स्तुति! अलंकार के उक्त दो भेदों के अतिरिक्त “अन्य की निंदा से अन्य की निदा”, “अन्य की स्तुति से भन््य की स्तुति९, “अन्य की निंदा से अन्य की स्तुति” और “अन्य की स्तुति से अन्य की निंदा” ये चार भेद ओर भी माने गए हैं; किंतु प्रायः अलेकार-प्ंथों में ये भेद नहीं माने गए हैं; और हमें भी अना-
वश्यक प्रतीत होते हैं । “०७२४-०२ ४३१४४<“7<४-<४--
(३२) आक्षेप जहाँ विवज्षित अर्थ का किसी प्रकार से निषेध सूचित हो, वहाँ आक्तेप” अलंकार होता है । इसके तीन
भेद हैं-- १ ढक्ताक्षेप जिसमें अपने कथितार्थ का हत्कर्ष -सूचक निषेध किया जाय |
आक्तेप २०&
१ उदाहरण यथा--दोहा । तजिबे लॉ खलता खलन, कहो सुज्ञन किहिं खीज । पै पुनि कल्लौ कि फल कहा ?, ऊषर बोएँ बीज॥ यहाँ किसी सज्जन ने दुष्टों के प्रति दुष्टता छोड़ने के लिये कद्दे हुए अर्थ का “फल कद्दा ? उषर बोएँ बीज” वाक्य द्वारा निषेध किया है, जिससे उनकी दुष्टता का उत्कर्ष सूचित द्वोता है ।
२ पुनः यथा--सबैया । ह ७ ३. हक 4५ 4 5 दे शदु पाँयन जावक को रंग, नाह को चित्त रँगै रँग जात। अंजन दे करो नेननि मैं सुखमा बढ़ि स्याम-सरोज-प्रभा ते ॥ सोने के भूषन अंग रचौ, 'मतिराम” खबै बस कीवे की घातेँ । यौं ही चलो न! लिंगार सुभावहि मैं ससति ! भूलि कही सब बातें ॥ --मतिराम । यहाँ भी पहले तीन चरणों में अनेक रंगार करने का जो वर्णन है, उसका निषेध चतुर्थ चरण के द्वारा हुआ है, जिससे नायिका के सौंदये का उत्कर्ष सूचित किया गया है । ३ पुनः यथा--मालिनी छंद । मधुकर ! मदिराक्षी' तू बता वो कहीं है ?। नयन-पथ उसे की १; किंतु तूने नहीं है॥ +/ खुरभित उसका तू जो मुखोच्छास पाता। फिर इस नलिनी में क्या कभी जी लगाता ? ॥ --सेठ कन्हैयाऊाल पोदार । यहाँ भी विरदद-व्यथित राजा पुरूरवा ने किसी अमर से पूछा
$ मतवाले नेन्नोंवाली । १७
२१० भारती-भूषण
है--“तूने उर्वशी को देखा है?” जिसका निषेध “किंतु नहीं देखा” वाक्य से करके ( उत्तराद्ध में ) उत्कर्ष सूचित किया गया है । . ४ पुनः यथा--दोहा ।
“तुलसी! रेखा करम को, मेद न सके राम। मेटे तो अचरज नहीं, (पर ) समुभि कियो है काम ॥ --तुरूसीदास ।
यहाँ भी “कर्म-रेखा को राम भी नहीं मिटा सकते” इस कथन का उत्तराद्ध-वाक्य से विशेषता-सूचक निषेध हुआ है।
२ निषधाक्षेप जिसमें विवज्षितार्थ का वास्तविक निषेध न हो, वरन्
निषेध का आभास मात्र हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । मधुर खुधा तिय-रूप तिहिँ, कत कवि कद्त सल्लोन १। चै इहिं निरखत दी लगत, बिरह जरे उर लोन॥ यहाँ नायिका के “मधुर रूप का सलोना न द्वोना” कथितार्थ है, जिसका उत्तराद्धगत वाक्य से निषेधाभास मात्र हुआ द्दै। २ पुनः यथा--दोहा । संकट - जनम -बिनास कहि, सके न समुचित कोइ | 'वै रवि-ससि-उद्यास्त-गति, लखि कछु अनुभव होइ ॥ यहाँ भी “जन्म-मरण-समय के संकट का अनुभव अकथनीय दै”' कथितार्थ है, जिसका “ठद्यास्त-काल में सूय्य एवं । किस्ती-किसी प्रंथ में इसका लक्षण यों भी लिखा है--''प्रथम निषेध की हुई बात को फिर स्थापित करे? किंतु दोनों का भाव एक ही ज्ञात होता दे ।
आक्तेप २११
चंद्रमा की निष्प्रभता देखकर कुछ अनुभव हो सकता है” वाक्य से निषेध सा किया गया है । ३ पुनः यथा--दोद्दा । हों न कहत, तुम जानिहो, लाल | बाल को बात। अँखुवा-उड़गन परत हैं, होन चहे उतपात ॥ --मतिराम । यहाँ भी नायक के प्रति दूती का वचन है कि मैं नायिका की विरह-व्यथा नहीं कद्दती, पश्चात् इस कथिताथ का वास्तविक निषेध न करके उत्तराद्धगत वाक्य द्वारा निषेध सा किया दै । ३ व्यक्ताक्षेप जिसमें अनिष्ठ अर्थ की ऐसी विधि ( आज्ञा ) हो, जो निषेध के तात्पय से गर्भित हो । इसे “अनुज्ञाक्षेप' भी कहते हैं । १ उदाहरण यथा--दोद्दा । पान-पीक की लीक हग, डगमगात सब गात। रमहु समन ! मन रमत जहँ, कत सकुचत बतरात १ ॥ यहाँ सपत्नी के स्थान पर अति-काल पर्यत विलास करके आनेवाले पति के प्रति कद्दे हुए खंडिता नायिका के “रमहु रमन मन रमत जहाँ” वाक्य में अनिष्ट अर्थ की जो आज्ञा ( सम्मति ) है, उसमें निषेघ का तात्पय गर्भित है । २ पुनः यथा--दोद्दा । कीबो काज़ सु कीजिए,|कहा रहे बेंघि लाज १। ./ जब मिलिहों तब लेईँगी, दरसन करि जल-नाज ॥ “-अलंकार-आशय ।
२१२ भारती-भूषण
यहाँ भी प्रथम चरण में प्रवत्स्यत्पतिका नायिका की पति के प्रति विदेश-गमन रूपी अनिष्टाथ की विधि ( आज्ञा ) है; किंतु उत्तराद्ध उसके निषेध के तात्पये गर्मित है ।
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(३३) विरोध जहाँ विरोधी पदार्थों का संसगे कहा जाय, वहाँ “विरोध” अलंकार होता है। इसके जाति ', गुण, क्रिया ओऔर द्रव्य द्वारा दस भेद माने गए हैं--
$ जिस शब्द से एक ही प्रकार के बहुत से व्यक्तियों का बोध होता है, उसे जाति-वाचक-शब्द कहते हैं। जैसे--देव, मनुष्य, गाय, कोकिल, पहाड़, नदी, भाम्र, पुस्तक इत्यादि ॥
२ जिस शब्द से किसी एक व्यक्ति का बोध होता है, उसे नाम कहते हैं; और जिस व्यक्ति का वद्द शब्द नाम द्ोता है, उस व्यक्ति को व्रब्य कहते है । जैसे--'विष्णु” शब्द छीजिए, यह शब्द तो नाम है; परंतु जिस देवता का यह नाम हे, वह देवता व्रथ्य हे। इसी भ्रकार सूये, चंद्र, विकीप, कामघेनु, डिमालय, भागीरथी भादि के संबंध में भी समझना चाहिए।
भाषा के कुछ भछ॑ंकार-प्रंथों में ऐसे भ्वसर पर “व्रब्यः शब्द से महर्षि कणाद कृत बैशेषिक-दुर्शन में बतलाए हुए प्थ्वी, जछ, तेज, वायु, आकाश, काछ, दिशा, मन और आत्मा इन नौ ब्रब्यों का अहण किया गया है; किंतु अलंकार-शास्त्र में वैशेषिक के ये व्रब्य ग्रहीत नहीं हो सकते | साधारणतः शब्दानुशासन ( व्याकरण )-शास््र के भनुसार व्ग्या का जो अर्थ होता है, वद्दी साहित्य में अहण किया जाना चाहिपु; अतः
हमने गुण और क्रिया के अतिरिक्त जाति और व्रब्य का भी वही भर्य॑ लिया है जो भगवान् पर्तजलि के महाभाष्य में है ।
विरोध रश३
१ जाति का जाति से विरोध
१ उदाहरण यथा--कवित्त । स्पाम-घन-अंक में चमंक चपला की चारु, पंकज़-प्रतीक' रानो राधिका रही विराज। नाचत मयूर जल जाचत पपीहा पेखि, गुंज़त मलिंद कल कोकिल करे अवाज ॥ बरसत स्वेद - श्रम सीकर वसीकरन, जत्रिबिध समीर असरीर को सज्यो समाज | देख्यो बिसमय एक देख एक ही समय, पक साथ पावस-बलंत-ऋतु आई आज ॥ यहाँ पावस-ऋतु और वसंत-ऋतु, इन दो विरोधी ( भिन्न- भिन्न कालों में रहनेवाली ) जातियों का एक साथ आना ( संस ) कट्दा गया है ।
२ पुनः यथा--सवैया ।
अपने दिन-रात हुए उनके, क्षण ही भर में छबि देख यहाँ । खुलगी अलुराग की आग चहाँ, जल से भरपूर तड़ाग जहाँ ॥ किससे कहिप अपनी खुधि को ?, मन है न यहाँ तन है न वहाँ । अब आँख नहीं लगती पल भी, जब आँख लगी तब नींद् कहाँ ॥ --कविवर पं० रामनरेश त्रिपाठी । यहाँ मी द्वितीय चरण में विरद्दिणी नायिका के जल (जाति)- पूरित-नेत्र-सरोवर में प्रेम की अग्नि ( जाति ) के अस्तित्व का वर्णन दै, जिससे विरोधी जातियों का संसग हुआ दे ।
4 कम्रक के छम्तान अंगोंवाकी ॥
झ्१्छ भारती-भूषण
माला १ उदाहरण यथा--छप्पय | सिंधु होइ जल-बिंदु, इंदु सम होइ दिवाकर। अनल कमल को फूल, तूल सम होइ धराधर!॥ माहुर' मधुर समान, भूप श्राता जिमि जाने। सत्रु होइ निज दास, लोक आज्ञा सब माने॥ अझ पाप होइ हरि-जाप सम, को दुराइ नहिं भू परे। आनंद-कंद्, ब्रज-चंद् जब, करुना-निधि किरपा करे ॥ --सेठ रामदयालु नेवटिया । यहाँ सिंघु और जल-बिंदु, अनल और कमल, तूल और धरा- घर तथा माहुर और मधुर-वस्तु, जातियाँ परस्पर विरोधी द्वोने पर भी एकत्र बतलाई गई हैं । चार का वर्णन द्वोने के कारण माला है ।
२ जाति का गुण से विरोध १ उदाहरण यथा--खबैया । सीतल मंद समीर गुलाब को नीर उसीर' लगे तनु तावन । दाहक, चंदन धंपक हार चमेलिन के भए गारी से गावन”॥ सोर डरावन मोरन के भप्ट सावन के घन घोर भयावन | यों सिगरे प्रतिकूल भए अनुकूल * गए जब ते मन-भावन ॥ यहाँ चंदन, चंपक एवं चमेली के द्वार जातियों का इनके विरोधी दाहक गुण से संसर्ग बतलाया गया है । २ पुनः यथा--दोदा । दरसावत थिर दामिनी, फेलि-तरून गति देत।
तिल-प्रसून खुरभित करत, नूतन बिधि रूखकेत '॥. --भिखारीदास 'दासः। _
१ पहाड़ । २ विष । ३ खस | ४ गायन । ५ अनुकूछ-नायक । ६ कामदेव ।
विरोध श्श्ष
230 8 ६8 82220 220 20 2 28, 52200 200:स्टन- यहाँ भी दामिनो जाति का इसके विरोधी स्थिरता गुण के साथ संयोग कहा गया है । ३ ज्ञाति का क्रिया से विरोध १ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
अमर', अमर कौन्हे गरल, हर-गर पाइ अधार। मिलि मधु सर्पिस होत विष, जोग-प्रभाव अपार ॥
यहाँ गरल ( विष ) जाति का “अमर करना' विरुद्ध क्रिया
के साथ योग कहा गया है । २ पुनः यथा-दोहदा ।
किंतु संत-संगति तरनि', इतर खुकछत खद्योत । होत हेम' पारस परसि, लोह तरत लगि पोत"॥
यहाँ भी लोह जाति का 'तरना' क्रिया से विरोध दोनें पर
भी संयोग कहद्दा गया है । ३ पुनः यथा--दोद्दा ।
बह दो दिन की अवधि, यह, छिन सौ दिनन समान | निसि दिन, ससि इन , कष्णु बिन, सिसिर हु सोषत प्रान ॥
यहाँ भो शिशिर-ऋतु जाति का शोषण क्रिया से विरोध
दोने पर भी संसर्ग बतलाया गया है। ४ जाति का द्रव्य से विरोध । १ उदाहरण यथा--सोरठा ।
ब्रक्षःसदन समसान, भाग्यवान भिच्छुक जहाँ । मरन महा कल्यान, विनवों तिहिँ बारानसिहि ॥
$ देवता्भों को। २ छत । ३ सूर्य । ४ स्वर्ण । ५ नौका | ६ छूयं ।
२५६ भारती-भूषण
यहाँ श्मशान जाति का बत्रद्म-लोक द्रव्य विरोधी पदार्थ से संसर्ग कहा गया है । २ पुनः: यथा--दोहा । अलि ! अद्भुत अरबिंद हरि,-बदन कदन-दुख-द्ंद । चंद-मुखिनि-मधुपिनि पियो, राका' जासु मरंद॥ यहाँ भी श्रीकृष्ण-मुख-अरबिंद जाति का ( मकरंद पान करने में ) गोषियों के मुख-चंद्र द्रव्य से विरोध द्वोते हुए भी संयोग कहद्दा गया है । ३ पुनः यथा--दोह्दा । मेरु समूलहि तूल तन, तन तूलन गिरि धूल। करमन ज्यों करि देत ते, खुकबि रहो अजुकूल ॥ यहाँ भी तूल और ठण जातियों का मेरु द्रव्य से (हलके और भारी होने के कारण) विरोध है; तथापि इनका संसर्ग कट्दा गया है। ५ गुण का गुण से विरोध
१ उदाहरण यथा--वसंततिलका छंद ।
ओराधिका - रमन - पाद् - प्रसाद॒पायो । तो मैं मलीन-मति निर्मल -गीत गायो ॥
बनें जथा-मति तथापि अजेस्वरी के। स्रोपांग' अंग जन-रंजंन शलीहरी के॥ यहाँ मलिन और निर्मल विरोधी गुणों का संस कहा गया है | $. पूर्णिमा की रात्रि । २ उपागों-सद्वित ।
विरोध २१७
3 2५5. 00220 28% 22/20/2222 २ पुनः यथा-दोहा । प्रिया फेरि कहि वैस ही, करि बिबि लोचन लोल । मोदिं निपट मीठी लगै, यह तेरी कद्ु बोल॥ “--भिखारीदास 'दास!। यहाँ भी मीठे और कट विरोधी गुणों का संयोग कद्दा गया है। ३ पुनः यथा--सवैया । प्यार - पगे पिय प्यारे सो प्यारी ! कहा इमि कीजत मात मरोर है । है 'रतताकर' पै निसि-बासर तो छबि-पानिप को तरलो रहे ॥ है मन-मोहन मोझौ पै तो पर, है घन स्याम पै तेरो तो मोर है। है ज्ञग-नायक चेणोे पे तेरो है, है त्रज-चंद पै तेरो चकोर है॥ --बाबू जगन्नाथदास 'रत्वाकर! । यहाँ भी 'जग-नायक' और “चेरो! (दास ) गुण विरोधी द्वोने पर भी इनका अस्तित्व एक दी व्यक्ति (श्रीकृष्ण) में कद्दा गया है।
६ गुण का क्रिया से विरोध १ उदाहरण यथा--सोरठां्ू । मरन महा कल्यान, बिनवों तिहि वारानसिहि | &
यहाँ कल्याण गुण का मरण क्रिया से विरोध होने पर भी इनका संयोग बतलाया गया है । २ पुनः यथा--चौपाई ( अद्ध )। करतहु कुसल अकुसल अकारी । जड़ बिक्षिप्त मत्त ब्यवहारी ॥
$ दो । & पूरा पद्य जाति और द्रब्ब के 'विरोधः में देखिए ।
श्श्ष भारती-भूषण
यहाँ भी 'करत” क्रिया का उसके विरुद्ध 'अकारी? ( न करने वाला ) गुण से संसगग कद्दा गया है। ३ पुनः यथा--शेर । तज़े ( समस्या ) । “रंग लाया है दुपट्टा तेरा मैला होकर।” ग्रुरू गोरख का रहा जब से तू चेला होकर ॥ ख़ाक' मल घूमा बियाबाँ' में अकेला होकर। पालिया नूरेखदा जिस्म घिनैला होकर ॥ रंग लाया है दुपट्टा तेशा मैला होकर।& यहाँ भी 'घिनैला' गुण और 'नूरे खुदा ( अद्य-ज्योति ) को प्राप्त कर लेना! क्रिया का विरोध द्ोने पर भी संसर्ग है । ४ पुनः यथा--छप्पय । मेरू मरुत-मति नहिन, मेरुमति मरुत न मानिय। भानलु हिमाकर भो न, हिमाकर भाजु न ज्ानिय ॥ बारिध मरु' नहिं वनिय, मरु न बारिध-विधि ठानिय । गगन न भुव-सिर गनिय, भुव न सिर-गगन पिछानिय ।। इन बिच न इक्त इत की उतें, कर न सक्यो अकरन-करन।
कहि ! करन-मरन नर-करन ते, माने किहि विधि मोर मन १ ॥
+र्वरामी गणेशपुरीजी ( पद्मेश )।
यहाँ भी राजा धृतराष्ट्र के कथन में 'अऋकरन-करन! (न करने
योग्य कार्य भी कर देनेवाला ) गुण का 'कर न सक्यौ' क्रिया से विरोध द्वोने पर भी संसर्ग द्वो गया है ।
$ भस्म। २ निजन बन । ३ मारवाड़ देश । ४ भजुन के हाथों से । & यहाँ विरक्त भरृंहरि के प्रति कवि का कथन है।
विरोध २१६
७ गुण का द्रव्य से विरोध १ उदाहरण यथा--दोहा । श्रीपति श्री दैवो सुन्यो, विप्र खुदामहि ढेर । ज्ञाचक भे लालच लगे, सुरतरू धनद् खुमेर ॥ यहाँ 'याचक' गुण का सुरतरु, धनद् और सुमेरु विरोधी द्रब्यों से संसग वर्णित है । २ पुनः यथा--कवित्त । बेधा होत फूहर, कलपतरू थूहर, परमहंस चूहर की होत परिपाटी को। भूपति मँगेया होत, ऋमधेनु छैया होति, होत है गयंद नित चेरो चित चाँटी को ॥ कहै कबि 'घासोराम' पुन्य किएँ पाप होत, बैरी निज बाप होत, साँप होत साथी को | स्याल सम खेर होत निर्धन कुबेर होत, दिनन के फेर ते खुमेर होत मादी को ॥ +-धासीराम । यहाँ फूदढ़ गुण और वेधा ( ब्रह्मा ) द्रव्य तथा निर्धन गुण और कुबेर द्रव्य, परस्पर विरोधी पदार्थ हैं, जिनका संयोग कहा गया है । दो जगह यद्दी चमत्कार है ।
८ क्रिया का क्रिया से विरोध १ उदाहरण यथा--दोहा बिनमत जे जन ते अवसि, उन्नत होत अपार
लदत मरुस्थल-क्ूप -जल, तारन की अलुहार ॥
२२० भारती-भूषण
_. ब्दाँ विनमत' ( नन्न होते हैं) और “उज्ञत होत ( ऊन, द्वोते हैं ) विरोधी क्रियाएँ एक स्थल पर द्वोने का वर्णन है। २ पुनः यथा--कवित्त । अमल-चरित तुम वेरिन मलिन करी, साधु कहें साधु पर-दार-प्रिय अति हौ। एक थल थित पै बसत जग-जन-मध्य, केसौदास' द्विपद पे बहु-पद-गति हौ॥ भूषन सकल-जुत सीस धरे भूमि-भार, भूतल फिरत यों अमभ्रूत भरुव-पति होौ॥ राखो गाय ब्राक्ममनि राज-खिंह साथ, चिरु रामचंद्र | राज करो अदभुत गति हौ॥ --केशवदास । यहाँ भी एक स्थल पर स्थित रहना और संसार-भर के मनुष्यों में वास करना, इन विरोधी क्रियाओं का संयोग हुआ है । & किया का द्रव्य से विरोध १ उदाइरण यथा--दोहा । खुनि नारायन-नाम को, निज दूतन ते हाल । धूजि पस्ल्ो जम-लोक, डरि, कंपन लाग्याँ काल॥ यहाँ 'डरि कंपन लाग्यौ ( भय से काँगने लगा )' क्रिया का “काल! द्रव्य से विरोध होने पर भी संयोग कहा गया है। २ पुनः यथा--दोहा । करहि भजन-पूजन सदा, करहिँ न फल की आस | तिन हरि-जन-घर चंचला, करहिं. निरंतर बास ॥ --शिवकुमार कुमार? ।
विरोध श्र१्
यहाँ भी “निरंतर बास करना क्रिया और चंचला (लक्ष्मी) द्रव्य इन विरोधी पदार्थों का संसर्ग कद्दा गया है ।
१० द्रव्य का द्रव्य से विरोध १ उदाहरण यथा--दोहा | अ्रति उदार नर-नारि जहँ, बहु जन धनिक घनेस। मालव भो इहिं काल तू , धन्य-धन्न्य मरु देस !॥ यहाँ मरुस्थल एवं मालव देश द्रव्यों का ( कृषि-ठपज- संबंधी ) विरोध दोने पर भी इनका संयोग कह्दा गया है । २ पुनः यथा--सवैया । द्च्छिन-नायक' एक तुदी भुव-सामिनि को अल॒कूल * है भावे । दीन-द्याल न तो सो दुनी अरु स्लेच्छ के दीनहि मारि मिटाबै ॥ श्रीसिवराज ! भने कवि 'भूषन' तेरे सरूपहि कोड न पावे। सर के बंस मैं सूर-सिरोमनि हेकरि तू कुल-चंद कहावे॥ --भूषण । यहाँ भी सूर्य और चंद्र विरोधी द्रव्यों का एक छत्रपति शिवाजी में एक साथ स्थित द्वोने का वर्णन किया गया है । खूचना--ऊपर विरोध? के जो उदाहरण दिए गए हैं, उनमेंसे कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जिनमें तत्संबंधी डछिखित एक “विरोध! के भति- रिक्त अन्य प्रकार के विरोध? भी पाए जाते हैं; किंतु हमने मिलाम में उसी विरोध की ब्याख्या की है जिस भेद में वह दिया गया हे; विस्तार- भय से अन्यान्य विरोधों की चर्चा वहाँ नहीं की गई है। +३०२-४-०८४४ $:4<८7२«-६--
$ दक्षिण-देश के राजा और नायक का एक भेद । २ नायक-विशेष । ३ मजहब को ।
श्र२ भारतो-भूषण
(३४) विभावना
जहाँ कारण और काय के संबंध का किसी विचि- त्रता से वणन हो, वहाँ “विभावना” अलंकार होता है। इसके ६ भेद हैं-- १ प्रथम विभावना
जिसमें कारण के अभाव में भी कार्योत्पत्ति हो | १ उदाहरण यथा--चौपाई ।
मनहु न फुरे बचन हु न जाचे | तेड खुख दीन्ह अकारन राचे ॥ तुमते उऋन होहूँ किहधिं करमन। ज्ञान न भक्ति न ध्यान न धरम न ॥
यहाँ पूर्वाद्ध में अपने इष्ट श्रीशंकरजी से ग्रंथकर्त्ता के मान सिक स्फुरणा होने एवं याचना रूप कारणों के अभाव में भी सुख-प्राप्ति रूप काये होने का वर्णन है ।
२ पुनः यथा--दोहा । , ५ साहि-तने सिवराज की, सहज टेवब यह पेन। “॑ अनरीके दारिद हरे, अनखीमे श्ररि-सैन ॥ -भूषण ।
यहाँ भी छत्रपति शिवाजी के रीमने एवं खीमने कारणों के विना दी दारिद्रय-इरण एवं शत्रु-सेना का संद्ार रूपी कार्य उत्पन्न हुए हैं ।
२ द्वितीय विभावना जिसमें कारण की अपूर्णाता में भी कार्योत्पत्ति हो ।
विभावना श्ररे १ उदाहरण यथा--दोहा । स्वल्प हि पढ़े पटु संस्कृत, भणए देख-विख्यात! | हां तिनको कछु पठित ह, भाषा बिरचि सिहात॥ यहाँ 'स्वल्प द्वि पढ़ि! अपूर्ण कारण से संस्कृत में निपुण द्वोने की कार्योत्पत्ति हुई है । २ पुनः यथा--सवैया । चातक संबत में इक बूँद पित्रैं तिह आश्रित प्रान रहे। देखत चंद की ओर चकोर रहे मिलिबे हु को आस गहे॥ प्रान-विथा न बने चकवान को दयौस सँयोग सदा ही लहै। है न निमित्त हु मित्त! इतो दुख चित्त कहो कि्हि भाँति सहै ॥ यहाँ भी घ्वाति की एक दूँद पान करने मात्र कारण से चातक का एक वर्ष पर्यत प्राण धारण किए रहना काये हुआ है । ३ पुनः यथा--छप्पै । समुद-सिखर गढ़ परनि राउ दिल्ली-दिस चल्निव। वादिसाह' खुनि खबरि धाइ बीच हि रन मिल्लिव ॥ सकल सिमिटि सामंत “चंद” केमाँस' वुद्धिवर । लहेउ जुद्ध चोहान गह्यो पृथिराज साह-कर ॥ रजपूत हूटि पच्चास रन लूटि जबर सेना घनिय। पट्टान सात हज्जार पर जीति चल्यो संभरि/-घनिय ॥ --चंद बरदाई। यहाँ भी केवल पचास राजपूतों रूपी अपूर्ण कारण से सात हजार पठानों को जीतने का कार्य हुआ है ।
$ प्रंथकर्तां के ज्येष्ठ पितृज्य एवं पिता। २ 'समुद-शिखरः नामऋु राजधानी से पद्मावती को लेकर दिल्ली छौटते समय। ३ बादशाह शहाबुद्दीन गोरी । ४ सामंत-विशेष । ५ एथ्वीराज की राजधानी ।
२२४ भारती-भूषण
३ तृतीय विभावना
जिसमें प्रतिबंधक' के होते हुए भी कार्योत्पत्ति हो । १ उदाहरण यथा--कवित्त ।
माई मन माहि ना दुराई हू उकलि आई,
कीधों प्रान-प्रीतम की प्रीति पदु प्यारी के । विजय-पताका के बिचित्र रंग राची संग,
जंग जग-जीत लौं अनंग-असवारी के | लाज की कना त कीर्धो काया छिति-जात' की है,
कीधों कोड माया मन-मोहिनी मुरारी के। कंचन -किनारी मसगमद की महकवारी,
कीधघों इकतारी सीस सारी खुकुमारी के ॥ यहाँ प्रथम चरण में नायिका द्वारा छिपाए जाने' का प्रति-
बंध द्ोते हुए भी 'पति-प्रेम प्रकट दो जाना! काये हुआ है । २ पुनः यथा--कवित्त ।
पाँय परि साहें ३० कु क्यों हूँ रुत़ पाइ जाइ,
हैं लवाइ लाई सादर दरीची मैं। गंधक ओऔ लोह पाइ पारद ओ चुंबक लों,
भेटे बिरहाधि-ब्याधि-कादर दरीची मैं ॥ राजत सनेह-खुख-साने दोउ ताने स्याम *,
चौलर चहँघाँ चारू चादर दरीची मैं। तो भी चहुूँ ओर ताके छुहरें छुटा के छोर,
थिरकि रही है' बिज्जु बादर-दरीची मैं ॥
3 रोकनेवाला । २ मंगल । ३ नीले रंग की । ४ चमक रही है।
विभावना श्र्प
ंखच्श््श्त्त्व्ल्ल्ल्ल्-लिलललत >> >> > जल ज
यहाँ भी उतराद्ध में नायिका के चारों तरफ “'चौलर चादर! का प्रतिबंध होते हुए भी उनकी अंग-द्युति के प्रकाश फैलने का काये हुआ है । ३ पुनः यथा--कवित्त । बह तो कदापि कहीं आता ओर जाता नहीं, किंतु चुपके से चित्त सबका चुराता है। ज्यों रवि निशा में त्यों ही रहता छिपा है सदा, तो भी निज ज्योति सब कहीं दिखवलाता है | उसका अनूप रूप हग देख पाते नहीं, पर वह लोचनों में आप ही समाता है। उसका विचित्र चित्र कोई खींच पाता नहों, कितु वह् उर में स्वयं हो खिच जाता है | --ठाकुर गोपालशरणसिंह यहाँ भी द्वितीय चरण में परमात्मा के छिपे रहने रूपी प्रतिबंध के होते हुए भी उसकी ज्योति सबंत्र प्रकाशित होने की कार्योत्पत्ति हुई है ।
४ चतुर्थ विभावना
जिसमें कारणांतर से ( जिस काय का जो कारण हो, उसके बिना किसी अन्य कारण से ) कार्योत्पत्ति हो । १ उदाहरण यथा--दोदा । यह अचरज आँखिन लख्यो, सख्त ] न साँच को आँच । निकसी नीरज-नाल' ते, चंपक-कलिका पाँच ॥ ३ भुजा । २ अंगुली । श्प
छ्र८ भारतो-भूषण
यहाँ कमल-नाल ( कारणांतर ) से चंपक-कलियों ( कार्य ) का उत्पन्न होना कहा गया है । ५़ढ २ पुनः यथा--दोहा । .ै) हँलत बाल के बदन मैं, यों छबि कछू अतूल। फूली चंपक-वेलि ते, करत चमेली-फूल॥ --मतिराम । यहाँ भी चंपक-वेलि कारणांतर से चमेली के फूल मड़ने का 'काये हुआ है ४५ पंचम विभावना जिसमें विलोम (विपरीत ) का र॑ण से कार्योत्पत्ति हो । १ उदाहरण यथा--दोदा । बदन - सुधाधर श्रवत तब, सबिष बिसिख से बैन । कढ़त कमल-दल-जीह ते, वचन कठेठे. ऐन ॥ यहाँ नायिका के मुख-सुधाधर और जिह्ला-कमल-दल रूपी विरुद्ध कारणों से विषेले बाण एवं कठोर वचन कार्यों का उत्पन्न दोना वर्शित है | दो दोने से माला है । २ पुनः यथा--चौपाई ( अद्धे )। 'पान कीन्ह बिष विषम असेषा | कितु कंठ-श्री भई विशेषा ॥ यहाँ भी श्रीमद्दादेवजी के विष पान करने के विपरीत कारण से कंठ-श्री ( शोभा ) होना काये हुआ है । ३ पुनः यथा--सबैया । साव॑न अंधिन हेरि सखी ! मन-भावन आयन चोप बिसेखो ।_ छाए कहूँ 'घनश्रानद' जान सँभार की ठौर लै श्वूलनि लेखी ॥
विभावना २२७
बूँदें लगें सब अंग उदे उलदी गति आपने पापनि पेख्री।
पौन सों जागत आगि खुनी हो ये पानी सो लागत आज मैं देखी ॥
+घनभानंद ।
यहाँ भी वर्षा के पानी रूपी विरुद्ध कारण द्वारा अग्नि सुलगने का कार्य हुआ है ।
६ षष्ठ विभावना जिसमें काये से कारण की उत्पत्ति हो | १ उदाहरण यथा--दोद्ा । अति अदभुत अंबुज'-बदनि ! कंठ-कंबु को अंग । स्वर-अंबुधि' लहरात नभ,-मंडल राग-तरंग | यद्यपि शंख कार्य की उत्पत्ति समुद्र कारण से द्वोना प्रसिद्ध है, तो भी यहाँ इसके विपरीत शंख कार्य से समुद्र कारण की उत्पत्ति कद्दी गई है । २ पुनः यथा--सवैया । जानति ही न बसंत को आगम बेठी ही ध्यान घर निज्ञ पी को । एते में कानन-ओर सो आइके कानन में पस्मो बोल पिकी को ॥ हे रंघुनाथ' कहा कहिए कहि आयो 'हा! आयो गरो भरि ती को । लोचन-बारिज सो अँंसुवा को अथाह बल्लो परबाह नदो को ॥ “-रघुनाथ । यहाँ भी प्रोषित-पतिका नायिका के नेत्र-कमल कार्य से अश्रु- जल-नदो-प्रवाह् कारण का उत्पन्न होना वर्शित है ।
१३ कम्रछ। २ कंठ रूपी शंख से उत्पन्न । ह समुद्र ।
श्र८ं भारती-भूषण
| ३ पुनः यथा--दोद्ा । चतुराई तेरी अरी |, मोप कहत बने ना निकसत मुख-ससि सो बचन, रस-सागर खुखदैन ॥ --राजा र।मर्सिह् ( नरव॒लूगढ़ )। यहाँ भी चंद्रमा कार्य से समुद्र कारण की उत्पत्ति कद्दी गई है। सूचना--इस 'विभावना? अलंकार से प्रर्वोक्त 'विरोध! भलंकार मिछता-जुलता है; किंतु भेद यह्द है कि “विरोध? में विरोधी पदार्थों का संसर्ग कद्दा जाता है एवं कारण-कार्य के संबंध का नियम नहीं होता; और यहाँ कारणकाय नियमित होते हैं ।
(३५) विशेषोक्लि जहाँ पूर्णा कारण के होने पर भी कार्य का अभाव वर्णित हो, वहाँ “विशेषोक्ति' अलंकार होता है। इसके तीन भेद हैं--
१ उक्तनिमित्ता जिसमें कार्य के अभाव का निमित्त कहा जाय । १ उदाहरण यथा--सवैया ।
एक हि चक्र' अचक्र किए खुर-सत्रुन चक्ृृत सक्र के चेरे। तें दुर तैले हि पाइ खुदसेन न्याय किए बस मोहन मेरे ॥ घेरे रहे घघरा इु के घेरन नेरे रहे हुन पावत हेरे। काम के तंबु कि तुंबुरु ही के तँबूरे नितंव नितंबिनि | तेरे॥
यहाँ नायक का नायिका के नितंबो के निकट रहना कारण है; और इस कारण के द्ोते हुए भी नितंत्रों के दिखाई पड़ने के
$ सुदर्शन | २ सैन्य-रद्वित। ३ गंधवेराज तुंबुरू ।
विशेषोक्ति २२७
न नली तक दीदी डक रा आल कार्य का अभाव है। इसका निमित्त “घेरे रहें घघरा हु के घेरन कह्दा गया है, इससे “उक्तनिमित्ता! है । २ पुनः यथा--कवित्त । सिखे हारी सखी डरपाइ हारो कादं बिनी,' दामिनो दिखाइ हारी दिलि अधरात की | मुकि-फुकि हारी रति मारि-मारि हास्यौ मार, हारी भकभोरति जिविध गति बात की ॥ दई | निरदई दई वाहि ऐसी काहे मति, जारत जो रात-द्नि दाह ऐसे गातकी। कैसे हू न माने हो मनाइ हारे 'केसौराय', बोलि हारी कोकिला बुलाइ हारी चातकी ॥
--केशवदास |
यहाँ भी नायिका के मान-मोचन के 'सिखै दवारी सखी' आदि अनेक कारण होते हुए भी मान-मोचन काये न द्ोने का निमित्त
“हुई | निरद्ई दई वाद्दि ऐसी काह्दे मति” कहा गया ह्दै।
३ पुनः यथा--सवैया ।
बारिध तात इतो विधि लो खुत आदित-सोम सहोदर दोऊ। रंभ समा भगिनी जिनके मधवा मघधुसदन से बहनोऊ॥ तच्छ तुषार परै जल-भार इतो परिवार सहाय न सोऊ। इूटि सरोज गिरै जल मैं खुख-संपति मैं सबके सब कोऊ॥ --श्रज्ञात कवि । यहाँ भी कमल के समुद्र आदि अनेक संबंधी कारण हैं; इनके दोते हुए भी उसकी तुषार-जन्य विपत्ति में सद्दाय रूपी काये न होने का निमित्त “सुख-संपति में सबके सब कोउर” कद्दा गया दै।
१ सेघमालछा ।
बरें० भारतीभूषण
४ पुन: यथा--पद। जो कोउ बृंदावन-रस चाखे । भ्रुवन चतुरदस-त्तीनलोक-खुख सपने हु न अभिलाखे ॥ ज्ुगल-रूप बिन पलक न खोले, लोभ दिखावौ लाख । “ललित किसोरी' परे कुज में स्थाम-राधिका भाखे ॥ --साह कुंदनलछालजी ( छछित किशोरी )॥ यहाँ भी लाखों लोभ दिखाना कारण है; उस कारण के होते हुए भो पलक खोलने के कार्य का अभाव है; और इसका निमित्त “युगल-रूप का दर्शन न द्दोना” कहा गया है । २ अनुकर्तनिभिसा जिसमें कार्य के अभाव का निमित्त न कहा जाय । १ उदाइरण यथा--दोहा । तीन उपाय किए तदपि, छुट्यौ न छिनक कुसंग | सख्तरि ! खुर-लाधन मात्र ते, सब्द न देत सृदंग। यहाँ प्रौद्ा-अधीरा नायिका की सखी से चक्ति है कि साम, दान एवं भेद तीन उपाय करने पर भी नायक ने कुसंग नहीं छोड़ा, इस प्रकार कारण के द्वोते हुए भी काये का अभाव, विना किसी निमित्त के, बतलाया गया है । २ पुनः यथा--दोहा । बसे न सर, बिकसे निरख्ति, मन-मोहन-मुख-चंद | रवि लखि हँसे न कंज यह, राधघा-मुख खुख-कंद ॥ यहाँ भी सूर्य कारण के द्वोते हुए कमल के विकसित होने के कार्य का न द्वोना, किसी निमित्त के विना कट्दा गया है ।
विशेषोक्ति रश्षट
३ पुनः यथा--दोद्दा । नेम धरम आचार तप, ज्ञान जज्ञ जप दान। भेषज्ञ पुनि कोटिक, नहीं, रोग जाहि हरि-जञान ! ॥ --रामचरित-मानस । यहाँ भी नियम, धर्मोदे अनेर औषधियों रूपी कारणों के होते हुए मानस-रोग-निदृत्ति काये का न द्वोना, किसी निमित्त के विना कहा गया है । ४ पुनः यथा-दोहा । सोचबत जञागत सपन-वस, रस रिस चैन कुचैन | सुरत स्याम-घन की, खुरत, बिसरे ह बिसरे न॥ --विद्दारी । यहाँ भी प्रोषित-पतिका नायिका के (वियोग-व्यथा से) स्छृति- शून्य ( बेदोश ) दो जाने पर भी श्रीघनश्याप्त की सूरत भूलने के कार्य का अभाव किसी निमित्त के विना वर्णित दै । ३ अचित्पनिमित्ता जिसमें कार्य के अभाव का निमित्त अचित्य ' हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । डर तन मन दाहत जद॒पि, मान निदाघ' मनोज । तड तनकड तिय तरूनि के, तपत न अहो ! उरोज ॥ यहाँ मानवती नायिका के उर, तन एवं मन तप्त होने के ख्प में समुचित कारण विद्यमान दै, तथापि कुच तप्त द्वोने के काये का अभाव है; और “अदह्दो' शब्द आश्चर्य-बाची है; इससे यह “अचित्यनिमित्ता' है ।
$ समझ में न आनेवाहा | २ ग्रीष्प ।
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ल्4.०५२०५२२५२६२०६०३०००६२०००५-२ ४२ ५८०े५न पक १५१2 द पर अ+-<०९२२२०९२२ ८ नरक
२३२ भारती-भूषण
२ पुनः यथा--दोद्दा । कृूस तन पर घन करत बिष,'-सीकर-सर-संपात। तड तजि गात न जात ज्िय, अचरज्ञ उर न समात ॥ यहाँ भी विरद्दिणी नायिका के कृश शरीर पर बादल द्वारा विष-शीकर (जन्-बँद) रूपी बाणों का आघात कारण है, जिसके द्ोते हुए भी प्राणांत काये के अभाव का निमित्त अवरज उर न समात' वाक्य से अर्चित्य रूप में वर्शित हुआ है । ३ पुनः यथा--दोद्दा । प्यौ राख्यो परदेस ते, अति अदभ्भुत दरसाइ।
कनक-कलस पानिप' भरे, सगुना उरोज दिखाइ॥ -मतिराम ।
यहाँ भी भाव यह है--“प्रवत्स्यत्पतिका नायिका ने अपने ( पानिप से परिपूर्ण ) कनकऋ-कलश रूपी उरोजों का शुभ शकुन दिखाकर पति को विदेश जाने से रोक लिया” यदह्दी अद्भव ( अचित्य ) निमित्त है; और उक्त शुभ शकुन रूपी कारण के द्ोते हुए भी विदेश-गप्नन का काये नहीं हुआ, यद्दी 'विशेषोक्ति! है ।
सूचन[--यढ “विशेषोक्ति? अलंकार पूर्वोक्त विभावना' अलंकार के प्रथम भेद का विरोधी है ।
>>शि# धकआर«- (३६) असंभव
जहाँ क्रिसी पदार्थ की असंभवता बतलाई जाय, वहाँ असंभव” अलंकार होता है। इसके वाचक भायः $ जल । २ जल एवं सौंदय | ३ शकुन एवं गुणवाले
असंभव २३३
“कौन जानता था! वा इसीके दूसरे आश्रय-सचक पर्याय
होते हैं ।
१ उदाहरण यथा--दोहा ।
लखि सँकेत सूनो कहति, कान्ह-कथन भो कूर। को जानत रहि आज्जु अलि !, अथहिं अपच्छिम सूर ॥
यहाँ विप्रलब्धा नायिका संकेत-स्थल में नायक को न पाने पर सखी से कहती है--“आज श्रीकृष्ण मद्दाराज की बात भी अपश्रिम ( पूर्व ) में सू्ौस््त द्वोने की भाँति मिथ्या दो गई !” और यह असंभवा्े 'को जानत रहि' वाचक से सिद्ध है ।
२ पुनः यथा-सबैया ।
साज सज्यो तप रामहि राज लौं रीति जथा कुल बेद-पुरान की । बाजै बधाई भरी घुनि घामनि कोकिल-कंठिन के कल गान की ॥ सो सपनो सो भयो, सपने हुन जानी वही भई बात अठान की । आजऊु श्रचानक साजुज-जानकी जानकी-जीवन के बन जान की ॥
यहाँ भी श्रीरामचंद्र के राज्याभिषेक की बात तो स्वप्न सम हो गई और उसी समय लक्ष्मण-जानक्री-सदित वन-गमन की असंभव दुघटना द्ोने का 'सपने हु न जानी वही भई वाक्य द्वारा वर्णन दहै।
३ पुनः यथ--खत्ैया ।
बात कहा दह-भीतर की गहि लेत हौ ऊपर आइके हाली | एक ह योस कहै 'रघुनाथ' पस्तो पखु माउुस सौं नहिं खाली ॥ आज्ञु की बात कहा कहिए ] कहि आबतु है कछु मो पैन आली ! । नाथिके कालिंदी सौं कियो बाहर का ल््हिके छोहरा काल सो काली
--रघुनाथ |
२३४ भारती-भूषण
यहाँ भी श्रीबालक्ृष्ण का यमुना में प्रवेश करके काल के समान कालीय नाग को नाथकर निकाल देना असंभवाथे “आज़ु- की बात कहा कद्दिए” वाक्य द्वारा वर्णित हुआ है ।
बेस ह्टरटूदब_.
(३७) असंगति जहाँ कारण-कार्य का वा केवल कार्य का संगति के : बिना ( स्वाभाविक संबंध के विपरीत ) किसी रमणीय उलट-फेर से वर्शन हो, वहाँ “असंगति” अलंकार होता है । इसके तीन भेद हैं--
१ प्रथम असंगति
कारण-कार्य का एकाधिकरणय ( एक स्थल में संगति ) अप्नि-धूम की भाँति खभाव-सिद्ध होता है; परंतु जिसमें इसके विरुद्ध एक ही समय में अत्यंत वैवधिकरण्य ' पूर्वक (कारण कहीं और कार्य कहीं) इनकी स्थिति कही जाय ! १ उदाहरण यथा--दोहा । ह ; मथुरा जायो देवकी, जदु-कुल-कैरव - चंद । गोकुल भो ताको तबहिं, नंद-सदन आनंद ॥ यहाँ पुत्र-जन्म रूपी कारण तो माता देवकी के यहाँ मथुरा
+ पकदेशता को एुकाधिकरण्य कहते हैं। २ मिन्रदेदाता को बैय- घिकरण्य कद्दते हैं ।
असंगति २३५
में होना और पुत्रोत्सव मनाया जाना कारये श्रीनंदराय के घर गोकुल में उसी समय द्वोना वर्रित है।
२ पुनः यथा-दोहा । डग उरभत, हूटत कुठुम, ज्ुरति चतुर-संग प्रीति | परति गाँठि दुरजञन हिये, दई! नई यह रीति॥ --विहारी । यहाँ भी दग के उलमने में कुद्ुंब का टूटना, चतुर से प्रीति लगना और दुजत के मन में गाँठ पड़ना | इस प्रकार कारण-कार्य में भिन्नदेशता वर्णित है ।
३ पुनः यथा--दोहा । मनसिज-माली की उपज, कही रहीम न जाइ। फूल स्याम के उर लगे, फल स्यामा-डर आइ॥ --रहीम । यहाँ भी फूल ( फूलना- आनंद ) कारण का तो कृष्ण के उर में और फल ( कुच ) कार्य का नायिका के उरस्थल में ( एक साथ ) द्ोना कहा गया है।
खूचना-( १ ) यहाँ लक्षण में 'अत्यंत'ः शब्द छिखने का तात्पये यह है कि साधारण भिन्नदेशता में चमत्कार नहीं होता । जैये यदि कद्दा जाय--“मोतियों की माला तो कंठ घारण करता है; किंत॒ तृप्त होते हैं नेत्र! तो इस वाक्य में यह अरंकार नहीं होगा; क्योंकि अर्गों के विभूषित होने से नेश्रों का तृप्त होना स्वभाव-सिद्ध है ।
(२ ) पूर्वोक्त 'विरोध' अलंकार में भिन्न-भिन्न स्थर्कों में रहनेवाले विरोधी पदार्थों ( जाति, गुण, क्रिया एवं व्ृव्य ) की एुक स्थल में स्थिति € संसर्ग ) बतलाई जाती है; भर यहाँ एक जगह रहनेवाले कारण -कार्य की भिश्न-भिन्न देशों में स्थिति कही जाती है।
२३६ भारती-भूषण
२ द्वितीय असंगति जिसमें किसी काय का अपने उपयुक्त स्थान पर न होकर किसी अ्रन्य स्थान पर होना बतलाया जाय | १ उदाहरण यथा--सवेया । केउ कंचुकि-अंचल ओडढ़ि चलीं,केउ जाति अनंचल' हू न लजी । गर मेखला डारि कसे कटि हार कपोलन अंजन-रेख ऑजी ॥ मन-मोहिनी मोहिनी' सी ज्ुबती भइ मोहित मोहन-रूप-रँजी । कुल-कानि तजी सब जाति भजी, जब कान्हर की बन बेजु बजी ॥ यहाँ पू्ाद्ध में श्रीकृष्ण का वेणु-शब्द श्रवण करते ही रास में जानेवाली गोपिकाओं का अंचल के स्थान पर कंचुझछी (आऑंगिया ) ओढ़ लेने आदि विपरीत वेष-रचना का वशोन है । २ पुन: यथा--दोढ़ा ।
५ पलनि पीक, अंजन अधर, धरे महावर भाल। आजऊु मिले खु भली करी, भले बने हो लाल !॥ >बविद्दारी ।
यहाँ भी अन्य नायिका के स्थान से आनेवाले श्रोकृष्ण की पलकों पर पीक, ओठों पर अंजन एवं ललाट में मद्दावर की स्थानांतर-रचना का वर्णन है । ३ तृतीय असंगति जिसमें कोई कार्य करने को उद्यत होने पर उसके विपरीत कार्य करने का वर्णन हो । ३ बिना वस्धी | २ करघनी | ३ मोहिनी कवतार ।
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असंगति २३७
१ उदाहरण यथा--सोरठा । बनि बामन बलि-गेह, हरन गए सरवस्व हरि। दे आए निज देह, चार मास प्रतिहार हे ॥ यहाँ दैत्यराज बलि का सवेस्व लेने के लिये जानेवाले श्रीवामन भगवान् का चातुमोस््य के लिये उसके द्वारपाल बनकर अपना शरीर दे आने का विपरीत कारय वर्णित हुआ है। २ पुनः यथा--सवैया । बेद-विधान बिजै-बर-हेतु बड़ी विधि सौं ह्विज-देव निहोर्थों । ओऔकचक बानर को दल आइ हुतासन-कुंडर्हिं बारि सा बोरथो ॥ क्रोध भस्यी 'लछिराम' तहीं जिहि सामुद्दे मंगल को घट फोरधी । रावन श्रीमख-साधन छोड़ि बली ले गदा हनुमान पै दौरयो ॥ --ऊछिराम + यहाँ भी रावण का यज्ञ ( सत्काये ) छोड़कर हनुमान आदि की हिंसा करने के लिये गदा लेकर दौड़ने का वर्णन हुआ है । ३ पुनः यथा--दोहा । यह ऊलट कासों कहीं, निकट खुनाइ खु बेन। .. आए जीवन देन घन, लगे सु जीवन लैन॥ --हिंदी-अलंकार-प्रबोध । यहाँ भी जीवन देने के लिये आए हुए मेधों द्वारा वियो* गिली के जीवन लेने का विपरीत काये किया जाना कह्दा गया है |
_्हेंकड.
मर्द न कक कक परम मनन पक
श्रे८ भारती-भूषण
(३८) विषम जहाँ विषप घटनाओं का वर्णन हो, वहाँ “विषम अलंकार होता है । इसके तीन भेद हैं--
१ प्रथम विषम
जिसमें कुछ संबंधियों के स्वाभाविक धम में विप- मता होने से उनका अयोग्य संबंध वर्णित हो । १ उदाहरण यथा--कवित्त । कंटक्ित केतकी गुलाब करि डारे, कारे, काकन से कोकिल, कलंकित कला-निधान। दरसे द्रिद्विन के दस-पाँच पूत प्राय, पएकहि लॉ तरसे घनेस मलुजेस जान ॥ ब्रज मैं करीर, नीर नौरधि के खारे किए, दाता धन-हीन दीन, कृपन सम्ठद्धिमान। नाम अज ही ते परै जान, पे अठान चार- आनन के कैसे एक आनन करे बखान ॥ यहाँ केतकी एवं गुलाब का कंटकों से, कोकिल का श्याम वर्ण से एवं चंद्रादि का कलंकादि से विलोम धर्म होने पर उनका परस्पर अयोग्य संबंध वर्शित है । | २ पुनः यथा--दोहा । : खुख-सरूप रघुबंस-मनि, मंगल-मोद- निधान । ते सोबत कुस डासि मदि, बिधि-गति अति बलवान ॥
-रामचरित-मानस ।
विषम २३६
यहाँ भी सुख-स्वरूप, रघुन्वंश-मरिण और मंगल-निधान श्री- रामचंद्रजी का पृथ्वी पर विछी हुई कुश-साँथरी से अयोग्य संबंध बतलाया गया है । ३ पुनः यथा-- जब जनमने का नहीं था नाम भी हमने लिया | दो घड़ा तय्यार दूधों का तभी उसने किया ॥ आपदा टालीं अनेको बुद्धि, बल, विद्या दिया । की भलाई की न जाने ओर भी कितनी क्रिया ॥ तीनपन है वोतता तो भी तनिक चेते नहीं । हम पतित ऐसे हैं उसका नाम तक लेते नहीं ॥ +पं० अयोध्याधिंद उपाध्याय । यहाँ भी मनुष्य के जन्म से पहले द्वी दुग्ध के दो घड़े तय्यार करने आदि अनेक उपकारों के कत्ता परमात्मा का और जिसने परमात्मा का स्मरण तक नहीं किया, ऐसे मनुष्य का विषम संबंध वर्रितत हुआ है । ह ४ पुनः यथा--चौपाई ( अद्ध ) । कहँधघनु कुलिसडु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल स्दु गात किसोरा॥ --रामचरित-मानस ॥ यहाँ भी श्रीरघुनाथजी के मदु गात का महा कठोर घनुष स्रे अयोग्य संबंध बतलाया गया है । खूचना --.पूर्वोक्त (विरोध? अलंकार में उन पदार्थों का संसर्ग कहा जाता है, जिनसें परस्पर विरोध द्ोता है; और यहाँ जिन पदार्थों का पारस्परिक संबंध अयोग्य द्ोता 'थ होता द्ै, उनका वह संबंध कहा जाता है। यदी मेचनता है! उनका वह संबंध कहा जाता है। यदी भिन्नता है।
१ बढ़कर ।
२8० भारती-भूषण
२ द्वितीय विषम
जिसमें कारण ओर काय की गुण-क्रियाओं की विषमता का वर्णन हो । १ उदाहरण यथा--सवैया । कारन आदि तिहारो कह्यो, कमलासनजू को कमंडलु कारो | दूजो भयौ घन स्याम' जबें, पद्मापति' को पद पूत पख्ारो ॥ त्यों ही ठृतीय भयो है जिलोचन-जूट-जटान को घोर अँधारो। तीनहुँ' अंब ! अर्ंभित हैं लखि कंबु-कद्ंबक-अंबु' तिहारो॥ यहाँ श्रीगंगाजी के उत्पादक कमंडछ आदि कारणों के श्याम और गंगाजल कार के श्वेत रंग ( गुण ) द्वोने की विषमता का वर्णन हुआ है । २ पुनः यथा--कवित्त-चरण । खुकुमारी खुंद्री कुसोदरो सिवा पै सज्यो', थूल बिकराल लंब-उद्र कुमार है।& यहाँ भी श्रीपावंत्ीजी ( कारण ) के सुकुमारी, सुंदरी एवं कृशोदरी गुणों से विपरीत श्रीगणेशजी ( काये ) के क्रमशः स्थूल, बिकराल एवं लंबोदर गुणों का वर्णन है । ३ पुनः यथा--दोहा । सेत पीत हर-गौरि-तलु, रख” गंधक अलुरूप । तिहि तिनकर खुमिरन-रगर, करत स्याम तनु रूप ॥ $ अत्यंत श्याम । २ विष्णु । ३ ब्रद्मा, विष्णु, शिव और अ्रिछोक। ४ शंख-समुदाय जैसा जल। ५ पार्वती । ६ उत्पन्न किया। ७ पारा। & पूरा पथ्य 'मंगछाचरण!? में देखिए ।
विषम २४१
यहाँ भी श्रीशंकर-पावंती ( कारणों ) के श्वेत एवं पीत वर्ण गुणों से विपरीत, श्याम ( विष्णु ) गुण उत्पन्न होने की विषमता का वन है।
खचना--एवॉक्त 'विरोध! अलंकार में विरोधी पदार्थों का संसर्ग कहा जाता है; 'पंचम विभावना? में स्वयं कारण-कार्य में विषमता होती है; और यहाँ कारण-कार्य की गुण-क्रियार्थों में विषमता होती हे। उन दोनो से इसमें यही अंतर है ।
३ तृतीय विषम जिसमें क्रिया के कत्ता को केवल अभीष्ठ फल की अप्राप्ति ही न हो; प्रत्युत्' अनिष्ठ की प्राप्ति भी हो ।'
१ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
छुलन छैल छैली चली, गहि गुन-रूप -गुमान।
मोही उन नेनन निरखि, मैन भरी मुसकान॥।
यहाँ श्रीकृष्ण को छलने का उपाय करनेवाली नायिका को इष्ट फल की अप्राप्ति और स्वयं मोद्दित द्वो जाने के अनिष्ट की प्राप्ति होना वर्णित है ।
२ पुनः यथा--दोहा ।
मलयज़ लिए घुलाय, दे, सुरभि समीर-अहारो।
भइ द्वारन-ठाहर उलटि, विष-रारन पतक्ार॥
यहाँ भी सलयज ( चंदन )-बृक्ष के सपा को बुलाने से केवल अपने द्वार-ऊअंगारादि इष्ट फल की अप्राप्ति द्वी नहीं हुई; श्रत्युत् पतमड़ के रूप में अनिष्ट भी प्राप्त हुआ दै ।
१ बिक । २ इस तृतीय विषम के किसी-किस्ली ने छः मेद माने हैं। ३ सप॑ और जायु का भादार ।
१६
रडर भारती-भूषण
»॥ ३ पुनः यथा--दोद्ा ।
विधुरथो जावक सौति-पग, निरखि हँसी गहि गाँस ।
सलज हसोंहीं लखि, लियो, आधी हँसी उसास॥ &
“-विहारी ।
यहाँ भी सपत्नी के पैर का फैला हुआ जावक देखकर नायिका को केवल सौत के फूहड़ सिद्ध द्वोने के इष्ट की अप्राप्ति दी नहीं हुई; प्रत्युत् अपने नायक से सपत्नी का प्रेम ज्ञात द्वोने का अनिष्ट भी प्राप्त हुआ है ।
; ४ पुनः यथा--सवैया ।
छीन भई तन काममई जिनके हित बाट इते दिन हेरी। आगम' जोतिष बूकत ही नित देव मनावत साँक-सबेरी ॥ आयड प्रान-पिया परदेख ते देहु बधाई कहे खुन मेरी। 'बूंद! कहै उन गारी दई औ निकार दई तस अंतर' चेरी ॥ -४ैंद ।
यहाँ भी नायिका को उसके पति के विदेश से आने की सूचना देनेवाली दासी को बधाई न मिलने का अलाभ और गाली मिलने एवं घर से निकाले जाने का अनिष्ट भी प्राप्त हुआ है, जिसका स्पष्टीकरण बूंद कवि ने इस प्रकार किया है--
4 शाख । २ अंतरंग ।
# लौत के पैरों में जावक फैछा हुआ देखकर (उसे फूहड़ समभककर) नायिका हँसी; पर जब सौत को लणज्जा-युक्त और मुसकुराते देखा तो जायिका ने ( अपने मन॑ में यह समझकर कि मेरा पति ही जब इसे ज्ञाबवक छगाने छगा था, तब साटिवक भाव हो जाने के कारण उसीसे यह फैछ गया दहै।) भपनी हँसी के बीच में ही विषाद से उच्छुवास छिया।
सम रछरे
पिय को आगम सुनत ही, फूली सब तन नारि। बिरह-दसा देखी न पिय, यों खिजि दई निकारि ॥ खूचना--.एवॉक्त 'ठृतीय असंगति? भलंझार में स्वयं कर्ता द्वारा
विपरीत का किया जाता है; और यहाँ ( ठृतीय भेद में ) दैवात् भनिष्ट प्राप्ति ड्वोती :है | यही इनमें एथक्ता हे ।
हेड
(३६) सम
जहाँ सम ( यथायोग्य ) घटनाओं का वर्णन हो, श्यहों (सम! अलंकार होता है । इसके तीन भेद हैं-- १ प्रथम सम जिसमें संबंधियों के योग्य संबंध का वर्णन हो । १ उदाहरण यथा--फवित्त ।
छैल छलिया है तो छबीली कर फूल-छुरी जो है जमुनाजल तो भंग"-प्रमरी' सी है।
स्याम घन है तो स्यामा-देह-दुति दमिनी है बिरही बिहारी जिय-जीवन-जरी सी है॥
» मोहन मलिंद है तो कुंद-कलिका सी यह,
चंद ब्रज-चंद है तो कृत्तिका-लरी सी है। जो दै बनमाली तो विराजै गल माल, लाल,
तरु है तमाल तो पै लतिका दरी सी है॥ $ जछ की तरंग। २ जछ-अमरी (चकर)।॥ ३ नक्षत्र-बिशेष।
ह्४छ भारती-भूषण
यहाँ. श्रीराघा-मोिंद का 'लहैल छलियाः है तो छबीली कर फूल-छुरी” आदि वाक््यों द्वारा अनेक प्रकार से समुचित संबंध बतलाता गया है । |
" २ पुनः यथा--दोदा । | नैन सलोने श्रधर मधु, कहु रहीम” घटि कौन। ठो भावे नोन फै,मीठे ऊपर नोन ॥ --रदीम । यहाँ भी सलोने नेत्र एवं मधुर ओठों के योग्य ( सराहनीय ) संबंध का वर्णन है । इ पुनः यथा--सवैया । भाग जगे ब्रजञ-मंडल के उमग्यो दुहँ ओर अनंग-अखारो। साहिबी सील सिरोमनि रूप बनो रहो भू पर ओज अपारो ॥ डोलनि बोलनि काम-कलोलनि जोग-जथा. 'लदछिराम' सँवारो ।
राधिका जैसी खुहाग भरी अनुराग भरो तिमि नंद को बारो॥ +-छछ्िराम ।
यहाँ भी श्रीराधिका महारानी और श्रीनंदकिशोर के यथा- योग्य' संबंध का वर्णन किया गया है । २ दितीय सम जिसमें कारण के अन्नुकूल ही कार्य का वर्णन हो । १ उदाहरण यथा--सोरठा ।
सिय सब खुरन प्रधान, जैसे हि जन-रंजन बरद्। तैसो हि. तिन्दकर दान, - शान-सुक्ति बारानसिद्धि ॥
सम हेड
यहाँ सब देवताओं में प्रधान श्रीविश्वनाथ मद्दाराज (कारण ) के अनुरूप द्वी श्रोकाशी में उनका ज्ञान ओर मुक्ति श्रदान करना ( कार्य ) वर्णित हुआ है । २ पुनः यथा--दोद्दा । जो कानन ते उपजिके, कानन देत, जराय। ता पावक सं उपज्ि घन, हने पावकहि न्याय ॥ “--भिखारीदास “दास? | यहाँ भी अपने उत्पादक कानन ( बन ) को जला देनेवाला प्रावक्क कारण है, जिससे उद्भूत घन ( बादल ) कार्य अग्नि को चुमा देनेवाला है; अतः उसके अनुकूल दी वर्णान हुआ है ।
३ पुनः यथा--कवित्त ।
गोकुल जनम लीन्हो, जल जमुना को पोन््हौ, खुबल सुमित्र कीन्ही, ऐसो जस-जाप है। मनत 'मुरार! जाके जननो जखोदा जैसी, उद्धव ] निहार नंद तेसो तिह बाप है॥ क्राम-घाम ते अनूप तज ब्रज-चंद-मुखी, रीके वह कूबरी कुरूप सौं अमाप है। पंचतीर-भय फो न बीर नेह-नय को न, बय को न, पूतना के पय को प्रताप है ॥ --कविराजा मुरारिदान । यहाँ सी श्रीकृष्ण का राक्षसी पूतना का पय पान करने (कारण ) के अनुकूल ही कुरूप कुब्जा दासीखे प्रेम 'करना ९ छाये ) वर्णित है ।
२४६ भारती-भूषण
३ तृतीय सम
जिसमें विना किसी विप्न के उस्त कार्य की सिद्धि का वर्णन हो जिसके लिये उद्यम किया जाय | ह
१ उदाहरण यथा--पुुजंगप्रयात । उदे है उद्देअस्त लौं नाम जिनका, ..._ रहा आम लो काम संग्राम जिनका! | जुरे जाइ जोधा जहाँ जीति पाई, फियी है सताईस सौ में दुहाई' ॥ यहाँ श्रीवीकानेर-नरेश के पूर्वजों द्वारा अपने खैनिकों-सहित युद्ध ( उद्यम ) करके निर्विन्न विजय प्राप्त करने का वर्णन है। २ पुनः यथा--दोहा । ५ राधा। पूजी गौरजा, भर मोतीड़ाँ थाल। मधुरा पायो खासरो, बर पायो गोपाल ॥ >-भ्नज्ञात कवि ॥ यहाँ भी श्रीराधिकाजी के सुयोग्य वर-प्राप्ति के लिये गौरी- पूजन रूप उद्यम करने से मथरा पुरी में ससुराल एवं नंदलाल वर की प्राप्ति विना विन्न के हुई है । सूचना--इस 'सम” अलंकार के तीनों भेद पूर्वोक्त (विषम? अलंकार के तीनों भेदों के परस्पर विरोधी हैं ।
$ राज्य-वृद्धि के अर्थ संप्राम करना ही जिनका काये था। २ क्ांद ससाइस सौ प्रार्मों का राज्य हो गया । ;
विचित्र २४७ (४०) विचित्र जहाँ किसी फल की प्राप्ति के लिये उचित यत्न के विपरीत कोई और यत्र किया जाय, वहाँ “विचित्र! अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहा । पार होन हित कावच्य-सर, बड़त रखिक हजार। तिय बिरहिनि जरि मरन लॉ, मलत मलय घनसार ॥ यहाँ रसिक जनों का काव्य-सरोबर से पार द्वोने के लिये डूबने का एवं वियोगिनी स्नी का जलकर मरने के लिये मलय ( चंदन ) और घनखार ( कपूर ) मलने का प्रतिकूल प्रयत्न करना वर्णित है। दो वर्णन होने से माला है । २ पुनः यथा--दोद्दा । मरिवे को साहस कियो, बढ़ी बिरह की पीर।
दौरति है समुद्दै ससी, सरसिज खुरभि समीर।॥ * --विहारी ।
यहाँ भी वियोगिनी नायिका द्वारा मरने रूपी फल-प्राप्ति के लिये चंद्रमा, कमल, सुगंध और वायु के सामने दौड़ने के विप- रीत यत्न किए जाने का वर्णन है ।
विचित्र-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । औरनि के तेज सीरे करिबे के हेत, आँच, करे तेज तेरों दिखि-बिदिखि अपार मैं। पर-खुज अधिक अधेरी करियवे को कैली, जस की उजेरी तेरी जग फे पसार में॥
क्प्प भारती भूषण राव भावसिद ! सच्रुसाल के 'सपूत यह, अदभुत बात “मतिराम! के बिचार मैं। झाइके मरत अरि चाहत अमर भयो, महा बोर ! तेरी खंग-धार-गंग-धार मैं ॥ --मतिराम । यहाँ शत्रुओं का तेज ठंढा करने के लिये राजा भाऊ- सिंद्द का अपने अताप का ताप करना एवं उनके सुख्र में अंधकार करने के लिये अपने यश का प्रकाश फैलाना और शञ्जुओं का अमर द्वोने के निभित्त राजा भाऊसिंह की खज्ञ-धार रूप गंग-घार में मरना ये विपरीत प्रयस्न हुए हैं। तीन जगद्ट यही अलंकार
है; अत: माला है । “#58][& ०?
(४१) अधिक जहाँ आधेय-आधार की अधिकता (उत्कर्ष) का वर्णन हो, वहाँ “अधिक! अलंकार होता है | इसके दो भेद हैं-- २ प्रथम अधिक जिसमें आधार से छोटे आधेय को बड़ा बतलाया जाय। १ उदाहरण यथा--अवित्त | लोक-श्ंभिराम राम राजा ! राज़ रावरे मैं, देखे सचराचर पै दुखिया न पाइए। एक जस आपके की सिगरी खुनाऊँ ब्यथा, करुना-निधान ! वाकी बिगरी बनाइए ॥ + जी वस्तु. किसीके आश्रय में हो। २ जिसके आश्रय में कोई वस्तु हो ।
अधिक रछछ
भौन चौदहूँन में न मांवै सखकुचावे अंग, भूरि अकुलाबे वाहि अब तो बचाइए। बेसी बगराइए न बस में रहेगी बात, बसिबे लों वाके और भ्रुवन बसाइए | यहाँ राजा शामचंद्र का यश ( आधेय ) चौदद लोकों ( आधार ) से छोटा दोने पर भी बड़ा बतलाया गया ह्ै। २ पुनः यथा--दोद्दा । अति बिसाल हरि-हृदय को, राधा पूरन कीन | ., याते सौतिन के लिये, यामँ ठौर रही न॥ --जसवंत-जसोभूषण । यहाँ भी माया-मनुज श्रीकृष्ण के हृदय (आधार) से श्रीराधिका (आधेय) के स्वर्प होने पर भी उनका उत्कषे वर्णित हुआ है ।
२ द्वितीय अधिऋ जिसमें आधेय से छोटे आधार की बढ़ा बतलाया जाय। १ उदाहरण यथा--चौपाई ( अद्ध )। उद्र-उद्धि' बलि-बलित अथाहा । ज्ञीव-जंतु जहँ कोटि कटाहा॥ यहाँ कोटि त्रह्मांड (आधेय ) से श्रीशंकर का उद्र (आधार) स्वल्प छोने पर भी बड़ा बतलाया गया है । २ पुनः यथा--सवैया ।
श्रीत्रजराजै बिणट सरूप कहैँ जिन बेदनि को रख च्याण्यो । देखि सक्यो नि देजिवे को चतुरानन आपु कितो अभिलास्यो ॥
$ समुद्र । २ बद्यांढ ।
२५० भारती-भूषण
मोषै कछू ग्रुन रावरे को 'रघुनाथ' की सौंह न जातु है भाव्यो | तूँ घनि तूँ धनि है घन मैं धन जो अपने मन मैं इन्हें राज्यो ॥
--रघुनाथ । यहाँ भी विराट् स्वरूप श्रीक्रजराज ( आधेय ) से श्रीप्रियाजी का मन ( आधार ) अल्प द्ोने पर भी बढ़ा वर्शित हुआ है । ३ पुन: यथा--- इतना खुख | जो न समाता, अंतरिक्ष में जल-थल में । मुद्दी में तुम ले बेठे, आश्वासन देकर छुल में ॥
--बाडू जयशंकरप्रसाद । यहाँ भी अंतरिक्षादि में न समानेवाले 'सुख” आधेय से: छोटे आधार मुट्ठी” को बड़ा कद्दा गया है । "++््काआ9--्म0शस७०- शक
(४२) अल्प जहाँ सूत्म आधेय से बड़े आधार को भी अल्प या छोटा बतलाया जाय, वहाँ अल्प अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहा । कर-गजरा अटकत न कटि, कुच अँचरा न समात। तदु-लासक जोबन बदलि, किय घट-बढ़ तिय-गात ॥ यहाँ 'कर-गछ्षरा” सूक्ष्म आधेय की अपेक्ता अधिक या बढ़ी 'कटि! (आधार) को अल्प बतलाया गया है। २ पुनः यथा--पद् । नातो नाम को मोखों तनक न तोड़धौ जाइ। पानाँ' ज्यों पीजी पड़ी रे, लोग कहेँ पिंड-रोग। छानें लॉघन में किया रे, राम-मिलन के जोग॥ 3 पत्ते । २ छिपकर । लि चछ
अन्योन्य श्पर
सनक ट च जय बम ल कलाई
बाबल' बैद बुलाइया रे, पकड़ दिखाई म्हारी बाँहि' । सूरख बैद भस्म नहिं जाने, करक कलेजै माहि॥ मांस गलि-गलि छीजिया रे, करक रह्या गल माहि | आँगलियाँ की मूँदड़ी म्हारै, आवन लागी बाँहि॥ म्हारे नातो नाम को रे, और न नातो कोय। 'मीराँ' ब्याकुल विरहिनी रे, (पिय) द्रसन दीजी मोय॥ --मीराँबाई । यहाँ भी अँगुली की मुँद्री (सूक्ष्म आधेय) से बाँद (आधार) के अधिक या बड़ी होने पर भी उसे सूक्ष्म बतलाया गया है। खसूचना--यह अलंकार पूर्वोक्त 'अधिक? अलंकार के द्वितीय भेद के ठीक विपरीत है । ली ६474-१५ (४३) अन्योन्य जहाँ दो पदार्थों का अन्योन्य (परस्पर) समान संबंध वर्णित हो, वहाँ “अन्योन््य' अलंकार होता है । इसके तीन भेद हैं-- १ प्रथम अन्योन्ध जिसमें पारस्परिक कारणता ( एक दूसरे के कारण होने ) का वर्णन हो । १ उदाहरण यथा--सबैया । मोतिन को पितु पानी प्रसिद्ध है औ तिनमैं प्रगट़ै पुनि पानी । बूच्छ तें बीजरु बीज ते ब॒च्छ हु, दान ते द्वव्य त्यों द्रव्य ते दानी ॥ १ पिता। २ नाड़ी ।
ऋ५२ भारती-भूषण
उमर "तीर "री "री मी. मी "री री ीी पीसी सी पर ८7: .ध>3>०स//#९९५//%९९५/०९९.##०५९६/#*९६५८/९९५/४०९६५५:/०९६/३०१७५४३०९५ यार, पावक पौन 'चुआँ पय, मेधन तें उपजें इनतें घन जानी। राम-कृपा ते मिले सत-संग खुसंग ते राम-कृपा खुख-सानी ॥ यहाँ मोती और पानी, वृक्ष और बीज, दान और द्रव्य की आपस में कारणठा वर्णन हुई है। इसी तरद्द अप्रि, पवन, धूम और जल का कारण मेघ और मेघ के ये चारों कारण हैं। सत्संग का कारण राम-कृपा और राम-कृपा का कारण सत्संग है। पाँच कारणता एक साथ हैं, इससे माला है। २ पुनः यथा--दोहा । .ै! पतनी पति बिल्लु दीन अ्रति, पति पतनी बिल्नु मंद ॥ चंद बिना ज्यों जामिनी', ज्यों जामिनि बिल्ठु चंद् ॥ --फेशवदास । यहाँ भी पत्नी की दीनता का कारण पति-वियोग एवं पति की दीनता का कारण पत्नि-वियोग ( उच्तराद्ध के दृष्टांव के साथ ) कटद्दा गया है । २ दितीय अन्योन्य निसमें परस्पर के उपकार का वर्णन हो । १ उदाहरण यथा--सवैया । कहूँ बाग तड़ाग 35040] तमाल की छाँद बिलोकि भली। घटिका इक बेठत हैं उुज़ पाइ, बिछाइ तहाँ कुस-काँल-थली ॥ मग को श्रम श्रीपति दूरि करें सिय को, खुभ बाकल'-अंचल सा । भ्रम तेऊ हर्रे तिनको कहि 'केसव” चंचल चारु दगंचल सौं ॥। --केशवदास 4
$ यामिनी रात्रि । २ नदी । ३ वढकछू |
अन्योन्य २१५३
पड न आम आ मल बे आई इअक कह 242
यहाँ वन-यात्रा में श्रीरामजी द्वारा वल्कल-वल्म से श्रीजनक- नंदिनी का एवं श्रोजानकीजी द्वारा दर्गंबल से श्रीरामजी का श्रम- निवारण करने के रूप में उपकार करने का वरणन है ।
द्वितीय अन्योन्य-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त ।
सोहै चतुरंग सेन हृप ते न्रपाल याते, सोहै खूर सस्त्रन ते सूरन ते सस्त्र-जाल। कंचन लसत मोती पन्ना मनि मानिक ते, कंचन ते मोती मरकत ओऔ रतन-लाल ॥ राजत नदी है नीर नावन नदोतें ये हु, प्रीतम ते प्यारी होत प्यांरी ते पिया निहाल | बच्छुन ते फूल-पात, बृच्छ फूल पातन ते, सैल ते सबब ये, सेल इनतें सर्जे बिसाल॥ यहाँ राजा से सेना के एवं सेना से राजा के शोभित होने आदि की पारस्परिक सात उपकारिताओं का वर्णन है; अतः माला दै। २ पुनः यथा--सवैया । तो कर सौं छिंति छाजत दान है, दान हु सा अति तो कर छाजै। तें ही गुनी की बड़ाई लजै अरू तेरी बड़ाई ग्रुनी सब साजै ॥ धभूषन! तोहिसों राज बिराजतु, राज खों दूँ खिबराज ! बिराजै । तो बल खां गढ़-कोट गे अरु, तू गढ़-कोटन के बल गाजी ॥ “-भूषण । यहाँ भी छत्रपति शिवाजी के द्वार्थों से दान ओर दान से सनके दाथ शोभित दोने आदि की पारस्परिक चार उपकारिताओं का वर्णन है; अतः मात्रा है।
जज
२५७ भारती-भूषण
३ तृतीय अन्योन्य जिसमें परस्पर समान व्यवहार ( जैसा कोई करे उसके साथ वैसा ) करने का वर्णन हो । १ उदाहरण यथा--सवैया । आज़ प्रसून बिछाइ बिराजत राधिका-श्रीत्रजराज रसीले। दोऊ दुद्दुंन पै रीकि रहे दुईँ ओर के दौरि कटाछु कटीले॥ हों अब ही लस्ति आवचति बेनु बजावत गावत गीत झुरीले । यों बिलसें बन माहि दिए गल बाँहि कदंब की छुहि छबीले ॥ यहाँ द्वितीय चरण में श्रीराधामाधव का परस्पर रीमना एवं कटाक्ष-संपात करना वर्णित है । २ पुनः यथा--कवित्त । सकल सिंगार साजि साथ लै सहदेलिन का, सुंदरी मिलन चली आनंद के कंद को। कवि 'मतिराम' मग करत मनोरथन, पेख्यौ परजंक पै न प्यारे नँद-नंद को॥ नेह ते लगी है देह दाहन वहन गेह, बाग के बिलोक द्वम बेलिन के बृद को। चंद को हँसत तब आयीौ मुख-चंद, अब, चंद लाग्यो हँसन तिया के मुख-चंद को॥ --मतिराम ।
यहाँ भी संकेत-स््थल को जातो हुईं अभिखारिका नायिका के मुख-चंद्र द्वारा चंद्रमा का और .वहाँ से निराश लौटते समय बंद्रमा द्वारा उख्ी ( विश्रलब्धा ) के मुख-चंद्र का उपहास किया जाना वर्णित है ।
विशेष रप५
नि लि मकर 2 असल अजीज ठ॒तीय अन्योन्य-माला ९ उदाहरण यथा-सवबैया । मैं मुरलोघर की मुरली लई, मेरी लई मुरलोघर माला। मैं मुरली अधरान धरी, उर मा्हि धरी मुरलीधर माला ॥ मैं मुर॒लीधर को मुरली दई, मोहि दई मुरलीधर माला। मैं मुरलीधर की मुरली भई, मेरे भणए मुरलीधर माला॥ --श्रज्ञात-कवि । यहाँ श्रीराधाजी का श्रीकृष्ण की मुरली छेने एवं श्रीकृष्ण का उनकी माला छेने आदि के पारस्परिक चार समान व्यव- द्वार वर्णित हुए हैं; अतः माला है । २ पुनः यथा-- मैं ढूँढ़ता तुझे था जब कुंज ओर बन में। तू खोजता मुझे था तब दीन के बतन में ॥ स् आह बन किसीकी मुझको पुकारता था। मैं था तुझे बुलाता संगीत में, भजन में ॥ मेरे लिये खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू । मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में॥ --कविवर पं० रामनरेश त्रिपाठी ॥ यहाँ भी भक्त और परमात्मा के एक दूसरे को ढूँढने आदि के तीन समान व्यवद्दारों का वर्णन होने के कारण माला है ।
(३४४) विशेष : जहाँ कोई विशेष ( आश्र्योत्पादक ) अथे ( घटना)
का वर्णन हो, वहाँ “विशेष” अलंकार होता है। इसके तीन भेद हैं --
र्फदे भारतों-भूषण
£ प्रथम विशेष जिसमें विना आधार के ही रमणीयता पूपक आधेय कीं स्थिति कही जाय । ._* उदाहरण यथा--दोद्ा ।
अति अदभुत अंबुज-बदनि ! कंठ-कंबु को अंग।
स्वर-अंचुधि' लहरात नभ,-मंडल राग-तरंग ॥
यहाँ प्रथ्वी आधार के विना द्वी आकाश में 'स्वर-अंबुधि” आधेय की शोभन स्थिति कही गई है ।
२ पुनः यथा--सवैया ।
खूर-ससी न मरीचि प्रकासित आठ जाम रहै उजियारो। जोग न भोग श्लोक कला खुज सोक नहां तिह्यँ लोक ते न्यारो ॥ बेद-पुरान प्रमान बखानत, जानहिंगो कोड जाननहारो।
सागर ! अंबर है न धरा पर, प्रेमहु को अधबीच अखजारो ॥ “-- प्रवीण सागर ।
यहाँ मी किसी आधार के बिना प्रेम के अखाड़े आघधेय की रमणीय स्थिति वर्शित हुई है । २ दितीय विशेष जिसमें एक पदाये की एक ही समय में झनेक स्थलों पर स्थिति होने का वर्णन हो । १ उदाहरण यथा--फवित्त । कलह कुचाल लें कराल कलिकाल पेहें, याते बिधि-लोक ते भो आवन तिद्दारो है। माजै उत घोर अघ-ओघ चहँ ओर लिए, बाजै इत श्रेय-स्नोत-बिजय-नगारो है॥ ३ संगीत के सप्त स्वर रूपी समुद्र । २ कक्ष्याण का प्रवाह ।
विशेष रप७
आवबै काल-किकर कराल, पै न पावें जीव, तेरी दया संकर-स्वरूप सब धारो है। द्वारन दरीचिन द्रीन' में मरीचिन' मैं, बीचिन' मैं भागीरथी-कीरति-उज़ारो है ॥ यहाँ चतुर्थ चरण में श्रीगंगाजी की कीर्ति के प्रकाश की एक दी काल में द्वारन आदि अनेक स्थलों पर शोभन स्थिति का वर्णन है । २ पुनः यथा-- हे मेरे प्रभु ! व्याप्त हो रही है तेरी छवि जिभुवन में । तेरी ही छुवि का विकास है कवि की बाणी में मन में ॥ माता के निःस्वार्थ नेह में प्रेममयी की माया में । बालक के कोमल अधरो पर मधुर हास्य की छाया में ॥ पतिवता नारी के बल में तुद्धों के लोलुप मन में । होनहार युवकों के निर्मेल ब्रह्मचयंमय, योवन में ॥ ठण की लघुता में पर्वत की गर्व भरी गौरवता में । तेरी ही छवि का विकास है रजनो की नीरवता में ॥ ऊषा की चंचल समीर में खेतों में खलियानों में। गाते हुए गीत खुख दुख के सरल-स्वभाव-किसानों में ॥ --कविवर पं० रामनरेश त्रिपाठी । यहाँ भी परमेश्वर की छवि के विकास का कवि की बाणी आदि अनेक स्थलों पर एक द्वी काल में स्थित रहना वर्णित हुआ है । ५, ३ पुनः यथा--कवित्त । द्वारे पर भूँठ पछवारे पर भूँठ अुक््यो, . दोईँन किनारे पे भूँठ उलहत है। अंगन मैं म;ँठ औ दलान माहिं ूँठ बसे, कोठे माँद्दि - _फीठे माँदि भूँठ छत ऊपर बदत है॥ _ ३ गुफाओं । २ किरणों । ३ तरंगों । १७
रप८ भारती-भूषण
धवाल” कवि कहत सलादइन मैं झूँठे-भूँठ, सेनन मैं बोलन में भूँठ ही कहत है। हाथी-भर भूँठ जाके उर में बसत खदा, ऊँट-भर भूँठ जाके मूठ में रहत है॥ >--ग्वाकक | यहाँ भी मूठ का एक ही समय में द्वार आदि बहुत से स्थानों में रहना कहा गया है । श् रे तृतीय विशेष ईस हि जिसमें कोई कार्य करने में किसी दूसरे दुर्लभ काये का लाभ हो | १ उदाहरण यथा--दोहाध । । पूजे पितर भए सर्वे, खुकत याग तप त्याग।& . यहाँ पिठनयूजा करने में याग, तप एवं त्याग इन दूसरे दुलेभ कार्यों का भी लाभ होना वर्णित है । २ पुनः यथा--सवैया । जाहि विलोकि डरै जमराजउ, दूत बिचारे बिचार अधीर मैं । नाम न जानत हैं रघुवीर को, यो 'लद्धिराम' ग्रुमान गँभीर मैं ॥ साधन थोरे कहाँ लो कहाँ, मतवारे न डारत हैं पग नीर में । तीर में आवत ही सरजू के, फलें फल चार्थों सुरापिन-भीर मैं ॥ 32 7 --लछिराम । यहाँ भी मद्यपान करनेवाले मद्दा पापियों को श्रीसरयू-तीर में पाँव रखने मात्र से चतुवंग-फल प्राप्त होने का वर्णन दै ।
०...
४-५. ५१ (७४१ ]
७ पूरा पद्म 'छाटानुप्रास” में देखिए।
व्याधात २५६
(४५) व्याघात
जहाँ किसी कता की क्रिया का अन्य द्वारा किसी प्रकार से व्याघात' किया जाय ( वाधा पहुँचाई जाय ), वहाँ “व्याघात' अलंकार होता है। इसके दो भेद हैं--
१ प्रथम व्याघात
जिसमें एक व्यक्ति कोई कार्य जिस क्रिया से सिद्ध करे, अन्य व्यक्ति उससे विपरीत क्रिया द्वारा वही काय सिद्ध करे | १ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
श्रीतम पावति जग-जुवति, जिमि ज़ागत सब कोइ ।
तिमि पायो अलि ! आज्ञु निसि, सवा मिनि साजन सोइ |
यहाँ अन्य खस्लियों का जाग्रत रहने की क्रिया से और श्रीराधाजी का इसके विपरीत निद्रित होने की क्रिया से पति- संयोग का कार्य सिद्ध करना वर्णित है ।
२ पुनः यथा--सवैया । जन्म लियां जब ते जग में, तब ते छुक ने सब आस को त्यागी । पुत्र कलत्र धरा धन धाम, जनक भयो तिनमें अनुरागी।॥! क्रोधो महा दुरबासा भयो, जड़भत रहो नित सांति मैं पागी । “जीवन! कर्म छुदे सबके पर पाइहं मुक्ति वे चारों छुभागी ॥
“+जीवा भक्त ।
१ धक्का छगाना वा हनन करना ।
२६० : भारती आभूषण
यहाँ मी शुकदेव मुनि का वैराग्य तथा राजा जनक का अनुराग घारण करने की बिपरीत क्रियाओं से एवं मुनि दुवोसा का क्रोध और राजा जड़भरत का शांति धारण करने की विज्ोम क्रियाओं से मोक्ष-प्राप्ति क। समान कार्य सिद्ध करना वर्शित है।
२ द्वितीय व्याघात
जिसमें एक व्यक्ति जिस निमित्त ( उद्देश्य ) से किसी क्रिया का समर्थन करे, अन्य व्यक्ति उसी निमित्त से उसके विपरीत क्रिया का छुख पूर्वक समर्थन करे ।
१ उदाहरण यथा--दोहा |
'. झुरन-सद्दित दित-जगत लॉ, पियौ पियूष खुरेस।
तिद्दि जग - हित लों ज़गत-पति, गरल पियौ गिरिजेस ॥ यहाँ जगत का कल्याण करने के एक द्वी उद्देश्य को छेकर देवताओं-सहद्दित इंद्र ने अमृत पान करने की क्रिया का और शंकर ने उसके विपरीत विष पान करने की क्रिया का समर्थन किया है ।
२ पुनः यथा--सवैया ।
दानी कहे खुन सम जो तू धन देह न खाइ कहा मत पायो १ । सम कहे धन देदों न खेदहोंखु दारिद के डर को डरपायौ ॥ तू कु लुटाबत रैन-दिनाँ बर दान कहो किन है बहकायो ?। दानी कहै घन देत हों याहि ते मोहि को दारिद को डर आयो ॥ --मअलैंकार-आशय | यहाँ भी दारिव्य-भय-निवृत्ति के उद्देश्य से कृपण दान न देने की क्रिया का और दातार दान देने की क्रिया का समर्थन करता दै।
कारणमाला २६१
202 52023 2 2020 2000 05२ 52272: /5225: 0:25 एम
खूचना--( १ ) इस “व्याघात? अलूंकार के उक्त भेदों से पहले कई प्रंथकारों ने एक और भेद इस लक्षण से माना है--“जो जिस कार्य का कर्त्ता हो, वह उससे विरुद्ध का करे” किंतु हमें प्रवोंक्त 'विरोध! भर्ले- कार से उसमें कुछ भिन्नता नहीं ज्ञात होती; भतः वह नहीं छिखा गया ।
(२) कुछ प्रंथकारों ने ऊपर के दो भेदों में भी कोई अंतर न मानकर उनको एक कर दिया है; परंतु अधिकांश प्रंथकारों ने ये दोनों सेद माने हैं, और वास्तव में इन दोनों में इतना अंतर वतंमान भो है जितना एक अलंकार के दो भेदों में होना चाहिए ।
बी 5 ही
(४६) कारणमाला जहाँ एक पदार्थ का दूसरा पदार्थ उत्तरोत्तर ( शृंखला-बद्ध-विधान पूर्वक ) कारण-भाव से वर्णित किया जाय, वहाँ 'कारणमाला”' अलंकार होता हे। इसके दो भेद् हैं-- १ प्रथम कारणमाला जिसमें पू्े-पूव कयित पदार्थ उत्तरोत्तर कथित थदार्थो' के कारण हों । १ उदाहरण यथा--दोद्ा । का बिज्ठु बिस््वास भगति नहिं, तेहि बिल द्रव्हि न राम ।
राम-कृपा बिज्चु सपने हुँ, जीव न लद्द बिश्वाम ॥ | “--रामचरित-मानस ।
यहाँ पूवे कथित विश्वास उत्तर कथित भक्ति का, भक्ति राम- ऋ पा का एवं राम-ऊुपा जीव की शांति का कारण कहद्दा गया दे ।
ऋछ्टर भारती-भूषण
२ पुनः यथा--कवित्न ।
विद्या' पढ़ि तातें तेरो जग जस बास बढ़े,
जस हु तें बड़न में आदर लहत् हैं। आदर ते मानत हैं बचन-प्रमान सब,
बचन ते जग माँक संपति कहतु हैं॥ संपति के होत ही धरम सौं सनेह करे
घरम के प्रताप पाप दूर हो रदतु हैं। पाप दूर रहे तें सरूप सुद्ध ताकों पावे,
पाए रूप होत सबते महत॒ हैं॥ 38६ के बन मत |
यहाँ भी पूने कथित विद्या उत्तर कथित यश का और यश आदर का कारण वर्णित हुआ है । इसी प्रकार अन्य सब हैं। ३ पुनः यथा--- सच्चा जहाँ है अ्रदभुराग होता | वहाँ स्वयं ही बस त्याग होता।॥।
होता जहाँ त्याग वहीं सुमुक्ति । है मुक्ति के सन्मुख तुच्छ भुक्ति ॥ --दिंदी-अ्ंकार-प्रवोध ।
यहाँ भी पूने कथित अनुराग उत्तर कथित त्याग का, त्याग मुक्ति का और मुक्ति मुक्ति की ठुच्छृता का कारण वर्णित है । २ द्वितीय कारणमाला जिसमें उत्तरोचर कथित पदार्थ पूर्बपूष कथित पदार्थों के कारण हों । १ उदाहरण यथा--दोहा । सुजस दान अरु दान धन, धन उपजै किरयान।
क्षय मैं जाहिर करी, सरजा सिचा खुमान॥ “भूषण +
कारणमाला र्ध्रे
23... >>२२००००००६०-- अत चल सता 5ट सतत सर >तरत लत चत रत
यहाँ पहले कहे हुए यश का पोछे कद्दा हुआ दान, दान का धन, धन का तलवार और तलवार का कारण छत्रपति शिवाजी शंखला-विधान से वर्णित है ।
२ पुनः यथा--दोहा । आनंद अतुल अछेद अति, सो विरहा त॑ जोइ'। है बिरहा पिय-मिलन ते, मिलन भाग ते होइ॥ “+माषाभरण ।
यहाँ भी पूर्वोक्त आनंद का कारण उत्तरोक्त विरह, विरदह्द का पिय-मिलन एवं मिलन का भाग्य बतलाया गया है ।
उभ्रय पर्यवस्तायी १ उदाहरण यथा--कवित्त ।
तोष विन होत चित्त बित्त-बासना को दोष,
बासना ते होति ब्यथा उद्यम की भारी है। उद्यम ते फल की अधिक आधि', फलिबे तें,
दुसह दुसाध ब्याधि कीयो रखवारी है।॥ चोर वटपारन ते भीति होति साँचिबे मैं,
साँचिवो बने जो देह सूणि ज्ञाइ सारी है। मोपै रख दाया मोह दारिद ही भाया, एरी,
माया ! महामाया तेरी लाख बलिहारी है ॥
$ यथा--“जो मज़ा इंतज़ार में देखा । वह नहीं वस्ले यार में देखा ॥”
श्र्थात् मिलने को भाशा का भानंद वियोग-दशा में ही होता है; अतः
आनंद का कारण वियोग कहा गया है। २ यथा--“ध्षंयोगा विप्रयोगान्ताः”
: ( श्रीमद्गाक््मीकीय रामायण ) अर्थात् संयोग से वियोग होता है; भतः वियोग का कारण संयोग सिद्ध है । ३ मानसिक कलश ।
२६४ भारती-भूषण
यहाँ पूवोद्ध में पूचे कथित 'तोष विन! ( असंतोष ) उत्तर कथित वित्त-वासना का, वासना उद्यम का, उद्यम फल-प्राप्ति का एवं फल्-प्राप्ति रक्षा करने का कारण कहा गया है; अतः प्रथम कारणमाला है; तथा तृतीय चरण में पूने कथित भीति का उत्तर कथित धन-संप्रह एवं धन-संग्रह का शरीर सूख जाना कारण वर्णित हुआ है, इससे द्वितीय कारणमाला है ।
(४७) एकावली जहाँ पू्व-पूब कथित विशेष्य अरथों में उत्तरोत्तर कथित अ्र्थों का विशेषण-भाव से गशहीत-युक्त-रीति' पूवक स्थापन या निषेध किया जाय, वहाँ 'एकावली' अलंकार होता है | इसके दो भेद हैं-- १ प्रथम एकावलखी, स्थापन की १ उदाहरण यथा--सवैया ।
सोहत सर्बेसहा' सिव-सेल ते, सैंल हु कामलतान - उमंग ते । कामलता बिलसें जगदंब ते, अंब हु संकर के अरधंग तें॥ खंकर-अंग हु उत्तमश्नंग ते, उत्तम्अंग हु चंद-प्रसंग ते। चंद जटान के जूटन राजत जूट जटान के गंग-तरंग तं॥
यहाँ पूवे कथित सर्वंसद्दा आदि विशेष्य-शब्दों में उत्तर कथित शैल आदि शब्दों का विशेषण-भाव से ग्रद्दीत-म्ुक्त-रीति पूनेक स्थापन हुआ है ।
१ आंखला-बद्धू-विधान भर्पात् साँकल की कड़ियों की भाँति शब्दों का परस्पर संबद्ध होना । २ शथ्वी ।
एकावली श्द्प
२ पुनः यथा--सचैया ।
विद्या वही जाते शान बढ़े अरू ज्ञान वही करतब्य सुझावें।
है करतन्य वही जग में दुख आपने बंघुन को बिनसावे ॥
बंधु वही जो बिपत्ति हरे ओ विपत्ति बही जो कि बीर बनावे।
बीर वद्दी अपने तन को धन को मन को पर हेत लगाबे॥
- हिंदी-अलंकार-प्रबोध ।
यहाँ भी पहले कद्दे हुए विद्या आदि विशेष्यों में उनके पश्चात्
कहे हुए ज्ञान आदि विशेषण रूप से उत्तरोत्तर स्थापित होते चले गए हैं ।
२ द्वितीय एकावली, निषेध की १ उदाहरण यथा--दोहा ।
गेह न कछु बिन तनय जो, तनय न विनय बिहीन।
बिनय न कछु बिद्या बिना, बिद्या बुधि बिन खीन॥
यहाँ पूर्व-पूव कथित गेहद्द आदि विशेष्य-शब्दों के उत्तरोत्तर कथित तनय आदि शब्द विशेषण रूप से वर्शित हुए हैं, और “बच कछु! पद से निषेध हुआ है ।
२ पुनः यथा--छप्पय ।
धिक मंगन बिन गुनहि, ग्रुन हु घिक खुनत न रीमे ।
रीभ खु धिक बिन साँच साँच घिक देत जु खीमे ॥
देबो घिक बिन मौज, मौज घिक धरम न भाजे।
धरम झु घिक बिन दया, दया घिक अरि पहेँ आवबे॥ अरि चिक चित्त न सालहीं, चित घधिक जहँ न उदार मति। मति थिक 'केसय' ज्ञान बिन, ज्ञान हु धिक बिन दरि-भगति ॥
“-केशवदास |
;छे भारती-भूषण
यहाँ भी विशेष्य 'मंगन! का गुण” विशेषण दे । इसी प्रकार शब्दों का उत्तरोत्तर ( गरद्दीत-मुक्त-रीति से ) विशेषण-माव है; ओर 'घिक! शब्द से निषेध किया गया है । उभय पर्यवसायी १ उदाहरण यथा--कवित्त । सोहै प्रजा उप ते उृपाल पटु मंत्रिन ते, मंत्री पट्ु सोहै जौन पंडित बे आ हदै। पंडित ह सोहै जाहि सत्यासत्य ज्ञान होहिं , ज्ञान सुचि सोहे सब ही को हितकर है॥ हित सो न सोहै निज स्वारथ-सहित जो है , स्वार्थ न सोहै जो धरम ते इतर है। धरम न सोहै त्यागि धरम अलेष अन्य , जो लों जन होत ना मद्देस-पद पर है॥ यहाँ रक्त रीति से पूर्वाद्ध में स्थापन और उत्तराद्ध में निषेष किया गया है; अतः उभय पर्यवसायी है । >#&६2(०#४० (४८) सार जहाँ पूर्व-पूर्व कथित अर्थों से उत्तरोचर कथित झर्थों में सार ( उत्कष ) वर्शित हो, वहाँ सार” अलंकार होता है | इसको उदार” भी कहते हैं । १ उदाहरण यथा--सवैया । लाख चोराखिन मैं नर उत्तम, त्यों नरहूँन मैं बिप्र बडेरे। पिपन में वर बिश खुबिशन में जे खुकम करें विधि प्रेरे॥ क़र्मन के करतारन में जन त्यों जनहूँन में शानिन देरे। शानिन मैं जो धरे रढ़ ध्यान सो जीवन-मुक्त न संसय मेरे ॥
सार रद
4 -ल+
यहाँ पूर्व-पूबे कथित चौरासो लाख योनियाँ आदि खे उत्तरो- चर कथित मनुष्यादि में उत्तमता का उत्कर्ष वर्शित है ।
२ पुनः यथा--कवित्त ।
पल्चचव नवल हू ते खुमन-खिरीष खुभ, खुमन-सिरीष हू ते दानी मन हर को'।
धदिराम” दानी-मन-हर ते हष्खराज़, फेन फरकीलो छीर-सागर-लहर को ॥
छीर-सर-फेन ते मलैज-परिमल, परि- मल ते खुभाव सूधो मखमल बरको।
बर मख्तमल हू ते कोमल कमल मंजु, कोमल कमल ते खुभाव रघुबर को ॥ --छछिराम ।
यहाँ भी पल्लव आदि पूबे-पूव कथित पदार्थों" से सिरीष- सुमन आदि उत्तरोत्तर कथित पदार्थो' में कोमलता का उत्कर्ष वर्णित हुआ है ।
खूचना--(१) यह 'सार? अलंकार कहाँ-कहीं उत्तरोत्तर भपक॒ष में मी माना गया है; किंतु 'सार” शब्द का स्वारस्य उत्कर्ष में दी हे; अतः हमारे विचार से उत्कष में ही 'सार? मानना चाहिए |
(२ ) पूर्वोक्त 'कारणमाला?, 'एकावली! और इस 'सार! में श्ंखछा- विधान तो समान होता है; किंतु 'कारणमाला? में कारण-कार्य का, 'एका* वली? में विशेष्य-विशेषण का और यहाँ उत्कर्ष का संबंध होता है | तीनों में यद् स्पष्ट अंतर है ।
++>२५-३४॥/४५८२-२-४-
$ अत्येक दानी का मन ।
रद्८ भारती-भूषण
(४६) यथासंख्य जहाँ प्रथम कथित अर्थों का उत्तर कथित अथों से यथा-क्रम संबंध वर्णित हो, वहाँ “यथासंझु्य”ँ अलंकार होता है। इसको “क्रम! भी कहते हैं । १ उदाहरण यथा--चौपाई । सुख - मुसकान - मनोहरताई । स्रीत प्रकास झछुबास झुद्दाई ॥
समुझ्रि स्वयंभु अप्राकृत सोभा। चतुर विरंचिहि भा चित छोभा ॥ बिरचेड रुचिर प्रचुर अनुहारा। चारु चंद्रिका मंझुल मारा ॥ चंद गुलाब खुगंधन पूरे। तदपि रहेड अभिलाष अधूरे ॥ तब ते विधि रिसाइ, करि डारे । अनित अनंग सझज कटियारे॥
यहाँ शंकर के मुखारविंद की मुसक्रान, मनोह्रता, शीतल भ्रकाश एवं सुवास प्रथम कथित अर्थो' का क्रमशः उत्तर कथित चाँदनी, मार ( काम ), चंद एवं गुलाब अर्थो' से और इन चारों का अनित, अनंग, सरुज एबं कटियारे से संबंध वर्णित हुआ है।
२ पुनः यथा--दोहा |
खुरगन हू के भवन सब, उरगन के दग लाल।
अध ऊरध हे जात जब, बाजति बेड रसाल ॥
यहाँ भी “श्रवन! और 'दग” का अधघ! और “ऊरध! शब्दों से अन्वय हुआ है ।
ह पुनः यथा--हछोक ( अनुष्टुप् ) । या लोभाया. परद्रोहाद्यः पात्रे यः परार्थके।
प्रीतिलेच्मीव्येयः क्लेश! सा कि सा कि स कि स किम ॥ & --भज्ञात कवि ।
७ छोभ से की हुईं प्रीति; पर-व्रोह-जन्य छ्ष्मी, पात्र के प्रति किया हुआ ड्यय और परार्थ के छिये किया हुआ छ्लेश कुछ भी नहीं समझना चाहिए ।
पर्याय २६६
यहाँ भी लोभ, पर-द्रोह, पात्र और पराथ्थ शब्द प्रीति, लक्ष्मी व्यय और छेश से, और फिर ये सब सा कि, सा कि, स कि और स कि से क्रमशः संबद्ध हैं ।
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(५४०) प्योय जहाँ पदार्थों की स्थिति पर्याय (अनुक्रम) से वर्णित हो, वहाँ पर्याय! अलंकार होता है । इसके दो भेद हैं-- १ प्रथम पयोय जिसमें क्रमशः एक वस्तु के अनेक आश्रय वर्णित हों । १ उदाहरण यथा--सखवैया । आदि मैं जीव अनादि अनंत हु मात के गर्भ मैं वास कब्बौ है। बाहिर होत ही रोदनके चढ़ि गोद हिंडोरनि मोद भस्यौ दे ॥ औढ़ हें भामिनि-भोग भजे पुनि बुद्ध है रोगनि खाट पल्रौ है। देह नवीन मैं गेह कियो यह देह चितागि मैं जाइ जस्थो है ॥ यहाँ जीव का गर्भ-वास से लेकर दूसरी देह में वास करने तक का क्रमशः अनेक आश्रय लेना वर्णित है ।
२ पुनः यथा--कवित्त । केंडन के बान मन वीच ही प्रयान करें, केउन के तून मैं त्याँ कर मैं बसतु दैं। केउन के ग्रुन ही मैं, केउन के धज्रु ही में, केउन के तल्ुु ही मैं, लग्के लखतु हैं॥
२७० भारती-भूंषण
तेरे बान बाम पै हे, राम पे हे, तोपे अब, आए रविजाए ! कवि गाए सरसखतु हैं। मन में हे दून में ह्वे कर में द्वे गुन में है, धनु में हे तद्ु में हे धर में धसत हैं ॥ --स्वामी गणेशपुरीजी ( प्मेश ) । यहाँ भी कर्ण के बाणों का क्रम पूवेक श्रीमद्दादेव, परशुराम, करण, उसका मल, तरकस, ह्वाथ, प्रत्यंचा, धठुष, शत्रु का शरीर और पृथ्वी ये दस आधार लेना वर्णित हुआ है । सूचना--प्र॒वोक्त द्वितीय विशेष? अलंकार में एक ही काल में भनेक आश्रय वर्णित होते हैं; और यहाँ क्रमशः अर्थात् काल-मेद से होते हैं । इनमें यही स्पष्ट ए्थकृता है। २ द्वितीय पथयोष जिसमें क्रम पूवेक अनेक वस्तुओं का एक आअय वर्णित हो । १ उदाहरण यथा--दोद्वा । खुनि ग़ुन प्रथम भरी दगनि, हरि-दरसन की चाह। पुनि छाके उहि छबिहि, अब, अंखुबा भरे अथाह॥ यहाँ नायिका के नेत्रों में पहले श्रीकृष्ण के दशेनों की लालसा का फिर उनकी छवि का और पुनः अश्रुओं का अस्तित्व वर्णित है । द्वितीय पर्याय-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । अगर के धूप-धूम उठत जहाँ ई तहाँ, उठत बयूरें अब अति ही अमाप हैं। जहाँ ई कलाबँत अलापें मधुर स्वर, तहाँ ई भूत-प्रेत अब करत बिलाप हैं॥
३ वायुका चक्र बनकर भआकाहा में चढ़ना ।
पर्याय २७१
भूषन' सिवाजी सरजा के बेर बेरिन के डेरन में परे मनो काहु के सराप हैं। बाज़त हे जिन महलन में मझदंग तहाँ, गाजत मतंग सिंह बाघ दीह-दाप हैँ ॥ --भूषण। यहाँ छत्नपति शिवाजी के शश्रुओं के स्थानों ( आश्रयों ) में पहले अगर की धूप के धूम्र की, फिर वायु के बगूले की स्थिति आदि तीन जगह 'पयौय' कद्दे गए हैं; अतः माला है ।
२ पुनः यथा--कवित्त ।
बवीति गई अब तो वसंत की बहार सखी ! मल्लिका खुखानी मुरकानी उपबन में। खिलते थे फूल जहाँ डड़ती है वहाँ घूल, अब ना दिखाते मोद-युक्त भंग बन में ॥ सीतल-छुगंध - मंद बहती समीर जहां, परम प्रफुलल चित्त होत छिन-छिन में। चलती वहाँ है यह आज हाय | श्रीषम की, लगती समीर अप्लि-दान सी बदन में॥ --श्रीमती कोंशल्या देवी वर्मा शांति! । यहाँ भी पहले वन ( आधार ) में विकसित पुष्पों की, फिर घूली की, इसी प्रकार उत्तराद्ध में त्रिविध समीर की और फिर प्रीष्म-जन्य-छुओं की स्थिति का वर्णन है, इस कारण माला दै।
हक 4दणः
२७२ भारती-भूषल
(५१) पारिवृत्ति जहाँ पदार्थों के विनिमय ( बदला ) का वर्णन हो, वहाँ 'परिहृत्ति! अलंकार होता है। इसे “विनिमय! भी कहते हैं | इसके दो भेद हैं-- १ प्रथम परिवृक्ति जिसमें सम पदार्थों के विनिमय का वर्णन हो। इसके भी दो भेद होते हैं--
(के ) उत्तम के साथ उत्तम का
१ उदाहरण यथा--कवित्त । लागि ललना के रहो पी को अज्ञुराग कीधों, मान-रज॑-राग' राच्याौ आनन अहीरी को । राग-रागनीन की तरंगन को रंग की्धों, प्रगस्थो प्रतच्छ है उमंग असरीरी' को॥ हेरि हिंय हारी रूप-गौरब-गरूरवारी, पीरी जो परी न सूत्र ऐसी मति-घधीरी को १ । अधर-सुधा दे लाल-ओठन की लाली लई, कीधों रमनी के राग राजै पानबीरी को॥ यहाँ चतुर्थ चरण में नायिका का अपना अधराम्रत देकर नायक की अधर-लालिमा डछेने का, अर्थात् उत्तम के साथ उत्तम पदार्थ के विनिमय का वर्णन है । 3 यह विनिमय कवि-कक्षित होता है। इसके वास्तविक होने में चमत्कार नहीं होता । २ रजोगुण | ३ रंग। ४ कामदेव ।
परिदवृत्ति श७छ३
२ पुनः यथा--दोहा । जउत्य-कला-लिख दे लखित, लतिकनि जमुना-तीर। खुमन-गंध उनको मधुर, लेवत धीर समीर ॥ --सेठ कन्ह्द यालाल पोद्यार । यहाँ भी वायु का लताओं को नृत्य-कला की शिक्षा देकर उनसे पुष्पों की सुवास लेना ( उत्तम का विनिमय ) वर्णित है ।
( ख़ ) न््यून के साथ न्यून का १ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
अंघ लीजतु दीजतु नरक, फीजतु यह ब्यवहार। याही तें जम ! राउरे, काम नाम इकसार |
यहाँ यमराज का जगज्जोबों के पाप लेने एवं उनका नरक देने के रूप में न्यून के ख्ाथ न्यूज्त का विनिमय वर्णित है । २ पुनः यथा--दोहा । ' झतक -अस्थि ले गंग ! तुम, देत प्रेत - गन - संग । मुंड- माल मझग-छाल अरू, भूषन भसम भुजंग।॥ यहाँ भी श्रीगंगाजी द्वारा जोवों को दहृड्डियाँ छेकर उनको प्रेत- गन-संग, मुंड-माल, मृग-छाल, भस्म एवं सर्पी के प्रदान करने के रूप में न््यून से न्यूज का विनिमय वर्णित है ।
२ द्वितीय परिवृक्ति
जिसमें विषय पदार्थों के विनिमय का वर्णन हो | इसके भी दो भेद होते हैं-- श्ष
२७४: भारती-भूषण
(क ) उत्तम के साथ न््यून का
5 ४ “१ उदाहरण यथा--खवैया । ह देत महेस-जटा-निकसी' न किसी तपसी सन लेत हां पाई। जैसो करे तिहिं तैसो मिले यद्द राउरी वान पुरानन गाई। पार करो भंब-सागर ते करि चोगुनी चाकरी चाहों चोथाई। लेत मलाह मलाह ते हों सोइ चाहत हों तुसते रघछुयाई | ।॥
यहाँ श्रीरघुनाथजी से नाविक का कथन दै--“आप चारों ( राम, लक्ष्मण, जानकी और गुद् ) को पार उतार कर केवल मैं अकेला पार द्वोना चाद्दता हूँ” अत: अधिक ( चौगुने ) से न्यून ( चौथाई ) का विनियम वर्णित है। २ पुनः यथा--दोहद्दा । दोन््हों होश ख पाइए, कहते बेद् - पुरान। मन दे पाई बेदना, घाह ! हमारे दान॥ न । -जप्ताल । यहाँ भी मन उत्तम पदार्थ देकर वेदना (पीड़ा ) न्यून पदार्थ लेना वर्णित है। | (ख़ ) न्यून के साथ उत्तम का १ उदाहरण यथा--दोदा । तस्कर | तेरे ,करत की, कहे. सगि करिय सराह। दीन््हों दारिद द्ब्य ले, अब खुल सोवत खाह।॥ यहाँ चोर का साहूकार को दरिद्रता ( न््यून पदार्थ ) देकर बढले में द्रव्य ( उत्तम पदार्थ ) लेने का बर्णन है।
३ श्रीगंगाजी ।
परिसख्या रज्प
२ पुनः यथा--उ्दू-शेर । . उश्शाक' कभी मरने की परवा नहीं करते । परवाने कभी शमा का शिक्रवा ' नहीं करते ॥ वेदों में है करतार का ऐलान" मुक़दस । 'भूलूँ न उन्हें जो मुझे भूला नहीं करते! ।॥ आईनए" द्लि साफ़ करो खाक्े खुदी से । रुख अपना बज्ुज़” इसके दिखाया नहीं करते ॥ देखा है जिन्होंने 'जो दिखाई नहीं देता!। फिर ज़ाहिरी दुनिया को थो देखा नहीं करते ॥ दिल देके लिया करते हैँ सोदा यही उश्शाक | सोदाई' कभी दूसरा स्रोदा नहीं करते ॥ यहाँ भी अपना दिल ( न््यून पदाथे ) देकर 'दिखाई नहीं पड़नेवाले” ( निराकार ) परमात्मा का कआत्मज्ञान ( सर्वोत्तम पदा्थे ) छेना वर्शित है । (४२) पारसंख्या जहाँ किप्ती वस्तु को उसके योग्य स्थान से हृदाकर किसी अन्य स्थान पर नियुक्त ( स्थापित ) किया जाय, वहाँ 'परिसंख्या' अलंकार होता है । 4 १ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
छल मध्या-मन नाह के, नेह छिपावन. मार्दि। * अर दंपति-परिदहास तजि, राम-राज्य मैं नाहिं॥
$ सासक्त 4२ पतंग । ३ दीपक। ४ शिकायत। ५घोषणा। ६ प्रधान । ७ दपंण । 4 मिद्दी । ९ मप्तता । ३० स्वरूप। ३१ विना । १२ पागल ।
श्जद भारती-भूषण
यहाँ, रूत आदि जो छल के योग्य स्थान होते हैं, उनसे इसका निषेध करके केवल मध्या नायिका के पति-अ्रेम छिपाने एवं दंपति के परिद्वास में स्थापित किया गया है । २ पुनः यथा--दोहा । कानन- चारिन' में कुटिल, केवल कामिनि-मैन | रहे अलुज-सिय-सहित जब, राम किए दन ऐन ' ॥ यहाँ भी कुटिलता को उसके योग्य स्थान कानन-चारियों (व्याघ, किरात, सिंह, सपोदि) से हटाकर केवल ख्त्रियों के नेत्रों में उसका स्थापन किया गया है । परिसंख्या-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त । छीन तनवारे हैं. मतंग मद-मक्त जहाँ, माँगत निहारी है पपीहन की पंत को। कुटिल मयंक बार-अंगना मैं ब्याज बस्यो, वोष-अंगीकारकाब्य-रसिक अतंत को ॥ धूजन धुजा मैं, मुँह -मलिन तिया के कुच, अंग - छेद अंगना दिखाने गज-दंत को। च्वोरी मन की है, 'नाहीं! नवल-किसोरी - मुख, आज अवबनी मैं राज राजै जसवंत को ॥ “कविराजा मुरारिदान । यहाँ क़शवा आदि को इनके योग्य स्थान वियोगी आदि से हटाकर केवल मतवाले हस्तियों आदि में स्थापित किया गया ह्दै। यहाँ दस परिसंख्याएँ होने के कारण माला है । ाआच्ज:ऊ कील न,
3 वनचर ओर कार्नो तक विचरनेवाले । २ स्थान ।
विकल्प २७७
व्जज-ज जज 5 लत ज
(५३) विकल्प जहाँ दो समान बलवाले विरोधी पदार्थों का एक काल में एक हो स्थान पर रहना असंभव होने के कारण साहश्य-गर्भित विकल्प ( यह वा वह ) का वर्शान हो, वहाँ विकल्प” अलंकार होता है। इसके बाचक-शब्द के, कि, अथवा, आदि देखे जाते हैं । १ छद्दाहरण यथा--दोद्ा । कहूँ उरके के काज़ ? डर, लगी लगन की लाइ। संखि! देखिय किहि बिधि मिलहि, पिय आइ कि जिय जाइ॥ यहाँ उत्कृंठिता नायिका के पति-मिलाप में पति का आना एवं प्राण - वियोग होना, दोनों समान बलवाले कारणों फा एक नायिका ( स्थाच ) में एक ही समय में स्थित रहना असंभव है; अत: “पिय आइ कि जिय जाइ” विरल्प-वाक्ष्य साइरश्य-भाव स्रे कहा गया है । २ पुनः यथा--दोहा । की तजि मान अलुज्ञ इव, प्रभु - पद - पंकज - भंग । दोदहि कि रम-सरानल, खल! कुल - सहित पतंग ॥ “-रामचरित-मानस । यहाँ मो झुक दूत का रावण से कथन है कि या तो श्रीरघु- नाथजी के चरण-कमलों के अ्रमर बनो; अथवा अपने परिषार- सद्दित उनके बाणाग्ति में पतंग हो जाओ । इन दोनों तुल्य बल- वान् अरथी की एक जगद्द स्थिति असंभव दोने के कारण एक की स्थिति के लिये 'विकल्प' वर्णित हुआ दे ।
रक्षण भारती भूषण
हे पुनः यथा--सक्षेया ।
एती खुबास कहाँ. अनते वह को इहि.भाँतिन को बर हें । आवत दै वह रोज समीर लिए री ! सुगंधन को ज्ुबले हैं ॥ देखि अली! इन भाँतिन की अलि-भीरंन और खु कौन न हैंहैं। के उत फूलन को वन होइगो, के उने कुंजन :शंधिका: हैहैं ॥ ह +-कषलैकार-भां शय ।
यहाँ भी सुगंधित वायु का स्पशे होने;पर श्रीक्षष्ण का किसी सखी से कथन दै कि यद्ध वायु जिधर से आता है, उधर पुष्प वाटिका वा श्रीराधिका महारानी द्वोंगी। इन दो पदार्थों में से एक के द्वोते हुए दूसरे की स्थिति अनावश्यक द्वोने,के कारख दोनों विरोधी और तुल्य बलवान हैं ।
(५४) समुचय है जहाँ अनेक पदार्थों का समुच्चय ( समूह ) एक समय में एक साथ होना वर्णित हो, वहाँ 'समुुचय” अलंकार होता है। इसके दो भेद हैं-- १ प्रथम ससुचय जिसमें अनेक गुण, क्रिया आदि मार्वों का गंंफन ( गठन ) हो । ६ १ उदाहरण यथा--दोहा ।
आज्ु अवसि देदि ननद-मुँह, सुनत हि. भरी उसास। सहमि सकुचि कंपतित्रसति, सपदि गई छिम-सास॥
>> >> जल जज नल्ल्ल्् जा
यहाँ नबोढ़ा नायिका में ( पति-सहबास की बात अपनी ननेंद से सुनते दही ) सहमने, सकुचने, कंपित्त होने एवं त्रस्त होने के रूप में अनेक भावों का एक द्वी समय में गुंफन हुआ है !
; ३ पुनः यथा-- ः चित्र-कला-कौसल्य सिखे बिन हस्त लेखनी धारी। बेंठहिं तत्मतिरूप उतारत करि अऋमिलाषा भारी ॥ चित्र-दुदंसा देखि जड़े सब मेरे होल-हवास। उमेंगे एक बार ही तीनों क्राध सोक डपहास॥
* --पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी । यहाँ भी निकृष्ट कवि की कविता देखकर उक्त कविक्रे हृदय में क्रोध, शोक और उप्रद्दास इन तीनों भावों का एक साथ ड़द्ति
होना वर्शित दे । ३ पुनः यथा--दोहा ।
सहित सनेह सकोच खुख, स्वेद .कंप मुखुकानि। प्रान पानि करि आपने, पान दुए मो पानि॥ ह॒ --विहारी । यहाँ भी पूबोद्ध में नायिक्रा के स्नेहादि भावों का एक ही समय में होना कद्दा गया है | | ४ सूचना--यहाँ गुण, क्रिया आदि भावों का एक साथ होना वर्शित होता है, पूर्वोक्त 'कारक-दीपक! अलंकार में केवक क्रियाओं का पूर्वापर कम से वर्णन-होता है; और पूर्वोक्त पर्याय! अलंकार के द्वितीय भेद में अनेक वस्तुओं का क्रम प्वक एक आश्रय दोता है। यदी इनमें भेद है । २ द्वितीय समसुचय जिसमें, किसो कार्य के करने को एक साधक पर्याप्त
होने पर भी ईष्यो-भाव से साधकांतर उपस्थित हो ।
२८० भारती-भूषण 4७२ 3006 गज असल कं कल भीम गन क ली वन दशक १ उदाहरण यथा--दोहा !
अघ-अनेक-मय एक ही, नगर-नारि को नेह।
पुनि मद्रादि प्रमाद जहाँ, धरम रहे किमि गेह १ ॥
यहाँ घर्म को ध्वंस करने में वेश्या से प्रेम करना ही बहुत है; पर मद्यपान आदि प्रमादों का होना भी कहा गया है ।
२ पुनः यथा--दोह्ा । बार बराबर बारि है, तापर बहत बयारि। रघुपति पार उतारिहे, अपनी ओर निह्ारि॥ --अज्ञात कवि ।
यहाँ भी समाहत नौका के डुबाने में उसकी बाढ़ ( ऊपर का दिस्सा ) के बरावर जल हो जाना द्वी साधक पयाप्त था; किंतु ऊपर से हवा का आ जाना भो वर्शित किया गया है |
३ पुनः यथा--दोहा ।
मुनि-गन मिलसु बिसेषि बन, सब हि भाँति हित मोर ।
: तेहि महँ पितु-आयखु, बहुरि, संमत जननी ! तोर॥ --रामचरित-मानस । |
यहाँ भी श्रीरघुनाथजी के वन-गर्न में केवल सुलियों का समा- गरम दवी कल्याण करने के लिये पर्याप्त था; किंतु पिता की आज्ञा एवं माता के सत रूपी अन्य साधकों का उपस्थित ट्वोना भी कट्दा गया है ।
सूचना-- एवोक्त 'सहोक्ति? अलंकार में भी एक क्रिया में दो अथों का अन्वय होता है; पर वहाँ एक का प्रधानता से और हूसरे का गौणता से होता है; तथा यहाँ सबका प्रधानता से दी अन्वय होता है भर 'सह! क्षादि वाचक-शब्द भी नहीं होते । यही इनमें भंतर है ।
खरे
समाधि रघ्१
(५५) समाधि जहाँ किसी काय के कत्ता को अकस्मात् प्राप्त होने वाले किसो दूसरे कारण की सहायता से काय करने में झुगयता हो, वहाँ समाधि” अलंकार होता है। इसका दूसरा नाम समाहित” भी है । १ उदाहरण यथा--दोहा । असुरन हनि पुनि जदुन लो, जतन रहे हरि हेर। , मुनि दुरबासादिकन ते, तब हि करी तिन छेर॥ यहाँ माया-मनुष्य श्रीकृष्प अप्लुर-संहार करके यदुकुल- विनाश का विचार कर ही रहे थे कि दैवात् यादवों ने श्रीकृष्ण के पुत्र सांव को गर्भवती स्त्री बनाकर दुवोसादि मुनियों से परिदास किया । इस आकस्मिरू कारणांतर की प्राप्ति से उक्त काये का सुगमता से सिद्ध होना वर्णित है । २ पुनः यथा--कवित्त |. इँसत खेलत खेल मंद भई चंद-दुति, कहत कहानी अरू बूकत पहेलौ-जाल। केसौदास” नींद-मिल आपुने-आपुने घर हरं-हरं उठि गई गोपिकरा सकल बाल ॥ घोर उठे गगन सघन घन चहूँ दिसि, डठि चले कान्ह धाय बोलि उठी तिहि काल । आधी रात अधिक अँधेरी मॉक जैहो कहाँ,
राधिका की आधी सेज सोइ रहो नंद्लाल ! ॥ “--केशवदास ॥
ल्््ल््व्व्ि्ल्््ल्््जिज जज
श्प्रे भारती-भूषण
>> +++
यहाँ भी धाय को श्रीराधा-माधव का संयोग कराने में बादलों का घटा-टोप हो जाने रूप अकस्मातू काराणांतर की प्राप्ति होने के कारण सुगमता होना वर्णित है । “ “खचना--एरवोक्त 'समुच्चय” अलंकार के छ्वितीय भेंद में अन्य कर्ता स्पर्दा-भाव से वद्दी काय॑ सिद्ध करने में सम्मिलित होते हैं; पर यहाँ वास्तविक कर्त्ता एक ही होता है भन्य कर्चा तो. अकस्मात् आ जाते हैं,
यही इनमें अंतर हे । -9099 €:६१6०
(५६) प्रयनीक जहाँ सं शत्र के अजेय होने के कारण उसके किसी संबंधी फो वाधा पहुँचाने का बणेन हो, . वहाँ
“प्रत्यनीक! अलंकार होता है । ; १ उदाहरण यथा--द्रोहा । बरन स्याम-तम नाम तम, उभय राहु समजान। , ».| तिमिरहिं सखि-सूरज ग्रसत, निसि-दिन निस्चय मान ॥
यहाँ चंद्र और सूय के द्वारा अपने अजेय शशञ्रु राहु के संबंधी तम ( अंधकार ) को असना वर्णित है | उसका श्याम वर्ण और तम नाम द्वोने के कारण वह राहु का संबंधी समम्का गया है ।
२ पुनः यथा--सबैया ।
एक मनोभव कीन्हों हुतो हर, पाँच नराख! अमोघ दिद कर | त्यों इक और मनोज कियो हशि हु सर सोरह तासु किए कर ॥ वे दोड प्रान हरें अबलान के या हित राधिका रोष हिए कर । नाह ते जास तिन्हेँ, सुज-पास में फाँसि इम्हें निज दास लिए कर ॥
4 बाण । २ वेद में कहा है--/चंत्रमा मनसो जातः? ।
काव्यार्थापत्ति श्घर३े
यहाँ भी वियोगिनी स्त्रियों को सतानेवाले काम एवं चंद्रमा को श्रीराधिकाजी अजेय समझकर इनको उत्पन्न करनेवाले शिव एवं कृष्ण को दंड देती हैं जो चतुर्थ चरण में कद्दा गया है ।
३ पुनः यथा--दोहा । सोबंत सीतानाथ के, भ्रएु मुनि दीन्दी लात । भ्गु-कुख-पति की गति हरी, मनो खुमिरि वह वात ॥ +क्रेशवदास ।
यहाँ भी विष्णु-भगवान् के हृदय में लात मारनेवाले भ्वगुजी की जगद्द उनके वंशज परशुरामजी की विष्णु के अवतार श्रीराम- जी द्वारा सत्ता हरना वर्णित दै।
सूचना--( ,३ ) यद्यति यह 'प्रत्यनीक! अर्ुंकार 'हेलूल्क्षा! ( चाहे उसमें 'मनुः जादि वाचक हो या न हो) का ही एक विशेष रूप है, तथापि
किप्ती शब्रु के संबंधी के प्रति पराक्रम करने के चमत्काए-विशेष के कारण यह स्वतंत्र अलंकार माना गया है ।
(२) कुछ म्रंथों में साक्षात् शत्रु के प्रति पराक्रम करने में भी 'प्रत्य- नीक! माना है; परंतु यह तो निश्चित रूप से 'अन्योन्य! अलंकार! के तृतीय भेद का विपय है ।
(५४७) काव्र्या्थापत्ति
जहाँ दंडापूपिका-न्याय से एक अर्थ के बणोन में दूसरा अकथित अर्थ भी सिद्ध हो जाय, वहाँ काव्यार्था- पत्ति? अलंकार होता है ।
|. 7.3 जैसे--दृंढ (दस्ता) खींचने से उसपर स्थित पूप (मालपुए) भी खिंच आते हैं ।
रद भारती-भूषण
१ उदाहरण यथा--दोह्दा । पुन्य-पुंज जन जे तजें, बिस्वनाथ-पुर प्रान। मुक्ति हु मिले, रद्दे कहाँ ? करम भक्ति अर जझ्ान॥ यहाँ श्रीकाशीजी में शरीर त्यागनेवालों को मुक्ति की प्राप्ति के वर्णन में कम, भक्ति एवं ज्ञान का मिलना ( अकयथितार्थ ) भी “कहाँ रद्दे! काकूक्ति से सिद्ध हुआ है। २ पुनः यथा--कवित्त । ज़िन-ज्िन सीपन के मोती हुते अंगन मैं, तरे ते-ते सीप-जीघ करि चित चाव को। जिन-ज्िन बुच्छुन की लाख छुती भूषन में, 'सूरति' खु तरे तेक छॉड़ि ठुख-दाव को॥ भीजत परटंबर दिगंबर भण हैं. कीर, चूरन ते गेंड़ा गज तरे निज भाव को। खुंद्रिन के अन्द्रात एऊ तरे ऐसे अरु,
तिनकी कहा है ? जाने गंगा के प्रभाव को ॥ --प्ृरति मिश्र ।
यहाँ भी श्रीगंगाजी में स्नान करते हुए स्त्रियों के आभूषणों में जिन सीर्पों के मोती लगे हुए थे, उन सरीपों आदि के तर जाने के वर्णन में गंगा के प्रभाव को जाननेवालों का तर जाना अकथि- साथ भी सिद्ध हुआ दे । ३ पुनः यथा-- अभी हमें शात यदी नहीं हुआ। रही किमाकारक तू रखा स्मिके ! ॥
: स्थरूप ही का जब शान है नहीं | विभूषणों की तब क्या कहें कथा? ॥ --पं० महादीरप्रसाद द्विबेदी |
काव्यलिंग र्घ्प
नकल पी शक पी पी बी कक
यहाँ भी कविता के स्वरूप का ज्ञान न दोने के बचन में “विभूषणों ( अलंकारों ) का ज्ञान न होना” अकथितार्थ भी “क्या कहें कथा ९” द्वारा सिद्ध हुआ है ।
+>० ८१ -.....
(५८) काव्यलिंग जहाँ समर्थन के योग्य कथिठा्े का ज्ञापक कारण ' के द्वारा समर्थन किया जाय, वहाँ 'काव्यलिंग' अलंकार
होता है ।
की जप दी कक कक
१ उदाहरण यथा--शादुलविक्रीडित । आवासो धवलो धराधरमुरुगौरी गृहाधीश्वरी । शुक्लोक्त वहनः. कपईविलसद्वज्ञाउवलक्षप्रभा ॥ वर्ण श्वेतसितोज्वलास्तु विशदा माला कपालात्मिका । तब में न मनोषमल न कुरुषे शुश्रप्रियश्शद्वर ! ॥ & यहाँ भक्त की शंकर से अंतःकरण निर्मेल करने की जो प्रार्थना है, वह कथितार्थ है जिसका उनके कैलाश आदि अनेक शुश्न वस्तु प्रिय दोने के सूचक हेतु से समर्थन किया गया दे । ._$ कारण दो प्रकार के होते हैं--(१) एत्पादक या कारक जैसे-- घूम का भग्नि और (२) सूचक या ज्ञापक जैसे--भगिन का प्लस ।
७ दे शंकर ! आपके, वासस्थान कैलाश, ग्रृहिणी गौरी, वाहन नंदिकेश्वर, जटास्थित गंगा, शरीर छा वर्ण, भस्म विलेपन, यश, कपाक- माछा सभी उउज्ज्यल हैं। ऐसे शुअ-प्रिय द्वोछर भाप मेरा अ्ंतःकरण निमेल न करेंगे, ऐसा नहीं; जरथांत् अवश्य करेंगे ।
>>. )
श्षदे भारती-भूषण
; ..क थे 5 :र पुनः यथा--दोहा । ; . श्री .पुर में मग मध्य में, तें बन करी अनीति।- री मुंदरी ! अब तियन की, को करिहे परतीति.॥ - केशवदास । यहाँ भी माता जानकी का मुद्रिका के प्रति यह कहना-- “अब ख्तियों का विश्वास कौन करेगा ९” विवत्षिताथे है, जिसका “अयोध्या में राज-लक्ष्मी ने, माग में स्वयं मैंने एवं वन में तूने श्रीराम- जीः को त्याग दिया” इस ज्ञापक कारण से समर्थन किया गया दे । ७: ३ पुनः यथा-+सवैया 4 * .+): $ जाइ मिले उड़िक्रे अप ते, तब ही जब ते नंदलाल निंहारे। मै कियो मान सखी ! मन मैं, छिन ये न भए तन दुःखित भारे ॥ कासों कहें हुलके पल चंचल, हैं इनके अति कातर तारे। लाज कहा इन नैनन को ? जिनके नित कीजत हैं मुख कारे ॥ | --अछेकार-आशंय । यहाँ भी नायिहा के नेत्रों की निलंजता कथिताथे है, जो ॥जिनके नित कीजत हैं मुख कारे” कारण से सिद्ध किया गया है। * ४ पुनः यंथा--सवैया 4' न् बैथ की ओषध खाओं कछू न करों प्रत-संयम री ! सुन मोले । तेरो ही पानी पिओं 'रसखनि' संजीयन-लाभ लेहों खुख तोखे ॥ एरी छुघामई भागीरथी ! कोड पथ्य-कुपथ्य करे तोउ पोसे । आक धरे चयात फिरें बिष खात फिरें सिव तेरे भरोसे ॥ --रपघ खान | यहाँ भी “गंगाजी द्वारा किसी .कुपथ्य करनेवाड़े तक का भी पोषण किया जाना” कयथिताथ है, जिसका इन्हीं के भरोसे पर श्रीशंकर के आक धतूरा चबाने के कारण द्वारा समर्थन किया गया है ।;
अथोतरन्यास र्घ्७
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सूचना--( १ ) इस्र 'काव्यलिंग? को कई ग्रंधकारों ने स्वतंत्र भर्ल- कार न मानकर "हेतु? अलंकार का प्रकार मात्र माना है; ऊितु इसमें कथि- तार्थ का ज्ञापक कारण द्वारा समर्थन होता है; भौर 'हेतु? के प्रथम भेद में कारण-काय का वर्शन मात्र तथा द्वितीय भेद में उनकी एक्रात्मता होने के कारण इन दोनों भलंकारों में भिन्नता की स्फूर्ति स्पष्ट होती है।'
(२ ) इस 'काव्यलिंग? के लक्षण में मतभेद है । यथा--( क ) “जो सम्रथंन के योग्य हो, उसका समर्थन किया जाय” ( ख ) “बुक्ति से अर्थ का समर्थन किया जाय” (ग) “स्वभाव, हेठहु अथवा प्रमाण-जन्य युक्ति से समथन किया जाय” किंतु तात्पर्य सबका समर्थन से है ।
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ु (५६) अथातरन्यास जहाँ प्रस्तुत अथे का अप्रस्तुत अर्थावर ( अन्याथे ) के न्यास ( स्थापन ) से समर्थन किया जाय, वहाँ “अर्थोतरन्यास” अलंकार होता है। इसऊ दो भेद हैं-- १ प्रथम अर्थातरन्यास जिसमें प्रस्तुत विशेष का समरान्य अर्थातर से समर्थन किया जाय | १ उदाहरण यथा--दोदा । दियौ अ्रभय अमरन, कियो, हर हालाहल पान | पर-उपकारन लो सह, कष्ट कहा न महान १॥
3 जिसका किसी एक ( विशेष ) से संबंध हो। ३ मिसका अनेक ( सर्व-साधारण ) से संबंध हो ।
हम]
श्ष८ भारती-भूषण
यहाँ देवताओं को अभय-दान देने के लिये शंकर के. विष पान करने के प्रस्तुत विशेष का मद्दात्मा लोगों के परोपकाराथे अनेक कष्ट सदन करने के सामान्य अग्रस्तुत अर्थातर से समर्थन किया गया है ।
२ पुनः यथा--दोद्दा ! कक] लुब दत माला मलिन हु, धरति हरष-जुत बाल। बसत सदा गुन प्रेम मैं, नहीं बस्तु में लाल !॥ -+जसवंत-जसोभूषण । यहाँ भी नायक की दी हुई कुम्हलाई हुई माला भी नायिका के प्रेम पूवंक घारण करने के विशेष श्रस्तुतार्थ का “गुण सवा प्रेम में रहता दै न कि वस्तु में”? इस सासान्य अन्याथ से समर्थन हुआ दे । ३ पुनः यथा--सवैया । ज्यों करुता-परिपूरित नेह सौं कोऊ सुभासुभ कर्म निहवार न। भागीरथी ! नहिं छोड़ सकौ छुम पापी हजारन को नित तारन ॥ त्यों अघ-ओघन सौ मोहिं प्रेम हे ताहि न हों ईं सकों करि वारन ।
काहू सी हे न सके जननी ! क्षय में अपनो ये स्वभाव निधारन ॥ ->सेठ कन्हदैयाछाऊ पोहार ।
यहाँ भी श्रीगंगाजी को पतितपावनता से एवं भक्त को पापों से प्रेम होने के प्रस्तुत विशेषाथ का किसी से अपना स्वभाव न बदल सकने के सामान्य अथोंतर से समर्थन किया गया है। २ दितीय अथॉतरन्यास जिसमें प्रस्तुत सामान्य का विशेष अथातर से सम- थेन किया जाय |
अथोंतरन्यास २८&
१ उदाहरण यथा--दोहा । ३ पलटत ही प्रारब्ध के, खुखद दुखद हे जात। रवि पोषत, सोषत वही, जल जात हि जल-जात ॥ यहाँ “भाग्य का उलट-फेर होते ही अनुकूल पदार्थ भी प्रति- कूल द्वो जाता है” इस प्रस्तुताथे सामान्य का “कमलों को पोषण करनेवाला सूये उनका जल सूखते द्वी उनको भी सुखा देता है” इस विशेष अथोतर से समर्थन किया गया है ।
२ पुनः यथा--दोहा । साहन को तो भें घना, 'सहजो” निरमे रंक। कुंजर के पण बेड़ियाँ, च्वींटी फिरे निसंक ॥ --पसह्जो बाई । यहाँ भी साह और रंक के सामान्य प्रस्तुतार्थ का कुंजर और चींटी के विशेष अन्यार्थ से समर्थन हुआ है । ३ पुनः यथा--दोद्दा । जाति न पूछो साधु को, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ +-कबीर साहब । यहाँ भी पूर्वार्ुं के सामान्य प्रस्तुतार्थ का उत्तराद्ध के विशेष अथौतर से समर्थन किया गया है । सूचना--( $ ) पृवोक्त 'द्ृष्टांठः अलंकार में भी दो समान वाक्य होते हैं, किंतु वहाँ समता सूचक उपमेय-उपमान-वाक्य और उनके साधारण धर्मों का बिव-प्रतिबिंब-भाव होता है; और यहाँ सामान्य-विशेष-वार्क्यो का एक दूसरे से समर्थन होता है । १६
२६० भारती-भूषण
2 24 अर 23022 %:25/2 6: 3:75 है (१) प्र्वोक्त 'अप्रस्तुत-प्रशंसा” में अधस्तुत के वर्णन में प्रस्तुत सूचित किया जाता है; और यहाँ प्रस्तुत-अप्रस्तुत दोनों का स्पष्ट वर्णन, सामान्य- विशेष का संबंध तथा एक से दूसरे का समर्थन होता है। (३ ) पूर्वोक्त 'काब्यछिंग? में समर्थन के योग्य कथितार्थ का सूचक- कारण द्वारा ध्मर्थन होता है; और यहाँ सामान््य-विशेष का पररपर , समर्थन उदाहरण के रूप में होता है। अ्म><»न्-ग.. नि दि िलक ििशिकन् 33०००
(६०) विकस्व॒र जहाँ किसी विशेषार्थ का सामान्यार्थ से समर्थन किया जाने पर भी संतोष न होने पर पुनः किसी विशे- पार्थ द्वारा समर्थन किया जाय, वहाँ 'विकस्व॒र' अलंकार होता है इसके दो भेद हैं-- १ प्रथम घिकस्वर जिसमें उपमान-रीति से समर्थन किया जाय । १ उदाहरण यथा--कवित्त ।
बिमल विरागी त्यागी यागी बड़भागी भक्त, बिषयाजुरागी त्योँ कुखंगति-करैया है। कोऊ पंचकोसी मार्दि पंचपन पाजे, मुक्ति, सबको समान देत कासी पुरी मैया है॥ कारक - परोपकार आसय - उदार जेते, होत सब याही रोति आरति-हरैया है। तारै करि छोह औ निदारैे कनके न लोह, ऊँच-नीच-भेद ना बिचारै जिमि नैया है॥
विकस्वर २&१
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यहाँ श्रोकाशीजी के विशेषा्थ का परोपकारी पुरुषों के खामान्यार्थ से समथन करने पर भी संतोष न होने पर पुनः उपमान-रीति से नौका के विशेषार्थ द्वारा समर्थन किया गया है । २ पुनः यथा--दोहा । कल बिघन बविदारत प्रजन के, रिपु दारत न्प गंग।
ऐसे हि. करत महांन, जिमि, पदमन तमन पतंग ।॥! भी श्रीबीकानेर-नरेश महाराज गंगासिंद् के विशेषार्थ का के सामान्याथ से समर्थन किया जाने पर भी 'जिमि! वाचक द्वारा पतंग (सूर्य) के विशेषार्थ से पुनः समर्थन किया गया है ।
२ छितीप विकस्वर हि जिसमें अथोतरन्यास-रीति से समर्थन किया जाय ।
१ उदाहरण यथा--कवित्त | गहन गुदा ते भालु-दुहिता बिवाहि लायो, ताको अरुझायो मन रोम की लतान में। सिंघु मैं सिधारि मारि संखाखुर लीन्हों संख, नाग जमुना में नाथि आयो निज थान मैं ॥ जिबली-तरंग नाभी-भोर भ्रम्यो ताको मन, काहू के न आई प्रेम-प्रभुता प्रमान में। चंचयीक चतुर उदार दारू दारिबे मैं, कुंठित कुढार होत कंज-कलिकान में॥ यहाँ आरंभ के ढाई चरणों में श्रीकृष्ण का बृत्तांत विशेष- वाक्य दे, जिसका “काहू के न आई भ्रेम-प्रमुता भ्रमान मैं” इस
३ मद्दा पुरुष ऐसा ही किया करते हैं। जैसे--भगवान् भास्कर कमर्लो का पोषण भौर अंधकारों का नाश किया करते हैं ।
२६२ भारती-भूषण
सामान्य-वाक्य से समर्थन हुआ है; फिर उसका चतुर्थ चरणगत
अर्थातरन्यास-रीति के विशेष-वाक्य द्वारा समर्थन किया गया है। २ पुनः यथा--सवैया ।
सरजू-सरिता-तट बाटिका मैं, रट लागि रही बरटा' बिन संकहि।
तिहिंठाँ समुकैनहिं को किलको चढ़िवेव्यो जु काक रसालके अंकहिं
सब ही की महानता होचति है, जब थान को आन परे जु अ्रतंकहि ।
कसतूरिका जानहिंगे जग मैं, नयपाल-भ्रुवाल के भाल के पंकहि ॥ --जसवंत-जसोभूषण ।
यहाँ भी “कोकिल के स्थान पर जा बैठने से काक को महत्त्व प्राप्त होना” विशेषार्थ है, जिसका ठृतीय चरणगत सामान्याथे से समर्थन होने पर भी चतुर्थ चरणगत अर्थातरन्यास-रीति के विशेषार्थ से पुन: समर्थन किया गया है ।
३ पुनः यथा--सवैया ।
पैही म्रगेंद्र' के अंगन' मस्त-मतंगन-मस्तक-मोती-बिसाला। गीदर-गेह परे खर-अस्थि किरातन के तन ग़ुंज की माला॥ पैहौ खुपूत के पुस्तक पूत कपूत-निकेत” कुनीति कराला।
जैहो जहाँ फल पेहो जथा-थल ग्वाल के दूध कलाल के हाला' ॥ --शिवकुमार 'कुमारः ।
यहाँ भी पूर्व के तीन 'चरणगत विशेषायीं का “जैदो जदाँ फल पैहो जथा-थल” खामान्याथ से ओर फिर “ग्वाल के दूध कलाल के द्वाला” विशेषार्थ से समर्थन हुआ दे ।
३ हंसिनी | २ सिंह । ३ भद्भण> भाँगन । ७ मतपाले द्वाथियों के मस्तकों के बड़े-बड़े मोती | ५ स्थान। ६ मदिरा ।
प्रौढ़ोक्ति २६३
मल श्र कब चर शक की आय आज 5 बारी
(६१) प्रोढ़ोक्ति जहाँ किसी कार्य के उत्कष का ऐसा कारण कल्पित किया जाय जो वास्तव में न हो, वहाँ प्रोढ्रोक्ति! अलं- कार होता है । १ उदाहरण यथा--कवित्त । आखुरी खुरी के है न किन्नरी परी के ऐसे , हैं न हर-ती' के ह रती के अति फोके हैं। मेनका घृताची ' तें सची ते इन ही के गुन , गौरव गोपाल-हिय हेतु अरुची के हैं ॥ पाए कर ' नीके पै लजाए करनी" के बाल , मोरि मुख लाएँ लेत आएँ खछुधी ही के हैं । देखि दुलही फे जंध जात खुलि ही के दग , उलहे' अमो के मनु खंभ कदली के हैं ॥ यहाँ, कदली-खंभ ( काये ) के उत्क का हेतु अम्रत से उत्पन्न दोना नहीं है, क्योंकि अमृत द्वारा उत्पन्न होने से कदली-खंभों में विशेष रमणीयता नहीं द्वोती, तथापि चतुर्थ चरण में इसको उत्कर्ष का हेतु स्थापित किया गया दे ॥ २ पुनः यथा--ऋवित्त । झुर-घुनि-धार घनसार पारबती-पति , या बिधि अपार उपमा को थौभियतु है। भनत 'मुरार! ते बिचार सों बिहीन कवि , आपने गँवारपन सौं न छौमियतु है॥ 3 पायंती । २ अप्परा-विशेष । ३ शुंड । ४ इस्तिनी । ५ सरसे हुए।
२६७ भारती-भूषण
भूप-अश्रवतंस ज़सवंत ! जस रावरो तो, अमल अतंत तीनों लोक लोभियतु है। सरद् को पून्यों-निसि - जाए हंस को है बंघु , छीर - सिंघु - मुकता समान सौभियतु है ॥ --कविराजा मुरारिदान । यहाँ भी हंसों का शरद-पूर्रिमा का जन्म और मोतियों का क्षीर-सागर से उत्पन्न होना उत्कष का कारण न होने पर भी कारण ठद्दराया गया है | ३ पुनः यथा--दोह्दा । ... /» अरुन सरस्वति-कूल के, बंघुजीब के पूल । ४ बैसे ही तेरे अधर, लाल लाल-अलुकूल ॥ --राजा रामसिंह ( नरवलगढ़ )॥ यहाँ भी नायिका के ओछ्ठ के उपमान बंघुजीव-पुष्प का सरस्वती नदी के तट पर उत्पन्न होना उत्कषे का कारण न होते हुए भी वद्दी कारण कल्पित किया गया है. ।
(६२) संभावना जहाँ “यदि ऐसा हो! इस प्रकार किसी अर्थ की कल्पना करके “तो ऐसा हो” इस प्रकार से किसी संभा- विताथे (संभव श्रथे ) की सिद्धि की जाय, वहाँ 'संभावना' अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा-सबैया ।
अंग अलोकिक श्रीमति के, उपमाहु अपूरब यों मन भावजे। चुद्धि-बिधानन शानन ते, अलि ! जो चतुरानन ते बनि आयबे ॥
८3662
संभावना रूप
है उलटे कदलीन के पेड़न, पै पचि एक हि पात बनावे।
तो कद्ली-तरू पीठरु जंघन को पद् नीठि निहोरत पावें॥ यहाँ “यदि ठतीय चरणोक्त रीति से विधाता कदली-इृक्ष बना सके” इस अर्थ की कल्पना से कदली-वृक्षों एवं पत्र को श्रीराधिकाजी की जंघाओं एवं पीठ की समता प्राप्त होने का संभाविताथ सिद्ध होना वर्शित है । २ पुनः यथा--कवित्त । विद्या-भूमि में न अर्थ-बीज होते अंकुरित, छत्र-धमं -दादुर दुराकति दरखतो। मेधावो मयूरन को मोद मिट जातो सूर- बीरन को मान-मीन पंकहि परखतो।॥ अतुल उदार बलबंत ! रतलाम - राज | चातक - चतुर- मन तापन तरखतौ | बाड़व-द्रिद्र कवि-सागर खुकावतो, जो, मालबंद्र | तू न मास बारह वरखतो॥ --बारहठ महाकवि सू्यंमल्ल । यहाँ भी “जो मालवेंद्र ( मद्दाराजा बलवंतसिंद रतलाम ) बारदों मास न बरसते” इस अर्थ द्वारा “बिय्ा-भूमि मैं न अर्थ- बीज द्वोते अंकुरित” आदि संभावितार्थ सिद्ध किए गए हैं ।
३ पुन; यथा---छणप्पय । तो अखार संसार जानि संतोष न तजते। भीर-भार के भरे भुप को भूलि न भज़ते॥ वुद्धि-बिवेक-निधान _ मान अपनो नहिं देते। हुकुम बिरानो रास्ति लाख खंपति नहिं लेते॥
२६६ भारती-भूषण
जो यह नहिं होती ससि-मुखी, मुग-नयनी केहरि-कटी ।
छुबि-जटी छ॒ुटा कैसी छुटी रख-लपटी छूटी लटी॥
--महाराजा सवाई प्रतापसिंद ( भाषा-भतृदरि )।
यहाँ भी “जो शशि-मुखी आदि विशेषणोंवाली स्री न
होती” इस कल्पितार्थ से “संतोष नहीं छोड़ते” आदि संभावि- ताथों का सिद्ध होना वर्णित है ।
४ पुनः यथा--छप्पय ।
सदगुन सील सतीत्व खुमति सब नारि हु पावहिं। तैसि हि आपु समान सभ्य संतान बनावहिं॥ नर स्वदेस-हित 'सदुपदेस-बरसा बरसावहिं। सदन-सदन खुंदर सनेह -सर सा सरखावहिं ॥ सत्वर खुलभ्य सुरलोक सम, सारे सुख के साज़ हो। जदि अग्नसेन-महाराज-कुल “सिक्षित सकल समाज हो” ॥ --शिवकुमार 'कुमार? । यहाँ भी “जो महाराज अग्रसेन-वंशियों का सत्र समाज शिक्षित द्वो जाय” इस अर्थ द्वारा स्त्रियों में सह्दुण दो जाने आदि के संभाविताथी की सिद्धि की गई है ।
सचना--( १ ) यहाँ 'तो? शब्द ( वा इसके समाहार ) के साथ तो संभावितार्थ भाता ही है; तथा 'यदि ऐसा हो? इस प्रकार से एक भ्रथे कक्पित किया जाता है। यह यद्यपि प्रायः भाषा-प्रंथों के उदाहरणों में संभावित ( होने योग्य ) और असंभावित (न होने योग्य ) दोनों प्रकार का दैखा जाता है; तथापि यह अर्थ “असंभावितः होने पर ही विशेष चमत्कार-पूर्ण होता है। जैसे--ऊपर के डदाहरणों में “दो उछटे कद॒छी के पेड़ों पर एक पसे का बनाया जाना”? ह॒त्यादि ।
मिथ्याध्यवस्िति २&७
(२ ) यद्यपि इस 'संभावना” भलंकार को काध्य-प्रकाशकार ने स्वतंत्र न लिखकर “अतिशयोक्ति का एक भेद ही माना है; भौर इसमें 'अति- इयोक्ति! का चमत्कार भी है; तथापि 'चंद्वालोकः एवं प्रायः भाषा-म्ंथथों में यह भिन्न माना गया है; और इसमें अन्प्र अर्थ की सिद्धि के लिये किप्ती अर्थ की कह्यना की जाती है तथा 'जो! 'तो? शब्दों की विशेषता है।
(३) पूर्वोक्त 'उ्प्रेक्षा' अलंकार में उपमेय में उपमान की तादत्म्य ककपना की जाती है। जैसे--'मुख मानो चंद्र है; और यहाँ किसी अन्य संभाविताथ को सिद्धू करने के लिये 'यदि ऐसा द्वो? इस प्रकार से किसी अथे की कल्पना की जाती है। यही इनमें विभिन्नता है।
हट
(६३) मिथ्याध्यवसिति जहाँ किसी श्र्थ का मिथ्यात्व' सिद्ध करने के लिये किसी अन्य मिथ्या्थ का वर्णन किया जाय, वहाँ “प्रिथ्याध्यवसिति” अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहद्दा ।
... . सूक, भेक' ज्यों गंग के, गावत अवगुन-ब्रात।
«४ त्यों रज-कन नभ-खगन के, अंध गनत अधरात ॥ यहाँ श्रीगंगाजी में अवगुण द्वोने ( अर्थ ) का मिथ्यात्व सिद्ध करने के लिये मूक एवं मेंडक द्वारा उनके अवगुणों का गान किया जाना और अंधे का अरद्धंरात्रि में गगन-पक्तियों के रज- करों की गणना करना ये अन्य मिथ्यार्थ वर्शित हुए हैं। इस
$ यह मिथ्यात्व किसी अभिप्राय से गर्भित होता हे | केवल एप ऋतिस्थाल छिप भमिम्राय से गर्शित होता है। केवल मिथ्याथ की सिद्धि में अलंकारता नहीं होती । २ मेंढक को जिह्ना नहीं होती ।
र&८ भारती-भूषण
वर्णान में “श्रीगंगाजी में गुण हैं और अवगु्णों का सर्वथा अभाव है” यह तात्पये गरभित है। २ पुनः यथा--कवित्त । महाराज ! तेरी सब कौरति बखाने, कबि, ५. . चंद' यह केवल अकौरति बखाने हैं। आँधरेन देखि-देखि हमकों वताइ दई, बहिरेन सुनी जैसी हम ह पिछाने हैं॥ कच्छुपी के दूध! ही के सागर पै ताकी गीत, बॉम-खुत गझूँगे मिलि गावस यों जाने हैं ॥ तामे केते बड़े सस-खंग के धनुषवारे, रीफमि-रोकि तिन्हें मोज दैके सनमाने हैं ।॥ --चंद बरदाई। यहाँ भी भारत-सम्राट् प्रथ्वीराज की अपकीर्ति का मिथ्यात्व सिद्ध करने के लिये अंधे का देखना आदि अनेक अन्य मिथ्याथे वर्णित किए गए हैं । ३ पुनः यथा--दोहा । खल-बचनन की मधुरता, चाखि साँप निज भ्रौन । रोम-रोम पुलकित भर, कहतत मोद गहि मौन ॥ --मतिराम । यहाँ भी दुष्टों के बचनों की मधुरता को मिथ्या सिद्ध करने के लिये “सप का उसको कानों खे चखकर रोमांचित होकर मौन धारण किए हुए कहना” अन्य मिथ्याथे की कल्पना की गई है। "999 6:-06- $ कच्छपी के दूध नहीं होता । २ सप को कान भोर रोम नहीं होते।
ललित २६६
(६४) ललित कं
हि जहाँ किसी प्रस्तुत धर्मी के प्रति प्रस्तुत ह॒त्तांत का बणन न करके उसके प्रतिबिंब रूप किसी अप्रस्तुत घटना का वर्णन किया जाय, वहाँ 'ललित' अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । कौरव कपट -कुमंत्र करि, कुंती -खुतन॒ खँताइ । होनहार-बस हे, लियो, कालकूट - फल खाइ॥ यहाँ किसी अत्याचारी प्रस्तुत धर्मी के प्रति किसी का कथन है--./दुर्याधनादि कौरवों ने पांडवों को सताकर अपना सवनाश कर लिया” छिंतु इस प्रस्तुत घटना का वर्णन न करके इसके प्रतिबिंत्र रूप कालकूट-फल भक्षण करने का अग्रस्तुत वृत्तांत कद्दा गया है ।
अल -ल जज जल «
२ पुनः यथा--सवैया ।
बात सुने नहिं तू जन की. मन की करतूतिन मैं मन लावे। लाभ-अलाभ नहीं समुझे, उरको-खुरभी न 'गुलाब' लखाब | काज-अकाज समान गने, अपकीरति-कीरति सी भल भाव | तू कसि है ] घर आवति संपति हाथन द्वार किवार लगाबै ॥ गुछावर्सिद । यहाँ भी प्रस्तुत धर्मी कलह्ांतरिता नायिका को सखी द्वारा पति के मनाने पर भी न मानने का उपालंभ देने के रूप में भप्रस्तु- ताथे का वर्णन नहीं किया; किंतु उसके प्रतिबिंब रूप आती हुईं लक्ष्मी को देखकर घर का द्रवाजा बंद करने का अभ्स्तुताथ बणन किया गया है। 6550 पह॥
६८.८ ६८: ३0.
३०० भारती-भूषण
कज-ज<
सुचना--पव्रोंक्त 'समासोक्तिः में प्रस्तुत के वर्णन में अश्रस्तुत की प्रतीति होती है, 'अप्रध्तुत-प्रशंघा? में अप्रस्तुत के वर्णन द्वारा प्रस्तुतार्थ सूचित किया जाता है, “निदर्शना! में अस्तुत-अप्रस्तुत-वाक्यों में एकता का वर्णन होता है, 'रूपकातिशयोक्ति? में उपमेय छा उपमान में छोप हो जाता है तथा केवछ उपमान का वर्णन होता है; और यहाँ किसी प्रस्तुत धघर्मी के प्रति प्रस्तुताथं का वर्णन न करके उसके प्रतिविंब रूप घटना का वर्णन होता है; अतः उक्त चारों अलंकारों से यह विभिन्न है ।
(६५) प्रहर्षण जहाँ हष-बरद्धकफ अर्थ की सिद्धि का वर्णन हो, वहाँ “प्रहपेण” अलंकार होता है | इसके तीन भेद् हैं--
१ प्रथम प्रहषण जिसमें उपाय के बिना ही उत्कंठिताथथ की सिद्धि हो |
१ उदाहरण यथा--दोद्ा । फागन गमन-बिदेस-पिय, खुनत लगी उर लाइ। भागन कछु बरषा भई, सके न साजन जाइ॥ यहाँ नायिका के पति का विदेश-गमन न होने के वांछिता्थ का अकाल-बषा दोने के कारण, विना उपाय के ही सिद्ध द्ोना यर्शित किया गया है । ३ पुन: यथा--दोहा । री फी आरसी, प्रतिबिंब्यो प्यो आइ।
>> कट दिए निधरक लखे, इकटक दीठि लगाइ॥ --विद्वारी ।
प्रहषेण ३०३
यहाँ भी नायिका के नायक को रृष्टि भर फर देखने के ह अभीष्टार्थ का, बिना किसी उपाय के, आरसी में प्रतिबिंब द्वारा सिद्ध होना वर्णित है।
सूच ना--पूर्वोक्त 'समाधि? श्ररंकार में कर्ता के कुछ उपाय करते हुए अकस्मात् कारणांतर की प्राप्ति से सुगमता प्रवंक कार्य हो जाता है; ओऔर यहाँ विना उपाय किए ही वांछितार्थ की सिद्धि होती है। यही इनमें ध्रथकृता हे ।
२ द्वितीय प्रहषण जिसमें वांछितार्थ से भी अधिक लाभ हो ।
१ उदाहरण यथा--दोहा ।
७. | ऊछ धन लौं गे द्वारका, जद॒पि न कह्यौ लजाइ। तदपि लखी त्रय-लोक-निधि, सदन सुदामा आइ॥ यहाँ कुछ द्रव्य की इच्छा से द्वारका जानेवाले सुदामाजी को
वांछित से अधिक त्रैलोक्य-संपत्ति प्राप्त द्वोना वर्णित है । २ पुनः यथा--कवित्त ।
साहि-तनै सरजा की कीरति सों चारों ओर , चाँदनी - बितान छिति-छोर छाइयतु है।
धभूषन! भनत ऐसो भूप-भौंसिला है, जाको , द्वाए भिच्छुकन सं सदाई भाइयतु है ॥
महादानी सिवाजी खुमान या जहान पर , दान के प्रमान जाके यों गनाइयतु हे।
रजत की हौंस किए हेम पाइयतु जाखों , हयन की होल किए हाथी पाइयतु है॥ “--भुूषण |
इण्र भारती-भूषण
यहाँ भी छत्रपति शिवाजी द्वारा याचककों को चाँदी की इच्छा करने पर सुवर्ण एवं धोड़ों की इच्छा करने पर द्वाथी प्राप्त होने का वणन है।
३ तृतीय प्रहषण
जिसमें वांदितार्थ की प्राप्ति के साधन का उपाय
करने में ही साक्षात् फल प्राप्त हो । १ उदाहरण यथा--दोहा ।
सूखत प्रान समान निज, धानन देखि किसान। पूछन गो जोखिदिं जतन, मग दि मिले मघवान।। यहाँ किसी किसान के वृष्टि का उपाय पूछने के लिये ब्योतिषी के घर जाते समय मार्ग में दी सक्षात् पृष्टि-फल प्राप्त होना
वर्णित है ।
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२ पुनः यथा--ऋवित्त ।
ताके मुख-चंद करो मंद दुति चंद ट्व की,
ऐसी ना निहारी कोऊ भूतल मैं आइके । झुरस्न की कन्या ह न होइहेँ समान जाके,
देखे ही बनत कश्नीो जात न बनाइके ॥ बाको तन भेटिबे की तालाबेली 'लागी अति,
मिलिबो खु वाको कहूँ होत खुज दाइके। कीन्हों है उपाय ताते दूती के बुलाइबे को,
त्यों ही वह आइ आप मिली मन भाहके ॥
“->भलकार-भाशय |
3 घबराहट, बेचैनी ।
|
विषादन ३०३
5 5 22 52,222: 72222: 7०९ यहाँ भी नायिका से मिलने के लिये नायक द्वारा केवल दूती
को बुलाने का यत्न करने में स्वयं नायिका के आकर मिल जाने के रूप में साक्षात् फल-प्राप्ति होने का वर्णन है ।
खूचना---वोक्त 'सम' अलंकार के तृतीय भेद में उस काय की सिद्धि होती है जिश्के लिये उद्यम किया जाय; और यहाँ (तृतीय भेद में) एसका साधन स्रोजने में ही साक्षात् अर्थ की सिद्धि हो जाती है ।
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(६६) शिषादन
जहाँ इच्छा के विपरीतार्थ की प्राप्ति हो, वहाँ (विषादन' अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
्! स्याम-सखा | घनरुपाम को, हम हेरति रहें राह।
उन अनन्य - चित - चातकिन, अजिन पठाई वाह !॥
यहाँ गोपिकाओं की श्रीश्यमसुंदर के आगमन की इच्छा के विपरीत उनको उद्धव द्वारा ( त्रद्मचर्य एवं वैराग्य के साधनभूत ) अजिन ( मग-चर्म ) का प्राप्त होना वर्रित है ।
२ पुनः यथा--सचैथा । जाइगी बीत ये रात सोहाइगो वो अरुनोदय की अरूनाई। भाजु प्रभा बिकसाइगी वो, खुलि जाइगी कंज-कली हू मुचाई ॥ यों जिय सोचति ही अलिनी, नलिनीगत कोस प्रदोष रुकाई। हाय ! इतेक में आ गज़नो रजनी ही में पंकजनी धरि खाई।॥ --प्तेठ कन्हैयाछाल पोद्दार ।
३०७ भारती-भूषण
यहाँ भी सायंकाल से कमल-कोश में रुकी हुई अ्रमरी की सूर्यदिय होते ही बंधन से विमुक्त हो जाने की अभिलाषा के विरुद्ध उसका प्राण-नाश द्ोना वर्णित है । ३ पुनः यथा--दोद्दा । मन-चींती हेंहै नहीं, हरि-चींती ततकाल। बलि चाह्यो श्रकास को, हरि पठयो पाताल ॥
--भ्षज्ञात कवि ।
यहाँ भी दैत्यराज-बलि को खगे-राज्य-प्राप्ति की इच्छा के विरुद्ध पाताल प्राप्त होने का वर्णन है ।
सूचना--स्मरण रहे कि कुछ आचार्यों ने इस “विषादन? अलंकार
को 'विषम! के श्रंतगंत ही माना है; किंतु (विषम? के तीसरे भेद में अभीष्ट
के लिये उद्योग करने पर उसके विपरीत अनिष्ट होता है: और यहाँ केवछ
संभावित ( सोचे हुए ) दृष्ट के स्थान पर भनिष्ट प्राप्ति का वर्णन होता है। + 97.०
(६७. उल्लास जहाँ एक के गुण-दोष से दूसरे का संबंध कहा जाय, वहाँ उल्लास” अलंकार होता है। इसके चार भेद हैं -- १ प्रथम उल्लास जिसमें एक के गुण से दूसरे को घुण प्राप्त हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । किंतु संत-संगति तरनि, इतर सुकछृत खद्योत। ५] होत हेम पारस परसि, लोह तरत लगि पोत॥ यहाँ लोहे को पारस एवं पोत ( नौका ) के संसर्ग से हेम ( सुबर्ण ) दो जाने एवं तर जाने के गुणों की प्राप्ति का वर्णन है ।
उल्लास ३०५
२ पुन: यथा--सबैया ।
गुच्छुनि के अवतंस लखें सिख्ि-पच्छनि अच्छु किरोट वनायो । पल्चव लाल समेत -छुरी कर पल्लव से 'मतिराम” सुहायो ॥ गुंजन के उर मंजुल हार, निर्कुजन ते कढ़ि बाहर आयो। आज को रूप लखे त्रज़॒राज को आज हि आँखिन को फल पायो ॥ --मतिराम । यहाँ भी श्रीकृष्ण के रूप गुण से दर्शन करनेवालों को आँखों
का फल पाने की गुण-प्राप्ति का वणन है ।
२ द्वितीय उल्लास जिसमें एक के दोष से दूसरे को दोष प्राप्त हो ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । सजन ! संँदेसे ब्रिपति के, कहो कहे किमि कोइ ? । पानि परसि कागद, कलम, मसि डु बिरह-बस दवोइ | यहाँ प्रोषित-पतिका नायिका का अपने पति के प्रति प्रताप है कि आपको पत्र लिखते समय कागज, कलम एवं स्याद्दी भी मेरे वियोगाग्नि-विदग्ध-कर-स्पशे ( दोष ) से संता१ ( दोष )-युक्त हो जाती है । २ पुनः यथा--दोदा । ७| संगति-दोष लगे सवनि, कहे ते खाँचे बैन। कुटिल- वंक भ्रू-संग भे, कुटिल-बंक - गति नेन ॥ --बिहारी ।
यहाँ भी अ्रकुटियों के बंकता-दोष से नेत्रों में भी ठेढ़ेपन का दोष श्राप्त होना कणित है। २०
३०६ भारती-मूषण
प्रथम और द्वितीय का उभय पर्यवसायी १ उदाद्रण यथा--दोहा मम उर सूरति राम की, मम सूरति उर-राम। यहाँ गाढ़ता नरन की, उत तलफत है बाम ॥ --भज्ञात कवि । यहाँ श्रीहनुमानजी से जगदंबा जानकी का कथन दै कि मेरे मन में श्रीरामजी की मूर्ति रहने के कारण पुरुष की तरदद धैय है एवं उनके चित्त में मेरी मूर्ति होने से स्त्रियों की सी व्याकुलता है; अतः एक के गुण से दूसरे को गुण और एक के दोष से दूसरे को दोष प्राप्त होने के कारण यह उभय पर्येवसायी है ।
३ ललीय उल्लास
जिसमें एक के गुण से दूसरे को दोष प्राप्त हो ।
१ उदाहरण यथा--अ#प्पय ।
पढ़ि कवित्त कषि पार लहैं संसार-घार को।
कविता सौं अति सुगम पंथ केलास-ह्वार को॥
कविता-घचल बनिता रिफ्ाइ रस -बस करि लीजिय ।
कविता सौं बस तपति विदित ज़स चहूँ दिखि कीडिय ॥ कविवर-मु्ेंदु ते श्रवत है खरस काब्य-रस अमिय सम। समुझत चकोर सज्यन मस्म अद्युघन-उर उपजत भरम॥ यहाँ छठे भरण में कवि के काव्य-रस गुण स्रे मू्खीं को अम-
दोष द्ोने का वरणंत दे । २ पुनः यथा--चौपाई ( अद्धं )।
५ अर्लति मद घुनि गर्जेलि भारी। गम स्रवहिं खुनि निसिचर-नारी।॥। «रमच्रितिन्पालस ।
जज्लञास डे०७
यहाँ भी श्रीहनुमानजी के गजन गुण से निशाचरियों को गर्भपात रूपी दोष होना कहा गया है ।
४ चतुथ उल्लास जिसमें एक के दोष से दूसरे को ग्रुण प्राप्त हो । १ उदाहरण यथा--सबैया । देवन देवऋषी ऋषिराज़न राजऋषीन रचे रस सारे। श्रिष्न बिनिद्यन ' बंदिन ओऔ वर वारठ-बंदन हु बिखतारे | ते कविराज ! निवाज़ि, करो जनि रोष, हरौ मति-दोष हमारे | नैंक दया करि देखहुगे तो विसेष लिखे गुन-लेख तिद्दारे ॥ यहाँ प्रंथकार की कविता की निरृष्टता के दोष द्वारा देवताओं आदि महाकवियों को उनके कार्यों की उत्कृष्टता का गुण प्राप्त दोना वर्णित है । २ पुनः यथा--कवित्त । गुन सों खु गुन दोष दोष सों प्रगट होत, परम प्रसिद्ध यह बात है नरन में। “रघुनाथ” की दोहाई यह अदभुत रीति, प्रगस्यो खु गरुन, दोष प्रगट करन मैं ॥ जैसो मोसों कोन््हों उन तैसोई मरीच ह सौं, पायो वे मुकुत-पद आपने मरन में। लाग्यो मेरे उर मैं दसानन-चरन सो तो, मो हू गुन भयो, आयो राम को सरन में ॥ ॥
+--रघुनाथ यहाँ सो राबण के दोष से मारीच को मुक्ति एवं विभीषण को श्रीरछुनाथजी की शरण ( गुण ) प्राप्त होना वर्शित है । हि $ अनिंदित ( प्रशंसनीय )।
शेण्प भारती-भूषण
ठृतीय और चतुर्थ का उभय पर्यवसायी १ उदाहरण यथा--दोहा । अनचोरे चोरी लगे, कारे कच-अँधियार। सेत चिहुर' की चॉँदनी, चारो साहकार॥ +>-मजलकार-आशय । यहाँ युवा वायिकरा के काले केशों ( गुण ) से समीपस्थ साधु पुरुष को भी लांछन ( दोष ) लगने एवं गत-यौवना श्री के श्वेत केशों ( दोष ) से समीपस्थ दुराचारी पुरुष को भी साघुता ( गुण ) प्राप्त होने का वन है ।
सूचना--( १ ) प्र्वोक्त 'पंचम विभावना” में विलोम कारण से कार्योन्वत्ति होती है; और यहाँ के तृतीय और चतुर्थ भेद में भी उससे मिलते .जुठते उदाहरण होने हैं; किंतु हाँ एक के गुण से दूसरे को दोष और एक के दोष से दूसरे को गुण थाप्त होता है ।
(२ ) पर्वोक्त 'असंगति? अलंकार के प्रथम मेद से इस 'उलछास? झलंकार के प्रथम और द्वितीय भेद मिलते-जुलते हैं; किंतु मिन्नता यह है कि वहाँ कार्य-कारण का, ओर यहाँ प्राकृतिक गुण-दोष का संबंध होता है ।
८ जा चूक; (६८) अज्ञा जहाँ एक का ग्रुण या दोष दूसरे को प्राप्त न हो, वहाँ अवज्ञा! अलंकार होता है । इसके दो भेद हैं--
१ प्रथम अचज्ञा, गुण से गुण की अप्राप्ति की
१ उदाहट रण यथा--दोह्दा । ४५ मेरे दग-बारिद बथा, वरसत बारि - प्रवाह । उठत न अ्रंकुर नेह को, तो उर-ऊषर माँह ॥ +मतिरा« |
$ केश ।
अवशज्ञा ३०७
यहाँ नायिका के नेत्र रूपी बादलों के बरसने ( गुण ) से नायक के ऊषर-भूमिवत् हृदय में प्रेमांकुर ( गुण ) का उत्पन्न न होना वर्शित हुआ है । २ पुनः यथा--सवैया । हाथ गहे हरि ने हित सो, खुत-सागर लब्छि के आदि ददाई'। अंबुज चक्र हु तें अधिके गुन रावरे को पहुँचे न गदाई॥ लायक है मु लागत हो तिनके हित मौन गहौ न कदाई। जुद्ध अखंख्यन जीति बजे, पे रहे तुम खंख-के-संख' सदाई॥ +-जेलकार-आशय | यहाँ भी विष्णु-भगवान् के कर एवं मुख से संपक हाने पर भी शंख को उनका गुण प्राप्त न होना वर्शित है।
२ द्वितीय अवज्ञ।. दोष से दोष की अप्रापि की १ उदाहरण यथा--सबैया ।
कोरी कबीर चमार रैदास हो जाट घना सधघना हो कसाई | गीध गुनाद भय्यो ई हुत्यो, भरि जन्म अजामिल कीन्हीं ठगाई ॥ वास! दई इनको गति जैसी, न तैसी जपीन्दर तपीन्ह ह पाई। साहेब साँचो न दोष गनें, गरुन॒ एक लहै जु समेत-सचाई || --भिखारीदास । यहाँ महात्मा कत्रीगादि के कोरी ( छोटी जाति ) आदि
दोषों का परमात्मा द्वारा अ्दण न होना कद्दा गया दै । २ पुनः यथा--सवैया ।
जाति नहीं प्रभुता 'रघुनाथ' जो सेवरै मान्यो न देव-घुनी को ।
मौल घटे नहि पामर पाइके, जो कह देत है फेकि चुनी को ॥
3 बढ़ा भाई। २ मूखले-के मूर्ख ।
३१० भारती-कृषण
2 लक शहर आफ 2:40 7 कि शक मिक किक मेत्री परे महिमा न कछू , जो हैँ स्यो कोड यातकी देख मुनी को। ठाकुर कूर कियो जो न आदर लागत है नहिं दोष गरुनी को॥ -श्घुनाथ । यहाँ भी सेबड़े ( जैन-साधु ) के देव-घुनी ( गंगां ) को न मानने के दोष का प्रभाव श्रीगंगाजी की प्रमुता पर न पढ़ने आदि के चार अलंकार हैं; इस कारण यह माला है| उभ्य पर्यवसायी १ उदाहरण यथा--दोहा। यद॒पि रही उर-स्याम तउ, गहदे न रँग डुहँ गात। गंगोदक गहि तुंबिका, मघुर न वह करुवात ॥ यहाँ श्रीप्रियाजी का निरंतर श्रीकृष्ण के हृदय में घास करने पर भी उनके गोर वर्ण गुण का श्रीकृष्ण को और श्रीकृष्ण के श्याम वर्ण दोष का श्रीप्रियाजी को प्राप्त न होना वर्शित है; तथा इृष्टांत रूप से तुंबिका के श्रीगगाजल का मधुर गुण एवं श्रीगंगा- जल के तुबिका का कट्ठ॒त्व दोष प्रहण न करने का वर्णन है । सूचना--इस “अवज्ञा? भ्॑कार के दोनों भेद क्रमशः पूर्वोक्त 'शछास? अलंकार के प्रथम और द्वितीय भेद के विरोधी हैं । 99२ 606०
(६६) अनुज्ञा जहाँ कोई उत्कृष्ट गुश देखकर किसी दोष-युक्त पदार्थ की भी इच्छा की जाय,बहाँ “अबुह्ना! अलंकार होता है।
१ उदाहरण यथा--दोहा । कहुति सुरी अखझुरी, करी, नरी न क्यों करतार १। इह्दि ग्वालिनि लो गुददत लखि, निज्ञ हाथन हरि हार ॥
अलुकरा श्श१
यहाँ देवासुर-जाति से मनुष्य-जाति में निऊृष्टता दोष होते हुए भी श्रीकृष्ण मद्दाराज के संयोग रूप उत्कृष्ट गुण को देखकर देवासुर-ख्त्रियों की त्रज-गोपिकाएँ होने की इच्छा का वर्णन है।
२ पुनः यथा--दोहा । गुरु समाज भाइन्ह-सहित, राम राज़्ु पुर होड। अछुत राम राजा अवध, मरिय माँग सब कोउ ॥ --रामचरित-मानस । यहाँ भी श्रीरामजी के रहते हुए उनके राज्य में मरने से उत्तम लोकों की प्राप्ति रूपी उत्कट गुण के लिये अयोध्या की प्रजा द्वारा मरण रूपी दोष की इच्छा करने का वर्णन है ।
३ पुनः यथा--कवित्त ।
डारपाल-लकुटो सों सुकुट महीपन के, देखिए अनेक गेंद जैसे नाचियतु है।
संचरत संकित सो सिंघु-देल-बादसाह ', पेसो मरुनाथ राज-द्वार राचियतु है॥
सादर प्रबेस हैं 'मुरार कविराज जहाँ, संमुख समीप बेठि, क्रीत' बाँचियतु है।
सार मान श्रेष्ठ सनमान जंसवंत ! तेरो, ज्ुग-ज्ञुग जाचक को जन्म जाचियतु है॥ --कविराजा मुरारिदान ।
$ हैदराबाद (पथ) के नव के नवाब का राज्य नष्ट दोने से जोधपुर-नरेश महाराजा विजयसिंदजी के समय से उनको जोधपुर में जागीर मिली हुई है। २ कीर्सि ।
३१२ भारती-भूषण
आलरलरल रत
यहाँ भी चतुर्थ चरण में सम्मान रूपी गुण के कारण कवि- राजा मुरारिदान का जोधपुराधीश महाराजा जसवंतसिद के यहाँ याचक होने रूपी दोष की इच्छा करना वर्णित है ।
हट स्
(७०) तिरस्कार हाँ किसी प्रकार का दोष मानकर उत्कृष्ट गुण- वाली वस्तु का भी तिरस्कार (त्थाग) किया जाय, वहाँ “तिरस्कार” अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोड़ा ।
5.५ के धन धनिक क्रि धनिक धन, तजिहेँ अवसि श्रकूर ।
तिहि घन लौं त्यागत धरम, तिन घनिकन-सिर धूर ॥
यहाँ अस्यिरता रूपी दोष मानकर गुणवाले धन का भी तिरस्कार किया गया है |
२ पुनः यथा--चौपाई (अद्ध)।
पद-सामीप्य-जोग जदि पावै। अगुन श्रनचुभव अभव न भागे ॥
यहाँ भी गुण-रद्दित एवं अनुभव-शून्य होने के दोष मानकर उत्कृष्ट गुणवाले अभव (मोक्ष ) पदार्थ का भी ( श्रीशंकर के
पद-सामीप्य-योग के सामने ) तिरस्कार करना वर्णित है ।
| ३ पुनः यथा--छप्पय । छिन हु छॉड़ी नाहि भोगि, भुगतो बहु भूपन। कुलटा सी यह भूमि लाभ मानत महीप-मन ॥
लेश श्श्३े
ताह को इक अंग अंग प्रति अंग हि पावत। राखत हैं करि कष्ट दिवस-निसि चहूँ दिसि घावत ॥ आपुनी ओर की होति यह यातें पशच्चि-पत्चि रचि रहे। टडढ़ ज्ञानी गोपीचछंद से बुरी जानिके वचि रहे।॥ महाराजा सवाई प्रतापसिंह ( भाषा भतृंहरि )॥ यहाँ भी उत्कट गुणवती प्रथ्वी को कुलटा एवं कष्ट-साध्य ( दोष-युक्त ) मानकर राज़ा गोपीचंद का उससे बच रहना ( उसको त्यागना ) वर्णित हुआ है। सूचना--- ख्यपि यह 'तिरस्कारः अलंकार प्रायः ग्रंथकार्रों ने नहीं लिखा है; तथापि रसगंगाधरकार के हसको स्वतंत्र अलंकार स्वीकार करने एवं उक्त “अनुज? अलूंझार का विरोधी होने के कारण हमने इसको स्वतंत्र अलंकार मानना उचित समका है ।
(मा आओ 2. 4 खा्कषण ऋ>- ३)
(७१) लेश जहाँ दोष फा सुख रूप से या गुण का दोष रूप से वर्णन किया जाय, वहाँ 'लेश” अलंकार होता है। इसके दो भेद हैं-- १ प्रथम लेश, दोष को गुण कहने का १ उदाहरण यथा--दोहा ।
कह] अनहित हर संतन कियो, श्रंव.ः हरत संताप।
नलकूबर-मनिम्रीव लो, दित भो नारद-साप ॥ यहाँ नारद के शाप रूपो दोष का ( कुबेर के पुत्र नलकूबर
आर मरणिश्रीव के लिये ) गुण रूप में वर्णन किया गया दै ।
बेश्छ भारती-भूषण
२ पुनः यथा-दोददा । चित पितु-घातक-जोग लखि, भयोौ भए खुत सोग । फिर इलस्यो जिय जोयसी, समभयी जारज़-ज्ञोग ॥ --किहारी । यहाँ भी किसी ज्योतिषी द्वारा पुत्र-जन्म में जारज-योग रूपी दोष को ( पितु-घातक-योग देखकर ) गुण मानना वर्रित हुआ है । ३ पुनः यथा--दोहा । कोटि विघन दुख में खुज़न, तजै न हरि को नाम। जैसे सती डुतास को, गनै आपनो धाम ॥ --दीनदयाछगिरि । यहाँ भी सती का अग्नि दोष को धाम ( सती-लोक ) गुण खसममना कहा गया है । |
२ द्वितीय लेश, गुण को दोष कहने का १ उदाहरण यथा--दोहा ।
,.. आ-नजसिसत्र सज्ि ! स्थाम की, खुलमा गई समाइ । + दीह टगन को दोष यह, राधा रही लुभाइ ॥
यहाँ श्रीराधिकाजी के नेत्रों की दीघता गुण को श्रीकृष्ण में आसक्त हो जाने से दोषमय बतलाया गया है ।
२ पुनः यथा--दोहा । प्रतिबिबित तो विंब में, भू-तम भयो कलंक।
निज-निरमलता दोष यह, मन में मान मयंक | ॥ “-मतिराम ।
मुद्रा श्श्प
यहाँ भी चंद्र-बिंब के प्रकाश गुण को उसमें प्रथ्वी के अंधकार का प्रतिबिंब पड़ने से कलंक का कारण मानकर दोष बतलाया गया है ।
सूचना--( १ ) पूर्वोक्त “्याजस्तुति? अलंकार में स्तुति के शब्दों से निंदा का या निंदा के शब्दों से स्तुति का तात्पयं होता है; और यदाँ € “लेश? में ) किसी दोष को गुण रूप में या किलस्ली गुण को दोष रूप में किसी अंश में मान लिया ज्ञाता हे। यथा--“अनहित हैं? में शाप को गुण एवं “भा-नखसिस? में बड़े नत्नों को दोष ही मान लिया गया है। उससे इसमें यही अ्र॑तर हे ।
( २ ) पूर्वोक्त 'उछासघ? अलंकार में एक का गुण या दोप दूसरे को प्राप्त होता है; भौर यहाँ किसी के दोष को गुण या गुण को दोष रूप से कढ्िपत किया जाता है। यही भिन्नता है।
(०-_-__-.....>-ध जाए > अप २-१7777"फ
(७२) मुद्रा
जहाँ प्रस्तुतार्थप्रतिपादक शब्दों से किसी अन्य सूचनीय अथ का भी बोध कराया जाय, वहाँ “मुद्रा! अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--ऑोतीदाम छंद ।
लहौ खुर-भोग सरोर निरोग । रहो बय बृद्ध सछेमक योग | न जाँचडहु आन बिना इक राम । जदो कवि-काव्यन मोतियदाम ॥
यहाँ किसी राजा के प्रति किसी विद्वान का आशीवाद प्रस्तुताथे है, इसी के 'जचौ” एवं “मोतियदाम! शब्दों खे “चार
जगण (॥5)) का मोदीदाम छंद द्वोता दे” यह किसी छात्र को सूचित किया गया है ।
लत >> -->->->->>-लज बल खन् ५9 तन € ७
इ्१६ भारती भूषण
२ पुनः यथा--कवित्त । . मेघ देख-देख नटखट आसा पूरि आए , कान्हर ले ग्रूजरी हिंडोर छुबि-छाकी है। दीप-दीप भेरव भए हैं नारि-बंंदन सों , ललित खुहाई लीला सारंग-छुटा की है॥ स्थामल तमाल कोस-कोस लों कुमोद कीन्हों , अंबादत्त” सोहनी त्यों छाया बदरा की है। कोऊ खुघरई सोौं श्रीकृष्ण को ज्ु पाओं तब ,
आल्ी | या कल्यान की बहार बरषा को है ॥ --पं० अंबिधावत्त ब्यास ।
यहाँ भी व्षो-ऋतु-प्रतिपादऋ शब्दों से मेष, देश, नट, खढ, आशा, पूरिया, कान्हरा, गूज़री, हिंडोल, दीपक, मैरव, जलित, सूहदा, लीलावती, सारंग, श्याम, मालकोश, कौसिया, कामोद, सोनी, छाया, सुधरई, श्री, अलैया, कल्याण और बद्धार राग- रागनियों के नाम भी सूचित किए गए हैं । ३ पुनः यथा--कवित्त । सूर-सुत्रमा को सोई खुंदर चमतकार , 7 देव-सतकार को सनेह सोई सनो है। गलिन-गलिन रसलीन तैसे देखि परें, बिमल बिहारी को बिभव सोई घनो है ॥ रसखानि चाव भरे लूटत रखिक अर्जों, हे नागरीकिसोरी को तनाव सोई तनो है। खुजस कहानी ब्ज़राज़ को खुजद सोई ,
सोई बूृंदाबन है बनाव सोई बनो है॥ --प० कृष्णविहारी मिश्र | _
मुद्रा ३१७
यहाँ भी बूंदावन-वर्णन प्रस्तुताथ से सूरदास, देव, रसलीन विह्ारी, रसखान, नागरी किशोरी और ब्रज़राज इन मदहाऋवियों के नाम भी व्यक्त होते हैं । यह अलंकार नाटकों और कथाओं के प्रारंभ में ( किसी निपुण कवि-निर्मित ) एक ही पद्म में आगे कहे जानेबाले समस्त हत्तांत के सूचित करने में भी देखा जात! है--- १ उदाहरण यथा--कवित्त । गरल ते भीम के, सु ज्वाला ह ते पाँचह के , द्रौपदी के सभा औ विराट बन तीन बार। किरीटी' के अच्छुए के साप ते जुधिष्ठटिर को, मारिब्रे को, मरिबे को उदे भए असी-घार ॥ दुर्वासा सापिबे को आयो ताको आदि देके, 'स्रूपदास” केते कहै एक छुंद मैं प्रकार। तेई मेरे ग्रंथ-आदि मंगल उदय करो, एते ठाँ अमंगल को मंगल करनहार॥ --बारहठ स्वरूपदास साधु । यद्द कवित्त स्वामी स्वरूपदास-कृत 'पांडव-यशेंदु-चंद्रिकाः के आदि का है | इस 'मंगलाचरणा' में उक्त ग्रंथ का समस्त वृत्तांत भी संक्षेप में बतला दिया गया है ।
$ अज्जुन । २ अप्सरा।
देश भारती-भूषण
(७३) रत्रावली जहाँ प्रस्तृताथ के वणन में कुछ अन्य क्रमिक पदार्थों के नाम भी यथाक्रम रखे जायें, वहाँ 'रत्रावली” अलंकार होता हैं। १ उदाहरण यथा--कवित्त । स्याम के सनेह सो सिंगार, मुखुकान हास, सोक - करुनारे पर प्यारे दह' भोरी के । रौद्र रतनारे मान-रोष ते निहारे नैंक, बीर सौति-मान-भंग को उमंग जोरी के ॥ दमन - दवागि देखि भय भो भयानक सो, त्यों बिभत्स दीखे अन्य दोति घृना गोरी के । अद्भुत अहेरी एन', सांत खुनि ऊधो बेन, नव रस- ऐन' नेन नवल-किसारी के॥ यहाँ श्रीराधिकाजी के नेत्र-त्रणन प्रस्कुतारथ में शंगारादि नव रसों के नाम भी क्रमानुसार रखे गए हैं । यथा--कवित्त । . आन नँदरानी सो कह्यो है काह टेरि आज 5३ मादी खात देख्यो खुत तेरो या सदन में। खुनिके रिसाइ झुत बोलि मुख खोलि देख्यो एक जअ्ह्म दोऊ भेव् तीनों देव तन में।॥ चारो वेद पाँचों भूत छददों ऋत सातो ऋषि आउठों बसु नर्वों ग्रद दसहूँ दिसन में। ग्यारहों महेल ओ दिनेस बारहों बिलोकि तेरहों रतन लोक चोदहों बदन में॥
अलेकार-आहशय |
>> बल+
१ काछीदृद । २ शिकारी मझग | ३ स्थान ।
तहुण ३१६
यहाँ भी श्रीकृष्ण के उत्तिका-भक्षण प्रस्तुता्थ के बणन में एक से चौदद्ट तक की संख्या का भी क्रमानुसार वर्णन हुआ है । "90% €06«
(७४) तदूणु हि जहाँ अपना ग्रण त्यागकर अन्य समीपस्थ वस्तु का गुण ग्रहण किया जाय, वहाँ “तहुण' अलंकार होता है। '
१ उदाहरण यथों--कवित्त | चअंदन चढ़ाएँ अंग केसर सुरंग होत, हाए पहिराएँ च्वारू चंपक्र चमेली ते। खुखमा सिंगार क्यों सरीर खुकुमार सहे, पिय-मन-भार ह॒ उठे न अलबेली ते॥ लाज़ ब्रजराज हर तें आज लो न जाति जाकी, रात को कहै न वात साथिन-सहेली ते। बरलैं पियूष जाके द्रसे डगनि क्यों न, सरसे सनेह ऐसी नायिका नवेली तें॥ यहाँ प्रथम चरण में चंदन एवं चमेली के दह्वारों का अपना . श्वेत गुण त्यागकर नायिका की देदन्युति का पीत गुण प्रद्दण करना वर्णित हुआ है। २ पुन: यथा--सवैया । कौहर' कौल' जपा-दल बि्ठम का इतनी जो बँधूक मैं कोति है । रोचन रोरी रची मेहदी “तउपलंभु! कहै मुकता समर पोलि है ॥ ३ इस अलंकार के संबंध की सूचना वक्ष्यमाण “अतहुण”! अलंकार में देखिए । ९ इंदायण का फऊ । ६ छाऊक कमऊ ।
| ३२० भारती-भूषण
पाँय धरे ढगे इंगुर सो तिनमें मनी पायल की घनी जोति है। हाथद्वेतीन लों चारिह्लें ओर ते चाँदनी चूनरी के रँग होति है ॥ --राजा शंभुनाथमिंद सालंका 'नुतशंमु! । यहाँ भी चाँदनी का अपना श्वेत गुण त्यागकर नायिका के चरणों की लालिमा ग्रहण करना वर्णित हुआ है । तद्गुण-माला १ उदाहरण यथा--दोहा । %,, अहि-मुख पस्थौ खु विष भयो, कदली भयो कपूर। सीप पसत्रो मोती भयौ, संगति के फल 'खूर! ॥ --महात्मा स़रदा/स। यहाँ स्वाति-जल-विंदु का सपप के मुख, कदली एवं सीप के संसर्ग से क्रमशः विष, कपूर एवं मोती द्वो जाना वर्णित है; झत: माला है ) इसमें रस, गंध और रूप तीनों गुणों का ग्रहण किया जाना कह्दा गया है | >>+२<४३) 4<द ३
(७५) पूर्वरूप जहाँ किसी के गए हुए गुण की पूवत् पुनः पाप्ति का बणोन हो, वहाँ 'पू्वेरूप” अलंकार होता है। इसके दो भेद हैं- १ प्रथम पवरूप जिसमें वस्तु के अस्तित्व में गत गुण की पुनः प्राप्ति हो। १ उदाहरण यथा-- दोहा । दिननि बिन संपति भए, नगन नगन-समुदाद' । खुदिननि लद्दे पलास' पुनि, रहे फ़ूल-फल छाइ॥
._$ रूप, रंग, स्वभावादि। २ पन्नादिसे रहित । ३ वृक्षों के झुंड । ४ पत्ते ।
पूवेरूप ३२१
यहाँ वृक्षों के पत्र-पुष्पादि ( शिशिरांत में ) गए हुए गुणों का ( बसंत में ) फिर प्राप्त होना वर्शित है । २ पुनः यथा--दोहा । ७, / सेत कमल कर लेत ही, अरून कमल -छुबि देत । ” नील कमल निरखत भयौ, हँसत सेत को सेत॥ --बैरीसाल । यहाँ भी श्रीराधिकाजी के हाथों में छेते दी श्वेत कमल का रंग लाल होना, पुनः उनके नेत्रों द्वारा देखे जाने से नीला द्वोना और फिर हँँसने से ज्यों का त्यों खेत होना वर्शित है। २ द्वितीय पू्ेरूप जिसमें वस्तु का विनाश हो जाने पर भी पूर्वावस्था की पुनः प्राप्ति हो । १ उदाहरण यथा--दोहा । मरि खुबरन भस्मी भयौ, गयो रूप ग्रुन रंग। ४ बेद-क्रिया ते पुनि नयो, भयो सहित-सब-अंग | यहाँ सुबण का भस्मी द्ोकर नष्ट हो जाने पर भी वैद्य-क्रिया द्वारा पुनः पूर्वावस्था को श्राप्त द्वोना वर्णित है । २ पुनः यथा--दोहा । जप -अरि - निस्वालानलहिं, खूखे सर-सरिताखु। पुनि नेनन के नीर से, भे परिपुरन आखु॥ “-नसवचंत-जसोभूषण । यहाँ भी किसी राजा द्वारा पराजित शज्रुओं के निःश्वासों से सरोवर एवं नदियों के सूखकर नष्ट द्वोजाने पर भी उनके अश्रुओं से पुनः पूर्वेबत्् परिपुर्ण दो जाने का वर्णन दै । २१
श्श्२ भारती-भूषण
अं -ज-ज-लप+5 >> तल जल जल ल लत >>
(७६) अतहुण जहाँ अन्य समीपस्थ वस्तु का गुण ग्रहण न किया जाय, वहाँ अतहुण” अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहा । अरुन-कज-हिय हरि-मधुप, गोपिन राखे गोइ। पे न चढ़े रंग स्याम पै, साँच कहेँ सब कोइ || यहाँ गोषिकाओं के अनुराग-रंजित-रक्त-कमत्र रूपी हृदय में श्रीकृष्ण रूपी श्याम भ्रमर के छिपे रहते हुए भी उनके अनुराग- रक्त गुण का श्रीकृष्ण द्वारा प्रदण न द्वोना कट्दा गया है ! २ पुनः यथा--दोहा । एरी ! यह तेरी दई, क्यों हूँ प्रक्ति न जाइ। नेह भरे हिय राखिए, तू रुखिए लखाइ॥ --विहारी । यहाँ भी नायक के स्नेह ( तैल )-पूरित हृदय में रहते हुए भी नायिका द्वारा स्नेह गुण अरहण न करना बतलाया गया है | सूचना--( १ ) एवोक्त तदुण” एवं इस “अतद्ुण” अलकारों की परिभाषाओं में दिए हुए 'गुण” शब्द से यद्यपि किसी-किसी भाषा- शलंकार-प्रंथ में रंग मात्र पक््रद्ण किया गया है तथा संस्कृत एवं भाषा के रदाहरण भी प्रायः रंग-विपय्रिक ही मिलते हैं, तथापि 'कुबलयानंद” भादि प्रायः अँ्थों में 'गुण” शब्द को रूप-रस-गंधादि-वा चक लिखा है एवं इनके उदाहरण भी मिलते हैं। यथा--
तहु ण-- ् विय के ध्यान गद्दी-गद्दी, रही वही दौ नारि। श्राप-भाप ही आरसी, छक्षि, रीकति रिकवारि ॥ “--विहारी-सतसई ।
अततहुण डशेर३
अतद णु -- का बिरह-व्यथा-जल-पर स-बिन, वसियत मो हिय-ताल । कछु जानत जल-थंभ-बिधि, दुर्योधन छों छाल ॥ --विहारी-प्रतसई । क्यारी करे कपूर को, स्टगमद-बिरवा बंध । सर्व सुधा सींचे तऊ, हींग न होइ सुगंध॥ +जअलंकार-भाशय ।
इन तीनों उदाहरणों में क्रमशः रूप, रस ( जल ) और गंब गुणों का वर्णन है; अठः रंग के अतिरिक्त इनका होना भी उचित है।
( २ ) प्रवोक्त 'डउल्छास? में एक के गुण से दूसरे का गुणी होना भौर “भवज्ञा? में एक के गुण से दूसरे का गुयो न होना बतलाया जाता है; किंतु उन दोनों अलंकारों में “गुण” शब्द दोष का विरोधी होता है और एक में जो गुग है, वद्दी साक्षात् अन्य में होने या त होने का तात्पयं नहीं हे; प्रत्युत एक के गुण से अन्य का किसी श्रकार गुणी होने या न होने का तात्पये द्वोता है; तथा तद्ुण' एवं “अतद्गुण? में गुण” शाठद रूप-रख- गंधादि-बाची होता हे भौर पक का साक्षात् गुण कन्य द्वारा ग्रहण होने या न होने का तात्परय होता है । यद्दी बन दोनों से इन दोनों अल- कार्रो में विभिन्नता है ।
(३) यह “अतत्ु घिरोधी है।
( ४ ) यद्यपि यह “अतद्गुण” एवं पूर्वोक्त “अवज्ञाः अलंकार दोनों पूर्वोक्त 'विशेषोक्ति/ »लंकार रूप हो हैं, क्योंकि वहाँ कारण के अस्तित्व में काये का अमाव द्ोता है, और वही बात इन दोतनों में भी है; तथापि “उब्लास! जौर “तद्ुणः के विरोधी होने के कारण इनमें केवल गुण्य का संबंध है; अतः ये स्वतंत्र अलंकार माने गए हैं।
9220५
णः अलंकार पूर्वोक्त 'तहुण! अलंकार का ठीक
झशड भारती-भूषण
(७७) अनुगुण
५ भहाँ किसी अन्य के संसगग से किसी पदार्थ के पू्े प्रसिद्ध श॒ण में उत्कष होने का वन हो, वहाँ “अलु- गुण” अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--सवैया ।
चोप' भरे 'रघुनाथ' बिलोकत दंपति जोन्द की जोति रसोली | एट्दो सजी ! तेहि औसर लै गई में रचि फूल की माल छुषीली ॥ शआनन की दुति देखी दुहँन की फैलि रही इतनी नभ-मीली | चैत की पून्यो के चंद् की चाँदनी चोगुनी चारु भई चटकीली ॥
--रघुनाथ ।
यहाँ श्रीराघा-माधव के मुख-प्रकाश के संपक से चैत्र-पूर्णिमा की चाँदनी में प्रकाश गुण का अधिक होना वर्णित है । २ पुनः यथा--दोदा । गई चाँदनी बनक बनि, प्यारी प्रीतम -पास। ससि-दुति मिलि सौगुन भयो, भूषन-बसन-प्रकास ॥
--राजा रामसिंद्द ( नरत्रछ्गढ़ ) |
यहाँ भी चंद्रमा की चाँदनी के संसर्ग से शुद्धाभिसारिका
नायिका के वस्राभूषणों के प्रकाश गुण में उत्कषे होना वर्णित है । अनुगुण-माला १ उदाहरण यथा--सवैया ।
प्यारी के पॉयन पायल की घुनि चोगुनी होति अनोटनियान ते ।
राग बजै अलजुराग सुहाग भरी बड़भागिन पेंजनियान ते ॥
३ आनंद ।
मीलित श्र्प
न्ध्श्च्च्््च्च्व्ल्श््लज
कंचन की चमके दमके दुति दुनी यों हीरन की कनियान ते। गंधन-लोभ लखें लपये फनि चंदन-सूल मनो मनियान ते॥
यहाँ प्रथम चरण में अनवटों के शब्द से श्रीप्रियाजी को पायजेब में शब्द गुण का एवं तृतीय चरण में हीरों की करियों के संस से सुवर्शमय आभूषयणों के प्रकाश गुण का अधिक दोना कद्दा गया है; अत: माला है ।
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(७८) मीलित जहाँ दो पदार्थों के गुण ( धपे ) समान होने पर एक पदायथ दूसरे में मिलकर ऐसा विलीन हो जाय कि भिन्नता ज्ञात न हो, वहाँ 'मीलित' अलंकार होता हे । '
१ उदाहरण यथा--कवित्त । इंद्र निज हेरत फिरत गज़्-इंद्र अरु इंद्र को अजुज' हेरे दुगध-नदीस' को। भूषन” भनत खुर-सरिता को हंस हेरें बिधि हेरें हंस को चकोर रजनीस को ।॥ साहि-तने सिवराज ! करनी करी है तें ज्ु , होत है अचंभो देव कोटियो तेंतीस को । पावत न हेरे तेरे ज़स में हिराने, निज , गिरि को गिरीस हेरें गिरिजा गिरीस को ॥ --भूषण । १ यहाँ 'मीलित? का भ्रथे छिपा हुआ है, अर्थात् एक चीन में दूसरी का ठिप जाना विवक्षित है। २ विष्णु | ३ क्षीर सागर |
३२६ भारती-भूषण
यहाँ छत्रपति शिवराज की यश-घधवलिमा में विलीन हो जाने
से ऐरावत गजेंद्रादि का न मिलना कहा गया है । २ पुनः यथा--सवैया । जोहँ जहाँ मगु नंदकुमार तहाँ चली चंद -मुखी सुकुमार है। मोतिन ही को फियोौ गहनो सब फूलि रही जनु कुंद् की डार है ॥ भीतर हो ज्ु लखी सुलखी अब बाहर जाहिर होत न दार है । जोन्ह सी जोन्है गई मिलि यों मिलि जात ज्यों दूध मैं दूध की धार है।॥ -सुखदेव मिश्र ।
यहाँ भी चाँदनी में मिलकर शुक्लाभिसारिका नायिका की
देह-ययुति का प्रथक् प्रतीत न होना वर्णित है । मीलित-माला १ उदाहरण यथा--दोहा ।
अधर पान, मेहँदी करन, चरन महावर-रंग।
लखि न परत सत्ति | सुमुखि के, अहो ! अलोकिक अंग ॥
यहाँ श्रीराधारानी की अधर-लालिमा में पान का, हाथों की ललाई में मेहँदी का और चरणों की अरुणता में यावक का रंग विलीन द्वो जाने के कारण भिन्नता का ज्ञान न द्वोना वर्णित है; और ये तीन वर्णन द्वोने के कारण माला है ।
सूचना--एवॉक्त 'तत्मुण” अलंकार में गुण” शब्द रूप-रस- गंभादि-धाची होता है और भन््य वस्तु के गुण का ग्रहण मात्र होता है न कि वह विलीन हो जाती है; तथा यहाँ “गुण” शब्द से सब प्रकार के
धर्मों का तात्पये है एवं एक का गुण दूसरे में द्ृध-पानी के समान मिल जाता है भर उनमें भिन्नता ज्ञात नहीं होती । यही इनमें अंतर है ।
5 /धञ2 ख्श्र्ध्यथ
सामान्य ३२२७
(७६) सामान्य जहाँ गुण-समानता होने के का रण प्रस्तुत-अप्रस्तुत में विशेषता का अभाव वर्णित हो अर्थात् व्यावतंक (भिन्नता- बोधक) धर्म न रहे, वहाँ “सामान्य” अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहा । चढ़ी आटा राका-रजनि, राधा रूप-निधान। / सब लखि हारे होति नहिं, मुख ससि की पहिचान ॥ यहाँ श्रीराधिकाजी के मुख और चंद्रमा का गुण-साहश्य होने के कारण देखनेवालों को निश्चय न होने से विशेषता का अभाव है । २ पुनः यथा--क्रोड़ाचरण छंद । अहो ! कंज के पुंज में नारि के नेन में ना पिछानूं । --हरिराम ( छंद-रत्वावली )॥ यहाँ भी नायिका के नेत्नों का कमलों से साहृश्य होने के कारण भिन्न प्रतीत न होना वर्णित है । ३ पुनः: यथा--कवित्त । चौस गनगौरन के गौर के उछाहन मैं, छाई उदैपुर में बधाई ठौर-ठौर है। देखो भीम राना | यो तमास्रो ताकिबे के लिये , माची आसमान में विमानन की भोर है ॥ कहे 'पद्माकर' त्यों धौके मा उम्रा के गज- गौननि की गोद में गज़ानन की दौर है। पार-पार देला महा मेला में मद्देस पूछे गौरन में कौनसी हमारी गनगौर हे ?॥
“--पमाकर |
£ ९ भारती-भूषण
यहाँ भी उदैपुर के गनगोरोत्सव में, देखने को आई हुई जगदंबा पावती के धोखे से गणेश के गज-गामिनी श्लियों की गोद में जा बैठने एवं श्रीमहादेवजी के बारंबार पुकारने से कि इनमें से हमारी गौरी कौनसी है? उनमें सॉंदर्य-गुण-साहश्य द्वारा अभेद हो जाना वर्शित है ।
सूचना-- एवॉक्त 'मीलित? अलंकार में एक वस्तु का गुण ( धरम ) दूसरी वस्तु में दृध-पानी की भाँति मिल जाता है; अतः मिलनेवाल्ी वस्तु का भाकार ही लुप्त हो जाता है; और यहाँ केवल गुण-साद्वश्य से मेद मात्र छा तिरोधान ( लोप ) होता है; किंतु दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न प्रतीत होते रहते हैं । यही इनमें भिन्नता है।
“हक (८०) उन्मीलित
जहाँ दो पदार्थों के गुण (धर्म) समान हों और एक का ग्रुण दूसरे में विल्लीन होने पर भी किसी कारण से भेद की स्फ्रणा हो जाय, वहाँ “उन्मीलित” अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । तिय-अंगन लगि मिलि रहे, केसर - सुरभि - खुरंग । लखियतु परिरंभन पिघरि, जब लगियतु पिय-अंग |। यहाँ नायिका के अंगों में लगकर केसर की सुगंध एवं रंग में यौ्यपि अभेद हो रद्दा था तथापि नायक के परिरं भण-जन्य सात्विक- भाव से पिघलकर उनका भिन्न-भिन्न बोध होना वर्णित है ।
विशेषक डरे
२ पुनः यथा--दोहा । ज्ञुवति जोन्ह में मिलि गई, नेंकु:ु न होति लखाइ। सौंधे के डोरे लगी, अलो चली संग जाइ।॥ --विहारी ! यहाँ भी शुक्काभिसारिका नायिका के जोन्द ( चाँदनी ) में मिलकर अभेद द्वो जाने पर भी सुगंध के कारण सखी को भिन्नता की स्फुरणा द्वोने का वर्णन है । ३ पुनः यथा--चौपाई । |, प्रनवर्ड परिज्ञन-सहित बिदेह | जाहि राम-पद ग्रूढ़ सनेह् ॥ जोग भोग महूँ राखेड गोई | राम बिलोकत प्रगटेड सोई ॥ --रामचरित-मानस । यहाँ भी राजा जनक ने श्रीरामजी के चरणानुराग को योग- भोग में ऐसा छिपा रखा था कि भिन्नता प्रतोत नहीं द्ोती थी; पर उस भिजन्नता का श्रीरामजी के दशेन द्वारा प्रकट होना कटद्दा गया है । गगन
(८१) विशेषक जहाँ प्रस्तुत-अप्रस्तुत में गुण-साहश्य होने पर भी किसी कारण से विशेषता की स्फुरणा हो, वहाँ “विशे- पक! अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
सब विधि सम, कहि सक न कोड, को बराह को राहु । *५/ पुनिमुजल मैं लखि सकल ससि, राहु कह्मौ सब काह ॥
३३० भारती-भूषण
के
यहाँ वराह एवं राहु में सन्न प्रकार से साइश्य द्वोते हुए भी राहु के मुख में पूर्ण चंद्र देखकर' विशेषता का बोध होना वर्णित है । २ पुनः यथा--दोहा । आई फूलनि लेन को, चलो वाग में लाल !। सड़ बोलन सो जानिए, सदु बेलिन मैं बाल ॥ --मतिराम । यहाँ भी प्रस्तुत नायिका के वर्ण एवं सुबास गु ण-साम्य द्वारा अप्रस्तुत पुष्पों से अभेद द्वो जाने पर भी उसके कोमल बचनों के कारण भिन्नता का बोध होने का वर्णन है। खसूचना-- पूर्वोक्त 'उन्मीलित' के एवं इसके लक्षण में समानता की अतीति द्वोती है; किंतु वहाँ एक का गुग दूसरे में 'मीलितः की भाँति बिलीन होकर, किसी कारण से एथक्ता जानी जाती है; और यहाँ दोनों वस्तु्भों की स्थिति “सामान्य? की भाति भिन्न-मिन्न रहकर किसी कारण से श्थकृता जानी जाती है। यददी इन दोनों भले॑झारों में भेद है। 2७०----ाबाूट.) ेम--->+>>नन
(८२) उत्तर
जहाँ उत्तर ( जवाब ) में किसी प्रकार का चमत्कार व्यक्त किया जाय, वहाँ उत्तर! अलंकार होता है | इसके दो भेद हैं--
१ गढ़ोत्तर
जिसमें किसी ग्रूढ़ अभिप्राय-युक्त उत्तर हो। इसके
भी दो भेद होते हैं-- $ क्योंकि वराह का दाँत द्वितीया के चंद्रमा के जैसा होता हे ।
उत्तर ३३१
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( के ) उलन्नीत-प्रश्न
जिसमें विना प्रश्न के ही किसी व्यंग्य (अभिप्राय )- युक्त उत्तर के श्रवण मात्र से प्रश्न कल्पित किया जाय । इसे 'कल्पित-प्रश्न' भी कहते हैं । १ उदाहरण यथा--दोदा । सघन खरन मैं यह जरी, गिरि - गोबधन - राह । जइयो पे दुपहर, परे, साँक-सबेर वराह॥ यहाँ किसी पथिक के श्रति कहे हुए स्वयं-दूती नायिका के केवल इस उत्तर-वाक्य से कि यद्द जड़ी ( बूटी ) गोव्धेन-गरिरि- सागे के सघन सरों में है, पथिक का “अमुक बूटी कहाँ मिलेगी”? प्रश्न कल्पित किया गया है; और नायिका ने व्यंग्य से संकेत- स्थल सूचित किया दे । २ पुनः यथा--कवित्त । सह जै हू जाम द्वेक लगि जैहँ मग बीच , बसती के छेहरे सराय है उतारे की। कहत 'कविंद” मग माँक ही परेगी सॉँम , खबर उड़ानी है बटोही द्वेक मारे की।। घर के हमारे परदेस को सिधारे यातें , दया करि बूकत खबरि राहचारे को। करखे' नदी के बर बर' के तरैतू बस , मत चोकी इत पाहरू हमारे की।॥ --डदयनाथ “कर्विंद? ।
$ किनारे। २ बट-वृक्ष ।
डेरे२ भारती-भूषण
यहाँ भी किसी पथिक के प्रति स्वयं-दूती नायिका के चतुर्थ चरणगत उत्तर के द्वारा पथिक के ठहरने का स्थान पूछने की कल्पना हुई है; और व्यंग्य से संकेत-स्थल सूचित किया गया है । (ख़ ) निबद्ध-प्रश्श जिसमें कई प्रश्न होने पर बारंबार किसी गृढ़ अभि- प्राय से युक्त उत्तर दिए जायें | १ उदाहरण यथा--दोहा । कौन लाभ ? जस जगत मैं, को बल ? जन-संजोग। को सुभ धन ? संतोष मन, को खुख ? देह निरोग ॥ यहाँ 'कौन लाभ ?! आदि चार प्रश्नों के 'जस जगत मैं” आदि चार उत्तर उपदेश के अभिप्राय से गर्भित दिए गए हैं । २ पुनः यथा--दोह्दा । को इत आवत ? कान्ह हों, काम कहा ? हित-मान। किन बोल्यो ? तेरे डगनि, साखी ? खदु मुखुकान ॥
--भिखारीदास “दास? | यहाँ भी श्रीराधिकाजी के चार प्रश्नों के श्रीकृष्ण द्वारा प्रेमोत्कर्ष के अभिप्रायांतर-गर्भित चार उत्तर दिए गए हैं ।
२ चित्रोत्तर णनिसमें किसी विचित्रता से युक्त उत्तर हो इसके भी दो भेद होते हैं-- (क ) प्रश्नों के शब्दों में ही उत्तर १ उदाहरण यथा--दोद्वा । अंगन लग्यो परांगना ? मैन जग्यो कहूँ रैन ?। दुृषन-दूषित हे बने, धीरबह्ट-रँंग नेन ?॥
उत्तर रेरेडे
बी आर शीट कप श्र नकी न पक पक व शी य
यहाँ पर-संभोग-दुःखिता नायिका के नायक से प्रश्न हैं-- आपने पर-सत्री के अंगों से आलिंगन किया ९, काम से रात्रि भर जागते रद्दे ? तथा चक्त दूषणों से द्वी आपकी आँखें लाल हैं २ इन तीनों प्रश्नों के क्रमशः तीन उत्तर--मैं किसी पर-सश्ली के अंग से नहीं लगा, किसी जगह रात्रि में जागता नहीं रहा और मेरी आँखें दुखने के कारण लालहैं--प्रश्नों के शब्दों में द्वी दिए गए हैं । २ पुनः यथा--दोद्दा । अलि लोभी-रस को महां ? कोसमान न॒प होइ?। दिन - संजोगी . कोकहै ? रैनि - बियोगी सोइ ॥ +-राजा रामसिंह ( नरवलरूगढ़ ) । यहाँ भी तीन प्रश्न हैं--द्टे सखी ! रस का लोभी कौन है ? नूप के समान कौन दै ? और द्नि-संयोगी कौन कहलाता है ? । इनके उत्तर इन्हीं शब्दों में यों दिए गए हैं---रस का लोभी अ्रमर है, धन के कोशवाला राजा है और द्नि-संयोगी चक्रवाक हैं ।
(ख़ ) बहुत से ग्रश्नों का एक ही उत्तर
१ उदाहरण यथा--कवित्त ।
एक कहो नीकी सी प्रहेलिका सुनाइ दीजै,
एक क॒ह्मौ कीजै साथ रथ की सवारी जू। एक कहो कीजिए कपाट बंद, एक कह्मो,
कुसती दिखैए आज्भु आए हैं. खिलारी जू ॥ एक क्यो लूख्यो रस गोरस गरीबिनी को,
एक क्यो प्यारे आख पूजिए मुरारीजू !। ज्ोरी नाहि! भोरी ! एक उत्तर बिहँसि देत,
घ्रज के बिहारो हरो जातना हमारी जू॥
३३४ भारतो-भूषण
यहाँ श्रीकृष्णजी के प्रति गोपियों के “नीकी सी प्रहेलिका सुनाइ दीजै” आदि छः प्रश्नों के 'जोरी नाहिं! इस एक ह्वी पद द्वारा उत्तर दिए गए हैं--पहदेली जोड़ी (रची ) नहीं गई है, बैलों को जोड़ी नहीं है, कपाटों की जोड़ी नहीं है, इनकी बराबर की जोड़ी नहीं है, जबरदरती से नहीं छूटा गया है और हमारी- सुम्हारी समानावस्था नहीं है । |
२ पुनः यथा--दोहा । गुहू-- पान सड़े घोड़ो अड़े, बिद्या बीसर जाइ। रोटो जले अँगार मैं, कहु चेला केंदाइ?॥
शिष्य-गुरूजी ! फेस्यो नाहीं ।
--भ्ज्ञात कवि। यहाँ भी शिष्य के प्रति गुरूजी के--पान क्यों गलता है ९, घोड़ा क्यों अड़ता है ९, विद्या विस्पृत क्यों होती है ? एवं टिक्ड़ अप्नि में क्यों जलता है ९--चार प्रश्न हैं। इन सत्रका “फेरा नहीं गया” एक द्वी उत्तर दिया गया है । -अुँ->पएक #मपसूक-
(८३) सूक्ष्म जहाँ किसी की चेष्टा से कोई सूर्म ( गूढ़ ) धचांत जानकर जाननेवाला किसो प्रकार की चेष्टा ही से कोई अभिप्राय-गर्भित उस हत्तांत का केवल ज्ञात होना प्रकट करे अथवा उसका समाधान भी सूचित करे, पहाँ “पूच्म! अलंकार होता है ।
स्च््म शेरेप
१ उदाहरण यथा--दोहा । ३ स्थाम-चुलावन समुक्तितिय, चित समुचित सखि-सेन। ताकि तनक पिय-तन, करन, कर धरि मूँदे नेन ॥ यहाँ नायिका ने नायक की दूतिका की सैन (चेष्टा ) से यह सूक्ष्म रहस्य जान लिया है कि नायक ने मुमे बुलाया है; आर समीपस्थ पति की ओर किंचित् देखकर अपने कान पर हाथ रखकर नेत्र मूँदने की चेष्टाओं से द्वी उस रहस्य को समझ लेना प्रकट किया है; एवं समाधान ( उत्तर ) किया है कि पति के शयन करने पर आऊँगी।
२ पुनः यथा--सवैया ।
बैठो छुती सखखियाज के बोच पगी-रसख-चोपर-राग के भारी । आइ गए तित ही मन-मोहन खंग सजान लिए खुखकारी ॥ दीठि सा दीठि ऊुरी दुहुँघाँ करि चातुरी प्रीति-छटा बिसतारी । मुद्रित कंज सो स्थाम कियो अलकें मुख पे विधुराइ ज्ु प्यारी ॥ +-मकेलकार-आशय ॥ यहाँ भी सख्ियों में बैठी हुई श्रीराधिका को कृष्ण महाराज ने कमल-कलिका दिखाने की चेट्टा से रात्रि में मिलने को कहा है। इसपर श्रोराधिकाजी ने भी अपने मुख पर अलकों के फैलाने रूपी चेष्टा से दी उनका अभिप्राय समम लेना एवं चंद्रास्त
होने पर मिलना सूचित किया है ।
"खी॥9-
रेरेदे भारती-भूषण
(८४) पिहित
जहाँ किसी का पिहित (छिपा हुआ) हत्तांत उसके किसी आकार द्वारा जानकर कोई किसी प्रकार की चेष्ठः ( क्रिया ) से उसका अभिप्राय समझ लेना प्रकट करे, वहाँ 'पिछद्ितः अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--दोहा ।
श्रति अनीठ पति-पीठ-छत, लखि छुजिनि रिखियानि ।
जल अ्रन्हान लो दे, घरे, लहँगा-ओढ़नि आनि॥
यहाँ किस्री क्षत्रिय-ल्लो ने अपने पति की पीठ में धाव ( आकार ) देखकर उनके स्नान करते समय लहँगा एवं ओढ्नी समीप रख देने ( क्रिया ) के द्वारा उनके रण से विमुख द्ोकर भाग आने का गूढ़ वृत्तांत ज्ञात होना प्रकट किया है ।
२ पुनः यथा--सबैया । रात कहूँ रमिके अनठाँ अरु आवन प्रात कियो गिरिधारी | पीक-पगी पलक भलके छलके दुति अंग अनंग की भारी ॥ आधत दूरि ते देखि उठी अपराध जताइबे की उर धारी। सेज बिछाइ भलावति बीजनो, पाँय पलोटन को भइ प्यारी ॥ --अलंकार-आशय |
यहाँ भी नायिका ने अतिकाल करके आनेवाले नायक की पीक-लगी पत्रकें आदि ( आकार ) देखकर उनके शयन करने के लिये शय्या बिछाने आदि क्रियाओं से नायक का अपराध ज्ञात दोना सूचित किया दै।
व्याओक्ति ३३७
लत अऑडज+ल-ल3> लत तन
कप कट कट शन प पन श यई
सूचना --इस 'पिद्वितः अलकार को कई प्राचीन संरुकृत-प्रंथों में “सूक्ष्म! भलूंकार का भेदांतर माना है; किंतु प्रायः आधुनिक भाचार्यों ने इसे स्वतंत्र रूप दिया है भौर हम भी उन्ही से सहमत हैं!
पा जो + आ + (८५) व्याजोक्ति जहाँ छिपे हुए ह॒त्तांत का क्विसी आकार द्वारा भेद खुल जाने पर उसको व्याज ( बहाना )-युक्त कथन से दिपाया जाय, वहाँ “्याजोक्ति” अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--होरी ।
नागिका-लखि हमको सुखुकानी, कहा तें मन में जानी ?। सखा-- अंखियाँ - खंजन - गुन - गंजन की, अंजन - ओप उड़ानी ।
पान-पीक की लीक पलक पर, भझलकि रही रख सानी ॥
अलक अलि ! कत अरुूझानी १॥ नायिका-अंजन गयो रूदन ते पलकन, कर मेहँदी लपटानी |
ललकि मयूर परे अलकन पे, चरन चोंच गद्दि तानी ॥
ब्याल-बनिता उन ज्ञानी ॥
यहाँ लक्षिता नायिका की आँखों का अंजन चला जाने, पलकों पर पान-पीक लगने एवं अलक बिथुरने रूपी आकारों से ( सखी द्वारा ) जाने हुए गुप्त रहस्य का गुप्ता नायिका ( लक्षिता जब चिह्नों को छिपाती द्दे तो गुप्ता कहलाती दै ) इन वहानों से गोपन करती है कि अंजन रुदन से बद गया, पलकों पर द्वाथ की मेहंदी का रंग है और अलकों को सर्विणी सममकर मयूरों ने उलमा दिया है । २२
शेइेट भारती-भूषण २ पुनः यथा--दोहा ।
फेसर केसर-कुसुम के, रहे. अंग लपटाइ। लगे जानि नख अनखली !, कत बोलति अनजाइ ? ॥ --विहारी । यहाँ भी सपत्नी की नख-रेखा का आकार नायक के अंग में देखकर क्रोध करनेवाली नायिका से नायक की सखी छिपाती है कि थे तो केसर-पुष्य के तंतु लगे हुए हैं, तू क्यों गथा कोप करती है ९ । सूचनॉ-- पूर्वोक्त 'छेझापह॒तिः में श्लि्ट शब्द होते हैं भौर सत्य का गोपन निषेध्र पूर्वक होता है; पर यहाँ विना निषेध के योपन होता है। तथा पूर्वोक्त 'पुइम? एवं 'पिद्चित? में क्रिया ( चे्ठा ) का और यहाँ वचन का संब्रंध होता है। इथमें उक्त तीनों अलुकार्रों से यही विलक्षणता है। >> न अममन्गदक> मन. >ञत-+-.5.
(८६) गरूढोक्ति जहाँ जिससे कहना है, उसके प्रति न कहकर ( समीपत्थ व्यक्ति न समझे इस आशथ से ) किसी अन्य के प्रति छोष द्वारा कोई वर्शन किया जाय, वहाँ “मूह़ोक्ति' अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहा । ,. सख्ि ! सूकर संध्या समय, खात ऊख के खेत । ! हों रखवारहँ भर-निसा, तुम घर जाइ सद्देत ॥ यहाँ नायक का तात्पये नायिका को संझैत-स्थल सूचित करने का है कि मैं रात्रि भर ऊख हे खेतों में रहूँगा; किंतु यद्द बात उससे न कहकर निकटवर्ती सस््रियों से कइटता है कि सायंछाल में
गूढ़ोक्ति ३३६
शूकर ऊख के खेत खाते हैं, में उनकी रखवाली करूँगा, तुम निश्चित होकर अपने-अपने घर जाओ | यहाँ 'भर-निशा? पद के “रात भर! और “निश्चित होकर' ये दो अर्थ द्वोते हैं; अतः श्लिप्ट है ।
२ पुनः यथा--बरचै । विहँलि कहो रघुनंदन पावन बाग! ऐड फेरि सुमन-हित गुरु-अनुराग ॥ +-लछिराम । यहाँ भी श्रीरघुनाथजी का लक्ष्मण के प्रति कथन है-- “इस बाग में गुरु के निमित्त पुष्व लेने के लिये फिर आवेंगे”? इसी श्लिष्ट वाक्य द्वारा जानकीजी को यद्द सूचित किया गया है--“हम गुरू (विशेष) अनुराग से आपके खुमन ( सुष्ठु मन ) के लिये यहाँ फिर आवेंगे” । खूचना--( १ ) एवॉक्त अप्रह्तुत-प्रशंधा? के भेद 'सारूपप्र-निबं- घना? ( अन्योक्ति ) और इस 'गढ़ोक्ति? के लक्षण समान प्रतीत होते हैं; तथा कई भाषा-प्रंथों के उद्गाहरणों में भी प्थकृता प्रतोत नहीं होती; किंतु वहाँ प्रस्तुत का बोध कराने के लिये “अप्रस्तुतः का वर्णन होता है तथा प्रस्तुत के प्रति किसी प्रकार का उपदेश करने का ताल्पर्य होगा है; और यहाँ जिससे कुछ गढ़ रहस्य कहना है, वह उसे न कहकर दूसरे के प्रति कहकर उसे जतछाया ज्ञाता है और श्लिष्ट शब्दों का नियम है।
(२ ) यहाँ 'श्लेष” होते हुए मो दूसरों को छलने के रूप में विशेष चप्रत्कार दोता है; अतः पूर्वोक्त 'एलेप” अलैझार से भो इसकी अलंका-
रांतरता है ।
३४० भारती-भूषण
(०७) विवृतोक्ति हे जहाँ छिपा हुआ रहस्य कवि द्वारा खोला जाय, वहाँ 'विदृतोक्ति” अलंकार होता है | इसके दो भेद हैं--
१ प्रथम विश्वतोक्ति, डिष्ट शब्दों की १ उदाहरण यथा--दोद्दा ।
.| स्थाम खघन वरखत जलद, तम सरसत चहुँ पास । ” रज़नि हु ते रमनीय दिन, खुनि पिय पूरी आस ॥
यहाँ 'सुंदर! एवं 'रमण करने योग्य! ये दो अर्थ हैं; इससे “एमणीय!' शब्द स्टिष्ट है जिसमें छिपी हुई नायिका की अभिलाषा का गुप्त रहस्य कवि ने चतुर्थ चरण में प्रकट किया है ।
२ पुनः यथा--दोहा ।
अब तज्ञु स्याम बराह | वर, बारी-बिहरन-आन। खुनि सयानि सखि-बचन, चित, समुभे स्याम सुजान ॥
यहाँ भी 'स्याम बराह! एवं ब्रारी-बिहरन' श््िष्ट शब्दों में छिपे हुए श्रीकृष्ण और नायिका के प्रेम-रहस्य का “चित समुमे स्याम सुजान” वाक्य द्वारा कबि ने उद्घाटन कर दिया है । २ ब्ितीय विवृतोक्ति, साधारण शब्दों की १ उदाहरण यथा--दोहा ।
अलि ! 222 देखें खुने, लगति बिरह की लोय। तब तिहिं लाइ मिलाइ दी, छाती डैल_सिराय ॥
$ 'विद्वत शब्द का अथ 'इद्घाटन किया हुआ? है।
युक्ति रेछर्
यहाँ सखी से नायक के पूर्वाद्धंगत कथन के अथथे में नायिका से एकांत-संयोग के उत्कंठा रूपी छिपाए हुए गूह रहस्य का उत्तराद्ध में कवि ने उद्धाटन किया है ।
२ पुनः यथा--सोरठा । _ बातन जात न नाह !, जा तन जाकी चाह हौ।
राखिय राउरि 'वाह', तव तप सकुचि दियो कछुक ॥
यहाँ भी किसी याचक द्वारा कहे हुए अर्थ में छिपा हुआ (राजा से) घन-याचना का अभिप्राय चतुर्थ चरण में कत्रि ने प्रकट किया है ।
खुचना--इस 'विव्व॒तोक्तिः में पूर्वोक्त 'गृढ़ोक्ति! से, छिपे हुए अर्थ के ( कव्रि द्वारा ) प्रकट किए जाने सात्र की भिन्नता को भिन्न अलूंकारता के छिपे पर्याप्त कारण न मानकर किसी-किली अंथकार ने दसका “ग़ढ़ोक्ति! में अंतर्भाव किया है; किंतु हमारे विचार सें उक्त भिन्नता के कारण इसकी भिन्न गणना होना अनुचित नहीं; और प्रायः प्रंथों में ऐसा ही हुआ भी हे।
(बढ) युक्ति जहाँ कोई अपना रहस्य छिपाने के लिये किसी क्रिया द्वारा अन्य को वंचन करे ( ठगे ), वहाँ “युक्ति! अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । बतियन बिर्मावति इते, उत मुखुकति गति गोइ। पिय सजखियन लखिय न परति, जाति कनखियनि जोइ ॥
३४२ भारती-भूषण पलटा 8 20020 00220 22% ४, है यहाँ क्रिया-विदग्या नायिका ने अपने नायक की तरफ मुस्कराने का रहस्य छिपाने के लिये बातों में बदलाने की क्रिया द्वारा अपने समीपस्थ पति एवं सखियों को वंचन किया है। २ पुनः यथा--सवैया । खेलत हैं हरि बागे बने जहाँ बैठी तिया रति ते अति लोनी । केसब' कैसे ह पीठ मैं दीठ परी कुच-कुंकुम की रुचि रोनी ॥ मातु-समीप दुराइ भली विधि सात्विक-भावन की गति होनी। धूरि कपूर की पूरि बिलोचन सँँघि सरोरुह ओढ़ि उढ़ोनी।॥ -- केशवदास | यहाँ भी श्रीकृष्ण मद्दाराज पर दृष्टि पड़ने से श्रीराधिकाजी ने सात्विक-भाव हो जाने रूपी रहस्य को नेत्रों में कपूर डालने आदि की क्रियाओं से छिपाकर माता को वंचन किया है। ३ पुनः यथा--सबैया । तब तो दुरि दूर हि ते मुखुकाइ बचाइके ओर की दीठि हँसे । द्रसाइ मनोज की मूरति ऐसी रचाइके नेनन मैं सरसे ॥ अब तो उर माहि वसाइके मारत ए जू बिसासी कहाँ धो बसे । कछु नेह-निबाहन जानत दे तो सनेह की धार में काहे धँसे ! ॥ -- धनआनंद । यहाँ भी नायिका के वचन में प्रथम चरण में नायक द्वारा नायिका की ओर हँसने का रहस्य छिपाने के लिये अपनी छिपने की क्रिया से अन्यों को वंचन किया गया है। सूचना--एवॉक्त 'ब्याजोक्ति! अलंकार में भाकार द्वारा खुली हुईं बात का वचन से गोपन होता है; और यहाँ किसी गढ़ रहस्य का क्रिया से गोपन होता है । यही उससे अंतर है । "909 €6-00०
लोकोक्ति ३४३ (८६) लोकोक्ति जहाँ किसी लोक-प्रसिद्ध कहावत का किसी प्रसंग में वर्णन हो, वहाँ 'लोकोक्ति” अलंकार होता है' । १ उदाहरण यथा--दोहा । स्यामा-स्याम-बिलास-जस, अरू वरनन रसराज़ । बड़े बखानत सो बन्यो, “एक पंथ दो काज”॥ यहाँ “एक पंथ दो क्राज” वाली कद्दावत का वर्णन है । २ पुनः यथा--सवैया । यह चारहूँ ओर उदी मुख-चंद को, चाँदनी चारु निहार लै री । बलि जो पै अधीन भयौ पिय प्यारो तो एएतो बिचार बिचार ले री॥ कवि 'ठाकुर' चूकि गयौ जो गोपाल तुही बिगरी को सँभार लेरी। अब रेहै न रेहे यहो समयो “बहती नदी पाँच पखार ले री”! ॥ --ठाकुर ( प्राचीन ) | यहाँ भी “बद्दती नदी पाँव पखार लै” लोकोक्ति कद्दी गई है । ३ पुनः यथा--सवैया । ऊधोजू ! खूधों गहौ वह मारग ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है । कोऊ नहीं सिख मानिहँ हाँ इक स्याम की प्रीति प्रतीति खरी है ॥ ये तजबाल सबै इकसी 'हस्चिंदजूः मंडिली ही बिगरी है। एक जो होइ तो ज्ञान सिखाइए “क्ूपहि मैं यहाँ भाँग परी है” ॥
--भारतेंदु बाबू हरिश्नद्र
यहाँ भी “कूप में भाँग पड़ना” लोकोक्ति है ।
जी
4 यहाँ कद्दावत के शब्द ज्यों के त्योँ रखे जाने में काव्य अधिक अप्रत्कृत होता है । २ शटंगार रस |
३७४ भारती-भूषण
(६०) छेकोक्ति जहाँ लोकोक्ति' का वन किसी अभिप्रायांतर से गर्भित हो, वहाँ “बेकोक्ति! अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहा । गोचारी गोरस हस्थो, भो ब्रज गोप-कुमार। पै गिरि धास्यौ तब लख्यो, “तिनके-ओट पहार” ॥ यहाँ “तिनके-ओट पद्दार” लोकोक्ति का वर्णन इस अभि- प्रायांतर से युक्त है कि जब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन उठाया, तब सत्र लोगों को उनके माया-मनुष्य शरीर की ओट में सब-शक्तिमान् परमात्मा दिखाई पड़ा । २ पुनः यथा--सवैया । तापसे भेस्यो बिभीषन जाइ क्यों ? रावन या अज्मान झरे है। बोल्यो प्रहस्त प्रभाव न॒ तू रघुनाथ को जानत जानि परे है ॥ या जग मैं उपखान प्रसिद्ध सही 'लछिराम” कथा बगरे है।
चोर को चोर खुज़ानै सुजान जती को जती पहिचानि परे है ॥ --लछिराम ।
यहाँ भी रावण के प्रति मंत्री प्रददस्त के द्वारा चतुर्थ चरणगत 'ल्ोकोक्ति! का वर्णन होना इस अथोंतर से गर्मित है कि तू दुराचारी और विभीषण सदाचारी है ।
(६ १) वकोक्ति-अर्थ जहाँ वक्ता के अभिष्राय में श्रोता अ्थ-श्लेष द्वारा का की कल्पना करे, वहाँ “अर्थ-वक्रोक्तिः अलंकार हंता है ।
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१ उदाहरण यथा--सवैया । लघु प्रात लख्यो कहूँ तू निज्ञ अग्नज अज्ञ अभागे को राज लियौ ?। फ्री गढ़-लंक को राम-कृपा ते विभीषन के सिर छुत्र छुयो ।। किहि भूपति भिच्छुक-वेष मँगी वन भोख ? सिया की कुटी जो गयी इमि अंगद राजकुमार को राच्छुस-राज़ ते आ्राज विवाद भयौ || यहाँ अंगद के प्रति रावण के दो प्रश्न श्रीरामचंद्रजी एवं बाली पर और केवल रघुनाथजी पर कठाक्ष-सूचक हैं कि अपने अभागे बड़े भाई का राज्य छीन लेनेवाला छोटा भाई तुमने कहीं देखा है ? और किसी राजा ने भिक्षुक-बृत्ति से बन में भीख माँगी है? इनके अंगद ने और ही अथ कल्पित करके “कल ही गढ़-लंक को राम-कृपा तें बिभीषन के सिर छत्र छयो” एवं “सिया की कुटी जो गयौ” बाक्यों से उलटे रावण पर द्वी उन्ददे घटित कर दिया। यहाँ यदि “लघु श्रात' आदि शब्दों के स्थान पर “अनुज” आदि पर्याय-बाची शब्द रख दिए जायें तो भी श्लेष बना ही रहेगा अतः अर्थ-श्लेष-मूला वक्रोक्ति दै । २ पुनः यथा--कवित्त । पएरी खुकुमारी ! रखवारी -वृच्छु बारी यह , कौन की ?, हमारी, यामैं कैसे फल -फ़ूल हैं ?। श्रीफल हैं, ये तो रहे राउरे उरस्थल में , कदली सखंभ, जंघ उनही के तूल हैं॥ आछे अरबिंद, वे हैं बदन बिसाल नेन , कुंद -कलिका, ते मंझु मुख मैं सपघूल हैं । आम हैं अमी से, इन ओठन सरीखे पै न , लेइ पांथ ! प्यारे ! ये तिदारे अजुकूल हैं ॥
३४६ मारती-भूषण
यहाँ भी किसी पथिक के पूछने पर बाग-रक्षिका ( मालिन ) ने कहा कि मेरे बाग में श्रीफल, सखंभ कदली, अरबिंद, कुंद-कलिका एवं आम्र हैं । इन सब शब्दों में उक्त पथिक ने क्रमश: कुच, जंधा, मुख एवं नेत्र, दाँ और ओएछ्ठ के अन्याय
स्थापित किए हैं ।
खूचना--'वक्रोक्ति' दो प्रकार की होती है, जिनमेंते 'शब्द- वक्रोक्ति का वर्णन शब्दालंकारों के श्रतरगत कर आए हैं, भौर इस “अर्थ-बक्रोक्ति! में वाक्य पुवं शब्दों का एक ही अर्थ दो पक्षों में घटित होता है तथा इनके पर्याय रख देने से भो अलंकार ज्यों का त्थों बना
रहता है । “छह$<2
(६२) खभावोक्ति
जहाँ मनुष्यादि जाति के किसी रमणीय स्वभाव के धर्म, क्रिया आदि का वर्णन हो, वहाँ “स्वभावोक्ति' अलंकार होता है ।
१ उदाहरण यथा--सवैया ।
पाँय दबाइ खुबाइके सोवति साथ, प्रभात हि जागि जगावै। पथ्य पियूष से स्वादु सदा उनकी रुचिके लि पाक वनावै॥ यात कहै को ड प्रीतम की तो 'कद्दा क्यो ? यो कहि फेर कहावे । प्रान भए परिछाँहीं फिरें, पति दीजत ही डग भेंट चढ़ावै॥
यहाँ स्वकीया नायिका के पति के चरण चाँपने आदि अनेक रमणीय घधमम एवं क्रियाएँ वर्णित हैं ।
स्वभाषोक्ति ३४७
२ पुन: यथा--क वित्त । लाभ लहरान लेखि, हानि हहरान पेखि, पारदू-प्रभा पे वर बहि-भा बन्यो करे। लोक कुल बेद के विचार को बिराव' बारि, खंभ्ु-जटा-बारि गंग-धार में सन्यो करे।॥ जानि जग पान सो अमान जग मानवनि, पानि पकरे की कान प्रान पे तन््यो करे! बीर वखतावर ! खुबीरन की यहे बृत्ति, सिर पे बनेहे ताकों गिरि पे गिन्यो करे ॥ +स्वामी गणेशपुरीजी € प्मेश )। यहाँ भी वीर पुरुषों के बहुत से स्वाभाविक गुणों का वर्णन है ।
>> जल लत
३ पुनः यथा--- जलज़ अलग जल सो जस रहतो, तस ब्राह्मन जग-त्यागी | निरत सदा सत करम भज़न-हरि, बुधि उपकार झु पागी।॥ चितित चित्त दूसरन खुख-हित, माया-बन मग दे कीन्हों । मान-समूर्ति रुप देखि उठत तिन््ह, तवबहँ न मानहि चीन्हों ॥ -पं० शिवरक्ष झुक ( भरत-भक्ति ) यहाँ भी अयोध्या-निवासी ब्राह्मणों के हछाघनीय स्वाभाविक धर्म-कर्मां की वक्ति है । सचना--कुछ प्रंथों में रूप, वेष ओर भूषण-रचना के वर्णन में “जाति! नामक अलंकार की भिन्न गणना हुई है और कुछ में “खभावोक्ति! में ही इसका अंतभाव किया गया है। हमारे विचार से इसमें ऐसी भिन्नता नहीं ज्ञात होती कि जिससे भिन्न अलंकार माना जाय; अतः यहाँ इसका दिग्दशैन सात्र करा देते हैं--- १ घोष ।
झेष्८ भारती भूषण
तर अत स>त
जाति १ उदाहरण यथा--कवित्त । पायल अनौट वाँक बिछिया प्रिया के पाँय, जेहर, जराव-जरी रसना' रसीली की। बलय-बलित कर कंकन कलित तापै, राजै रुचि चारु चुरियान चमकीली की ॥ भूलत हमेल हार, बेसर करनफूल, माँग - मुऊता पे छबि चूड़ामनि नीली की। स्यामल घटा मैं ज्यों चमंक चपला की चारु, नीले दुपटा मैं त्यों दमंक दुति पीली की ॥ यहाँ श्रीराधिकाजी के पायल आदि आभूषण, नील वसख्र एबं पीत अंग-दुति का वर्णन हुआ है । २ पुनः यथा--सवैया । ज॒प-द्वार कुमारि चली पुर की अँगराग खुगंध उड़े गहरी। सजि भूषन अंबर रंग बविरंग उमंगन सौं मन माहि भरी॥ कवरीन में ' मंज्ञु प्रसून-गुछे दग-कोरन काजर-लीक परी |! खित भाल पे रोचन-बिंदु लसै पग जावक-रेख रची उछुरी ॥ --१० रामचंद्र शुक्र ( वुद्ध-चरित्र )। यहाँ भी पुरवासिनी कुमारिकाओं का अंगरागादि से “हंगार करना वर्णित है । अमन पलक
(६३) भाविक जहाँ भूत अथवा भावी भाव ( घटना ) का बतंमा- नवत् वर्णन किया जाय, वहाँ 'भाविक! अलंकार होता है। इसके दो भेद हैं- $ करधनी । २ वेणियों में ।
भाविक झेध&
जल लल जल लल जल जज
शे |. १ प्रथम भविक, खुताथे-वर्णन का
१ उदाहरण यथा--झुजंगप्रयाताद्ध । करी सत्य है छुत्रियों की बिभूती | पृथीराज की आज भी राजपूती ॥ यहाँ बीकानेर-नरेश के द्वारा भारत-सम्राट् पृथ्वीराज की भूत-कालिक रजपूती (घटना) का प्रत्यक्षवत् किया जाना वर्णित है। २ पुनः यथा--सचैया । साहसकै बसकैे रिसके जब माँगी विदेस-बिदा स्तदु बानि सौ । सो खुनि बाल रही मुरझाइ दही वर बेलि ज्यों धीर दवानि सो ॥ नैन गरो हियरो भरि आयो पैवोल न आयी कछू वा खुजानि सॉं। सालें अर्जों हिय माँक गड़ी वे बड़ी अँजियाँ उमड़ी अँखुवानि सौ --» लंकार-भाशय | यहाँ भी प्रवत्स्यत्पतिका नायिका के भूत-कालिक आँसू भरे नेत्रों का श्रोषित नायक के वत्तमान में सालना वर्णित है । ३ पुनः यथा--हरिगीतिका ।
हमको विदित थे तत्व सारे नाश ओर विकास के ।
कोई रहस्य छिपे न थे पृथ्वी तथा आकाश के ॥
थे जो ह॒ज्ञारों वर्ष पहले जिस तरह हमने कहे।
विज्ञान-वेत्ता अब वही सिद्धांत निश्चित कर रहे ॥
-बाद्य मैथिलीशरण गुप्त । यहाँ भी भारतवर्ष के दिव्य-दर्शी महर्षियों ने पदार्थे-विद्या के जिन तत्वों का सहस्यों वर्ष पहले वर्णन किया था, उन्हीं का वत्तमान के पाश्चात्य-विज्ञान-वेत्ताओं द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव किया
जाना वर्णित है ।
डे५० भारतो-भूषण २ द्वितीय भाविक, भविष्याथ-वर्णन का १ उदाहरण यथा--कवित्त | खुनिके गमन मन-भावन को भावव मैं, चतुर तिया ने एक बानक वनायो है। चित्र लिखे द्वारन दरीचिन दिवारन पै, बाग स-तड़ाग बृव्छ-बेलिन सों छायौ है॥ कुसुम-कलोन-लोन भोर पिक बौरन पै, सुक-सारिकान को सनेह सरखायो है। जैहो किमि ? भायौ-मन राउरे रखिक-राज ! सहित-समाज ऋतुराज आज आयो है॥ यहाँ प्रवत्स्यत्पतिक्रा नायिका द्वारा पति का गमन रोकने के लिये भाद्रपद में बाग आदि के चित्र-लेखन से भावी बसंत-ऋतु को वर्तमानवत् दिखाया जाना वर्शित है ।
२ पुनः यथा--कवित्त । गज-घटा उमड़ी महा घन-घटा सी धोर, भूतल सकल मद्-जल सो पदत है। बेला छाँड़ि उछ्ुलत सातों खिंघु-बारि, मन- मुदित महेल मग नाचत कढ़त है॥ 'भूषन! बढ़त भोंखिला-भुश्राल को यों तेज, जेतो सब बारहों तरनि में बढ़त है। सिवाजी - खुमान-दल दौरत जहान पर, आनि तुरकान पे प्रलय प्रगटत है॥ --भूषण । यहाँ भी छत्रपति शिवाजी के सेना-संचालन द्वारा मद्दा धन घट, द्वादश सूर्यां का संताप, सातों समुद्रों का मर्यादोहंघन एवं
डदाक्त ३५१ मद्दारुद्र के नृत्य करने रूपी भविष्यत् प्रलय के धर्मीं का यत्रनों पर प्रत्यक्षतत् संचार द्वोने का वर्णत हुआ है ।
ना सक-
(६४) उदात्त
गँँ "| ४ जहाँ किसी पदार्थ का महत्व वर्णन किया जाय, वहाँ 'उदात्त! अलंकार होता है | इसके दो भेद हैं --
बनी न भी चर जी
१ प्रथम उदाक्त जिसमें समृद्धि की अत्युक्ति वर्णित हो । १ उदाहरण यथा--श्रुजंगप्रयात । वहाँ ओर चारों रचा स्वर्ग सा है । मनो इंद्र-आराम' ही आ बसा है. ॥ बनाया नया कोट भ्रीलाल नामी । लगे लाल पाषान हैं लाल-दामी ॥ खसें लाल ही लाल प्रासाद भारी रचे सौध स्वर्गीय-सोंद्य-हारी ॥ यहाँ श्रीबीकानेर-सदह्ाराज के राज-महलों के वर्ण में उनकी संपत्ति की अत्युक्ति वर्शित हुई है । २ पुनः यथा--दोहे । हरित मनिन््ह के पत्र-फल, पदुमराग के फूल। ४ रचना देखि विचित्र अति, मन बिरंखि कर भूल ॥ सौरभ -पल्लव खुभग खुठि, किए नोलमनि कोरि। हेम बौर' मरकत-घवरि', लखत पाटमय डोरि॥ --रामचरित-मानस । यहाँ भी श्रीराम-जानकी के बिवाह के रत्नमय मंडप के वर्गान द्वारा राजा जनक की अलौकिक समृद्धि की अत्युक्ति वर्णित हुई दे ।
3 नंदन वन । २ लालगढ़। ३ रक्षों के सप्तान मुल्पवान्। ४ स्वगं के राजमदलों की सुंदरता को हरनेवफले । ५ आम्र-वृक्ष । ६ मंजरी | ७ गुच्छा ।
३५२ भारतो-भूषण
२ द्वितीय उदाक्त भिसमें किसी महान् पुरुष को अंग-भाव में मानकर इनके चरित्रों से भंगी को महत प्राप्त होने का वर्णन हो। १ उदाहरण यथा--दोद्दा । यह सरजू सरिता वही, पावनि पूरनि काम। पैठि पधारे राम, जिहिं, पुरजन-सह निज धाम ॥ यहाँ श्रीतरयू के वर्णन में श्रीरामचंद्रजी को अंग-भाव से रखकर उनके प्रजा-समेत बैकुंठ-घाम पधारने के उदार चरित्र से अंगी सरयू को महत्व प्राप्त होना वर्णित है । २ पुनः यथा--सबैया । े कैटभ सो नरकाखुर सो पल मैं मधु सो मुर सो जिहि मास्यो । लोक - चतुर्दस - रच्छुक 'केसव” पूरन बेद-पुरान बिचार्थौ ॥ श्रीकमला - कुच - कुंकुम - मंडित पंडित देव -अदेव निहास्थो। सो कर माँगन को वलि पै करतार हु के करतार पसाख्थो ॥ -केशवदास । यहाँ भो श्रीवामन-भगवान् के हाथ के वर्णन में उनको अंग- भाव में मानकर उनके उदार चरित्रों से अंगी दैत्यराज बलि को महत्व प्राप्त द्वोेना वर्शित है । ३ पुनः यथा-दोद्दा । निकसत जीवाहि बाँघिकै, तासों राखति बाल।
जमुना-तर वा कुंज मैं, तुम ज्ु दई बन-माल ॥ 7०: तिराम ॥
यहाँ भी सखी द्वारा श्रीकृष्णजी से नायिका के विरह-निवेदन में श्रीकृष्ण को अंग-भाव में रखकर उनही दी हुई माला को मदस्व प्राप्त होने का वन है ।
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जज
अत्युक्ति रेप रे पाक के कम (६५) अत्युक्ति जहाँ रोवकता के लिये शौद्य आदि का प्रिथ्यात्व पूवेक वन हो, वहाँ “अस्युक्ति' अलंकार होता है। हप इसके पाँच भेद लिखते हैं -- १ शौर्यांत्युक्ति १ उदाहरण यथा--दोहा । सुनि बल, प्रलय-पतंग हैं, अंबर चढ़्यो उतंग। “४ सिधु लाँघि, पुर जारि, सिय, - खुधि लायो बुज्ञरंग-॥ यहाँ जांववानू से अपना बल सुनकर श्रीहूनुम्रानजी- के प्रलय-कालिक प्रचंड मातेड की भाति आकाश में चढ़ने रूपी रोचक अतथ्यार्थ का वर्णन हुआ है । २ पुनः: यथा--कवित्त । चाली उप भीम पे कराली तह्॒प-भीम-चसू, नक्रमुत्री तोपन के चक्र -चरराटे हाँ। आपनोर औरन को सोर न खुनात, दौर, घोरन की पोरन के घोर घरराटे हाँ।॥ मोर' हमगीरन' के तीर-तरराटे बर, बीरन - वपुच्छुद! के वाज वरराटे हाँ। हर - हररादे धर-धूज-घरराटे खेख- सीस - सरराटे कोल '- कंध - करराटे हाँ ॥ --स्वामी गणेशपुरीजी “पश्मेश? ।
$ शूरवीर । २ साथियों । ३ कत्रच। ४ वराह्द । श्३े
५४ भारती-भूषण
न्ि्लिल जज
यहाँ भी राजपूताने के राजा भीमसिंह की युद्ध-यात्रा तथा संप्राम-वर्णन में चतुर्थ चरणोक्त रमणीय असत्य वर्शित है ।
३ पुनः: यथा--अवित्त । हरि-खुत-भ्रोन हरि-श्रीन हरि देहँँ कर,' घरी-घरी घोर धन्ु-घंट-घननाटे तेँ। भेरिरव भूरि भट-भीर-भार भूमि भरि, भूधर. भरेंगे मिद्पाल'-भननाटे तें॥ खप्पर-खनक हैं न खेटक के खप्पर हाँ,' खेटकी' खिसकि जैहेँ' खग्ग-खननाटो ते । चूकि जैहेँ जञान-धर' जान को चलान, बान, बान- धर मेरे पान-वान -सननाटे तें॥ +-स्वामी गणेशपुरीजी “कश्मेश!। यहाँ भी कर्ण के कथन में उसडी बीरता की अत्युक्ति है।
४ पुनः यथा--सवैया ।
दिन दें निलि एक जुरी नहिं द्रोन की संधि-उपासन-अंजुलिका । यहु बीरन पांडन के बस्वि उतरी कोड अच्छुर-आवलिका ॥ बरमाल के कारन हेरत हो फिरते परे पाँयन में फलका। खुरराज के बाग सु नंदन मैं कह पुष्प जहाँ न मिले कलिका ॥ +बारहठ श्वरूरदास साधु । यहाँ मी द्ोणाचार्य के युद्ध-नणेन में रमणीय 'असत्य कथन
पूरक वीरता की अत्युक्ति है । | अर्जुन भौर घोड़ों $ कानों को भगवान् द्वार्थों से डॉकेगे। श गोफन । ३ खप्पर की खनखनाहट नहीं होगी क्योंकि ढा्छों फे खप्पर होंगे। ४ ढाऊँवाले । ५ भाग जायेंगे । ६ सारथी। ७ अजुन । < हाथ का
बाण ।
अत्युक्ति शप४
२ डदारतात्युक्ति १ उदाहरण यथा--दोहा ।
५, अधिक एक ते एक भे, अहेँ अनेक उदार । देखे खुने न आन, पै, नाथ! नारि-दातार ॥ यहाँ सुदामा को श्रोकृष्ण द्वारा त्रैलोक्य की लक्ष्मी देते देख
ओ्रीरुक्मिणीजी के इस कथन में कि “अपनी स्त्री का दान देने-
वाला न देखा न सुना” आश्वर्योत्पादक अतथ्य का वर्ण न हुआ है । २ पुनः यथा-दोहा । चलत पाइ निशुनी -गुनो, घन मनि मोतो-माल। भेट भए जयसादहि सौं, भाग चाहियत भाल १ ॥ --विद्वारी यहाँ भी जयपृर-नरेश सबाई जयशसिंह के द्वारा याचर्को को ( 'भाग चाहियत भाल ९? काकूक्ति से ) उनझे प्रारब्ध में न होने पर भी पर्याप्त द्रव्य प्राप्त होने की अत्युक्ति है। ३ पुन: यथा--ऋवित्त । दीन्ही द्विजराजन को आपुनी पुनीत भक्ति, अरियन ऊकंपा, अलुकंपा' आतुरन को। सेठपनवारे नंदराम! पनवारें सदा, दीन्हू पनचारे सदाचारी संतज़न को ॥ भारत का नगर नर्वीनो रचि दोन््हों एक, न्याय ते कमायो धन दौन््हों तनयन को। जस दे दिगंतन कौ, तन पंच -भूतन को, दीन्हों तेँ उदार मन राधिका-रमन को॥ --केडिया-जातीय-इतिहास । १ कृपा । २ प्रणवीर । ३ रतननगर ( बीकानेर ) ॥
अिजजज5ल जज बल -ज+-ल >>
३५६ भारती-भूषण
यहाँ भी प्रंथकर्ता के पितामह सेठ नंदरामजी के अपना सर्वस्व दान कर देने की अत्युक्ति का वर्णन है ।
३ सौंदयोत्युक्ति
१ उदाहरण यथा--कवित्त । गोल-गोल गौरी गरबीली की बिलोकि ग्रीव, संख सकुचाइ जाइ सिंधु मैं तच्यो करे!। पोक-लीक दीखति गिरत गल गौरे, कल'- कंठ-समता लौं कूकि कोकिला पच्यौ करे ॥ बिन ही बिचारे खुनि सहज उचारे झड़ु- बचन बिचारे कवि रचना रच्यो करे। भारी भई भीर वा अहीर बृषभाजु-भौन, बीर ! बरखसाने सामवेद सो वॉँच्यो करे॥ यहाँ श्रीराधिकाजी के गले में गिरती हुई पान की पीक के बाहर से दिखाई पड़नेवाली सुंदरता का अतथ्य वर्णन हुआ दे । २ पुनः यथा--दोहा । ..... वाहि लखे लोयन लगै, कोन हुवति की जोति ?। . ज्ञाफे तन की छाँह-ढिग, जोन्ह छाँह सी होति ॥ --विहारी । यहाँ भी नायिका के शरीर की छाँद के सामने चॉदनी का छाँद की भाति हो जाने की सुंदरता का मनोद्दारी अतथ्य
वर्णन है |
3 तपा करता है। २ सुंदर ।
अत्युक्ति ३ पुनः यथा--कवित्त मंद ही चॉँप॑ ते इंद्र-बचु के वरन होत, प्यारी के चरन नवनीत हू ते नरमें। सहज ललाई वरनी न जाति 'कासीराम' ३ चुई सी परति, कवि ह की मति भरमें ॥ एड़ी ठकुराइन की नाइन गहत जबे, इंगुर सो रंग दोरि आवबे दरवर मैं। दीयो है कि दैवो है बिचारे सोचे बार-बार, बावरी सी है रही महावरि ले कर में ॥ -काशीराम । यहाँ भी नायिका के चरण किंचित् चाँपने से द्वी लाल हो जाने आदि के वर्णन में सोंदर्य की अत्युक्ति है । ४ विरहात्युक्ति १ उदाहरण यथा--दोद्दा । सजन ! सँदेसे विपति के, कहो कहै किमि कोइ १। पानि परसि कागद, कलम, मसि हु बिरह-बस होइ ॥ यहाँ पत्र लिखते समय प्रोषित-पतिका नायिका के कर-स्परो से कागज, कलम ओर स्थाह्वी इन जड़ पदार्थीं के विरह-विवश हो जाने के रूप में वियोग-द्शा का असत्य वर्णन है । २ पुनः: यथा--कवित्त । बैठी थो सखिन-संग पिय को गवन खसुन्यो, खुख के समूह मैं बियोंग-आग भरकी। बंग” कहै जिविध खुगंध ले पवन बच्चो, लागत ही ताके मन भई बिथा जर की ॥
श्पृ८ भारती-भूषण
5 ४४७७८ >>.
शी बज आज लक दा कीच
प्यारी को परखि पौन गयो मानसर पहुँ, लागत हो ओरें गति भई मानसर की। जलचर जरे ओ सेवार जरि छार भयौ, जल जरि गयीौ पंक खूल््यों भूमि दरकी॥ +>गंग। यहाँ भी वियोगिनी नायिका के देह से स्पर्श करके गया हुआ पवन मानसरोवर को लगने से उस सरोवर तक के सूख जाने की अद्भुत अत्युक्ति है | ३ पुनः यथा--कवित्त । 'खसंकर' नदी नद् नदीसन के नीरन की, भाप बन अ्रंवर तें ऊँची चढ़ ज्ाइगी। दोनों धुव-छोरन लॉ पल मैं पिघलकर, ... प्रमघूम धरनी घुरी सो बढ़ जाइगी॥ भारेंगे अँगारे ये तरनि तारे तारापति, जारेंगे, ख-मंडल में आग मढ़ ज्ञाइगी। काह विधि बिधि की बनावट बच्चैगी नाहिं, जो पे वा बियोगिनी की आह कढ़ जाइगी ॥ --० नाध्नूराम्त शंकर शर्मा । यहाँ भी वियोगिनी नायिका की आह से नथादि के जल की भाप बनकर आकाश से ऊँचे चढ़ जाने आदि की अद्भुत अस्युक्ति है। ५ कीर्ति की श्रत्युक्ति १ उदाहरण यथा--कवित्त । तोषत रद्दत कर -कोषन ते बिप्र-बृंद, पोषत कर्विद-कुल-फैरव कुपंक में। पाइके पियूष-शक्ति पथिक श्रनाथ रंक, लाखन चकोर होत निरखे निसंक मैं ॥
५ हाथ भौर किरण ।
अत्युक्ति ३५७
>>
मी कक न पी शी पी शी बी
नासिके अबिया-अंधकार, जस को प्रकास,
छायो सो न मायौ तिहुँ लोकन के अंक में । देख्यो प न एक अग्नवाल मारवाड़ियों के,
अंक अलुदारता को “मानस-मयंक में ” ॥
यहाँ अग्रवाल मारवाडिियों के यश का प्रकाश तीनों लोकों में न समाने का विचित्र वर्णन हुआ दे ।
२ पुन: यथा--कवित्त ।
आज़ यहि समें महाराज सिवराज ! तुही, जगदेव जनक जज्ञाती अंबरीक सो।
'भूषन! भनत तेरे दान-जल-जलधि में, गुनिन को दारिद गयो बहि खरीक' स्रो ॥
चंद-कर- किजलक, चाँदनी-पराग, उड़- बुंद - मकरंद - बुंद - पुं के सरीक सो।
कंदा सम कयलास, नाक-गंग' नाल, तेरे, जस-पुंडरीक को अकास चंचरीक सो॥ --भूषण ।
यहाँ भी शिवाजी के यश रूप खेत कमल के अंग---घंद्र-किरण केसर, चाँदनी पराग, तारे मकरंद-बूँद, कैलास मुल, मंदाकिनी नाल और आकाश श्रमर के रूप में वर्शित हुए हैं, जिसमें मनो- प्राद्दी अत्युक्ति दै ।
) सूचना--( १ ) पर्वोक्त 'डदात्त! अछेकार के प्रथम भेद में संपत्ति की; भोर यहाँ शौर्यांदि अस्य अनेक प्रकारों की अस्युक्ति वर्णित होती ह्दे। लिंक 2 4 अल व 22 कीच अप कक
$ तिनका । २ जड़ । डे भाकाश-गंगा ।
३६० भारती-भूषण (२) पूर्वोक्त “भसंबंधातिशयोक्ति? में कुछ सत्य और यहाँ स्वधा मध्य वर्णन होता है। यही मिश्नता है । (३ ) इस अलंकार के वक्त पाँच भ्ेदों के अतिरिक्त 'प्रेमान्युक्ति भादि और भी कई सेद हो सकते हैं।
"909 €-06« न [4 (६६) निरुक्ति जहाँ किसी नाप्र का किप्ती योग-वश प्रसिद्ध श्रथ त्यागकर व्युत्पत्ति द्वारा अन्याथ कल्पित क्रिया जाय, वहाँ “निरुक्ति' अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोहा । . मोह न राख्यो मातु मैं, मोहन! नाम-प्रभाव। कहा चली श्रपनो अ्रली !, अब समुकी यह भाव ॥ यहाँ 'मोदन' नाथ मोदनेवाले का है; ऊिंतु ब्रजबासियों को त्यागकर चले जाने के योग-वश कवि ने व्युत्पत्ति द्वारा 'जिसके मोद्द न दो! अन्यार्थ कल्पित किया है । २ पुनः यथा--दोद्वा । जिन निक्सत अरथिन अरथ, मुख-त्प-मान' नकार । नाम पितामह रावरो, दीन््हों बड़े बिचार॥ --#विराजा मुरारिदान ।
यहाँ भी जोधपुर-नरेश महाराजा जप्षवंतर्सिह के नामांतर नाना का वास्तविक अथ सम्मान के योग्य” है, जिसका कवि ने उनकी उदारता-के योग से, मा नहीं करना और न नॉँद्ी, अथात् “नाहीं न करने” का अन्याथे किया है ।
मर कक आम कल
प्रतिषेध श्र
निरुक्ति-माला १ उदाहरण यथा--दोद्दा । पनघट जाते पन घड़े, पनघधट वाको नाम। कद्दिए पन कैसे रहे ?, पनिद्दारिन के ध्रास ॥ “-भज्ञात कवि । यहाँ पनव्रट' का पानी भरने का घाटों और 'पनिद्दारिन! का पानी भरनेवालोी” प्रसिद्धार्थ है; परंतु कवि ने निलेज्जता का स्थान होने के कारण क्रमशः “अण घटने रा! और 'प्रण दरने- बाली! अन्यार्थीं की कल्पना की है; अतः माला है ।
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(६७) प्रतिषेध जहाँ किसी पदार्थ का निषेध प्रसिद्ध होते हुए भी पुनः अभिप्रायांतर से गर्भिद निषेध किया जाय, वहाँ “प्रतिषेष! अलंकार होता हे । १ उदाहरण यथा--दोद्ा । तुम एक हि अघहरन, हों, वहु अधमन-खिरताज | दविरद् न जानहु, जाइगी, वरद् ! विरुद की लाज | यहाँ किसी भक्त की भगवान् से व्यंग्योक्ति है। वह सनुष्य है, उसका द्विरद ( गज ) न द्वोना भ्रसिद्ध दी है; किंतु द्विरद न जानहु! वाक्य से “मैं गज से अधिक पापात्मा हूँ” इस अभि- प्रायांतर से गर्भित पुनः निषेध किया है । २ पुन; यथा--छप्पय । पद पसखारिवे चह्मौ जबहि बेदर्भ-कुमारी । तबदहिं सकुलि द्विज कह्मो नाथ ! दम दीन भिखारी ॥
श६२ भारती-भूषण
अस आदर मम करहु नाथ ! सो कहा मरम गुनि ?१।
हम न होहि खुकदेव, व्यास नहिं गगे कपिल मुनि ॥ नहिं भगु नहिं नारद हुते, दुर्वासा मत ज्ानिए। हम तो खुदामा रंक हैं, अजहुँ नाथ ! पदिचानिए ॥ “-डलघरदास | यहाँ भी यद्यपि सुदामा का मुनि शुकदेव आदि न होना प्रसिद्ध द्वी है, तथापि उसने श्रीकृष् और रुक्मिणी द्वारा अपना विशेष आदर होने की श्रयोग्यता के अभिप्राय से पुनः निषेध
किया है । [40] है (६८) विधि जहाँ विधि-प्रसिद्ध (जिसका पहले ही विधान प्रसिद्ध है ) पदार्थ का अभिप्रायांतर से गर्भित पुनः विधान किया जाय, वहाँ (विधि! अलंकार होता है । १ उदाहरण यथा--दोड़ा । सुर-दुरलभ तनु लहि बथा, खोइ रहे सब कोइ। हरि भजि भव तरि जात जो, मनुज, मनुज़ सो होइ ॥ यहाँ विधि-प्रसिद्ध 'मनुज” शब्द का हरि भजकर भव तरने के अभिश्नायांतर से गर्मित पुनर्विधान हुआ है । २ पुनः यथा--दोहा । जैसी पावस मैं सजै, ऐसी अब कछु नाहिं। केकी है केकी, करे, जब केका ऋतु माहि॥
-राजा रामसिद्द ( नरवछगढ़ )
आज जी शनदीक
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हेतु ३६३
यहाँ भी प्रसिद्ध 'केकी' ( मयूर ) शब्द का वर्षा-ऋतु में उसकी केका ( बाणी ) अधिक चित्ताकषेक होने के अभिप्राय से फिर विधान किया गया है। विधि-माला १ उदाहरण यथा--शादूलविक्री डित । या राका शशिशोभना गतघना सा यामिनी, यामिनी । या सोन्दरय्यंगुणान्विता पतिरता सा कामिनी, कामिनी ॥। या गोबिन्दरसप्रमोदमचुरया सा माधुरी, माघधुरी। या लोकद्रयसाधिनी तलुभ्व॒तां सा चातुरी, चातुरी॥ --भअज्ञात कवि । यहाँ विधान-सिद्ध 'यामिनी' शब्द का “या राका शशिशोभना गतघना” विशेषण पर्दों से पूर्ण प्रकाशित दोने के अभिप्रायांतर से गर्मित पुरविधान किया गया है । इसी प्रकार शेष तीनों चरणों में भी समझ लेना चाहिए। सब मिलाकर चार विधान हैं; अतः
यह माला है । हल लीघीसीसण ओ तब पर कछ४ड अध २. --
(६६) हेतु जहाँ हेतु (कारए ) का कार्य सहित वर्णन हो, वहाँ 'हेतु” अलंकार होता है। इसके दो भेद हं-- प्रथम हेतु जिसमें कारण-कार्य का एक साथ वर्णन हो ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । ललित-किसोरी ललन की, हुग जोरी के अंग । 7४ खुचि दसि ते खुमिरं, सकल, होत अमंगल भंग॥
'इे६७ भारती-भूषण
यहाँ श्रीराधा-माधव के युगल-रूप के अंगों का स्मरण करना कारण एवं अमंगल भंग द्ोन। कारय दोनों का साथ वर्णन हुआ है।
प्रथम हेतु-माला १ उदाहरण यथा--कवित्त ।
दरस किए ते दुख दारिद दलत, पाँय
परस किए ते पाप-पुंज हरि लेत है। जल के चढ़ाएँ जम-जञातना न पाएँ कभी
चंदन चढ़ाएँ चित चोगुनो सचेत है।। कहत “कुमार' कुंद कुसुम कनीर कंज ,
कनक चढ़ाएँ देत कनक निकेत है। त्िदल चढ़ाएँ ते जिलोचन त्ितापन को,
त्िग्ुनी त्िबेनी की तरंगें करि देत है॥
--शिवहुमार 'कुमार! । यहाँ समस्त पश्च में शंकर के दर्शन करने आदि ६ कारणों और दुःख-दारिद्रय के दलन आदि ६ कार्यों का वर्णन है; अतः यहद्द माला है। २ पुनः यथा--कवित्त ।
'पूरब प्रले के उृत्य-तांडब के पेखिबे की ,
इच्छा भे उमा फे उर भव पे भने नहीं । जानि लागे नाचन नगन ह्ले मगन सित्र ,
ठाट ठार्टे ठीक-ठीक ठीक पै ठने नहीं।॥ ताकि-ताकि खंड-खंड हेबो तारा-मंडल को ,
अ्यंबक तें तमकि त्रिघल हु तने नहीं। पारत बने न पग पुहुमी पे प्रले पेखि ,
ब्योम बीच बारन बगारत बने नहीं॥
“-पं० विश्ववाथप्रसाद मिश्र 'धाहित्य-रक्ष'।
हेतु ्द्प
यहाँ भी शेकर का पावती की इच्छा का ज्ञात होने आदि तीन कारणों एवं नृत्य करने आदि तीन क्या का वर्ण होने के कारण यह माला है।
सूचना--( $ ) प्रायः पं्षों में 'प्रथम हेतु! एवं पूर्वोक्त 'अक्रमाति- शयोक्ति? के लक्षण समान प्रतीत होते हैं; किंतु 'अक्रम! शब्द के ब्युत्पति- सलक अर्थ से ही स्पष्ट सिद्धू है कि वहाँ कारण ओर काय॑ का पोर्वापय क्रम के विना एक साथ हो जाना वर्णित होता है; भौर यहाँ दोनों का वर्णन मात्र द्ोठा है ।
(२ ) एवॉक्त 'काव्यलिंगः अलंकार में ज्ञापक कारण द्वारा कथितार्थ का समर्थन किया जाता है; किंतु यहाँ समर्थन नहीं, वरन् एक साथ वर्णन होता है । यही इनमें अंतर हे ।
२ द्वितीय हेतु जिसमें कारण-काय की एकात्मता (अभिन्नता ) का वर्णन हो ।
१ उदाहरण यथा--दोद्दा । सब्दादिक इंद्रिय-बिषय, वय तन मन धन धाम । जोग भोग सरबस्व खुख, गोपिन के घनस्याम ॥ यहाँ श्री कृष्ण कार ण एवं इंद्रिय-विषय आदि अनेक कार्य की इस प्रकार एकता वर्शित हुई है. कि गोपियों के श्रीकृष्ण द्वी स्ोस्व है ।
२ पुनः यथा--दोहा । श्रीबृंदाबन. मधि लले, नित-बय-नवल-किसोर । गौर-स्याम अभिराम तजु, दंपति संपति मोर ॥ +-अलंकार-न्भाशय । यहाँ भी किसी अक्त द्वारा श्रीराधा-माधव कारण से संपत्ति काये की एकात्मता का वर्णन हुआ है।
डेददे भारती-भूषण
अडिज3-ज जल तल
३ पुनः यथा--दोह्ा । नैननि को आनंद है, जिय की जीवनि जानि। प्रगट दर्प कंदप को, तेरी सु मुखुकानि॥ --मतिराम । यहाँ भी नायिका की मुस्खान ( कारण ) से नेत्नों का आनंद, आणों का आधार एवं काम का गये (कार्यों) की एकता का चर्णन हुआ है।
(१००) प्रमाण जहाँ किधी अर्थ का प्रमाण अर्थात् यथा का अनुभव होना (अप्लुक पदार्थ ऐसा वा इतना है) वर्णित हो, वहाँ प्रभाण” अलंकार होता है। इसके आठ भेद हैं-- १ प्रत्यक्ष-प्रमाण जिसमें पाँच इंद्रियों और मन इन छहों में से किसी एक के, एक से अधिक के अथवा इन सबके विषय का ययाथ अनुभव हो ।' १ उदाहरण यथा--दोहा। खुनि बल, प्रलय- पतंग हे, अंबर चढ़धो उतंग। सिंघु लाँघि, पुर जारि, सिय,-सुध्रि लायो बजरंग ॥ यहाँ जांबवान् से अपने बल की प्रशंसा सुनकर श्रीह्चुमानजी को श्रवर्णेंद्रिय के विषय का यथार्थ अनुभव द्वोना वर्शित है । -. ॥ कर्ण, त्ववा, नेत्र, जिद्दा, नासिका भौर मन के विषप क्रमशः शब्द, स्पशे, रूप, रस, गंध ओर संकछप-विकषप हैं।
प्रमाण शेष७
२ पुनः यथा--खवैया । खत्त्रि ! नंद के द्वार सिंगार-स पै सब गोप-कुमार खरे हितकै । घह सूरति ईठ निहारन को सब दीठि लगाइ रहे चित दे॥ पुनि खालत ही पट, मोहन की छवि देखत ही इक बार सब । चहुँ ओर ते ग्वार पुकारि उठे, ब्रज-दूलह नंद-किसोर की जे ॥
“>मेलक्ार-भाशय । यहाँ भी श्रीनंद-नंदन के झूंगार-दर्शव से गोप-मंडली द्वारा नेत्रों के विषय का प्रत्यक्ष-प्र भाण द्ोना वर्रित है ।
२ अनुमान-प्रमाण
जिसमें किसी साथन द्वारा किसी साध्य' पदार्थ का निश्रयात्मक अलन्ुपान हो ।
१ उदाहरण यथा--कवित्त । आसन जो देहूँ तो खुभासन है नंदी, दीप, देत कोटि सूरज-समीप सकुचानों में। डमरूनिनाद ही ते प्रगयणे समस्त सतत न्यारे कहो कौन घोसे ब्रिरुद बखानों में ?॥ सेस ससि गंगा से न आभूषन आन ठौर, यात॑ एक ओऔर उपचार अजुमानों में। दीनन दया ऊ दे भए हो मन-हीन आपु, देहूँ सोइ ,लेहु प्रभु! पायक पुरानो मैं ॥
3 जिस वस्तु द्वारा सिद्ध किप्रा जाथ। २ जिस वस्तु को सिद्ध किया
जाय। ३ जैसे--विद्युत् ( साधन ) के द्वारा घषो ( साध्य ) का ज्ञान डांता है। ४ सामग्री ।
डेध् भारती-भूषण
यहाँ उत्तराद्ध में “शंकर का मन-दीन होना” साध्य है, जिसका “उनका मन कृपया दीनों के प्रति दिया जाने” के साधन द्वारा भक्त ने यथार्थ अनुमान किया है । २ पुनः यथा--दोहा | खुनत पथिक-मूँह माह-निसि, लुएँ चलति उहि गाम । बिन बूके बिन ही खुने, जियति बिचारी बाम ॥ --बविहारी । यहाँ भी प्रोषित नायक ने अपने घर पर अपनी स््री के जीवित रहने के सांध्याथ का उस ग्राम में माघ-मास की रात्रि के समय वियोगागिन से संतप्त उसके शरीर के स्पश द्वारा छँ चलने के साधन से निश्चय किया है । ३ उपमान-प्रमाण जिसमें उपमान के सादश्य से ही विना देखे हुए उपमेय का निश्रय हो । १ उदाहरण यथा--दोद्दा । सरद-सुधाकर सो सदा, पूरन-कला- निधान | मुख मंज़ुल जाको लखत, सो राधिका खुजान॥ यहाँ श्रीराधा-मुख के उपमान 'शरद-सुघाकर” की समानता से ही श्रीराधारानी उपमेय का निर्णय होना वर्रित है । २ पुनः यथा-दोदा । मन्मथ सम खझुंदर लसे, रवि-सम तेज बिसाल।
सांगर सम गंभीर है, सो द्सरथ को लाल ।॥ -मतिराम ।
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यहाँ भी मन््मथ ( काम ) आदि उपमानों की समानता से बिना देखे हुए श्रीरघुनाथजी उपमेय के प्रमाणित होने का बणन है । * शब्द-प्रमाण
जिसमें शाख़ अथवा महाजनों के वचन का प्रमाण बरणित हो ।
१ उदाहरण यथा--दोहा । इहि असार खंखार में, सार चार कह व्यास । गंग-सलिल सतसंग सिघ, - सेवन कासी-बास || यहाँ महषि वेदृव्यास-भगवान् के बचनों का प्रमाण वर्शित हुआ है । २ पुनः यथा--सवैया । संकर से मुनि जाहि रटें, चतुरानन आनन चार तें गावें। सो हिय नेंक हि आवत ही, मति-म्रढ़ महा 'रसखानि' कहावचें ॥ जापर देव अदेव भ्रुजंगम, वारत प्रानन वार न लाखें। ताहि अहीर की छोहरियाँ छुछिया भरि छाछु को नाच नचावचें ॥ --रसखान | यहाँ भी श्रीकृष्ण के परम-नब्रह्म होने के कारण श्रीशंकर एवं श्रक्माजी द्वारा इनके गुण गान करने का शब्द्-प्रमाण वर्णित हुआ है ।
५ आत्म-तुष्टि-प्रमाण जिसमें अपने अंतःकरण के विश्वास से किसी अर्थ
का प्रमाण वर्णित हो । रछ
३७० भारती-भूषण
१ उदाहरण यथा--दोहा का डढ़ भरोस उर, इष्ट हर, अवलि हरहि भव-भार। में अनन्य-आधार, वे, निरधारन-आधार ॥ यहाँ किसी भक्त का अपने इष्ट श्रीशंकर पर आत्मिक विश्वास होने के कारण जन्म-मरण को अवश्य निवृत्त करने के प्रमाण का वर्णन है ।
। २ पुनः यथा-दोद्दा । , मोहिं भरोसो जाउँगी, स्थामकिसोरहि व्याहि। आली ! मो अँखियाँ नतरु, इती न रहती चाहि॥ --भिखारोदास 'दास?। यहाँ भी श्रीवृषभाजु-नंदिनी के श्रीनंद-किशोर से ब्यादे जाने का प्रमाण अपनी आत्मा के विश्वास पूर्वक वर्शित हुआ है । दे अथोपत्ति-प्रमाण जिसमें किसी अर्थ का प्रभाण अन्याथ के योग से
वर्णित हो | १ उदाहरण यथा--दोहा । पाँय न जाके दूत को, सब मिलि सके हटाइ। है ताको यह खेल, तोहि, जीति सियहिं ले जाई ॥ यहाँ रावण के प्रति रानी मंदोद्री के कथन में--“श्रीरघुनाथ- जो तुमको जीतकर जानक्रीजी को अवश्य ले जायेंगे” इस अर्थ को “उनके दूत ( अगद ) का भी पैर तुम सबसे नहीं दिलाया गया” इस अन्यार्थ के योग से प्रमाणित किया गया दै। २ पुनः यथा--रोला छंद । फैसे हिंदी के कोउ खुद्ध सब्द लिखि लेहें!। अरबी-अच्छुर बीच, लिखेहुँ पुनि किमि पढ़ि पेहेँ ! ॥
प्रमाण रे9र
निज भाषा को सच्द लिखो पढ़ि ज्ञात न जामें। पर-भाषा को कहो पढ़े केसे कोड तामें?॥ --पं० बदरीनगायण चौधरी 'प्रेमघन! ।
यहाँ भी उत्तराद्ध में “अरबी-लिपि में अन्य भाषा के शब्द का न पढ़ा जाना” इस अथ का “अपनी भाषा (अरबी) का शब्द भी नहीं पढ़ा जा सकता” इस अन्यार्थ के योग से प्रमाणित द्वोना वर्शित है।
३ पुनः यथा--रोला छंद । नीच नीच थल सोह स्वृष्टिक्तम ह यह लग भल | ताल रहत जल-सरप बड़ो अजगर परबत-तल ॥ रघु-कुल-रथि की नारि राम-माता गोरब बड़। त्यहि खाँ भो अल काम ? करत ना कोउ जीव हु जड़ ॥ -पं० शिवरद्ष शुक्ल ( भरत-भक्ति ) । यहाँ भी बन में श्रीरघुनाथजोी के प्रति कैक्रेयो के बचन में “कोई मूख जीव भी ऐसा नहीं कर सकता” इस अन्यार्थ के द्वारा “रघु-कुल-गवि की घर्मपत्नी और राम की माता ऐसा अनुचित कार्य कभी नहीं कर सकती” इस अर्थ को प्रमाणित किया है । अर्थापत्ति-प्रमाण-पाला १ उदाहरण यथा--सवबैया । बालि वली न बच्यो पर-खोरहि क्यों बचिहो तुम आपनी खो रहि। जा लगि छीर-समुद्र मथ्यो कहदि कैसे न वाँ घिहदे वारिधि थोरहि ?॥ भीरघुनाथ गनो असमर्थ न देखि बिना रथ हाथिन घोरहि।
तोस्यो सरासन संकर को जेहि सो5ब कहा तुव लंक न तोरदि ॥ --केशवदास ।
यहाँ “स्वयं राम के अपराधी तुम कैसे बचोगे ९” इस अर्थ को “पर (धुप्रीव) का अपराधी बालि उनके द्वारा मारा गया” इस
३७२ भारती-भूषण
(जम पी मत कट आल शथज कर 2 आज की तक दर की अल बल तल अन्याथ के योग से प्रमाणित किया गया है। इसी प्रकार द्वितीय ५ ९ + एवं चतुर्थ चरण में भी यद्दी अलंकार है; अतः माला है । सूचना--एर्वोक्त 'काव्याथांपत्ति अलंकार में भी एक अर्थ के द्वारा दूसरे अर्थ की सिद्धि होती है; किंतु वहाँ सिद्ध किया जानेवाछा अर्थ वस्तुतः अकथित होता है और उसका कुछ शब्दों द्वारा केवल निर्देश कर दिया जाता है। जैसे--वहाँ के प्रथम उदाहरण में कम, भक्ति भौर ज्ञान का निर्देश मात्र ऐ; पर यहाँ सिद्ध होनेवाला अर्थ स्पष्टतया वर्णित होता है । यथा--यहाँ के प्रथम उदाहरण में श्रीरघुनाथजी द्वारा रावण को जीतना
स्पष्ट चश्तित है। यही इनमें अंतर है। ७ अनुपलब्धि-प्रमाण जिसमें किसी अर्थ की अप्राप्ति में उसके अभाव का प्रमाण वर्णित हो । १ उदाहरण यथा--सवैया ।
करि नेह चले तजि गेह अबैं अकुलात हैं गात लगे जरने। बिनु नीर न धीर धरे मछली जिमि नैनन नीर लग्यो ढरने ॥ यह रीति नहीं विपरीत बड़ी करि प्रीति अनीति लगे करने । कहा सोच करें दुख-धौस भरें, विधि-लेख लिखे सो नहीं टरने ||
यहाँ अपने स्वामी के मन में प्रीति-रीति का अमाव होने का प्रमाण प्रोषित-पतिका नायिका द्वारा विधाता के लेख का अमिट होना वर्णित दै । २ पुनः यथा--चतुष्पदी छंद ।
गुन-गन-प्रतिपलक रिपु-कुल-घालक बालक ते रनरंता। दूसरथ चप को खुत मेरो सोदर लवनाखुर को हंतां॥
प्रमाण ३७३
कोऊ है मुनि-खुत काक-पच्छ-जुत, खुनियत है तिन मारे। यहि जगत-जाल के करम काल के कुटिल भयानक भारे॥ --केशवदास । यहाँ भी लव-ऊुश द्वारा शत्रुन्न का मारा जाना सुनकर उसके न रहने में श्रीरघुनाथजी ढरा “काल की घटनाओं का कुटिल होना” प्रमाण वर्णित हुआ है । ८ संभव-प्रमाण जिसमें किसी अर्थ के संभव' होने क। प्रमाण वर्णित हो । १ उदाहरण यथा--दोह्दा । मित्र राहु राकेस अरू, अरि द्निस बुध होइ। केतु जग-हितकर करे, हरि जो चाहे सोइ॥ यहाँ राहु-चंद्रमा में मित्रता, सूर्य-बुध में शत्रुता तथा धूमकेतु (पुच्छुल तारा )में जगत् का कल्याण करने की शक्ति होना हरि- इच्छा द्वारा संभव द्वोने का प्रमाण वर्णित हुआ है । २ पुनः यथा--दोहा । ता कहूँ प्रभु ] कुछ अगम नहिं, जा पर तुम्ह अनुकूल । तब ॒ प्रभाव बड़वानलहिं, जारि सकद खलु' तूल ॥ --रामचरित-सानस । यहाँ भी श्रीहनुमानजी के कथन में वाड़वाग्नि को रूई द्वारा जलाए जाने की संभवता श्रीरघुनाथजी के प्रताप से प्रभाणित की
गई है ।
पद्नद् संमवः शब्द से कथिताये का अवश्य सिद्ध हो जाना भ्रमिप्रेत नहीं है; वरन् संभावितारथं के वर्णन से ताल्पयं है। २ निश्चय ।
३७४ भारती-भूषण
जल हज अड3ज3न् ४ +> 332 > 32 ञ ५ 2५9 /ञ «3 «
सूचना-- ईश्वरादि का निर्णय करने के लिये प्रमाण माने गए हैं, वैशेषिक-शाखकार 'कणाद? मुनि ने एवं बौद्धू-म्रतावलंबियों ने उक्त भाठों भेदों में से प्रत्यक्ष और भजुमान दो ही प्रमाण माने हैं, सांब्य-शास्र में अगवान् कपिल मुनि ने प्रत्यक्ष, भनुमान और शब्द तीन प्रमाण माने है, भ्याय-शास्त्रकार महर्षि गोतम ने प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और ४पमान चार माने हैं, मीमांसा-शाखत्रकार 'एकदेशी प्रभाकर! ने प्रत्यक्ष, भनुमान, शब्द, उपमान और अर्थापत्ति पाँच माने हैं तथा मीमांसरूमद एवं वेदांत-शाख्र के भाष्यकारों में से अद्वेतवादियों ने प्रत्यक्ष, भनुमान, शब्द, उपमान, भ्था- पत्ति भौर भनुपलब्धि छः प्रमाण माने हैं ।
भगवान् वेदब्यासादि ने पुरायों में प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति, भनुपलब्धि, संभव भौर ऐतिहा भाठ प्रम्माण माने हैं। महा राज भोज ने भी 'सरस्वती-कंड्राभरण? प्रंथ में उक्त भाठों का इल्लेख किया है । अनुमान होता है कि इस! भाधार पर कुबलयानंदकार अप्पय दीक्षित एवं कई भाषा-ग्रंथकारों ने भो भार्ठों का ग्रद्ण किया है।
यद्यपि चार्वाक ( नास्तिक ) लोग एक प्रत्यक्ष छो ही मानते हैं; और कविराजा मुरारिदान ने 'प्रमाण” अलंझार सबंधा नहीं माना, तथापि इमारे विचार से भार्ठों दी मानने योग्य हैं ।
प्रायः प्रंथों में प्रमाण” अलूडार का भरष्टम भेद 'ऐतिहा” लिखा हे; किंतु उसमें 'लोकोक्ति? के भतिरिक्त कुछ भी विशेषता नहीं ज्ञात होती; अतः हमने उसके स्थान पर “आत्म-तुष्टि? को रखा है। कुछ अन्य अलंकार- प्रैथों में भी इसका उल्लेख है।
संसखृष्टि जप उभयालंकार कभी-कभी काव्य में एक ही स्थल ( छंद या वाक्य आदि ) में एक से अधिक अलंकारों का मिश्रण या संयोग देखने में आता है, उसे 'उभयालंकार' कहते हें । इसके 'संसष्ट' और “संकर ' ये दो प्रकार माने गए हैं--
(१) संसृष्टि जहाँ एक से अधिक अलंकार एक ही स्थान पर ८तिल-तंडुल-न्याय””' से स्थित रहते हुए एक दूसरे की अपेक्ता के बिना, खतंत्र रूप से भिन्न-भिन्न भान होते हों, वहाँ 'संसष्टि' होती है | इसके तीन भेद हैं-- १ शब्दालंकार-संसश्टि जिसमें केवल “शब्दालंकार' मिले हुए हों । १ उदाहरण यथा--कवित्त । पादप-लतान ह को जीवन-अधार-धार, पोषे निज बोरे आप माहि कवहूँ नहीं। बार' कृषिकार जो संवार बार-बार करें,
वे ही उन खेतन को खाहि कबहँ नहीं ॥
+ जैसे--एक पात्र में तिल पूर्व चावकछ मिलाएं जाने पर भी अपने- अपने आकार से प्रथक्-पएथक् प्रतीत दोते रहते हैं।
२ बाड़, खेत के चारों ओर रक्षा के लिये काँटेदार भाड़ियों की दीवार सी बनाई जाती है ।
३७६ भारती-भूषण
देख्यो करें राम के पवित्र चित्र ४ चरित्र, याद मरयाद जासों जा कर कबहूँ. नहीं । छुत्न-पति छुत्रिन की छत्र-दाँह माहि रहें, तिनकी हर ते छत्र-छाँह कबहूँ नहीं ॥# यहाँ छः शब्दालंकार प्रथक्-प्रथक् प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं --( १ ) श्छेष--'जीवन' का अर्थ जिंदगी और जल एवं आप” का अर्थ स्वयं और जल होने के कारण दो श्लेष हैं। (२) यमक--“अधार धार में 'धार' का और “याद मरयाद में याद” का इस प्रकार दो यमक हैं । (३) वृत्ति अनुप्रास--“बार कृषिकार जो संवार” में एवं “पत्रिन्न चित्र औ चरित्र” में | (४) वीप्सा--'बार-बार! में । (५) छेकानुप्रास--'खेतन को खाहिं?, जासों जाहि” ओर छत्र-पति छत्रिन! में । (६) लाटाजुपास--'छत्र-छोँद! का । २ पुनः यथा--दोद्ा । चलिय चल्ननि पथ पूत करि, हर-हरे धरि पाय। चाहे मत ही चल, चलत, जहँ-तहँ जीव-निकाय ॥ यहाँ भी चकार और पकार के छिकानुप्रास', 'हरें-हरें” शब्दों से 'वीप्सा! और “चल! शब्द का लाट! ये तीनों शब्दालंकार भिन्न-भिन्न प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । २ अथोलंकार-संररष्टि जिसमें केवल “अर्थालंकार' मिले हुए हों ।
& कुछ दिन हुए, महाराणा-उदयपुर ने अपग्रवारू-जाति के दुरूद्दे पर छत्र फिरने का पर॑परा-प्राप्त अधिकार छीनने का विचार क्रिया था, जिसके विरोध में उनका ध्यान भाकृष्ट करने के लिये यह पद्म बनाया गया था ।
गाय शक
संस्ृष्टि ३5७
१ उदादरण यथा--दोद्वा ।
योगिन के अभिमान नहिं, नहि सखतीन के दीठ।
द्रब्य उदारन के नहीं, नहिं बीरन के पीठ ॥
यहाँ चार जगद्द 'नहीं' क्रिया-शब्द होने में 'पदाथोबृत्ति-दीपक' ओऔर प्रथम चरण को छोड़कर शेष तीनों में तीन प्रथम पर्यायो- क्तियाँ” होने के कारण “पर्यायोक्ति' की माला दै। ये दोनों अथो- लंकार अपने-अपने रूप से भिन्न-भिन्न भान होते हैं; अतः अथौलंकार-संसृष्टि है ।
२ पुनः यथा--दोह्ा । कष्ट दियो प्रहलाद कौ, मस्यो दुल्लुज अघ -खान। सर्बेबास करि देत है, लाघुन को अपमान ॥ यहाँ भी विशेष का सासान्य से समर्थन होने में 'प्रथम अर्थीतरन्यास”/ और दनुज ( द्विण्यकशिपु ) का साभिप्राय विशेषण '“अध-खान' द्वोने में 'परिकर' है। ये दो अ्थोलंकार प्रथक्-प्रथक् स्पष्ट दिखाई देते हैं । ३ शब्दाथोलंकार-संसष्टि जिसमें शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों मिले हुए हों। १ उदाहरण यथा--दोहा । कटत करम, प्राकृत भरम, दुरित छेंत दुख-दान | मिटत जनम-जम-जनित भय, हरि-चरनन के ध्यान॥ यहाँ हरि-चरणों का ध्यान करना कारण और कर्मी का कटना आदि कार्य वर्णित होने में 'प्रथम देत! (अथोलंकार) और दकार
शेज८ भारती-भूषण
एवं जकार की समता के 4ृत्ति अनुप्रास! ( शब्दालंकार ), दोनों प्रकार के अलंकार भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, अतः शब्दायों- लंकारसंसृष्टि है । २ पुनः यथा--पद् । चित जब राम-चरन अनुरागे। तरुनि - तनय - तन - धन-मय - मायिक,- जगत स्वप्न ते जागे । गरुड़ ज्ञान -हित मान त्यागि नित, मानत गुरु करि कागै ॥ भक्ति - बिवेक - बिकास होत हिय, बिषय-वासना भागे। विषय-विषम-ब्रिष-बलित-लता मैं, श्रमल अमिय-फल लागै ॥ यहाँ भी प्रथम अंतरे में 'रूपक अंतिम 'अंतरे में 'पंचम
विभावना' ये दो अथौलंकार हैं । छिकानुप्रास” चारों अंतरों में, यमक तन' शब्द का और बकार का (ृत्ति अनुप्रास' अंतिम अंतरे में ये शब्दालंकार हैं । ये सब भिन्न-भिन्न भान दवोते हैं ।
( २) संकर जहाँ एक से अधिक अलंकार क्षीर-नीर-न्याय ', से मिल्ले हुए हों, वहाँ 'संकर' होता है। इसके तीन भेद हैं-- १ अंगांगी-भाव-संकर जिसमें वीज-हक्ष-न्याय द्वारा एक अलंकार अंग- भाव से और दूसरा अंगी-भाव से वर्णित हो ।
$ जैसे दुध भौर पानी मिल जाने से उनकी प्रथकृता नहीं ज्ञात दोती। ३ अन्पोन्याश्रित अर्थात् भंग के द्वारा भंगी की सिद्धि भोर अंगी से झंग का उपकार हो ।
संकर ३७& १ उदाहरण यथा--दोहदा । वचन - सुधा सुत्र श्रवत इत, कोकिल - कंठ लज्ञात । होत विरह-बिष-बस अधिक, उतअलि ! स्यामल गात ॥ यहाँ 'बचन-सुधा” एवं 'विरह-बिष' 'रूपक! अंग द्वारा अमृत से विष के वश होना” “विरोध! अंगी सिद्ध हुआ है; और “विरोध! ही “रूपक! में अत्यंत चमत्कृति का कारण है; अतः इनके परस्पर में अंगांगी-भाव है ।
नल््ज््च्ं्ल्ख्च्ल्व््ल््चि
अंगांगी-भाव-सं कर-माला १ उदाहरण यथा--दोहा । बदन-सुधाधर भ्रवत तव, सबिष विसिख से बेन। कढ़त कमल - दल - जीह तें, बचन कठेठे ऐन |। यहाँ 'बदन-छुधाघर' रूपक अंग से पूवौद्धगत पंचम विभावना अंगी और 'कमल-दल-जीहू” लुप्तोपमा अंग से उत्तराद्धगमत पंचम विभावना अंगी सिद्ध हुई है; अतः माला है । २ संदेह - संकर जिसमें एक से अधिक अलंकारों की एक स्थल पर संदेहात्मक' स्थिति हो । १ उदाहरण यथा--कवित्त ।
“कैसे पिय पाओं अंग अंगनि मिलाओ” ऐसे ,
बेंठी मिलिये के ही बिचारे उपचार है। अंग-अरबिंद-गुन॒बरने, पिया के ध्यान,
प्ूूले खान-पान, भार भासत सिंगार है॥
4 किसी एक के सिद्ध होने में संदेह हो ।
३८० भारती-भूषण
कु
ऐसी अकुलानी जाकी ज्ञानी ह न जाति बानी. रोबे हँसि धावे ना खुहावे घर-बार है। दीरघ उसास नेन नीर, प्रतिमा सी भई द्सम द्सा न कहों नीरस अपार है॥ यहाँ विरदिणी नायिका की दसों दशाझोंके वणन में “अंग- अरविंद” पद में रूपक और उपमा, इन दोनों अलंकारों में से किसी एक की सिद्धि होने में संदेह है; अतः 'संदेह-संकर' है । २ पुनः यथा--सवैया । डील बड़ो सबतें बल को5रु, बड़ाई बड़ी जग माँफ करी है। फौज- सिंगार है तेज अपार, भरे मद सावन की सी भरी है ॥ भूपति फे हियरा में बते नित, संपति सागर की सिगरी है । डारत धूरि रहेँ सिर पै खु कहा गजराज! कुटेव परी है॥ “--अलकहा€-आशप। यहाँ भी यद्द संदेह द्ोता है कि प्रस्तुत द्वाथी के वर्णन में समान विशेषणों की सत्ता से केवल एक लांछन-युक्त किसी सवंगुण-संपन्न महापुरुष के अप्रस्तुत वृत्तांत की प्रतीति होने में 'समासोक्ति' है ९ अथवा केवल एक लांछन-युक्त किसी सबगुण- संपन्न मदह्दापुरुष प्रस्तुत को सूचित कराने के लिये अप्रस्तुत द्वाथी का पृत्तांत वर्शित करने से “अन्योक्ति! ( अप्रस्तुत-प्रशंखा का एक भेद ) है? इस्र प्रकार दोनों अलंकारों की स्थिति संदेदात्मक है । सूचना--इमारे विचार से संरेह-संकर भर्थालंकारों में ही होता है, शब्दालंकारों में नहीं, क्योंकि शब्दों का चमत्कार बहुत स्पष्ट ड्ोता है, अतः वहाँ पर संदेद नहीं हो सकता ।
॑+-ज3-ज-ल-ल लत
संकर श्ेम्श्
३ एकवा चकानुप्रदे श-संकर जिसमें नृ्सिह-न्याय' से एक ही पद वा वचन में शब्दार्थालंकार दोनों की स्थिति हो । १ उदाहरण यथा--कवित्त-चरण ।
पाँचो इंद्रियत के श्रो मन के श्रनेक, एक, 5 पु नेनन नलिन-नेनी नाटक नचाबें री।&
यहाँ 'नलिन-नैनी” एक द्वी पद में 'लुप्तोपमा' अथोलंकार ओर 'अनुप्रास' शब्दालंकार, दोनों की स्थिति है; अतः एकवाच- कानुप्रवेश-संकर दै ।
२ पुनः यथा-दोद्दा ।
श्रीबृंदानन बसि बढे, उर अनन्य अलुराग।
करिय कृपा मो पर, मिले, प्रभु - पद - पद्म - पराग ॥
यहाँ भी चतुर्थ चरण में अथोलंकार “परंपरित रूपक' ओर शब्दालंकार वृत्ति अनुप्रास' तथा 'पद' शब्द का यमकों, इस प्रकार इन तीन अलंकारों की स्थिति है ।
; हि एक शरीर में मलुष्य एवं सिंह की स्थिति के समान। & पूरा पथ “कारक-दीपकः सें देखिए ।
'इेघ२ भारती-भूषण 4 9» ७७ | अलंकारों के विषय
प्रायः अलंकारों के लिये कुछ विशिष्ट विषय उपयुक्त समझे गए हैं। यद्यपि इस बात का कोई निराकरण नहीं किया जा सकता कि अमुक अलंकार में अनिधार्य रूप से कोई श्रमुक विषय ही होना चाहिए ओर न निश्चित रूप से यही कहा जा सकता है कि सदा प्रत्येक अलंकार का कोई विशिष्ट विषय होता ही है, तथापि पाठकों की जानकारी के लिये हम नीचे एक संक्षिप्त सूची देते हैं, जिससे यह पता चल जायगा कि इन अलंकारों में से किस अलंकार का मुख्यतः कौन सा विषय होता है श्रथवा होना चाहिए | (१ ) 'रूपक' में गौणी-सारोपा-लक्षणा द्वोती है । (२ ) परिणाम! में गौणी-सारोपा-लक्षणा द्वोती है। (३ ) 'रूपकातिशयोक्ति! में गौणी-साभ्यवसाना-लक्षणा होती है । (४) 'निदशेना' के द्वितीय भेद में सारोपा-लक्षणा होती है। (५ ) अप्रस्तुत-प्रशंसा' में साध्यवसाना-लक्षणा होती है । (६ ) “अप्रस्तुत-प्रशंसा' के कारण-निबंधना भेद् द्वारा प्रायः
विरहद-निवेदन द्वोता है । (७ ) आत्तिप' के तृतीय भेद द्वारा प्राय: प्रवत्स्यत्मठेंका नायिका का वर्णन द्वोता है ।
(८ ) 'विभावना' के द्वितीय भेद में प्रायः विच्छित्ति-दाव होता है । (९ ) 'विशेषोक्ति' द्वारा प्रायः गुरुमान का वर्णन होता है | (१०) असंगति' के द्वितोय भेद में प्रायः विश्रप्-दाव होता है। (११) 'समुश्यय' के प्रथम भेद में प्रायः किलकिंचित्-द्वाव दोता है। (१२) ललित! में साध्यवसाना-लक्षणा होती है ।
अलंकारो के विषय इेप्रे
(१३) 'विषादन' द्वारा प्रायः अनुशयाना नायिका का वर्णन होता है ।
(१४) “उत्तर-उन्नीत-प्रश्न! द्वारा प्रायः खयं-दूती नायिका का वर्णन द्वोता है ।
(१५) 'सूक्ष्म' में प्रायः बोघक-हाव और क्रिया-विद्ग्धा नायिका का वर्णन होता है ।
(१६) 'पिहिित' द्वारा प्रायः सादरा-वीरा नायिका का वर्णन होता है ।
(१७) व्याजोक्ति' द्वारा प्रायः गुप्ता नायिका का वर्णन होता है ।
(१८) 'गूहोक्ति' द्वारा प्राय: बचन-विद्ग्धा नायिका का वण न द्दोता है।
(१९) 'युक्ति! में प्रायः मोद्टायित-हाव द्वोता है ।
(२०) 'स्वभावोक्ति' में प्रायः मौग्ध्य-द्वाव होता है |
(११) “अ्रत्युक्ति' के शौय, औदार्य और कोर्ति इन तीन भेदों में प्राय: राज-रति-भाव-ध्वनि द्वोती है ।
(२२) 'हेतु' के द्वितीय भेद में गौणी-सारोपा-लक्षणा द्वोती है।
(२३) 'प्रत्यक्ष-प्रमाण/ द्वारा प्रायः साक्षात्-द््शन का वर्णन द्ोता है ।
(२४) 'अलुमान-प्रमाण' द्वारा प्रायः खप्न-दर्शन या लक्षिता नायिका का वशन होता है ।
(२५) “उपमान-प्रमाण! द्वारा प्राय: चित्र-दशन का वन होता है ।
(२६) 'शब्द-प्रमाण! द्वारा प्रायः श्रवण-दर्शन का वर्णन होता है ।
(२७) 'अनुपलब्धि - प्रमाण! द्वारा प्रायः अज्ञात - यौवना नायिक्रा का वर्णन होता है ।
22724 *६ ३२) ४
४457. 9
कहैं[ ग्रंथ -निमोण - समय ;६&# के सवैया |
% सर सिद्धि निधी ससि बिक्रम-संबत '
० माघ को पाछलो पाख सुहायो । ४6 गुरुवार बसंत की पंचमी भारती ५ न के अवतार को वासर' भायौ ॥ $. कै ठप अग्र के बंसज केडिया अजुन- * दास ने काब्य-कला-गरुन गाय । ## मन-भावन भाव-नवीन-विभूषित के । “भारती-भूषन” ग्रंथ बनायो॥
० 5,
_॥ संवत् १९८५। २ श्रीसरस्वती का जन्म-विन ।
अलंकारों की भिन्नता-सूचक सूचनाओं की सूची
नाम (१) अनुप्रास, लाटानुप्रास और यमक (२) यमक ओर पुनरुक्तदाभास.... (३ ) उपमा और अनन्वय ( टिप्पणी में )
(४ ) उपमा, रूपक और अपहृति ( टिप्पणी सं० १ में ) (५) अभेद रूपक और श्रांति ( टिप्पणी सं० २ में )
(६ ) निरंग रूपक-माला और प्रथम उल्लेख (७ ) रूपक, भ्रांति और रूपकातिशयोक्ति ( ८ ) अभेद रूपक और उत्प्रज्षा (९ ) हेतूत्मेज्ञा और फलोस्प्रेज्ञा
(१०) बाचको पमेयलछ॒प्ता और शुद्ध रूपकातिशयोक्ति ...
(११) अभेद रूपक और रूपकातिशयोक्ति (१२) द्वितीय उल्लेख और तुल्ययोगिता ... (१३) तुल्ययोगिता और दीपक
(१४) यमक और पदावृत्ति-दी पक
(१५) शब्दाबृत्ति-लाटानुप्रास और पदाथववृत्ति-दीपक ...
(१६) अथीौवृत्ति-दी पक और प्रतिवस्तृपमा (१७) प्रतिवस्तूपमा और दृष्टांत (१८) प्रतिवस्तूपमा और निद्शेना (१९) समासोक्ति और श्लेष २०) शब्द-इलेष और अथ-इलेष
एष्टांक
३१
३३
५३
८४
८४७ १५०४ ११० १३२ १३३ १३९५ १७० १५४ १५५ १६० १६३ १६६ १६८ श्डट ५८९५ १९४
[ ३८६ ॥]
नाम
(२१ ) समासोक्ति ओर अन्योक्ति . ...
(२२ ) कैतवापहुति ओर द्वितीय पर्योयोक्ति
(२३ ) विरोध और विभावना
(२४ ) विरोध और प्रथम असंगति (२५ ) विरोध, और प्रथम विषम. ... 5५४ (२६ ) विरोध, पंचम विभावना और द्वितीय विषम ... (२७ ) ठृत्तीय असंगति और ठृतीय विषम
(२८ ) कारणमालछा, एकावछी और सार
(२९ ) द्वितीय विशेष और प्रथम पयोय हि (३० ) कारक-दीपक, ट्वितीय पयोय और प्रथम समुच्चय (३१ ) सद्दोक्ति और द्वितीय समुच्चय ...
( ३२ ) द्वितीय समुच्चय और समाधि ...
(३३ ) हेतूत्मेज्ञा और प्रत्यनीक
(३४ ) काव्यलिंग और हेतु
(३५ ) दृष्टांत और अथातरन्यास
(३६ ) अप्रस्तुत-प्रशंसा और अर्थात्तरन्यास
(३७ ) काव्यलिंग और अथीतरन्यास -
( ३८ ) अतिशयोक्ति और संभावना
(३९ ) उत्प्रेज्षा और संभावना के स (४० ) रूपकातिशयोक्ति, निदशेना, समासोक्ति, अग्रस्तुत-
प्रशंसा और ललित ४० शक
(४१ ) समाधि और प्रथम प्रदषेण
(४२ ) ठृतीय सम और ठतीय प्रहषेण ...
(४३ ) ठृतीय विषम और विषादन
(४४ ) पंचम विभावना और ट्तोय-चतुर्थ उल्छास
पृष्ठांझ २०२ २०५ “२२८ २३५ २३९ २४१ २४३ २६७ २७० २७९ २८० २८२ २८३ २८७ २८& २९० २९० २९७ २९७
३०० ३०१ ३०३ ३०४ ३०८
[ ३८७ ]
नाम ( ४५ ) प्रथम असंगति ओर प्रथम-द्वितीय उल्लास (४६ ) व्याज-स्तुति ओर लेश ( ४७ ) उल्लास और लेश ५ ( ४८ ) उत्छास, अवज्ञा और तद्गुण, अतदूगुण ( ४९ ) विशेषोक्ति, अवज्ञा और अतदूगुण ( ५० ) तद्गुण ओर मीछित ( ५१ ) मीलित और सामान्य (५२ ) उन््मीलित और विशेषक (५३ ) छेकापहुति, सूच्म-पिद्दित और व्याजोक्ति (५४ ) अन्योक्ति ओर गृढ़ोक्ति (५५ ) इलेष और गृढ़ोक्ति (५६ ) गृढ़ोक्ति और विवृतोक्ति (५७ ) व्याजोक्ति और युक्ति (५८ ) प्रथम उदात्त और अत्युक्ति ( ५९ ) असंबंधातिशयोक्ति और अत्युक्ति ( ६० ) अक्रमातिशयोक्ति और प्रथम हेतु (६१ ) काव्यलिंग और प्रथम हेतु. *#« ( ६२ ) काव्याथोपत्ति और अथोपत्ति-प्रमाण
जाओ 3 3 अगा
पृछ्ठांछ ३०८ ३१५ ३१५ शेर३े 3२३ ३२६ ३२८ ३३० ३३८ ३३५९
३४१ र४२ ३५५ ३६० ३६५ ३६५ ३७२
अन्य कवियों ओर ग्रंथों के उदाहत पद्यों की सूची
नाम पृष्ठांक
(१)अंबिकादत्त व्यास--३१६।
(२) अकबर बादशाह--२०४ ।
(३) अमान--१ ८५ |
(४) अयोध्यासिंह उपाध्याय-- १६१, २२९ |
(५) अलंका र-आशय--३२,५५, ९६, ९७, ९७, ९८, ९९,१००, १०३, १४०, १४६, ३५२, १५३, १६६, १७२, १७४, | २११, २६०, २६२, २७८, | २८६,. ३०२, ३०८, ३०९, | ३१८, ओ३३७, ३३६) ३४९, ३६५, ३२६७, ३२८०।
(६) अवधविद्यारी-- १६२ ।
(७) भ्रज्ञात कवि--२०, ३१, १०७, ११७, १९५, ३१४७,
२०१, २२९, २४६,
२६८, २८०, ३०४,
२००, २७०५, ३०६,
(८) उदयनाथ 'कविंद--१३१, ३३१ ।
पृष्ठांक
(९ ) कबीर साहब--२८९ ।
(१०) कन्हैयालाल पोद्दार--१ ८ ३, २०९, २७३, २८८, ३०३ |
(११) काशिराज (चित्र-चंद्रिका)- ३८, ५०, १२१ ।
(१२) काशीराम--३५७ ।
(१३) किशनिया--१५।
(१४७) किशोरी लाल गोस्वामी-- ७५५७५, १८३ |
(१५) कुंदनछाल 'ललित किशोरी” ब्न्न्रेरै० ।
(१६) कुमारमणि भरट्ट--१३।
(१७) कृपाराम ( राजिया )-- १५, १९८ ।
(१८) ऋष्णविद्वारी मिश्र--३१६ ।
(१५९) कृष्णशंकर तिवाड़ी--१४८
(२०) केडिया-जातीय इतिद्दास--
रे५५ |
नाम
३३४, ३६१, ३६३ । | (२१) केशवदास (मद्दाकवि)--
४९, ८२, १०७, ११२, १२७ १३४७, १३५, १५३, १३५,
[ श्टई ]
नाम पृ छाँक
१६८, १९४, २२०, २२९, २७२, २७२, २६५, २८१, २८३, २८६, ३४२, ३५२, ३७१, दे७छर ।
(२२) केशवदास (ट्वितीय)-२०७।
(२३) कौशल्या देवी वमो-२७१।
(२४) गंग--३५७ ।
(२५) गदडु--१३८।
(२६) गणेशपुरी 'पद्मेश|-- १३२, ३१८१, २१८, २६५, ३४७, रे७३े, २५७ ।
(२७) गुरदत्तसिंद'भूपति'-५७।
(२८) गुलाबसिह--२९५९ ।
(२६) गोपालशरणसिंहद--२२५।
(३०) गोवद्धंनचंद्र ओमा--० ० ।
(३१) ग्वाल--२७७ |
(३२) घनआनंद--२२६, रे४२ |
(३३) घासीराम--२१९ ।
(३४) चंद बरदाई--३५७, २२३,
२५८ |
(३५) जगन्नाथदास 'रत्नाकर'-- ७५, १४८, २१७ |
(३६) जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी-- १३४ ।
नाम पृष्ठोक (३७) जगन्नाथप्रसाद सरोफ-- ९० |
(३८) जमाछ--२७४ ।
(३९) जयशंकरप्रसाद--१ १६, २७५० ॥
(४०) जवा नजी बंदीजन--१४ ३ ।
(४१) जसवंत-जसो भूषण -- १३०५ १४९, १८७, २४९, २८८, २९२, ३२१ |
(४२) जीवा भ्रक्त--२७९ ।
(४३) टोडरमल--१ ८७ ।
(४४) ठाकुर (प्राचीन)--१९५ ३७३ ।
(४५) तुलसीदास--२१० ।
(४६) दादूदयाल---१७० |
(४७) दीनद्यालगिरि--३१४॥।
(४८) देव--४० ||
(४&) देवीप्रसाद धू्ण!-- १०३, ११८, १७० |
(५०) देवीप्रखाद शुक््ल--६०, १८७० |
(५१) नंदू--०५ |
(५२) नरहरि--१५२ |
(५३) नरोच्तमदास--१०९,
११२ ॥
[ डे&० ]
नाम पृष्ठांक (५४) नाथूराम शंकर शमौं-- १७३, ३७०८ |
(५५) पजनेस--६० । (५६) पद्माकर--१४,१४१,३२७ ॥| (५७) परशुराम कद्दार--२०१ | ' (५८) प्रथ्वीराज और चंपादे-५७। (५९) प्रतापसिंद (भाषा-भठेहरि) “२९७, ३१३ । | (६०) प्रवीण सागर--<०,१२३, | १४१, १५८, २०६ । (६१) बदरीनारायण चौधरी. प्रेमघन'--३७० । (६२) बेनी-प्रबीन बाजपेयी--९ । (६३) बेनी प्राचीन (असनी के) ' --+७१) । (६४) बेरीसाह--३२१ । | (६५) भगवानदीन 'दीनॉ--८ ५, १७५, १७५ | (६६) भाषाभरण--२६३ | (६७) भिखारीदास 'दासः--४६, जी, ६४, ९२, ११९, १७६, १३७७, १९७, २१७, २१७, २४७, ३०९, रे३२, ३७० (६८) भूषण--३१०३,१५५,११८, १७५१, १५७०, २२१, “२२२, ।
नाम पृष्ठांर २७३, २६२, २७०, ३०१, ३२७५, ३५०, ३५५९ ।
(६९) मणिदेव--१२८ ।
(७०) मतिराम--७६, ७९, «३, १२२, ३५७, १३६०, १७७,- १८६, १९९, २०९, २११, २२६, २३२, २४७, २५४, २९८, ३०५, ३०८, ३११४, ३३०, रे५२, २६६, ३६८।
(७१) मधुराप्रसाद पांडेय (विचित्र -+रे५।
(७२) मलिक मुहम्मद जायसी-- १७४ |
(७३) मद्ाभारत--०३।
(७४) मद्दावीरप्साद द्विवेदी-- २७९, २८४
(७५) मीराबाई--२५० ।
(७६) मुबारकअली--११६ !
(७७) मुरारिदान--<4१, २४५, २७६, २९४७, ३११, ३१६० ।
(७८) मैथिलीशरण गुप्त--१२२, ३४९।
(७९) मोहन--२०६ ।
(८०) रघुनाथ--०८, ९९, ११६, १४२, १६२, १८३, २२७,
)
[ रे४१ ]
नाम पृष्ठांक नाम पूृष्ठांऊ
२३३, २४९, ३०७, ३२०९, । ११७, ३६४ ।
३२४ । | (९२) विहारी--२९, ६२, ६०, (८१) रसखान--१९७, २८६, ११०, १२८, १३३२, १३९६,
३६९ | १४३, १८६, १९२, १९३, (८२) रहीम--१९८,२३५,२४४। २००, २०५, २०६, २३१५ (८३) राम--१३६ । । २३५, २३६, २४२, २४७) (८४) रामचरित उपाध्याय--२६ २७९, ३००, ३०५, ३१४५
२८ । ३२२, ३२९, ३३८, ३७५५, (८५) रामचरित-मानस--रे७, ३७०६, ३६८ ।
६६, ९४,१२९,१६०,१६८, | (९३) बूंदू--२४२ ।
१७०, १७२, १८०, २३१) | (९४) शंभुनाथसिंद. सोलंकी
२३८, २३५९, २६१, २७७, २८०, ३०६, ३११, ३२९, ३७१, रे७३ ।
(८६) रामचंद्र झुछ्च--३४८ ।
(८७) रामद्यालु नेवटिया--२१४
(८८) रामनरेश त्रिपाठी--३०६, २१३, रण७ण, २७७ ।
(८९) रामसिंह ( नरवलगढ़ )-- ७८, ११०, १५८, २२८,
९७, ३२७) रे३३, ३६२ ।
(९०) लछिराम--२० 4, २३७ २७४४, २७८, २६७, ३३९, हदेडछ3 ।
(९१) विश्वनाथप्रसाद मिश्र--
“नपशंसु--३१९ ।
(९५) शिवकुमार 'कुमार'--१०, ३२, ३६, ९३, २२०, २९२, २९५६, ३६४ ।
(९६) शिव रत्न झुक्क--३४७,३७१ ।
| (९७) सस्मन--१९६।
(९८) सहजोबाई--२८९ ।
(९५९) सुखदेव मिश्र--३२९ |
(१००) सुंदरि कुँतव॒रि---५९।
(१०१) सूरति सिश्र--३५, ७७; २८४७ ।
(१०२) सूरदास--4०, रे२० ।
(१०३) सूर्येमल्छ--६०, २९५ ।
(१०४) सेनापति--३५९।
[ रे&२ ]
नाम पृष्ठांक नाम पृष्ठांक (१०५) स्वरूपदास (पांडवयरेंदु- | (१०९) दरिराम (छंदरत्नावली) चंद्रिका)-२०३,३१७,३५४। -हे२७। (१०६) हनुमान--६८ । (११०) हूधरदास--३६१ । (१०७) दरिकेश--३६३ । (१११) हिंदी-अलंकार-प्रबोध-- (१०८) ह्रिश्वंद्र-->१९५, ३४३ | २३७, २६२, २६५ ॥
सूचना--हस सूची में ३७५ उदाह्त-प्च हैं, जिनके कवियों या ग्रंथों के ११३ नाम दिए गए हैं। इनमें १८ पच्चों के कवि भज्ञात हैं और 'भहांकार-भाशय' के ३१ पद्चों के भी भिन्न-भिन्न रवि हो सकते हैं । इस प्रकार कुल संस्या १६० हुईं; पर पक ही कवि के कई पद्य भी हो
सकते हैं, सका हिघाव ठप कई सकते हैं कि १२५ कवियों के ्र _कुदरण (286 मे आर हैं। 5 ५०7 4; ४ पृ
हक 4 ४२०0२ ६.2
सहायक ग्रंथों की सूची संस्कृत-ग्रंथ
) अभिपुराण--भगवान् वेद्व्यास । ) अमरकोष--अमरसिंह । ) अलंकार-तिकक-भानुदत्त । ) भलंकार-रत्नाकर--शोभाकर । ) अलंकार-शेखर--केशव मिश्र | ) अलंकार-सवेस्व--राजानक रुय्यक । ) अलंकारोदाहरण--यशस्क । ) कवि-कंठा भरण-- क्षेमेंद्र । ) काव्य-प्रकाश--मम्मटाचाय । ० ) काव्यादशे--दंडी। १ ) काव्यालुंकार--रुद्रट । २) काव्यालंकार-सूत्रवृत्ति--वामनाचाये । ३ ) कुबलयानंद--अरप्पय दीक्षित ।
) चंद्रालोक--पीयूषवर्षी जयदेव । € १५ ) ध्वन्यालोक--आनंदवद्धना चाये ।
१६ ) नाव्य-शास्त्र--भगवान् भरताचाय । ( १७ ) न्याय-विंदु--भासवज्ञ । ( १८ ) न्याय-शासत्र--मद्॒र्षि गौतम । ( १९ ) पिंगल-सूत्रन--नागराज पिंगलाचाये । ( २० ) बृहद्धाचस्पत्यकोष-- तकेवाचस्पति तारानाथ । (२१ ) मनुस्मति--भगवान् मनु । € २२ ) महाभारत--भगवान् वेद॒व्यास ।
१ २ डरे ४ ५ ६ ७ ८ ९
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[ ३&४ ]
(२३ ) महाभाष्य--भगवान् पत्तजलि । ( २४ ) मीमांसा-वातिक--कुमारिल भट्ट । (२५ ) मीमांसा-शाख््--अन्यतम आचार्य प्रभाकर । (२६ ) मेदिनी कोष--मेदिनी कर । (२७ ) रस-गंगाघर--पंडितराज जगन्नाथ त्रिशूडी । (२८ ) रामरत्षा-स्तोत्र--बुधकौशिक ऋषि । (२९ ) रामस्तवराज--भगवान् सनत्कुमार । (३० ) वाक्यपदीय ब्रह्मकांड--महद्दा राज भठेहरि । (३१ ) वाग्भटालंकार--वाग्भट । (३२ ) वेदांत-परिभाषा--व्येंकटाध्वरि । ( ३३ ) वेशेषिक-शासत्र-महषि कणाद । (३४ ) श्रीमद्भगवद्गी ता--भगवान् वेद्व्यास । (३५ ) श्रीमद्भागवत--भगवान् वेदव्यास । (३६ ) श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण--आदिकषि वाल्मीकि । ( ३७ ) श्रीशुक्॒य जुवे द- संहिता-- ( ३८ ) सरस्वती-कठाभरण--भो जराज । ( ३९ ) स्वदशन-संग्रह--सायण माधव । ( ४० ) सांख्य-शास्त्र--कपिल मुनि । (४१ ) साहित्य-दपेण--विश्वनाथ । (४२ ) साहित्य-सार--अच्युतराय । हिंदी-गंथ ( १ ) अलंकार-आशय--उत्तमचंद भंडारी । ( २ ) अलंकार-दर्पण--राजा रामसिंह ( नखलगढ़ )। ( ३ ) अलंकार-प्रकाश--सेठ कन्ददैयालाल पोदार । ( ४ ) अलंकार-मंजूषा--लाला भगवानदीन 'दीन' ।
[ रेईप ]
(५ ) कविता-कौमुदी ( प्रथम और द्वितीय भाग )--पं० रामनरेश त्रिपाठी ।
) कविप्रिया--केशवदास ।
) काव्य-निणेय--मिखारीदास ।
) काव्य-प्रभाकर--बाबू जगन्नाथप्रसाद “भाजु! ।
) चित्र-चंद्रिका--काशिराज ।
० ) जसवंत-जसोभूषण--कविराजा मुरारिदान ।
१) तक-शास्त्र--बावू गुलाबराय एमू० ए०।
२ ) नवीन पद्य-संग्रह--पं० भगवतीप्रसाद बाजपेयी ।
३ ) भाषा-भूषण --राजा जसवंतसिंह ।
४ ) रसिक-मोहन--रघुनाथ ।
५ ) रामचरित-सानस--गोस्वामी तुलसीदास ।
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दर 8 ८ ९५ १ ॥ १ १६ ) रामचंद्र-भूषण--लछछिराम । १ २ १ २०
१ १ १
) ललितलछाम--मतिराम ।
) लाल-चंद्रिका--लल्दूलाल ।
) शिवराज-भूषण--भूषण ।
) शिवसिंह-सरोज--शिवसिंह सेंगर ।
(२१ ) साहित्य-प्रभाकर--पं० रामशंकर त्रिपाठी ।
( २२ ) साहित्य-लहरी--महात्मा सूरदास ।
( २३ ) हिंदी-अलंकार-प्र बो घ--अध्यापक रामरत्न ।
(२४ ) हिंदी-शब्द-सागर--काशी नागरी-प्रचारिणी सभा
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८ सम्मांतया संस्कृत में-- ८ लए दार्शनिकसार्व / ३. हट रे ्ज
सवतंत्र-स्वतंत्र,साहित्यद्शनाचाय , भौम, न्यायरत्र, तकरत्र, गोस्वामी श्रीदामोदरलाल शास्त्रीजी की सम्मति--
क्षेमास्पदेन मारवरत्ननगराभिजनेन केडियोपास्येन श्रीमता श्रेष्ठि श्रोमदर्जुनदासगुप्तेन द्विन्दीमाषायां निर्मित सादित्याज्ञालंकारनिरूपण- प्रवर्ण भारतीभूषणाभिधं निवन्ध बहुत्राछोच्य; निबन्धु: प्रक्ृतविषयक चैचक्षण्यं प्रतीय; प्रमाय चोपलभ्यमानेषुक्तभाषाया मीदश्पुस्तकेष्वगता - थंतां; समवधायं चालंकृतितत्व॑ बुभुरसूनां फलेग्रट्ठितामितो; गर्भीरवस्तूप- पादनापरित्रदिग्नः संस्कृतेतरमाषासु नेसगिंकत्वेनाताइशतायामपि नेह कतुरादी नवलेदास्थाप्युन्मेषः प्रत्युत वस्तुगत्या निर्मातुरलंकर्मीणतया बाढ॑ प्रसासयमानमानसः कतिपयवर्णमिपेण्यान्तरमान्तमिव संमद॑ व्यनक्ति काइ्यामिति, शमर् ।
आषादसिताष्टस्याम् |
सं २६८७ गोस्वामी दामोद्र शास्त्री ।
(२)
महामहोपाध्याय व्याकरणाचाय पं० सीताराम शास्त्री, लेक्चरर और प्रोफेसर कलकत्ता-विश्वविद्यालय की सम्पति--
श्रीमता सेठअज्जुनदासकेडियामहोदयेन छिखित “सारती-सुषण? लामक॑ हिन्दीभाषायामलंकारछक्ष णोदाइरणप्रदर्शक पुस्तक दृष्टं, शला-
[ ३६८ ]
किकापरीक्षान्यायेनापातत: पुस्तकमिदं परोक्षितं ततो विज्ञायते भ्रकृतं पुस्तक हिन्दीमाषा, ध्येतणामतीवोपकारकमनायासतो5लड्भारज्ञानसंपादक सर्वेषामतीवोपकारक स्यादिति विश्वस्यते । कलिफाता ६ मार्च १६३० |।
अंग्रेजी में-- है (३)
हि. महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा, एम्० ए०, ढी० लिट्ू०, एलू-एलू० डी०, वाइस चांसलर प्रयाग- विश्वविद्यालय की सम्पति--
] कबए९ 00४९त. ज्ञा0 'गक्षादात पडश्ाश ऐड >भांपणवे॥8 ९१३... फ९ ७००४ ॥)९श्ाड [0 ॥॥ए९ फश्शा 0३7९४पए॒ वैणा० बाते छः९8शा।३ ऐशण/ए९७ 06 विंशवी कशब्वेश | शिए]ए़ 0णा60॥ त७॥ ण 06 जञायगालां | वीछुप्ा९ड ण 89९600... 7फ%6 ७००३४ १088-
श्रीसीतारामशास्तरिण: ।
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हिंदी-अलुबाद-- मैने श्रीयुत अज्ञु नदास्त केडिया-कृत 'भारती-मृषण' नामहु प्रथ ध्यान
से देखा | पुस्तक विचार-पूर्वक खिखी गई है और हिंदी-पाठकों के समक्ष मुख्य मुख्य भलंकारों का स्पष्ट भाव उपस्थित करती है। पुस्तक मनन करने योग्य है ।
इलाहाबाद गंगानाथ भझा। ता० १६ अप्रैल १६३० ॥ बाइस चांसलर प्रयाग-विश्वविद्यालय
>> >-श+>दि भ कर बहन हक “औ८०--०-४--आ-४*आट
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पूज्यपाद दिवेदी जी का शुभाशीबोद--- हे ":ककि३ ् और/ | ० प्रप्प को ! रफ र् |! र् पश्रीठ रत, र्ज। ॥ 28 ४ 7) श् पे वि रघ ५" गे अत 5 लेप व जज. शुन जि च्त
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विलंब से प्राप्त सम्मतियाँ--- विश्वकवि रखींद्रनाथ ठाकुर शांति-निकेतन ले लिखते हैं-
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पं० ताराचंद राय एम्० ८०, हिंदी-अध्यापक और सेफ्चरर बर्िन-विश्व-विद्यालय, जमंनी से लिखते हैं-- 3 ># > | था 80% |7 शिक्षीगा 38थी। शाते )8ए९ गर0ज
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[ रे&& ] हिंदी में-- (४)
आचाय आनंदशंकर वापूभाई ध्रवजी प्रोवाइस चांसलर हिंदू-विश्वविद्यालय काशी की सम्मति-- सेठ अजुनदास केडिया-विरचित “भारती-भूषण” नामक ग्रंथ पढ़कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुईं । आपने अलंकार-शाख््र में भच्छा परिश्रम किया है भौर इस प्रंथ में इसका फल सम्यक्तया प्रतीत होता है। इस शास्त्र के इतिहास के प्राय: अंतिम समय की अलूकारावलि लेकर प्रत्येक भरंकार का स्वरूप अल्पाक्षर में, किंतु विशद रूप से, बतलाया गया दै और उदाहरण प्राचीन, भर्वांचीन और स्वरचित हिंदी-साद्वित्य से लिए गए हैं । इम इतना चादइते हैं कि इस प्रंथ की प्रस्तावना में काव्य-छक्ष ण, काव्य में अलंकार-शास्त्र का स्थान, अलंकार-गुण इत्यादि के भेद और भरम्नेद के विषय में पुराने और नवीन भाचार्यों के मत, अलंकार सामान्य की थऔऔर तत्तद् अलंकार विशेष की रमणीयता का बीज--इत्यादि विचारणीय विषयों का विवेचन किया जाय । आपाद रूप्णां पंकादशों आनंदशंकर बापूभाई ध्रुव । सं० १६८७ | प्रोवाइस चांसलर काशी दिंदू-विश्वविद्यालय
(५) आचार्य पं० महावीरप्साद द्विवेदी, भूतपूर्व संपादक “सरस्वती! की सम्पति--
पुस्तक देखने से मालूम दोता है कि इसके प्रणेता केडियाजोी बढ़े गहरे अलंकार-शाह्ली हैं । छक्षण सीधी-सादी भाषा में खबके समझने योग्य
[ ४०० ]
किसा है। उदाहरण भी शुन-चुनकर समपंक और सरस उद्धृत किए हैं। यह इस पुस्तक का सबसे बढ़ा गुण है ।
दौलतपुर ; ११ अप्रैल | महाबीरासाद दिवेदी। ९ (६) काव्यतीथ पं० सकलनारायण शर्मा, प्रोफेसर संस्कृत-कालेज-कलकत्ता, लेक्चरर कलकत्ता-विश्वविद्यालय एवं संपादक 'शिक्षा' की सम्मति-- हमने 'भारती-भूषण” पढ़कर बढ़ी प्रसन्नता प्राप्त को । हसमें अरल- कार तथा उनके उदाहरण भत्यंत्त स्पष्टता से समझाएं गए हैं। विशेष- विशेष स्थर्छों पर टिप्पणियाँ हैं । उनसे प्ंथकार श्रीयुत सेठ भर्जुनदास केडियाजी की सदह्ृदयता, विद्वत्ता तथा प्रतिभा का परिचय उपछब्ध होता है । यह ग्रंथ दिंदी की उच्च परीक्षाओं में पाठय रूप से आदर पाने के योग्य है । इधर के नवीन बने हुए प्रंथों में इसे सर्वोत्तम कह सकते हैं । छपाई सफाई मनोहर है । आशुतोष घिल्डिग, कलकत्ता-युनिवर्सिटी | & माचे १६३०
सकलनारायण शर्मा ।
(७) साहित्याचाय पं० शालग्राम शासत्री की सम्मति-- श्रीयुत भजुभदासजी केडिया के बनाए 'मारती-भूषण' नामक हिंदी- अदांकार-पग्रंथ के कई स्थल हमें प्रंथकार के सुयोग्य पुत्र श्रीशिवकुमारजी केडिया ने सुनाए और दो-एछ इमने स्वयं भी देखे । हिंदी की नवीन मुद्रित जो पुस्तक इस विषय की हमारे देखने में आई हैं, ठन सबकी भपेक्षा इस
[ ४०१ ]
समझते हैं, केडियाजी की प्रकृत पुस्तक में अधिक परिश्रम किया गया है । इम आशा करते हैं कि हिंदी-जनता इसका समुचित भादर करेगी और प्र॑ंथकार के श्रम को सफल करेगी।
यह तो दम नहीं कद्दते कि भलंकार-संबंधी लक्ष णों और उदाहरणों का विवेचन इसमें संस्कृत-प्रंथों के समान परिष्कत, परिमाजित और तात्विक हुआ है, न ईिंदी में वै्चा अभी संभव द्वी है, परंतु भो कुछ है वह द्विंदी की वतंमान स्थिति को देखते हुए ग़नीमत है | घोर अंधकार में एक दीपक भी बड़े काम की चीज़ है और सैकड़ों जगनुओं से बेहतर है ! इस भाशा करते हैं कि विद्या-विनय-संपन्न विचारशील केडिया महानु भाव यदि उचित समसझेंगे तो यथा-समय इसमें भौर भी परिमाजन करने का यस्न करेंगे ।
लखनऊ बैशाख शुक्ला ४, सं० १६८७ 32042 (८) सुपसिद्ध समालोचक पं० रामचंद्र शुक्न, लेक्चरर
हिंदू-विश्वविद्यालय, काशी की सम्मति--
हिंदी के पुराने साहित्य में अलकार के ग्रंथों छी कमी नहीं है। पर बे अंय वास्तव में काब्य-प्रंथ हैं, अलयंकार-निरूपण के प्रंथ नहीं | वे भधिरतर सरस पर्चों के निर्माण की दृष्टि से लिखे गए हैं, अलंकारों के स्वहप-विवेचन की दृष्टि से नहीं | स्वरूप-विवेचन सम्यक् प्रकार से गद्य में ही हो सकता है; भरत: ट्िंदी-गद्य के पूर्ण विकास के उपरांत जब से शास्त्रीय पद्धति से ह्विंदी-सादित्य की शिक्षा की भोर छोगों का ध्यान गया तभी से भर्तंकार की ऐसी पुस्तकों के कमाव का अनुभव होने छगा जिनमें भरद्वंकारों के स्वरूप भौर उनके सूक्ष्म मेद भादि स्वच्छ और
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परिष्कृत भाषा में समझाए गए हों और उदाहरण भी पर्याप्त दिए गए हों। उक्त भ्रमाव की पूर्ति के ध्यान से जो दो-एक पुस्तक निकली वे दो ढंग की हुईं । कुछ में संस्कृत के प्रामाणिक पंथों के आधार पर पर्याप्त लक्षण और स्वरूप-निर्णय का प्रयास दिखाई पढ़ता है; पर हिंदी- कवियों के डदाहरणों की बहुत कमी है । जिनमें हिंदी के उदाहरणों की भरमार दे उनमें स्वरूप-निणंय और शाक्लीय विवेचन का प्राय: अभाव सा है ।
इस दक्ञा में श्रीयुत् सेठ भर्जुनदासजी केढिया के हस नये भर्लकार- ग्रंथ 'भारती-भूषण' को देख बढ़ी प्रसन्नता हुई क्योंकि इसमें उक्त दोनों बातें साथ-साथ पाई जाती हैं--भरलंकारों के स्वरूप तथा एक दूसरे से उनके सूक्ष्म भेद भी अच्छी तरह समझाए गए हैं भौर नये पुराने हिंदी-कवियों के रचित सरस भौर मनोहर उदाहरण भी प्रचुर परिमाण में रखे गए हैं। सारांश यह कि भलांकार की विक्षा के लिये हिंदी में लैसा ग्रंथ ध्वोना चाहिए था यह वैसा ही हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं | सेठजी ने अपनी विज्ञता, क्रम, समय और घन का जो सुंदर उपयोग किया है इसके लिये थे दिंदी-प्रेमी मात्र के धन्यवाद के पात्र हैं। अहांकार-शास्त्र के भष्ययन के अभिरछाषी तथा सरस कांम्य के प्रेमी दोनों की पूर्ण तुष्टि इस पुस्तक से होगी, हसका हमें पूरा विश्वांस है ।
डुर्गांकुंड, ५
३ अप्रैछ, १६३० | ९५०२४ &)
काव्य-ममझ् सेठ कन्हैयालाल पोद्यर, प्रणेता “अलं-
कार-प्रकाश' एवं 'काज्य-कल्पद्ुम की सम्मति--
यों तो हिंदी-माा में बहुत से अकंकार-विषयक पंथ प्राचीन एवं अ्रवोचीन दृष्टिगत हो रहे हैं; (िंतु प्राचीन प्रंथों में तो प्राथ: यह एक
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बढ़ी भारी चुटि है कि उनमें पद्य में लिखे हुए लक्षण भौर उदाहरणों को समझाने के लिये गद्य में कुछ भी स्पष्टता नहीं की गई है । फल यह हुआ है कि उन ग्रंथों से अलंकार्ों का यथा्थे स्वरूप समझने में बढ़ी कठि- नता उपस्थित होती है । अवश्य द्वी कुछ प्राचीन प्रंथों पर टीकाएँ उपलब्ध हैं; पर उन टीहार्थो ने मूछ को और भी जटिल बना दिया है । किसरी-किसी अंथ के टीकाकार ने तो बढ़ा ही दुःसाहस किया है, यहाँ तक कि साहित्य-विषय से स्वयं अनमिज्ञ होकर भी टीछा लिखने की अन- घिकार चेष्टा की है। खेद है कि ऐसे ग्रंथों से लाभ के स्थान पर पाठकों को द्वानि हो रद्दी है। अस्तु ।
श्र्वांचीन ग्रंथ जो वतंमान लेखकों के छिखे हुए हैं, उनके विष्य में भी विवशतया यह्दी कददना पड़ता है कि, वे पंथ भी प्रायः अनधि- कारियों द्वारा ही लिखे गए और लिखे जा रहे हैं। कुछ ग्रंथों की भालो- चनाएँ इस क्षुद्र लेखक ने की हैं, जिनके द्वारा ज्ञात हो सकता है कि हिंदी-पघाहित्य में वतंमान लेखकों द्वारा अलंकार-विषय की किस प्रकार शोचनीय छीछालेदर द्वो रही है। छिंतु बढ़े हं का विषय है कि उपयुक्त अवस्था के ठीक विपरीत हमारे मरुस्थलीय रतननगर के देदीप्यमान उज्बछ रत्न कविवर सेठ अजुनदासजी क्रेडिया ने 'भारती-भूषण” की स्व-रचना प्रकाशित की है। 'भारती-भूषण' वस्तुत: भारतो-म्रूषण है। इसमें अलकारों के लक्षण वातिक में देकर और पशद्चाश्मक उदाहरणों का लक्षण से समन्वय गद्य में लिखकर विषय को भच्छी प्रकार समझा दिया है। उदाहरण रूप में जो ग्रंथकर्ता की रमणीय कविता दी गई है, उसे पढ़कर सचमुच तत्काल राजपूताने के प्रसिद्ध मद्दाकवि मिश्रण सूर्यमलनी और स्वामी गणेशपुरीजी आदि की परिमा्जित कविता का स्मरण दो आता है । बढ़ा दी अपूर्व आनंद प्राप्त द्ोता है। वस्तुतः आपकी कविता बड़ी उद्ध श्रेणी की है। हाँ, इस अंथ के विषय में मी यह कहना कि यह स्था निर्दोष है, केवऊ पक्षपात समझा जायगा । वात यह है कि साहित्य-विषय
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बढ़ा गहन है | ए« दूसरे भाचार्यों के विभिन्न मतों के विवादों से ध्याप्त है| संभव है कि आलोचकों को इसमें भी कुछ दोष प्रतोत हों; पर जहाँ तक हम ध्यान देते हैं इसक्की रचना-शेली, काव्य-माघुये एवं विषय- विवेचना स्तुत्य भौर प्रणेता के साहित्य-विषयक ज्ञान के परिचायक हैं। भाज्षा है यह ग्रंथ हिंदी-साहित्य-संसार में उपादेय समझा जायगा।
मथुरा वैशाख कृष्णा १२, खं० १६८७ |; कन्हैयाछाल पोद्दार।
(१० ) सिद्धहस्त समालोचक पं० पद्मसिंह शर्मा, भूतपूर्व सभापति हिंदी-साहित्य-सम्मेलन का पत्र-- प्रिय केडियाजी, पुस्तक मुप्ते भच्छी मालूम हुईं, परिश्रम और पांडित्य से लिखी गईं है । निस्संदेह हिंदी में वतमान समय में भलंकार-विषय पर जितनी पुस्तक अवतक निकली हैं, यह उन सबसे भच्छी है। मुझे भाश्ा है इसका यथेष्ट प्रचार और भादर होगा । इसके लिये हिंदी-साहित्य भापका ऋणी रहेगा। 'भारती-भूषण' पढ़कर मुझ्ते वढ़ी प्रसन्नता हुईं । काव्यकुटीर भवदीय-- नायकनगछा, चाँदपुर (बिजनौर) | पतालिई ता० २१ मई्दे, १६३० पद्मसिद् शर्मा । ५ (११) साहित्याचाय लाला भगवानदीन दीन लेक्चरर हिंदू-विश्वविद्यालय, एवं संस्थापक हिंदी-साहित्य-विद्या- लय काशी की सम्मति-- श्रीयुत सेठ भर्जुनदासली केडिया-कृत “मारतो-भूषय” नामक अलं- कार-प्रंथ मैंने मनोनिवेश-पू्वंक पढ़ा। प्रंथ मुझे बहुत अच्छा जैंचा |
[ छन्श ]
लेखन-रेली से सेठनी की कुशलता स्पष्ट प्रकट है। गद्यमय परिभाषाएँ बहुत सोच-विचारकर लिखी गई हैं। उदाहरण देकर विवृत्ति-सह्दित चरिभाषा के मर्म से मिलान दर्शाया गया है। उदाहरण प्राचीन तथा अर्घांचीन कवियों के भी हैं और स्वयं सेठजी-कृत भी हैं। प्रसिद्ध और प्रामाणिक संस्कृत-प्रंथों से प्री सहायता ली गईं है, जिससे प्रामाणि- कता में संदेद्द नहीं रह जाता ।
सेठजी ने जिस प्रकार तन, मन और घन तथा अपना भजन का अमूल्य समय लगाकर इस ग्रंथ फो तैयार छिया है, वेसी द्वी सुंदर सफलता भी उन्हें प्राप्त हुई है । यह ग्रंथ मुझे तो वततमान समय में अचलित ग्रंथों से भच्छा ह्टी जैंचता है। मैं भाशा करता हूँ कि हिंदी- प्रेमी इसे अपनावेंगे । कालेजों के विद्यार्थीगण इस पुस्तक से अच्छा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं ।
इस कृद्धायस्था में भी सेठजी हिंदी-साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं, इस द्वेतु मैं उन्हें अनेक धन्यवाद देता हूँ ।
005६ है ३६३ का | भगवानदीन ( दीन ) ।
(१२) हास्यरसावतार पं० जगन्नायप्रसाद चतुर्वेदी, भूतपूर्व सभापति हिंदी-साहित्य-सम्मेलन की सम्मति-- धीकानेर-र॒ट्ननगर के रतन, केडिया-कुल-छलाधर श्रीयुत सेठ भज्जुन- दासजी केडिया-कृत 'भारती-भूषण” पुस्तक देखकर परम अ्रसन्नता हुई | ऐसे समय में जब प्राचीन काव्यालंकार-शास्त्रों पर कुठाराघात हो रहा हो क्ंडियाजी का कमर कस मेंदान में भाना सत्साइस का काम है। इसमें
अक्वंकारों का सघोदाहरण विशद वर्णन है। आवदयकतानुसार यथा-स्थान टीका टिप्पणियाँ भी बड़े सार्के की हैं । भाषा ऐसी सरऊलू है कि सबको
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समझ में भा सकती है | प्रतिभापूणं विवेचन उनकी विद्वत्ता तथा गंभीर अध्ययन का परिचायक है। वास्तव में केडियाली ने हिंदी-साहित्य के प् बड़े भारी भमाव को प्रशंघनीय पूर्ति की है। यह विद्यार्थियों के ढामेर वस्तु तथा पाठथ पुस्तक होने के योग्य है। ऐसी अच्छी भौर उपर पुस्तक कप के लिये कंडियाजी को बधाई है । , रा चतुवबेद, बैशाख शक सु १६८७ | जगन्नाथप्रसाद * १३) कविवर पं० रामनरेश त्रिपाठी की सम्पति-- मैंने यह पुस्तक ध्यान से पढ़ी है। यह पुस्तक भ्रद्वोंकार-णास््र का भर्गंकार है । हिंदी में अबतक जितनी पुस्तक इस विषय की निकली २ मैं उन सबसे इसे भ्रधिक पूर्ण और उपयोगी मानता हूँ । हिंदी में ८ कहीं भलंकार-शास्त्र की शिक्षा दी जाती हो, सत्र इस पुस्तक को £ योग में छाने की सस्मति मैं देता हूँ । इससे विद्यार्थियों को बढ़ा ६ पहुँचेगा । भीसेठ भर्जुनदासजी केडिया ने ऐसी सर्वाग-सुंदर पुस्तक ढ़ि कर हिंदी-साहित्य की बहुत बड़ी सेवा की है। इसमें अलंकारों के डदाहरण दिए गए हैं वे बहुत ही सच्चे, सुरुचिपूणे भौर सरल हैं। उन६ ./ जो व्याय्याएँ हैं, उनसे अल कारों के समझने में बड़ी ही सहायता है फुटनोट और सूचनाओं में सेठनी ने ऐसी बहुत सी नवीन बातें छिखकर पुस्तक की उपयोगिता और बढ़ा दी है, जो हिंदी के अन्य अल कार-म्रंथों 4 नहीं मिलती । इनसे लेखक के अलूकार-विषयक प्रचुर ज्ञान का प्र तो मिछता ही है; साथ ही पुस्तक के पाठकों को कितनी ही नई ज्ञानने को मिस जाती हैं । ऐसी उपयोगी पुस्तक लिखने के छिये में से को बचाई देता हूँ
हिद्दी-मंदिर, प्रयाग ६० जम, १६३० |
रामनरेश
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« सेका-- पु... कक्ति |: श्र ) चक्तव्य--- डर ५७ ४७५ ५९ रो १६ “हल ग्रंथ-- -्श१५ २३ ७ श्७ -््ह९ ७ ॥78० १ 9४8० छ ॥। ४० ५६ ४2१०... २२ म१्१र डे 7११8४ ५ श्१८ १५ ११९५ १६ ११९५ २० १३० श्८ १४४७ १९ १४६ भर
शुद्धि-पत्र
अशुद्ध दृष्ठगत
अथलंकार तीन आवश्यतानुसार
वृत्तांत निबारे हो तिहदै बीप्सा बीप्सा बीप्सा म्र्म फलानी पंथी निवृत्त मिलि मनुष्यों पाट-सुधाधर जानें गया ।
शुद्ध दृष्टिगत
अथौलंकार चार आवश्यकतानुसार
छंद, वृत्तांत निवारे द्वोति है चीप्सा वीप्सा वीप्सा
अ्रम फनाली पंथी ! निवारण मसग
मगों
पाट सुघाधर जा
गया है ।
१५१ श्५४ २०२ २२१ २२५ २३८ २३८ २४५ २४५९ २५१ २५४ र६२ २६३ २७३ ३०२ ३११ ३१२ ३२४ ३४६
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भञ्ुद घा-कन
अर्थों के द्र्व्या
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धरम मोह उन्तका सक्षात् जंसवंत संसग
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आधार को मरम बूंद धर्म मोहि उनको साक्षात् जसवंत जहाँ संस्ग सुचि भाषिक व्युत्पत्ति